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जिंदगी
कितनी मुश्किल हो जाती है
जिंदगी
कितनी भारी हो जाती है
जब तुम सब कुछ हाथों में
पकड कर रखो...
जकड कर रखो...
इसलिए ,
खोल दो मुट्ठियों को
खोल दो ग्रंथियों को
सब कुछ निकल जाने दो
सब कुछ बिछल जाने दो
फूंक-फूंक कर उडा दो
थूक-थूक कर बहा दो
कूडा-करकट ,
गर्दा-वर्दा
फिर
मैल न जमने पाए
फिर
हाथ न फैलने पाए
कि तुम
लौट आओ अपने में
कि तुम
सिमट जाओ सपने में
अब तुम कसो मुट्ठियों को
सिर्फ कर्म करने के लिए
क्योंकि
सिर्फ करने पर
होगा तुम्हारा अख्तियार
....और
वही होगा
तुम्हारा पुरस्कार.......
***
मैं अपने आंसू नहीं गिराना चाहूंगी
मैं अपने आंसू नहीं गिराना चाहूंगी
दहकते कोयलों पर
मैं अपने आंसू नहीं चुआना चाहूंगी
बुझी राख पर
तुम अपनी हथेलियां सरका देना
मैं अपने आंसू ढरका दूंगी
फिर तुम अहसास करना
अपनी हथेलियों पर एक बूंद का
जिसमें समाया है खारा पानी
जो वेगवान है महासमुद्र से भी ज्यादा
तुम अपनी हथेलियों पर सहेजना
इस बूंद को...
जिसमें समाया है एक पिंड
जिसमें समा जाना है एक दिन
इस ब्रह्मांड को
इस कायनात को...
इस अहसास को तुम महसूस करो
इस पिंड में समाए हो तुम
और मैं भी....
फिर यह पिंड समा जाएगा
उस पिंड में जहा....
न यह ब्रह्मांड बचेगा
न यह कायनात रहेगी कायम
जहां खो जाएंगे अर्थ....
‘मैं’ और ‘तुम’ के
...तो पिंड होने से पहले
अहसास कर लो अपने होने का
अहसास कर लो मुझे जीने का
इसीलिए यह जो बूंद है तुह्मारी हथेली पर
इसे तुम छुओं अपनी ऊंगली से
तुम्हारी आंच से कहीं
उड न जाए भाप बनकर
उससे पहले इसे लगा लो
अपनी आंखों में
गंगाजल की बूंद की तरह
जहां सद्गति पा जाएं
मेरे सारे भाव...
तर जाएं मेरी शापित इच्छाएं
फिर मैं कहलाऊं मोक्षदा
***
सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteसुमन जी की ‘...आँसू..’ शीर्षक रचना बहुत पसंद आयी।
ReplyDeleteउन्हें हार्दिक बधाई!
लौट आओ अपने में
ReplyDeleteकि तुम
सिमट जाओ सपने में
अब तुम कसो मुट्ठियों को
सिर्फ कर्म करने के लिए
* * * * *
दोनों रचनाएँ लाजवाब !
dono rachnaen sundar hain..
ReplyDeleteजिन्दगी आसान कब रही है। लेकिन इसी तरह जीने का नाम जिन्दगी है।
ReplyDeleteदोनों रचनाएँ सुन्दर....हार्दिक बधाई
ReplyDeleteसुमन जी, दोनों रचनाएं दिल को छूने वाली हैं.
ReplyDeleteताजगी का अहसास कराती बेहतरीन कविताएँ!
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन रचनाएँ...
ReplyDeleteसुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!
-समीर लाल 'समीर'
अर्थपूर्ण रचनाएँ
ReplyDeleteसुमन की कविताओं में मानवीय रिश्तों की अहमियत को बहुत खूबसूरत शब्दों में व्यक्त किया गया है। दो प्राणियों के रिश्ते में जो व्याकता है, उसे भी बहुत सटीक शब्दों बांधने का प्रयत्न किया गया है। इन अच्छी कविताओं के लिए बधाई।
ReplyDeleteदोनों ही कविताएं आत्मीय रिश्तों की गहराई को समझने का आग्रह लेकर सामने आती हैं और इस बंधन के भीतर जो खुलापन और समर्पण अपेक्षित है, उसे बहुत सघन आवेग के साथ अनुभव करने पर बल देती है। एक स्त्री के आंसू या किसी भी इन्सान के आंसू का क्या महत्व है, इस कवयित्री सुमन के इन शब्दों में बखूबी समझा जा सकता है - "इस बूंद को.../जिसमें समाया है एक पिंड /जिसमें समा जाना है एक दिन /इस ब्रह्मांड को /इस कायनात को.../इस अहसास को तुम महसूस करो /इस पिंड में समाए हो तुम /और मैं भी...." यानी ये आंसू महज आंख से निकल आया साधारण जल नहीं हैं, इनके भीतर जो पीड़ा और अन्तरंगता छुपी है, उसी को बचाकर ही हम जीवन को बचा सकते हैं। मानवीय रिश्तों पर दोनों अच्छी कविताएं हैं। बधाई।
ReplyDeleteदोनों ही कविताएं आत्मीय रिश्तों की गहराई को समझने का आग्रह लेकर सामने आती हैं और इस बंधन के भीतर जो खुलापन और समर्पण अपेक्षित है, उसे बहुत सघन आवेग के साथ अनुभव करने पर बल देती है। एक स्त्री के आंसू या किसी भी इन्सान के आंसू का क्या महत्व है, इस कवयित्री सुमन के इन शब्दों में बखूबी समझा जा सकता है - "इस बूंद को.../जिसमें समाया है एक पिंड /जिसमें समा जाना है एक दिन /इस ब्रह्मांड को /इस कायनात को.../इस अहसास को तुम महसूस करो /इस पिंड में समाए हो तुम /और मैं भी...." यानी ये आंसू महज आंख से निकल आया साधारण जल नहीं हैं, इनके भीतर जो पीड़ा और अन्तरंगता छुपी है, उसी को बचाकर ही हम जीवन को बचा सकते हैं। मानवीय रिश्तों पर दोनों अच्छी कविताएं हैं। बधाई।
ReplyDeleteदोनों ही कविताएं आत्मीय रिश्तों की गहराई को समझने का आग्रह लेकर सामने आती हैं और इस बंधन के भीतर जो खुलापन और समर्पण अपेक्षित है, उसे बहुत सघन आवेग के साथ अनुभव करने पर बल देती है। एक स्त्री के आंसू या किसी भी इन्सान के आंसू का क्या महत्व है, इस कवयित्री सुमन के इन शब्दों में बखूबी समझा जा सकता है - "इस बूंद को.../जिसमें समाया है एक पिंड /जिसमें समा जाना है एक दिन /इस ब्रह्मांड को /इस कायनात को.../इस अहसास को तुम महसूस करो /इस पिंड में समाए हो तुम /और मैं भी...." यानी ये आंसू महज आंख से निकल आया साधारण जल नहीं हैं, इनके भीतर जो पीड़ा और अन्तरंगता छुपी है, उसी को बचाकर ही हम जीवन को बचा सकते हैं। मानवीय रिश्तों पर दोनों अच्छी कविताएं हैं। बधाई।
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