Archive for 1/1/11 - 2/1/11

डॉ. मालिनी गौतम की कविताएँ

डॉ.मालिनी गौतम अपने बारे में कहती हैं- परिचय में कुछ विशेष नहीं है।साहित्यकार पिता डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के यहाँ सन् 1972 में जन्म हुआ। वर्तमान में गुजरात में ऑर्टस एवं कॉमर्स कॉलेज में अंग्रेजी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हूँ। लिखने-पढ़्ने और कविताओं को गुनगुनानें का माहौल घर में बचपन से ही देखा।लेकिन कविता मुझसे लम्बे समय तक रूठी रही। काव्य लेखन की प्रक्रिया और मुझमें लम्बी आँख-मिचौली चली।
कविता मेरे लिये उस बारिश के समान है जो बरसने के बाद शीतलता देती है। पर बारिश के पहले की असह्य गर्मी,उमस,छटपटाहट और घुटन की वेदना को मैनें लम्बे अरसे तक महसूस किया है।पर आखिर एक दिन बादल खुल्कर बरसे और तब से आज तक बरसात का ये दौर अनवरत जारी है और कविता रूपी ये बूँदें मुझे हर मौसम में शीतलता पहुँचातीं हैं।
वीणा,अक्षरा,साक्क्षात्कार,भाषा,सार्थक,भाषा-सेतु,ताप्ती-लोक,हरिगंधा सहित लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन होता रहा है। एक अनुवादक भी हूँ। हिन्दी-गुजराती परस्पर अनुवाद भी नियमित प्रकाशित होता रहता है।
बस इतना ही चाहती हूँ कि मेरी कविताएं झरमर बरसात की तरह बरसें और अगर मेरे साथ-साथ औरों को भी शीतल करती हैं तो यही उनकी और मेरे कवि कर्म की सार्थकता है।

निशान

रिश्ते जुड़ते हैं
टूट जाते हैं।
संबंध बनते हैं,
बिगड़ जाते हैं।
पर हर संबंध, हर रिश्ता,
छोड़ जाता है
एक अमिट छाप हृदय पटल पर।
रिश्ता खत्म होने के बाद भी
उस छाप को मिटा पाना
संभव नहीं होता।
टूटे हुए संबंधों की
मार्मिकता तो देखो!
आदमी ता-उम्र
पीछे मुड़-मुड़ कर देखता रहता है
यही सोचकर कि
शायद टूटे हुए संबंधों में
अब भी कुछ जान बाकी है

और जब याद आती है
तब यही संबंध
कभी पतझड़ में
बसंत की शीतलता देते हैं
तो कभी बसंत में
पतझड़ की जलन देते हैं........
***

घोंसला

काँटेदार पेड़ पर लटकता
बया का घोंसला
कारीगरी और कलात्मकता का
सबसे श्रेष्ठ नमूना है।

आदमी भी तो जिंदगी भर
ऐसे ही एक सुन्दर घोंसले/घर के लिये
ताने-बानें बुनता रहता है
“घर”, “मेरा घर”,“प्यारा घर”!
घर शब्द ही मुँह में
मिश्री घुलने का आभास देता है
दिनभर की मेहनत के बाद
घर लौटने का अहसास
कुछ ऐसा जैसे
माँ बाहें फैलाए
अपनें बच्चे को बुला रही हो।
पर हर आदमी में बसता है
एक “जिप्सी”
जो उसे बार-बार उकसाता है
भटकने के लिये
तभी तो हर आदमी घर छोड़कर बाहर
निकलना चाहता है
घूमना चाहता है
पूरी दुनियाँ देखना चाहता है
अलग-अलग रोमांचक, आल्हादक अनुभव प्राप्त करना चाहता है।

पर जब भटकते-भटकते थक जाता है
तब याद आता है “घर”
घर में बसते आत्मीय स्वजन
उनका उष्मामय प्रेम
दरवाजे पर स्वागत करती हुई
स्नेहिल मुस्कान!
और तब आदमी के भीतर की
बया फुदकनें लगती है
क्योंकि हर आदमीं में
बसती है एक “बया”!
***

बदलते मौसम

अपने चारों तरफ उफनती भीड़ में
तलाश है मुझे उस लड़की की
जो हरदम करती थी
मौसमों का इंतज़ार।
बसंत आने के पहले
उसकी आँखों में
लहरानें लगते थे
सरसों और सूरजमुखी के पीले खेत,
सुर्ख फूलों के भार से लदके हुए
गुलमोहर के पेड़,
भाते थे उसे पीले,हल्दी और चम्पई रंग के दुपट्टे, बसंत के केसरिया दिन
और मोरपंखी शामें,
नईनवेली दुल्हन की झुकी हुई आँखों सा
अस्त होता लाल सूरज का गोला,
देर तक ढ़लती सांझ
और रातों को दामन में खिलते तारे।
पूरा के पूरा बसंत टपकता था
उसके अंग-अंग से।

गर्मी के दिनों में
सड़क के किनारे
किसी ठेले पर
बर्फ का गोला खाते समय
एक बच्चे सी चमकती थी उसकी आँखें,
उसके पहने हुए हल्के गुलाबी, आसमानी और सफेद रंग
के सूती सलवार-कुर्ते
पहुँचाते थे आँखों को ठंडक,
अच्छा लगता था उसे
शाम को छत की मुँडेर पर बैठकर
खट्टे आम की चटनी, पना और
मिस्सी रोटी खाना
और रात होते-होते
वह भी घुल जाती
हवा में घुली हुई जूही,
चमेली और रातरानी की खुशबू के साथ
फिर वह करने लगती
मानसून का इंतजार,
तेज बारिश में नहाना,
सड़क के गढ़्ढ़ों में भरे पानी में
छप-छप करना,
बारिश में भीगते हुए लॉंग-ड्राइव पर जाना
छोटे-छोटे झरनों और नालों से भरे
पहाडों पर चढ़ना,
उफनती नदी के किनारे घंटों बैठे रहना
और घर लौटकर
तेज अदरक के स्वाद वाली चाय पीना­

