Archive for 2011

सांवर दइया की कविताएं

                  

सांवर दइया
जब देखता हूं

जब देखता हूं
धरती को
इसी तरह रौंदी-कुचली
देखता हूँ
जव देखता हूँ आकाश को
इसी तरह अकड़े-ऎंठे
देखता हूँ
अब मैं
किस-किस से कहता फिरूँ
अपना दुख -
यह धरती : मेरी माँ !
यह आकाश : मेरा पिता !
***
बीजूका : एक अनुभूति

सिर नहीं
है सिर की जगह
औंधी रखी हंडिया
देह -
लाठी का टुकड़ा
हाथों की जगह पतले डंडे

वस्त्र नहीं है ख़ाकी
फिर भी
क्या मजाल किसी की
एक पत्ता भी चर ले कोई
तुम्हारे होते !
***

उल्टे हुए पड़े को देख कर

मेरी जड़ें
ज़मीन में कितनी गहरी हैं
यह सोचने वाला पेड़
आँधी के थपेड़ों से
उलट गया ज़मीन पर
कितने दिन रहेगा
तना हुआ मेरा पेड़-रूपी बदन ?

रोज़ चलती है
यहाँ अभावों की आँधी
धीरे-धीरे काटता है
जड़ों को जीवन

अब
यह गर्व फिजूल
मेरी जड़ें
ज़मीन में कितनी गहरी हैं ?
***

हत्भाग्य

गूंगा गुड़ के गीत गा रहा है
बहरा सराह रहा है
सजी सभा में
पंगुल पाँव सहला कर बोला -
मैं नाचूँगा ।

अँधा आगे आया
कड़क कर बोला -
तुमने ठेका ले रक्खा है
मुझे भी तो देखने दो !

कलाकार !
लो, सँभालो तुम्हारी क़लम !
***

छल

लोग कहते हैं
तू जिन्हें दाँत देता है
उन्हें चने नहीं देता
और जिन्हें चने देता है -
उन्हें दाँत !

पर मुझे तो तूने
दोनों ही दिए, दाँत और चने ।
दीगर है यह बात
कि इन दाँतों से
ये चने चबाए नहीं जाते ।
***
सूरज : चार चित्र

एक
पूरब : सागर अथाह
सूरज खेने वाला
भगा आता है ले कर
दिन-नाव ।

दो
रात : जुल्मों की राजधानी
अंधेरा : गुंडा
अकेला सूरज
जूझता है, जीतता है
मनाता है जीत उत्सव
पूरब किले खड़ा हो
उडाता है - सिंदूरी गुलाल ।

तीन
पूरब में सिंदूरी उजाला
जैसे जवान होती लड़की के
चेहरे पर आती रौनक

सिंदूरी सूरज
जैसे अभी-अभी बनवाया हो
सोने का नया टीका
भोर लड़की जवान होगी तब
काम आएगा

वह सोचती है-
कुदरत मां ।

चार
पूरब-चौक
खेले भोर-लड़की
सूरज गेंद ।
***

अनुवाद : नीरज दइया
नीरज दइया

सांवर दइया (10 अक्तूबर, 1948 - 30 जुलाई, 1992) कवि, कथाकार और व्यंग्य लेखक की हिंदी में “दर्द के दस्तावेज” (1978 ग़ज़ल संग्रह), “उस दुनिया की सैर के बाद” (1995 कविता-संग्रह), एक दुनिया मेरी भी (कहानी संग्रह) तथा राजस्थानी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई- प्रमुख कविता संग्रह है- मनगत, आखर री औकात, हुवै रंग हजार, आ सदी मिजळी मरै आदि । साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत।

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डॉ. वर्तिका नन्दा की कविता- औरत

                    औरत

 












सड़क किनारे खड़ी औरत
कभी अकेले नहीं होती
उसका साया होती है मजबूरी
आंचल के दुख
मन में छिपे बहुत से रहस्य