पर आज इतनें बरसों बाद
कहीं दिखाई नहीं देती वह लड़की,
गाँव की वह सूरत
खो गई है शायद
महानगर की चकाचौंध में,
गुम हो गई है इस भीड़ में,
शायद बंद है किसी
वातानुकूलित फ्लैट में,
जिसकी बड़ी-बड़ी कांच की खिड़कियों पर
डले हैं मोट-मोटे परदे,
परदों के इस पार किसी को
आने की इज़ाजत नहीं है,
और परदों के उस पार
मौसम कब आकर निकल जाते हैं
यह पता ही नहीं चलता
***
डॉ. मालिनी गौतम
मंगलज्योत सोसाइटी
संतरामपुर-३८९२६०
गुजरात

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अपर्णा मनोज भटनागर की कविताएँ

अपर्णा मनोज भटनागर एक ऐसी रचनाधर्मी हैं जिनके काव्य में भावुकता शब्दों का जामा पहन अपने स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत होती है. शब्दरथि भाव, दर्द की की गहराई तक जाकर जब आकार पाते हैं तो पाठकमन स्वतः ही उन भावों के साथ बहता चला जाता है. आपके काव्य में परिष्कृत शब्दावली से युक्त शिल्प के साथ-साथ चिंतन और बोद्धिकता की प्रधानता भी रहती है जो कि चेतना को झकझोरने की क्षमता रखती हैं. आपका काव्य जब नव बिम्बों और उपमानो का जामा पहन पाठकों के समक्ष उपस्थित होता है तो पाठक सहज रूप से आबद्ध होता चला जाता है. ऐसी ही विलक्षण शब्दों और तीक्ष्ण भावों से सजी उनकी कुछ कविताएँ, जो अपने साथ ऐसे ही भावों, अनुभवों और नवीन प्रतीकों को सजाये हुए है, आपके समक्ष प्रस्तुत है..

नाविक मेरे

ये आज है
कल थक कर बिखर गया है
जैसे थक जाती है रात
और कई आकाशगंगाएं ओढ़ कर सो जाती है
एक तकिया चाँद का सिरहाने रख
सपनों पर रखती है सिर..
और सुबह की रूई गरमाकर
बिनौलों संग उड़ जाती है दूर दिशाओं के देश में
तब अपने आज पर
हरे कदमों संग तुम चल देते हो
जहां से बहकर आती है एक नदी
उसकी लहरों पर सुबह का पुखराज जड़ जाता है पीताभ
तुम इन लहरों पर उतार देते हो कल की नाव
आकाश के पंख काट देते हैं समय का पानी
और तुम आने वाले तूफ़ान पर खोल देते हो अपने पाल
मैं देखती हूँ
तुम्हारी नाव बो आई है
क्षितिज के कमल ,सफ़ेद - लाल
और तुम्हारे खुले हाथों ने पकड़ लिया है हवा को
अपने रुख के अनुकूल
कल के किनारे पर जा पहुंची है
तुम्हारी नाव ..
सखा , इस किनारे पर स्वागत हेतु
मैंने सजा रखी हैं सीपियों की बलुआ रंगोलियाँ ..
बचपन के घरौंदे
जिन्हें पैरों पर लादकर बैठी रहती थी विजित भाव से
तुम नाविक हो ..
लौट जाओगे जहां से फूटेगा प्रकाश
मैं रेत में पैर डाल
सजाऊँगी फिर एक किनारा
जहां तुम्हारी नौका लग सके ...अविराम !
***


शायद हो फिर प्लावन ...

सुनते हो !
सुनते हो!
हाँ , मैं सरस्वती ...!
एक प्लावन ही तो माँगा था !
तुमने दिया भी था ..
सहर्ष .
अपने पथरीलेपन में एक फिसलन-भर राह
कुछ फेनिल झागों के लिए नुकीली चट्टानें
छन सकूँ ... छन सकूँ ... छलनी -भर रेत
बंध सकूँ ..बंध सकूँ ..गठजोड़ किनारे
दूर तक दौड़ती दूब के पलक पाँवड़े
ढेर बुद्ध शांत प्रांतर में खड़े पेड़
लहरों पर तिरते चन्द्र -कलाओं के बिम्ब
सूरज की लहरों को छूता शीतल प्रवाह ...
अचानक क्या हुआ ?
क्या हुआ ?
कहीं कोई कुररी चीखीं ..
कोई क्रोंच रोया ...
न जाने क्या हुआ ..
तरलता मेरी मैदान बन गयी ..
टी ही हू.. टी ही हू ...
प्लावन मेरे तू दरक गया ..
कहीं गहरे
कहीं गहरे ..
दरकी चट्टानों में ..
सुना है मेरा रिसना कुआँ हो गया ...
क्रौंच तुम भी चुप हो ?
कुररी तुम ..?
किसी वाल्मीकि की प्रतीक्षा है क्या ?
मेरे मुहानों से कई वाल्मीकि गुज़र गए ..
तुमने देखा तो था ..
कोई रामायण ?
राम को सागर बाँधने दो ..
कोई तीर इस रिसाव पर लगेगा
शायद हो फिर प्लावन ...
***


रोटी

धूप तो कनक-कनक कर बरसती रही
तब भी जब तुम छाल की गर्माहट
और गुफाओं की सीलन सूंघ बसर करते थे ..
यही तो था -
तुम्हारे आदिम होने का पहला अहसास !...
तब अनजाने ये धूप बो आये थे तुम
और .. और... और
अचानक न जाने कितनी महक
खलिहान बन
तुम्हारी जन्म लेती सभ्यता से
फूट पड़ी
कलकल कर ...
और तब
बस तब बीहड़ में जन्म लेकर
हँसा था पहला गाँव .
तुमने अपने चकमक पर दागी थी
अपनी भूख ..!
तब भूखी थी सामूहिक भूख !
सो मिल-बाँट सो लिए थे
जी लिए थे ...
बस !तभी हाँ ,
तभी ..
इस नींद में स्वप्नों का अंतर
एक फासला ...तय कर गयी भूख !
अजब स्पर्धा दे गयी भूख !
अब रोटी की गोलाई कहीं चाँद है
तो कहीं ठन्डे तवे की गोल जलन !
पेट के छाले बन
दुखती है रोटी ..
रिसती है रोटी ..
और फिर यूँ ही करवट बदल सो जाती है .
कल की बाट है ?
या तेरे रंध्रों में पक रही कोई जिजीविषा ?
***
-अपर्णा मनोज भटनागर

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यू. एस. ए. से सुधा ओम ढींगरा की लघुकथा- घिनौना सच

संक्षिप्त परिचय
नाम - सुधा ओम ढींगरा
जन्म- ७ सितम्बर १९५९ जालंधर, पंजाब।
शिक्षा- बी.ए.आनर्ज़,एम.ए. ,पीएच.डी. (हिंदी), पत्रकारिता में डिप्लोमा।

विधाएँ- कविता, कहानी, उपन्यास, इंटरव्यू, लेख एवं रिपोतार्ज।
प्रकाशित कृतियाँ -
कौन सी ज़मीन अपनी ( कहानी संग्रह ), 
धूप से रूठी चाँदनी (काव्य संग्रह),
तलाश पहचान की (काव्य संग्रह), वसूली (कहानी संग्रह ), सफ़र यादों का (काव्य संग्रह ),
माँ ने कहा था (काव्य सी.डी.), १२ प्रवासी संग्रहों में कविताएँ, कहानियाँ प्रकाशित।
संदली बूआ (पंजाबी में संस्मरण)। कई कृतियाँ पंजाबी में अनुदित| टारनेडो (कहानी संग्रह पंजाबी में अनुदित ) प्रकाशनाधीन |
संपादन- 
हिन्दी चेतना (उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका) की संपादक हैं। मेरा दावा है (काव्य संग्रह-अमेरिका के कवियों का संपादन )|
अनुवाद - परिक्रमा (पंजाबी से अनुवादित हिन्दी उपन्यास)|
विशेष- हिन्दी विकास मंडल (नार्थ कैरोलाइना) की सचिव । अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमेरिका) के कवि सम्मेलनों की राष्ट्रीय संयोजक |
उत्पीड़ित नारियों की सहायक संस्था 'विभूति' की सलाहकार | इंडिया आर्ट्स ग्रुप की स्थापना कर हिन्दी के बहुत से नाटकों का मंचन किया है |
अनगिनत कवि सम्मेलनों का सफल संयोजन एवं संचालन किया है | रेडियो सबरंग ( डेनमार्क ) की संयोजक | टी.वी., रेडियो एवं रंगमंच की प्रतिष्ठित कलाकार |
सम्मान- 
१) अमेरिका में हिन्दी के प्रचार -प्रसार एवं सामाजिक कार्यों के लिए वाशिंगटन डी.सी. में तत्कालीन राजदूत श्री नरेश चंदर द्वारा सम्मानित। 

२) चतुर्थ प्रवासी हिन्दी उत्सव २००६ में ''अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान। '' 
३) हैरिटेज सोसाइटी नार्थ कैरोलाईना (अमेरिका ) द्वारा ''सर्वोतम कवियत्री २००६'' से सम्मानित,
४) ट्राईएंगल इंडियन कम्युनिटी, नार्थ-कैरोलाईना (अमेरिका) द्वारा ''२००३ नागरिक अभिनन्दन''। हिन्दी विकास मंडल, नार्थ-कैरोलाईना( अमेरिका), हिंदू-सोसईटी, नार्थ कैरोलाईना( अमेरिका),
अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमेरिका) द्वारा हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं सामाजिक कार्यों के लिए कई बार सम्मानित।

घिनौना सच

       ममता अपने बेटे के व्यवहार से हैरान है और परेशान भी| वह स्कूल
से आते ही हल्का सा कुछ खाकर यह कह कर अपने कमरे में बंद हो जाता है कि
वह होमवर्क कर रहा है, उसे बाधित ना किया जाए |
चित्र सौजन्य गूगल
       कई दिन ममता देखती रही....बेटा चौदह वर्ष का हो गया है कैसे कुछ
पूछे ? कैसे कुछ कहे उसे ? कद में वह अपने पापा से भी लम्बा है |
       वह चाहती थी कि उसका पति उससे पूछे पर वह लापरवाही से बोला--
''ममता, हमारा बेटा बड़ा हो रहा है | उसे अब बच्चा मत समझो | इस उम्र में
लड़कों में कई तरह के बदलाव आते हैं | उसे उन्हें समझने दो | क्या हुआ अगर वह
अकेलापन चाहता है | हर बात की चिंता मत किया करो |''
       यह सुन ममता कुछ बोली तो नहीं, पर माँ की छठी इन्द्री उसे कुछ कह रही
थी | एक दिन उसने दरवाज़े के लॉक के साथ पारदर्शी टेप लगा दी | बेटे ने कमरे का
दरवाज़ा बंद किया पर वह पूरी तरह बंद हुआ नहीं | बेटे को पता नहीं चला | थोड़ी
देर बाद ममता दरवाज़ा खोल कर भीतर चली गई | बेटे की पीठ दरवाज़े की तरफ
थी और कम्प्यूटर का मोनिटर दरवाज़े की ओर | वह आराम से बैठा कम्प्यूटर पर पोर्न
साईट देख रहा था | ममता ने कमरे में घुसते ही वह सब देख लिया था, बेटे ने माँ का
आभास होते ही उसे बंद करना चाहा |
       ममता को गुस्सा तो बहुत आया पर वह गुस्से को काबू में करते हुए बोली--
'' बेटा होम वर्क के समय यह क्या देख रहा है तू | ये साईट्स नहीं देखते | अपना
होम वर्क करो |''
'' मॉम, डैड कई बार आधी रात को उठ कर ये साईट्स देखते हैं तो मैं दिन में
क्यों नहीं देख सकता ?''
'' क्या कह रहा है तू ?'' ममता के मुँह से उखड़ते हुए शब्द निकले |
'' हाँ मॉम, डैड जब आधी रात को प्रोजेक्ट पर काम करने स्टडी रूम में जाते हैं
तो यही देखते हैं | एक बार मैं पानी पीने रसोई में गया तो स्टडी रूम का दरवाज़ा
खुला था, मैं अंदर चला गया | ऐसी ही साईट खुली थी | पापा शौचालय में थे |''
ममता इस घिनौने सच को सुन कर सकते में आ गई |
**
सुधा ओम ढींगरा (यू. एस. ए )