औरत अकेली होकर भी
कहीं अकेली नहीं होती

सींचे हुए परिवार की यादें
सूखे बहुत से पत्ते
छीने गए सुख
छीली गई आत्मा

सब कुछ होता है
ठगी गई औरत के साथ

औरत के पास
अपने बहुत से सच होते हैं
उसके नमक होते शुरीर में घुले हुए

किसी से संवाद नहीं होता
समय के आगे थकी इस औरत का

सहारे की तलाश में
मरूस्थल में मटकी लिए चलती यह औरत
सांस भी डर कर लेती है
फिर भी

जरूरत के तमाम पलों में
अपनी होती है
***

डॉ. वर्तिका नन्दा एक मीडिया यात्री हैं। मीडिया अध्यापन, मीडिया प्रयोग और प्रशिक्षण इनके पसंदीदा क्षेत्र हैं। इस समय वर्तिका दिल्ली विश्व विद्यालय की स्थाई सदस्य हैं। इससे पहले वे 2003 में इंडियन इंस्टीट्यूट आफॅ मास कम्यूनिकेशन, नई दिल्ली में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर( टेलीविजन पत्रकारिता) चयनित हुईं और यहां तीन साल तक अध्यापन किया। इन्होंने पीएचडी बलात्कार और प्रिंट मीडिया की रिपोर्टिंग को लेकर किए गए अपने शोध पर हासिल की है।
इन्होंने अपनी मीडिया प्रयोग की शुरूआत 10 साल की उम्र से की और जालंधर दूरदर्शन की सबसे कम उम्र की एंकर बनीं। लेकिन टेलीविजन के साथ पूर्णकालिक जुड़ाव 1994 से हुआ। इन्होंने अपने करियर की शुरूआत जी टीवी से की, फिर करीब 7 साल तक एनडीटीवी से जुड़ी रहीं और वहां अपराध बीट की हेड बनीं। तीन साल तक भारतीय जनसंचार संस्थान में अध्यापन करने के बाद ये लोकसभा टीवी के साथ बतौर एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर जुड़ गईं। चैनल के गठन में इनकी एक निर्णायक भूमिका रही। यहां पर वे प्रशासनिक और प्रोडक्शन की जिम्मेदारियों के अलावा संसद से सड़क तक जैसे कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को एंकर भी करती रहीं।
इसके बाद वर्तिका सहारा इंडिया मीडिया में बतौर प्रोग्रामिंग हेड नियुक्त हुईं और सहारा के तमाम न्यूज चैनलों की प्रोग्रामिंग की जिम्मेदारी निभाती रहीं।
इस दौरान इन्हें प्रिंट मीडिया के साथ भी सक्रिय तौर से जुड़ने का मौका मिला और वे मासिक पत्रिका सब लोग के साथ संयुक्त संपादक के तौर पर भी जुड़ीं। इस समय वे त्रैमासिक मीडिया पत्रिका कम्यूनिकेशन टुडे के साथ एसोसिएट एडिटर के रूप में सक्रिय हैं।
प्रशिक्षक के तौर पर इन्होंने 2004 में लाल बहादुर शास्त्री अकादमी में प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए पहली बार मीडिया ट्रेनिंग का आयोजन किया। इसी साल भारतीय जनसंचार संस्थान, ढेंकानाल में वरिष्ठ रेल अधिकारियों के लिए आपात स्थितियों में मीडिया हैंडलिंग पर एक विशेष ट्रेनिंग आयोजित की। इसके अलावा टीवी के स्ट्रिंगरों और नए पत्रकारो के लिए दिल्ली, जयपुर, भोपाल, रांची, नैनीताल और पटना में कई वर्कशॉप आयोजित कीं। आईआईएमसी, जामिया, एशियन स्कूल ऑफ जर्नलिज्म वगैरह में पत्रकारिता में दाखिला लेने के इच्छुक छात्रों के लिए आयोजित इनकी वर्कशॉप काफी लोकप्रिय हो रही हैं।
2007 में इनकी किताब लिखी- 'टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता' को भारतेंदु हरिश्चंद्र अवार्ड मिला। यह पुरस्कार पत्रकारिता में हिंदी लेखन के लिए भारत का सूचना और प्रसारण मंत्रालय देता है। इसके अलावा 2007 में ही वर्तिका को सुधा पत्रकारिता सम्मान भी दिया गया। चर्चित किताब - 'मेकिंग न्यूज' (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित ) में भी वर्तिका ने अपराध पर ही एक अध्याय लिखा है।
2009 में वर्तिका और उदय सहाय की किताब मीडिया और जन संवाद प्रकाशित हुई। इसे सामयिक प्रकाशन ने छापा है। यह वर्तिका की तीसरी किताब है। 1989 में वर्तिका की पहली किताब (कविता संग्रह) मधुर दस्तक का प्रकाशन हुआ था।
बतौर मीडिया यात्री इन्हें 2007 में जर्मनी और 2008 में बैल्जियम जाने का भी अवसर मिला। 2008 में इन्होंने कॉमनवैल्थ ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन के चेंज मैनेजमेंट कोर्स को भी पूरा किया।
इन दिनों वे मीडिया पर ही दो किताबों पर काम कर रही हैं। हिंदुस्तान, जनसत्ता, प्रभात खबर आदि में मीडिया पर कॉलम लिखने के अलावा ये कविताएं भी आम तौर पर मीडिया पर ही लिखना पसंद करती हैं।
वर्तिका की रूचि मीडिया ट्रेनिंग में रही है। वे उन सब के लिए मीडिया वर्कशाप्स आयोजित करती रही हैं जो मीडिया को करीब से जानना-समझना चाहते हैं।