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क्रांति की कविताएँ

१. अपनी-अपनी धूप

जाने कब तक
जाने कब की,
अपनी-अपनी
धूप है सब की,
जिस को उठाए
फिरते हम-तुम,
कहने को सब
साथ हैं जबकि


२. मेरा गांव

बस वही अच्छा था
बस वही अच्छा था
मेरा गांव,
गांव की मिट्टी,
मिट्टी के घर,
घर में रहते लोग,
लोगों के मन,
मन में पलता प्यार,
प्यार की खुशबू,
खुशबू की कोई जात न पात.
बस वही अच्छा था
मेरा गांव,
गांव की नदी,
नदी के घाट,
घाट से छूटती नाव,
नाव में हाथ हिलाते मुसाफिर,
मुसाफिरों का मालूम अता ना पता.
बस वही अच्छा था
मेरा गांव,
गांव में खेत ,
खेत में पेड,
पेड में कोटर,
कोटर में पंच्छी,
पंछियों के साथ हम उडते आकाश
आकाश का कोई आदि न अंत.

बस वही अच्छा था , मेरा गांव_
मैं क्या सपना लेकर शहर में आई थी
मेरी आंखों से नींद भी उड गई है.


३. सभ्यता के अवशेष

फिर वह चाहे कितनी ही
असभ्य क्यों न रही हो
अवशेष हमेशा किसी न किसी
सभ्यता के ही कहाते हैं .

कितना अच्छा है/ आज से
पांच-दस हजार वर्ष आगे चलकर
हमारे भी जीवाश्म
किसी सभ्यता की खोज कहाएंगे


४. इन दिनों

इन दिनों हाथी सीधी चाल नहीं चलता
और न हीं घोडा ढाई घर
और न हीं ऊंट टेढा चलता है दायें-बायें
अब तो न राजा को शह लगती है
और न उसकी होती है मात.
मगर आज भी
हर तरह की चाल चलता है वजीर
और हां, आज भी मरने को तैयार
प्यादे खडे हैं अगली पंक्ति में
**
-क्रांति

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ऋषभ देव शर्मा की सात कविताएँ

परिचय

नाम: ऋषभ देव शर्मा
उपनाम: 'देवराज'
जन्म: 04.07.1957, ग्राम - गंगधाडी, जिला - मुज़फ्फर नगर, उत्तर प्रदेश, भारत
शिक्षा: एम. एससी. तक भौतिक विज्ञान का अध्ययन करने के बाद हिंदी में एम. ए, पीएच.डी. (उन्नीस सौ सत्तर के पश्चात की हिंदी कविता का अनुशीलन)।
कार्य: प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद - 500 004
1983-1990 : जम्मू और कश्मीर राज्य में गुप्तचर अधिकारी (इंटेलीजेंस ब्यूरो, भारत सरकार)
1990-1997 प्राध्यापक : उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा : मद्रास और हैदराबाद केंद्र में। 1997-2005 रीडर : उच्च शिक्षा और शोध संस्थान : हैदराबाद केंद्र में। 2005-2006 प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान : एरणाकुलम केंद्र में।
संप्रति : 15 मई, 2006 से : प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान : दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद केंद्र में।
प्रकाशन
काव्य संग्रह - तेवरी[1982], तरकश [1996], ताकि सनद रहे[2002], देहरी[2011]
आलोचना - तेवरी चर्चा[1987], हिंदी कविता : आठवाँ नवाँ दशक[1994], कविताका समकाल[2011]।
अनुवाद चिंतन - साहित्येतर हिंदी अनुवाद विमर्श।
पुस्तक संपादन- पदचिह्न बोलते हैं, अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य (1999), भारतीय भाषा पत्रकारिता, शिखर-शिखर (डॉ.जवाहर सिंह अभिनंदन ग्रंथ), हिंदी कृषक (काजाजी अभिनंदन ग्रंथ), माता कुसुमकुमारी हिंदीतर भाषी हिंदी साधक सम्मान : अतीत एवं संभावनाएँ, अनुवाद : नई पीठिका, नए संदर्भ, स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम, प्रेमचंद की भाषाई चेतना, अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य (2009)|
पत्रिका संपादन- संकल्य (त्रैमासिक) : दो वर्ष, पूर्णकुंभ (मासिक) : पाँच वर्ष : सहायक संपादक, महिप (त्रैमासिक) : सहयोगी संपादक, आदर्श कौमुदी : तमिल कहानी विशेषांक, कर्णवती : समकालीन तमिल साहित्य विशेषांक।
पाठ्यक्रम लेखन- इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय,इग्नू, दिल्ली, डॉ.बी.आर.अंबेडकर सार्वत्रिक विश्वविद्यालय, हैदराबाद, दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नै, एन सी ई आर टी, दिल्ली, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया आफीसर्स एसोसिएशन इंस्टीट्यूट, चेन्नै।
पुरस्कार एवं सम्मान
• आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी [आंध्र प्रदेश सरकार] द्वारा हिंदीभाषी हिंदी साहित्यकार के रूप में पुरस्कृत [रु.25000/-] - वर्ष 2010.
• शिक्षा शिरोमणि सम्मान, हैदराबाद[आंध्र प्रदेश]
• रामेश्वर शुक्ल अंचल स्मारक कविता पुरस्कार, जबलपुर[मध्य प्रदेश].
• हिंदी सेवी सम्मान , वीणा पत्रिका, इंदौर[मध्य प्रदेश].
विशेष
• मूलतः कवि।
• 1981 में तेवरी काव्यांदोलन (आक्रोश की कविता) का प्रवर्तन किया ।
[तेवरी काव्यांदोलन की घोषणा 11 जनवरी 1981 को मेरठ, उत्तर प्रदेश, में की गई थी। एक वर्ष बाद खतौली [उत्तर प्रदेश] में इसका घोषणा पत्र डॉ. देवराज और ऋषभ देव शर्मा ने जारी किया था। तेवरी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विसंगतियों पर प्रहार करने वाली आक्रोशपूर्ण कविता है। यह किसी भी छंद में लिखी जा सकती है। इसकी हर दो पंक्तियाँ स्वतःपूर्ण होते हुए भी पूरी रचना में अंतःसूत्र विद्यमान रहता है। तेवरी का छंद सम-पंक्तियों में तुकांत होता है। इसे अमेरिकन कांग्रेस की लाइब्रेरी के कॅटलॉग में 'पोएट्री ऑफ प्रोटेस्ट' कहा गया है|]
• अनेक शोधपरक समीक्षाएँ एवं शोधपत्र प्रकाशित।
• विभिन्न विश्वविद्यालयों / महाविद्यालयों / संस्थानों द्वारा आयोजित संगोष्ठियों / लेखक शिविरों/ कार्यशालाओं में संसाधक / विषय विशेषज्ञ।
शोध निर्देशन
• पीएच.डी. और एम.फिल. के 80 शोध प्रबंधों का सफलतापूर्वक निर्देशन।
भूमिका-लेखन
• 50 से अधिक पुस्तकों के लिए भूमिका-लेखन।
संपर्क
ई-मेल :
rishabhadeosharma@yahoo.com
rishabhadsharma@gmail.com
ब्लॉग लेखन : तेवरी, ऋषभ उवाच, ऋषभ की कविताएँ
1. द्वा सुपर्णा