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विजेंद्र की कविताएँ



विजेन्द्र
 श्री विजेन्द्र निराला की काव्य परम्परा के प्रतिनिधि कवि हैं होने के साथ ही साथ एक प्रतिष्ठित चित्रकार भी हैं। विजेन्द्र जी चित्रकला को कविता का पूरक मानते हैं। यही कारण है कि उनके काव्य सृजन के भाव उनकी कृतियों में लय होते नजर आते हैं।
उनके काव्य-चित्र संग्रह 'आधी रात के रंग' में उनकी कविताओं के साथ उनके चित्रों का अनुपम तथा अद्वितीय संगम है। इसी संग्रह से आज आपके समक्ष प्रस्तुत है कुछ कविताएँ इसी आशा के साथ कि आप उनके तूलिका और कलम के समवेत भावों के अद्वितीय एवं मधुर मधुर प्रयोग का आस्वादन कर आनंदित होंगे...


१. कवि

मेरे लिए कविता रचने का
कोई खास क्षण नहीं।
मैं कोई गौरय्या नहीं
जो सूर्योदय और सूर्यास्त पर
घौंसले के लिए
चहचहाना शुरू कर दूँ।

समय ही ऐसा है
कि मैं जीवन की लय बदलूँ-
छंद और रूपक भी
एक मुक्त संवाद-
आत्मीय क्षणों में कविता ही है
जहाँ मैं-
तुम से कुछ छिपाऊं नहीं।
सुन्दर चीज़ों को अमरता प्राप्त हो
यही मेरी कामना है
जबकि मनुष्य उच्च लक्ष्य के लिए
प्रेरित रहें!
हर बार मुझे तो खोना ही खोना है
क्योंकि कविता को जीवित रखना
कोई आसान काम नहीं
सिवाय जीवन तप के।

जो कुछ कविता में छूटता है
मैंने चाहा कि उसे
रंग, बुनावट, रेखाओं और दृश्य बिंबों में
रच सकूँ।

धरती उर्वर है
हवा उसकी गंध को धारण कर
मेरे लिए वरदार!

गाओ, गाओ-ओ कवि ऐसा,
जिससे टूटे और निराश लोग
जीवन को जीने योग्य समझें।

हृदय से उमड़े हुए शब्द
आत्मा का उजास कहते हैं।
***

२. शिखर की ओर


जब भी मैंने देखा
शिखर की ओर
तुमने त्यौंरियाँ बदलीं
जब मैं चढ़ा
तुम ने चट्टानों के खण्ड
मेरी तरफ ढकेले।
कई बार मैं गिरा
और पीछे हटा
कई बार टूटा और रोया
कई बार फिर प्रयत्न किए
कि चट्टानी लहरों का
कर सकूँ सामना।
समय हर क्षण-
मेरी परीक्षा लेता रहा।
मेरे पंख कहाँ
जो आकाश में उडूँ
ऊबड-खाबड
पृथ्वी चल कर ही
चढूँगा पहाड़ और मँगरियाँ
ओ दैत्य-
हर बार तू मुझे
धकेलेगा नीचे
जीवन ही है सतत् चढना-
और मेरे जीवन में
कभी नहीं हो सकती
अंतिम चढ़ाई।
***

३. क्रौंच मिथुन
 


ओ, क्रौंच मिथुन
तुम कभी नहीं बिछुड़ते-
एक दूसरे से-
कभी दूर नही होते।
मैंने देखा अक्सर तुम्हें-
धान के भरे खेतों में
या दलदली
ज़मीन में
अपने आहार और आनंद के लिए
तुम्हें शान्त विचरते देखा है।
तुम्हारे जैसा प्रेम
यदि मनुष्यों के बीच
भी होता-
तो यह धरती
इतनी दुःखी और दुष्ट
न होती।
जब तुम उड़ते हो लयबद्ध
मंद-मंद
आकाशीय पंख फैलाए
तब मैंने तुम्हारी आवाज़ में
तूर्यनाद जैसी
मेघ गर्जन की ध्वनियाँ सुनी हैं।
प्रजनन क्षणों में
तुम आत्मविभोर होके
नृत्य करते हो
जैसे विराट प्रकृति का
अभिवादन कर रहे हो-
एक-दूसरे को मोहित करने के लिए।
तुम दिव्य किलोलें करते हो।
सरकण्डों और घास के
खेतों के बीच
तुम अपना नीड़
बुनते हो।
हिंस्र पशुओं से अपने शिशुओं की
रक्षा करते को
उनसे लड़ते हो...
ओ क्रौंच मिथुन
तुम वाल्मीकि की कविता में
अमर हो।
***


नोट- समस्त चित्र स्वयं विजेंद्र जी द्वारा उकेरे गए हैं.

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सतीश छिम्पा की कविताएँ

समकालीन कवि सतीश छिम्पा के काव्य संसार में प्रेमानुभूति की गहराइयाँ हैं और इन गहराइयों में डूबी प्रेम की कथा लहर दर लहर उठकर अथाह से अनंत तक का सफ़र करती हुई अनकहे, अनछुवे और अलौकिक प्रेम की कथा का अनंत सागर बन जाती हैं. मुलाहिजा फरमाईयेगा....

१. एक लडकी

एक लड़की
सो रही है मेरे भीतर
गहरी नींद में
रात तक के लिए |
वह-
उठ जाएगी
आधी रात को
मेरे भीतर
कुछ सपनों
कुछ यादों के साथ|
तब-
मैं सो जाऊँगा
और
लड़की पढ़ेगी
पाब्लो नेरुदा की कविताएँ
जो लिखी थीं उसने
हमारे लिए ही
चिली के पहाड़ों पर बैठकर |
यादें खेलेंगी आँगन में
और सपने
सो जायेंगे
ठन्डे पड़े
चूल्हे के पास |

२. इस अँधेरे में

रात गहरी है
खामोश |
तुम आओगी तो दिखाऊँगा तुम्हें
अँधेरे के
जादुई तमाशे |
तुम्हारे सुनहरे बालों में टांक दूंगा
रात का स्याहपन
और-
माथे को हल्के से चूम
उतार दूंगा
रात की ठंडी गहराईयों में
तुम्हारी देह की खुशबू से
भू-मंडल को
नहला दूंगा
घोल दूंगा तुम्हें
रात के इस अँधेरे में
अपनी देह के साथ |

३. बुल्लेशाह

सदियाँ गुज़र गईं
तब कहीं
आज उतारा धरती पर
बुल्लेशाह
टहला मेरे भीतर
गुनगुनाता काफीयाँ
रच दी
कुछ और नज़्में
मैं देखता एकटक
अपलक आभा !
आँखों में बस गया
आभे का विस्तार
संग रमता थार
प्यार
अपार !

४. प्रीत के शब्द

शब्द-
जहां थक जाते हैं
हारते हैं
एक
सन्नाटा !
निःशब्द
मैं पसर जाता चहुँदिश |

बातें-
फिर भी होतीं
आँखों की भाषा
प्रीत के शब्दों में |
***
सतीश छिम्पा
पुराना वार्ड न.३
त्रिमूर्ति के पीछ, सूरतगढ़ (राजस्थान)
दूरभाष- ०९८२९६-७६३२५ 

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डॉ. नंदकिशोर आचार्य की कविताएँ

१. जल के लिए

जितना भी जला दे

               सूरज

सुखा दे पवन

सूखी-फटी पपड़ियों में

         झलक आता है

धरती का प्यार

जल के लिए-

गहरे कहीं जज़्ब है जो।



२. मेरी अँधेरी रात

अँधेरा घना हो कितना

देख सकता हूँ मैं

           उसको

कभी अन्धा लेकिन कर देता है

                            सूरज

कभी पाँखें जला देता है

बेहतर है मेरी अँधेरी रात

न चाहे रोशनी दे वह

दीखती रहती है

आकाश में गहरे कहीं मेरे

वह तारिका मेरी।



३. सपना है धरती का

फूल सपना है

    धरती का

आकाश की ख़ातिर



निस्संग है आकाश पर

खिल आने से उस के

जो एक दिन झर जाएगा

                  चुपचाप



धरती सँजोयेगी उसे

मुर्झाये सपनों से ही अपने

ख़ुद को सजाती है वह

जिनमें बसा रहता है

उस का खिलना



सपनों के खिलने-मुर्झाने की

गाथा है धरती-

अपने आकाश की ख़ातिर।



४. हवा पर है

कभी वह फडफडाता है

झूमता है कभी-

फडफडाना-झूमना उस का

पर उस पर नहीं

-हवा पर है

झूमती है कभी

कभी जो फडफडाती है



हवा नहीं

पत्ता है लेकिन वह

-झर ही जाना है जिस को-

अपने झरने में भी लेकिन

हवा की मौज पर

लहराता, इतराता।



५. ख़ामोशी हो चाहे

शब्द को

लय कर लेती हुई

            ख़ुद में

ख़ामोशी क्या वही होती है

उस में जो खिल आती है



क्या हो जाता होगा

उस स्मृति का

शब्द के साथ जो

उस में घुल जाती है



तुम्हारा रचा शब्द हूँ

                  जब

और नियति मेरी

तुम्हारी लय हो जाना है-

ख़ामोशी हो चाहे

स्मृति मेरी

घुल रही है तुम में।

***
सन्दर्भ- केवल एक पत्ती ने- जितना दीखता है खिला

(वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर)