एक डाल पर बैठे हैं
              वे दोनों
दोनों के पंख सुनहरे हैं
पेट भी दोनों के हैं

एक का पेट भरा है
वह फिर भी खाता है

दूसरे का पेट खाली है
वह फिर भी देखता है

केवल देखता है!
कब तक देखते रहोगे, यार?


2. चर्वणा

मेरे दाँतों में
फँस गई है मेरी अपनी हड्डी.

निकालने की कोशिश में
लहूलुहान हो गया है जबड़ा
कट फट गए हैं मेरे होंठ.

और वे
मेरे विकृत चेहरे को
सुंदर बता रहे हैं,
मेरा अभिनंदन कर रहे हैं
उत्तर आधुनिक युग का अप्रतिम प्रेमी कहकर


3. चूहे की मौत

अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात है
मैं बहुत फुर्तीला था
बहुत तेज़ दौड़ता था
बहुत उछल कूद करता था

तुमसे देखी नहीं गई
         मेरी यह जीवंतता
और तुम ले आए
एक खूबसूरत सा
खूब मज़बूत सा
          पिंजरा
सजा दिए उसमें
कई तरह के खाद्य पदार्थ
      चिकने और कोमल
      सुगंधित और नशीले
महक से जिनकी
फूल उठे मेरे नथुने
फड़कने लगीं मूँछें
खिंचने लगा पूरा शरीर
         काले जादू में बँधा सा

जाल अकाट्य था तुम्हारा
मुझे फँसना ही था
       मैं फँस गया

तुम्हारी सजाई चीज़ें
मैंने जी भरकर खाईं
परवाह नहीं की
क़ैद हो जाने की

सोचा - पिंजरा है तो क्या
         स्वाद भी तो है
         स्वाद ही तो रस है
         रस ही आनंद
         'रसो वै सः'

उदरस्थ करते ही स्वाद को
मेरी पूरी दुनिया ही उलट गई
यह तो मैंने सोचा भी न था
झूठ थी चिकनाई
झूठ थी कोमलता
झूठ थी सुगंध
और झूठ था नशा

सच था केवल ज़हर
          केवल विष
जो तुमने मिला दिया था
           हर रस में

और अब
तुम देख ही रहे हो
मैं किस तरह छटपटा रहा हूँ

सुस्ती में बदल गई है मेरी फुर्ती
पटकनी खा रही है मेरी दौड़
मूर्छित हो रही है मेरी उछल कूद

मैं धीरे धीरे मर रहा हूँ

तुम्हारे चेहरे पर
उभर रही है एक क्रूर मुस्कान
तुम देख रहे हो
          एक चूहे का
          अंतिम नृत्य

बस कुछ ही क्षण में
मैं ठंडा पड़ जाऊँगा

पूँछ से पकड़कर तुम
फेंक दोगे मुझे
बाहर चीखते कव्वों की
         दावत के लिए!


4. भाषाहीन

मेरे पिता ने बहुत बार मुझसे बात करनी चाही
मैं भाषाएँ सीखने में व्यस्त थी
कभी सुन न सकी उनका दर्द
बाँट न सकी उनकी चिंता
समझ न सकी उनका मन

आज मेरे पास वक़्त है
पर पिता नहीं रहे
उनकी मेज़ से मिला है एक ख़त

मैं ख़त को पढ़ नहीं सकती
जाने किस भाषा में लिखा है
कोई पंडित भी नहीं पढ़ सका

भटक रही हूँ बदहवास आवाजों के जंगल में
मुझे भूलनी होंगी सारी भाषाएँ
पिता का ख़त पढ़ने की खातिर


5. पछतावा

हम कितने बरस साथ रहे
एक दूसरे की बोली पहचानते हुए भी चुपचाप रहे

आज जब खो गई है मेरी ज़ुबान
तुम्हारी सुनने और देखने की ताकत
छटपटा रहा हूँ मैं तुमसे कुछ कहने को
बेचैन हो तुम मुझे सुनने देखने को

हमने वक़्त रहते बात क्यों न की


6. अबोला

बहुत सारा शोर घेरे रहता था मुझे
कान फटे जाते थे
फिर भी तुम्हारा चोरी छिपे आना
कभी मुझसे छिपा नहीं रहा
तुम्हारी पदचाप मैं कान से नहीं
दिल से सुनता था

बहुत सारी चुप्पी घेरे रहती है मुझे
मैं बदल गया हूँ एक बड़े से कान में
पर कुछ सुनाई नहीं देता
तुम्हारे अबोला ठानते ही
मेरा खुद से बतियाना भी ठहर गया
वैसे दिल अब भी धड़कता है


7. मैंने देखा है

मैंने तुम्हारा प्यार देखा है
बहुत रूपों में

मैंने देखी है तुम्हारी सौम्यता
और स्नान किया है चाँदनी में,
महसूस किया है
रोमों की जड़ों में
रस का संचरण
और डूबता चला गया हूँ
गहरी झील की शांति में

मैंने देखी है तुम्हारी उग्रता
और पिघल गया हूँ ज्वालामुखी में,
महसूस किया है
रोमकूपों को
तेज़ाब से भर उठते हुए
और गिरता चला गया हूँ
भीषण वैतरणी की यंत्रणा में

मैंने देखी है तुम्हारी हँसी
और चूमा है गुड़हल के गाल को,
महसूस किया है
होठों में और हथेलियों में
कंपन और पसीना
और तिरता चला गया हूँ
इंद्रधनु की सतरंगी नौका में

मैंने देखी है तुम्हारी उदासी
और चुभो लिया है गुलाब के काँटे को,
महसूस किया है
शिराओं में और धमनियों में
अवसाद और आतंक
और फँसता चला गया हूँ
जीवभक्षी पिचर प्लांट के जबड़ों में

मैंने देखा है
तुम्हारे जबड़ों का कसाव ,
मैंने देखा है
तुम्हारे निचले होठ का फड़फड़ाना,
मैंने देखा है
तुम्हारे गालों का फूल जाना,
मैंने देखा है
तुम्हारी आँखों का सुलग उठाना ,
मैंने देखा है
तुम्हारा पाँव पटक कर चलना,
मैंने देखा है
तुम्हारा दीवारों से सर टकराना

और हर बार
लहूलुहान हुआ हूँ
मैं भी तुम्हारे साथ
और महसूस किया है
तुम्हारी
असीम घृणा के फैलाव को

लेकिन दोस्त!
मैंने खूब टटोल कर देखा
मुझे अपने भीतर नहीं दिखी
तुम्हारी वह घृणा

मेरे निकट
तुम्हारी तमाम घृणा झूठ है

मैंने देखा है
तुम्हारी भुजाओं का कसाव भी ,
मैंने देखा है
तुम्हारी पेशियों का फड़कना भी ,
मैंने देखा है
तुम्हारे गालों पर बिजली के फूलों का खिलना भी,
मैंने देखा है
तुम्हारी आँखों में भक्ति का उन्माद भी,
मैंने देखा है
तुम्हारे चरणों में नृत्य का उल्लास भी,
मैंने देखा है
तुम्हारे माथे को अपने होठों के समीप आते हुए भी

और महसूसा है हर बार
तुम्हारे अर्पण में
अपने अर्पण की पूर्णता को!

प्रेम बना रहे!!
**
-ऋषभ देव शर्मा

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अशोक आंद्रे की दो कविताएँ

संक्षिप्त परिचय

लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में श्री अशोक आंद्रे की रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं. आपने 'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और 'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया है. अब तक आपकी कुल छ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं तथा आप National Academy award 2010 for Art and Literature from Academy of Bengali Poetry, kolkata से भी सम्मानित हुए हैं.

(१)

डर

आकाश में झांकना
उस झाँकने में दृश्य पैदा करना
फिर उस दृश्य में अपनों को ढूँढना
डर पैदा करता है ।

ज़मीँ उलझन देती है
इन उलझनों में घंटिया बजती हैं लगातार ,
पेड़ की ओर देखो तो
आकाश फिर दिखने लगता है ।

बंद कमरे में पसरे सन्नाटे के मध्य
खिड़कियों में फंसी झिर्रियों की तरह
एक आँख देखती है
समय के आवर्त को, जो
डर के नये मापदंड पैदा करती है ।

लेकिन उलझन का क्या करूं ?
पहाडों के बीच फंसा पानी भी तो
आकाश में सफेद रेशों का जाल बुनता है
जितना उसमें घुसो उतना गहरा होता जाता है
इसीलिए आकाश में झांकना डर पैदा करता है ।

अपने तो दिखते नहीं उस झाँकने में
आदमी तो भ्रमित होता रहता है
लेकिन उन रेशों की झनक में
हृदय की धडकनों की लय है
जिन्हें सुनने तथा देखने की ललक
आकाश में फिर झाँकने को मजबूर करती है ।

डर फिर भी आंखों के किसी कोने में
धंसता रहता है ,
जिसे जीवन की ललक पीठ की ओर धकेल देती है ।


(२)

उनके पाँव

जब से सिद्धांतों की सड़क
तैयार की है अपने ही अन्दर
एक खौफ़ लगातार बढ़ता जा रहा है
क्योंकि विकास के सारे रास्ते
उथली - संस्कृति की तरफ विकसित हो रहे हैं
उसके आगे के रास्ते गहरी ढलान की तरफ
धंसते दिखाई देते हैं ।