श्री नन्‍दकिशोर आचार्य का जन्‍म 31 अगस्‍त, 1945 को बीकानेर में जन्‍मे अनेक विधाओं में सृजनशील श्री आचार्य को मीरा पुरस्‍कार, बिहारी पुरस्‍कार, भुवलेश्‍वर पुरस्‍कार, राजस्‍थान संगीत नाटक अकादमी एवं भुवालका जनकल्‍याण ट्रस्ट द्वारा सम्‍मानित किया गया है। महात्‍मा गाँधी अंतर्राष्ट्री हिन्‍दी विश्वविद्याल, वर्धा के संस्कृति विद्यापीठ में अतिथि लेखक रहे हैं ।
अज्ञेय जी द्वारा सम्‍पादित चौथा सप्‍तक के कवि नन्‍दकिशोर आचार्य के जल है जहां, शब्‍द भूले हुए, वह एक समुद्र था, आती है जैसे मृत्यु, कविता में नहीं है जो, रेत राग तथा अन्‍य होते हुए काव्‍य-संग्रह प्रकाशित हैं । रचना का सच, सर्जक का मन,अनुभव का भव, अज्ञेय की काव्‍य-तिर्तीर्ष, साहित्‍य का स्‍वभाव तथा साहित्‍य का अध्‍यात्‍म जैसी साहित्‍यालोचना की कृतियों के साथ-साथ आचार्य देहान्‍तर, पागलघर और गुलाम बादशाह जैस नाट्य-संग्रहों के लिये भी चर्चित रहे हैं । जापानी जेन कवि रियोकान के काव्‍यानुवाद सुनते हुए बारिश के अतिरिक्‍त आचार्य ने जोसेफ ब्रॉदस्‍की, ब्‍लादिमिर होलन, लोर्का तथा आधुनिक अरबी कविताओं का भी हिन्‍दी रूपान्‍तरण किया है । एम.एन. राय के न्‍यू ह्यूमनिज्म (नवमानवाद) तथा साइंस एण्‍ड फिलासफि (विज्ञान और दर्शन) का भी हिन्‍दी अनुवाद उन्‍होंने किया है ।
रचनात्‍मक लेखन के साथ-साथ्‍ा नन्‍दकिशोर आचार्य को अपने चिन्‍तनात्‍मक ग्रन्‍थों के लिए भी जाना जाता है । कल्‍चरल पॉलिटी ऑफ हिन्‍दूज और दि पॉलिटी इन शुक्रिनीतिसार (शोध), संस्कृति का व्‍याकरण, परम्‍परा और परिवर्तन(समाज- दर्शन), आधुनिक विचार और शिक्षा (शिक्ष-दर्शन), मानवाधिकार के तकाजे, संस्कृति की सामाजिकी तथा सत्‍याग्रह की संस्कृति के साथ गाँधी-चिन्‍तन पर केन्द्रित उन की पुस्‍तक सभ्‍यता का विकल्‍प ने हिन्‍दी बौद्धिक जगत का विशेष ध्‍यान आकर्षित किया है ।

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सरोजिनी साहू का कहानी संग्रह "रेप तथा अन्य कहानियाँ" (दिनेश कुमार माली द्वारा हिंदी भाषा में अनूदित)- समीक्षा: अलका सैनी

समीक्षा 

दिनेश कुमार माली
जाने माने प्रकाशक "राज पाल एंड संज "द्वारा प्रकाशित पुस्तक "रेप तथा अन्य कहानियाँ "दिनेश कुमार माली द्वारा  हिंदी भाषा में अनूदित प्रसिद्द उड़िया लेखिका सरोजिनी साहू का कहानी संग्रह है . दिनेश जी के हिंदी अनुवाद की ख़ास बात ये है कि किसी भी कहानी को पढने पर ये नहीं लगता कि यह उड़िया भाषा से हिंदी में अनुवाद है बल्कि बिल्कुल मूल रचना जान पड़ती है . दिनेश जी एक पुरुष होने के बावजूद जिस तरह एक औरत के मनोभावों और भावनाओं को समझते हुए उसे जिस तरह पन्नों पर उकेरते है वो वाकिया में काबिले तारीफ़ है . उनकी इसी दक्षता को पहचानते हुए यह पुस्तक दिल्ली के जाने माने प्रकाशक ' राज पाल एंड संज'  ने हाथ में ली . मुझे यहाँ यह कहने में बिल्कुल गुरेज नहीं है कि उनकी कहानियों के इस भावना परिपूर्ण  अनुवाद को पढ़ते  हुए ही मैंने अपने अंतर्मन में झांकते  हुए अपनी खुद की कहानियाँ लिखने की भी प्रेरणा पाई . 
इस पुस्तक  में लेखिका ने एक औरत के मन के  भीतर गहराई में छुपी हुई विभिन्न भावनाओं और संवेदनाओं को  बहुत ही सरलता से अपनी कहानियों में अंकित किया है . औरत मन से अत्यंत ही संवेदनशील और भावुक होती है इसलिए एक ही परिस्थिति को वह किस तरह पुरुष की अपेक्षा सूक्ष्म निरीक्षण करती है यही उनकी कहानी बलात्कृता में दर्शाया गया है . औरत अपनी भावनाओं के कारण हर पक्ष के अत्यंत ही गोपनीय पहलुओं तक पहुँच जाती है . 