पहाड़ जहां कांपते हैं , हवा सरसरा जाती है
क्योंकि एक लहर धुंए की
यात्रा करने लगती है ,
और मनुष्य उस धुएँ में छिपा
अपने ही लोगों का करता है विनाश
जिसके निशान इन्हीं सड़कों पर देख
सहम जाते हैं आदिवासी
अंतस में उलझा आदिवासी संशय से देखता है -
इन सड़कों को ,

जो उनकी हरियाली को लीलने लगते हैं ,
जीवन बचाने के लिए ये आदिवासी
सभ्यों से दूर अपनी आकांक्षाओं में लीन
जंगल में बहते पानी में
ज़मीं छूती हरियाली में,रोपतें हैं

नन्हें बच्चों के पांवों के चिन्ह
ताकि उनके जंगलों में जीवन की श्रंखला स्थापित हो सके ,
और पहाडों के मन में सुकून की लहर
दौड़ती रहे ।
क्योंकि उनके लिए इन सड़कों का कोई महत्व नहीं है ,
उनके पाँव ही उनकी खुबसूरत सड़कें हैं ।
**
-अशोक आंद्रे

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ओम पुरोहित 'कागद' की तीन कविताएँ

संक्षिप्त परिचय:
नाम:- ओम पुरोहित 'कागद'
जन्‍म:- ५ जुलाई १९५७, केसरीसिंहपुर (श्रीगंगानगर)
शिक्षा:- एम.ए. (इतिहास), बी.एड. और राजस्थानी विशारद
प्रकाशित पुस्‍तकें:- हिन्दी :- धूप क्यों छेड़ती है (कविता संग्रह), मीठे बोलों की शब्दपरी (बाल कविता संग्रह), आदमी नहीं है (कवितासंग्रह), मरूधरा (सम्पादित विविधा), जंगल मत काटो (बाल नाटक), रंगो की दुनिया (बाल विविधा), सीता नहीं मानी (बाल कहानी), थिरकती है तृष्णा (कविता संग्रह)
राजस्थानी :- अन्तस री बळत (कविता संग्रै), कुचरणी (कविता संग्रै), सबद गळगळा (कविता संग्रै), बात तो ही, कुचरण्यां, पचलड़ी, आंख भर चितराम।
पुरस्कार और सम्‍मान:- राजस्थान साहित्य अकादमी का ‘आदमी नहीं है’ पर ‘सुधीन्द्र पुरस्कार’, राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की ओर से ‘बात तो ही’ पर काव्य विधा का गणेशी लाल व्यास पुरस्कार, भारतीय कला साहित्य परिषद, भादरा का कवि गोपी कृष्ण ‘दादा’ राजस्थानी पुरस्कार, जिला प्रशासन, हनुमानगढ़ की ओर से कई बार सम्मानित, सरस्वती साहित्यिक संस्था (परलीका) की ओर सम्मानित।
विशेष:- साहित्य की सेवार्थ आप 'आखर कलश' के साथ 'सलाहकार संपादक' के रूप में भी अपनी अमूल्य सेवाएँ दे रहे हैं.
सम्प्रति:- प्रधानाध्यापक शिक्षा विभाग, राजस्थान
ठावौ ठिकाणौ:- २४, दुर्गा कॉलोनी, हनुमानगढ़ संगम ३३५५१२ (राजस्थान)
ब्‍लॉग:- 'कागद' हो तो हर कोई बांचे

(१)

भीतर ही भीतर

जहां नहीं जा पाता
बुढ़ाए कदम से
वहाँ चला जाता हूं
मन पर आरूढ़ होकर।

जो देख नहीं पाता
मोतियाबिंद उतरी
आँखो से प्रत्यक्ष
उसे देख लेता हूं
आँखें मूंद कर।
दूसरा शहर
दूसरे लोग
आ जाते हैं सामने
उनसे बतिया भी लेता हूं
भीतर ही भीतर
परन्तु नहीं पाता
नहीं कर पाता
उनका स्पर्श
जिसका सुख
अभी भी
पैदा करता है सिहरन
दौड़ाता है मन को।

मन ले आता है
अतीत से
ढो कर खारा पानी
जो उतर जाता है
आँखों की कोर से
भीग जाता है
स्पर्श का सुख
अधर पुकार लेते हैं
अतीत में छूटे
अपनों के नाम।


(२)

मेरी भी प्रवृति

वृक्ष से गिरता
पीत हो पत्‍ता
खो जता विरात में
वृक्ष करता धारण
नव पल्लव
विगत को भूल
आगत के
स्वागत में
रम जाता ।

पल-पल
क्षरित होते भव में
सब कु्छ सम्भव
फिर भी
बहुत कुछ असम्भव
असम्भव को साधता
मेरा मन
नहीं रमता भव में
भव का पार भी
असम्भव, असार भी।

कहां खोजूं उन्हें
छूट गए
अजर-अमर
आत्मा जो थे।


यह प्रकृति है
तलाश है प्रवृति
मेरी भी प्रकृति है प्रवृति
मैं हूं किसी की तलाश में
या फिर है कोई
मेरी तलाश में।


(३)

फ़गत जिन्दा है मन

सात फेरों के बदले
लिख दी वसीयत दिल की
पत्‍नी के नाम।

मस्तिष्क गिरवी
घर दिया
पेट की क्षुधा के निमित
ऑफ़िस में।
हाथ हो गए गुलाम
ऑफ़िस की फ़ाइलों
बॉस की दुआ सलामी के लिए।

पैर थक गए
घर
दफ़्तर
बाजार
नाते-रिश्ते में
आते जाते।
आँखे पथरा गई
दृश्य-अदृश्य
देखते हुए।

कानों को सुनाई देती है
भनक
दंगो-उपद्रवों की
और नाक हो चुकी है आदी
बारूद की गंध की।

आशाएं अब
जागती ही नहीं
सो गई है
आश्‍वासनों की
थपकियां ले कर।

फ़गत जिन्दा है मन
जो नही है वश में
रोज पैदा करता है
उलझनें
बटोरता रहता है
ताने-बहाने
परन्तु रखे हुए है
जिन्दा रहने के बहाने।
**
-ओम पुरोहित 'कागद'