कहानी रेप जो कि पुस्तक का शीर्षक भी है में औरत के मन की दबी हुई भावनाएं किस तरह सपनों का रूप धारण कर लेती है जबकि सपने का पात्र कहीं भी वास्तविकता में औरत के मन से मेल नहीं खाता है . जिस बेबाकी से लेखिका ने इस कहानी को लिखा है उस हद तक शायद ही कोई पति अपनी पत्नी के इस तरह के सपने को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता हकीकत में तो दूर की बात है . हमारे समाज में अभी तक यही देखने में आता है कि पुरुष अपनी आजादी को हकीकत में भी जिस तरह भी इस्तेमाल करे परन्तु औरत के मन में आए किसी भाव को भी वह कबूल नहीं कर सकता . 
दुःख अपरिमित में एक छोटी लड़की में घर के माहौल में भेदभाव के वातावरण के कारण उसकी मन स्थिति इतनी विकृत हो जाती है कि वह हर समय डर के साए में रहती है इसलिए खुद को नई मुसीबत में घिरा पाती है .


कहानी चौखट में एक जवान लड़की के मन के भावो को दर्शाया गया है कि घर में बाप और भाइयों के रौब दार व्यवहार के घुटन भरे माहौल से छुटकारा पाने के लिए वह किस तरह से छटपटाती  है . इसी कशमकश में वह भविष्य की अनिश्चितता  को भी ना विचारते हुए एक लड़के के साथ  भाग कर प्रेम विवाह कर लेती  है उस समय उसे सिर्फ अपनी माँ की बेबसी का ध्यान आता है .


कहानी गैरेज में किस तरह एक औरत जो कि गृहणी है अपने घर के गैरेज को लेकर अपनी काम वाली के साथ मिलकर आए दिन तरह- तरह के सपने बुनती है . इस कहानी में लेखिका ने घर में रहने वाली औरतों के मन की भावो को दर्शाया है कि वह कुछ करना चाहते हुए भी कई बार कुछ नहीं कर पाती और इसी अधूरेपन में अंत तक विचरती रहती है .

अलका सैनी
इस तरह लेखिका के इस कहानी सग्रह की हर एक कहानी औरत के मन और उसकी भावनाओं के हर एक पहलु को उजागर करती है . औरत अलग- अलग  परिस्थितियों  में किस तरह इतनी गहराई में सोचती है इसको लेखिका ने बखूबी दर्शाया है . औरत जब नौकरी करती है तब किस- किस तरह के हालात उसे झेलने पड़ते है बच्चों और पति में वह किस तरह ताल मेल बिठाती है या फिर जब वो माँ बनने वाली होती है तो किस तरह की हालत को झेलती है . इस कहानी सग्रह में औरत के हर रूप माँ , बेटी , बहन , पत्नी बन कर किस तरह की परिस्थितियों  से गुजरना पड़ता है ये सब पढ़ने का मौका मिलता है. यहाँ तक कि लेखिका ने औरत के मन में प्रेम और सैक्स को लेकर छुपी हुई अधूरी भावनाओं और इच्छाओं को बहुत ही निडरता से लिखा है जो कि हर औरत के मन के किसी कोने में छुपी होती है परन्तु कई बार उसे घर की जिम्मेवारियां निभाते- निभाते खुद  भी अपनी भावनाओं के बारे में पता नहीं चल पाता . इस उड़िया भाषा के कहानी सग्रह को हमारी मातर   भाषा में इतनी खूबसूरती से हमारे समक्ष प्रस्तुत करने का सारा श्रेय दिनेश कुमार माली जी को जाता है जिससे भारत के ही नहीं अपितु पूरी दुनिया के भारतीय इसे पढ़ कर औरत की भावनाओं के करीब पहुँच सकते है . .

कहानी संग्रह: रेप तथा अन्य कहानियाँ
कहानीकार: सरोजिनी साहू
अनुवादक: दिनेश कुमार माली
प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली -11006
प्रथम संस्करण: 2011
ISBN: 978-81-7028-921-0
पृष्ठ संख्या: 175, पेपर बैक
मूल्य: एक सौ पचहत्तर रुपये

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अशोक आंद्रे की कविताएँ

साकार करने के लिए  

कविताएँ रास्ता ढूंढती हैं
पगडंडियों पर चलते हुए
तब पीछा करती हैं दो आँखें
उसकी देह पर कुछ निशान टटोलने के लिए.
एक गंध की पहचान बनाते हुए जाना कि
गांधारी बनना कितना असंभव होता है
यह तभी संभव हो पाता है
जब सौ पुत्रों की बलि देने के लिए
अपने आँचल को अपने ही पैरों से
रौंद सकने की ताकत को
अपनी छाती में दबा सके,

आँखें तो लगातार पीछा करती रहतीं हैं
अंधी आस्थाओं के अंबार भी तो पीछा कर रहे हैं
उसकी काली पट्टी के पीछे

रास्ता ढूंढती कविताओं को
उनके क़दमों की आहट भी तो सुनाई नहीं देती
मात्र वृक्षों के बीच से उठती
सरसराहट के मध्य आगत की ध्वनियों की टंकार
सूखे पत्तों के साथ खो जाती हैं अहर्निश
किसी अभूझ पहेली की तरह
और गांधारी ठगी-सी हिमालय की चोटी को

पट्टी के पीछे से निहारने की कोशिश करती है .

कविताएँ फिर भी रास्ता ढूंढती रहती हैं
साकार करने के लिए
उन सपनों को-
जिसे गांधारी पट्टी के पीछे
रूंधे गले में दबाए चलती रहती है.
********* 


बाबा तथा जंगल

परीकथाओं सा होता है जंगल
नारियल की तरह ठोस लेकिन अन्दर से मुलायम
तभी तो तपस्वी मौन व्रत लिए
उसके आगोश में निरंतर चिंतन मुद्रा में लीन रहते हैं
बाबा ऐसा कहा करते थे.
इधर पता नहीं वे, आकाश की किस गहराई को छूते रहते
और पैरों के नीचे दबे -
किस अज्ञात को देख कर मंद-मंद मुस्काते रहते थे
उन्ही पैरों के पास पडीं सूखी लकड़ियों को
अपने हाथों में लेकर सहलाते रहते थे.
मानो उनके करीब थकी हुई आत्माएं
उनकी आँखों में झांकती हुई कुछ
जंगली रहस्यों को सहलाती हुई निकल रही हैं.
फिर भी वे टटोलते रहते थे जीवन के रहस्य
उन्ही रहस्यों के बीच जहां उनके संघर्ष
समय के कंधे पर बैठ
निहारते थे कुछ अज्ञात.
उनके करीब पहाड़ फिर भी खामोश जंगल के मध्य
अनंत घूरता रहता था.
यह भी सच है कि जंगली कथाओं की परिकल्पनाओं से बेखबर
मंचित हो सकने वाले उनके जीवन के अध्याय
अपनी खामोशी तोड़ते रहते,
ताकि उनका बचपन-
उनके अन्दर उछल कूद करता
जंगल को उद्वेलित कर सके
ताकि वे अपने संघर्ष को नये रूप में परिवर्तित होते देख सकें --सिवाय अंत के .
*********

 
लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में श्री अशोक आंद्रे की रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं. आपने 'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और 'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया है. अब तक आपकी कुल छ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा आप National Academy award 2010 for Art and Literature from Academy of Bengali Poetry, kolkata से भी सम्मानित हुए हैं.

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प्रकृति का आँगन {ताँका }- डॉ. हरदीप कौर सन्धु

प्रकृति का आँगन {ताँका }

ताँका शब्द का अर्थ है लघुगीत | यह  जापानी काव्य की एक  पुरानी काव्य शैली है ।  हाइकु का उद्भव इसी काव्य शैली से हुआ माना जाता है  । इसकी संरचना 5+7+5+7+7=31वर्णों की होती है।  

 1.
लेते हैं जन्म
एक ही जगह पे
फूल  काँटे
एक सोहता सीस 
दूसरा दे चुभन
2.
लेकर फूल
तितलियों को गोद
रस पिलाता
वेध देता बेदर्द
भौरों का तन काँटा
3.
चंचल चाँद
खेले बादलों संग
आँख-मिचौली
मन्द-मन्द मुस्काए
बार-बार छुप जाए
4.
दूल्हा वसन्त
धरती ने पहना
फूल- गजरा
सज-धज निकली 
ज्यों दुल्हन की डोली 
5.
ओस की बून्द
मखमली घास पे 
मोती बिखरे 
पलकों से  चुनले
कहीं  गिर  न जाएँ !
6.
दुल्हन रात 
तारों कढ़ी चुनरी
ओढ़े यूँ बैठी 
मंद-मंद मुस्काए 
चाँद दूल्हा जो आए !
7.
बिखरा सोना
धरती का आँचल
स्वर्णिम हुआ
धानी -सी चूनर में
सजे हैं हीरे- मोती
8.
पतझड़ में
बिखरे सूखे पत्ते
चुर्चुर करें
ले ही आते सन्देश
बसंती पवन का
9.
पतझड़ में
बिन पत्तों के पेड़
खड़े उदास
मगर यूँ न छोड़ें
वे  बहारों की आस
10.
हुआ  प्रभात
सृष्टि ले अँगड़ाई
कली मुस्काई
प्रकृति छेड़े तान
करे प्रभु का गान
 **************
नाम डॉ. हरदीप कौर सन्धु

जन्म 17  मई 1969  को बरनाला (पंजाब) में।
शिक्षा : बी. एससी . बी.एड. एम.एस सी., (वनस्पति विज्ञान), एम. फ़िल., पी.एच.डी.
सम्प्रति :कई वर्ष पंजाब के एस. डी. कालेज में अध्यापन (बॉटनी लेक्चरार), अब सिडनी (आस्ट्रेलिया में)। 

कार्यक्षेत्र 

हिंदी व पंजाबी में नियमित लेखन। अनेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

हिन्दी की अंतर्जाल पत्रिका अनुभूति, रचनाकार  , पंजाब स्क्रीन, गवाक्ष एवं सहज साहित्य  में कविताएँ पुस्तक समीक्षा, कहानी ,हाइकु ,ताँका तथा चोका प्रकाशित |


पंजाबी की अंतर्जाल पत्रिका पंजाबी माँ , लफ्जों का पुल , लिखतम, शब्द सांझ, पंजाबी मिन्नी ,पंजाबी हाइकु, पंजाब स्क्रीन एवं साँझा पंजाब में कविता , कहानी , हाइकु तथा ताँका प्रकाशित |

वस्त्र-परिधान, विज्ञापन की दुनिया , अविराम त्रैमासिक आदि पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित , कुछ ऐसा हो  और चन्दनमन संग्रह में हाइकु प्रकाशित ।

वेब पर हिन्दी हाइकु नामक चिट्ठे का सम्पादन। इसके अतिरिक्त पंजाबी वेहडाशब्दों का उजाला,  और देस परदेस नाम से वे अन्य चिट्ठे लिखना |

उत्कृष्ट रुचियाँ :   

साहित्य के प्रति रुझान के साथ-साथ  रंग एवं चित्रकला से हरा लगाव ,रंगकला की अनेक विधाओं में तैल-चित्रण, सिलाई -कढ़ाई तथा  क्राफ्ट - कार्य आदि |

 विशेष उल्लेख :



'शब्द' आशीष स्वरूप मुझे विरासत में मिले |लेखन के प्रति झुकाव तथा बुनियादी साहित्य संस्कार मुझे अपने ननिहाल परिवार से मिला  शब्दों का सहारा  मिला होता तो मेरी रूह ने कब का दम तोड़ दिया होता |  इन शब्दों की दुनिया ने मुझे  कभी अपनों  से दूर होने का अहसास  नहीं होने दिया |  विदेश  में रहते हुए भी मुझे मेरा गाँव कभी दूर नहीं लगा | हर पल यह मेरे साथ ही होता है मेरे ख्यालों में | मैं हिन्दी व् पंजाबी दोनों भाषा में लिखती हूँ | लिखना कब शुरू किया ...अब याद नहीं ....हाँ इतना याद है    कि जब कभी  बचपन में लिखा ....माँ और पिता जी ने थपकी व्  शाबाशी दी जिसकी गूँज आज भी मेरे कानों में मिसरी घोलती है तथा लिखने की ताकत बनती है जब कभी दिल की गहराई से कुछ महसूस किया ....मन-आँगन में धीरे से उतरता चला गया | इन्हीं खामोश लम्हों को शब्दों की माला में पिरोकर जब पहना तो ये रूह के आभूषण बन सुकून देते रहे |साथ--साथ खाली पन्नों  पर अपना हक जमाने लगे और भावनाएँ शब्दों के मोती बन इन पन्नों पर बिखरने लगीं  |
 ई - मेल : hindihaiku@gmail.काम

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