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वर्तिका नन्दा की दो कविताएँ

परिचय:
वर्तिका नन्दा एक मीडिया यात्री हैं। मीडिया अध्यापन, मीडिया प्रयोग और प्रशिक्षण इनके पसंदीदा क्षेत्र हैं। इस समय वर्तिका दिल्ली विश्व विद्यालय की स्थाई सदस्य हैं। इससे पहले वे 2003 में इंडियन इंस्टीट्यूट आफॅ मास कम्यूनिकेशन, नई दिल्ली में बतौर एसोसिएट प्रोफेसर( टेलीविजन पत्रकारिता) चयनित हुईं और यहां तीन साल तक अध्यापन किया। इन्होंने पीएचडी बलात्कार और प्रिंट मीडिया की रिपोर्टिंग को लेकर किए गए अपने शोध पर हासिल की है।
इन्होंने अपनी मीडिया प्रयोग की शुरूआत 10 साल की उम्र से की और जालंधर दूरदर्शन की सबसे कम उम्र की एंकर बनीं। लेकिन टेलीविजन के साथ पूर्णकालिक जुड़ाव 1994 से हुआ। इन्होंने अपने करियर की शुरूआत जी टीवी से की, फिर करीब 7 साल तक एनडीटीवी से जुड़ी रहीं और वहां अपराध बीट की हेड बनीं। तीन साल तक भारतीय जनसंचार संस्थान में अध्यापन करने के बाद ये लोकसभा टीवी के साथ बतौर एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर जुड़ गईं। चैनल के गठन में इनकी एक निर्णायक भूमिका रही। यहां पर वे प्रशासनिक और प्रोडक्शन की जिम्मेदारियों के अलावा संसद से सड़क तक जैसे कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को एंकर भी करती रहीं।
इसके बाद वर्तिका सहारा इंडिया मीडिया में बतौर प्रोग्रामिंग हेड नियुक्त हुईं और सहारा के तमाम न्यूज चैनलों की प्रोग्रामिंग की जिम्मेदारी निभाती रहीं।
इस दौरान इन्हें प्रिंट मीडिया के साथ भी सक्रिय तौर से जुड़ने का मौका मिला और वे मासिक पत्रिका सब लोग के साथ संयुक्त संपादक के तौर पर भी जुड़ीं। इस समय वे त्रैमासिक मीडिया पत्रिका कम्यूनिकेशन टुडे के साथ एसोसिएट एडिटर के रूप में सक्रिय हैं।
प्रशिक्षक के तौर पर इन्होंने 2004 में लाल बहादुर शास्त्री अकादमी में प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के लिए पहली बार मीडिया ट्रेनिंग का आयोजन किया। इसी साल भारतीय जनसंचार संस्थान, ढेंकानाल में वरिष्ठ रेल अधिकारियों के लिए आपात स्थितियों में मीडिया हैंडलिंग पर एक विशेष ट्रेनिंग आयोजित की। इसके अलावा टीवी के स्ट्रिंगरों और नए पत्रकारो के लिए दिल्ली, जयपुर, भोपाल, रांची, नैनीताल और पटना में कई वर्कशॉप आयोजित कीं। आईआईएमसी, जामिया, एशियन स्कूल ऑफ जर्नलिज्म वगैरह में पत्रकारिता में दाखिला लेने के इच्छुक छात्रों के लिए आयोजित इनकी वर्कशॉप काफी लोकप्रिय हो रही हैं।
2007 में इनकी किताब लिखी- 'टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता' को भारतेंदु हरिश्चंद्र अवार्ड मिला। यह पुरस्कार पत्रकारिता में हिंदी लेखन के लिए भारत का सूचना और प्रसारण मंत्रालय देता है। इसके अलावा 2007 में ही वर्तिका को सुधा पत्रकारिता सम्मान भी दिया गया। चर्चित किताब - 'मेकिंग न्यूज' (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित ) में भी वर्तिका ने अपराध पर ही एक अध्याय लिखा है।
2009 में वर्तिका और उदय सहाय की किताब मीडिया और जन संवाद प्रकाशित हुई। इसे सामयिक प्रकाशन ने छापा है। यह वर्तिका की तीसरी किताब है। 1989 में वर्तिका की पहली किताब (कविता संग्रह) मधुर दस्तक का प्रकाशन हुआ था।
बतौर मीडिया यात्री इन्हें 2007 में जर्मनी और 2008 में बैल्जियम जाने का भी अवसर मिला। 2008 में इन्होंने कॉमनवैल्थ ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन के चेंज मैनेजमेंट कोर्स को भी पूरा किया।
इन दिनों वे मीडिया पर ही दो किताबों पर काम कर रही हैं। हिंदुस्तान, जनसत्ता, प्रभात खबर आदि में मीडिया पर कॉलम लिखने के अलावा ये कविताएं भी आम तौर पर मीडिया पर ही लिखना पसंद करती हैं।
वर्तिका की रूचि मीडिया ट्रेनिंग में रही है। वे उन सब के लिए मीडिया वर्कशाप्स आयोजित करती रही हैं जो मीडिया को करीब से जानना-समझना चाहते हैं।
**

नव वर्ष में

(१)

चलो एक कोशिश फिर से करें
घरौंदे को सजाने की
मैं फिर से चोंच में लाऊंगी तिनके
तुम फिर से उन्हें रखना सोच-विचार कर

तुम फिर से पढ़ना मेरी कविता
और ढूंढना अपना अक्स उसमें

मैं फिर से बनाउंगी वही दाल, वही भात
तुम ढूंढना उसमें मेरी उछलती-मचलती सरगम

मैं फिर से ऊन के गोले लेकर बैठूंगी
फंदों से बनाउंगी फिर एक कवच
तुम तलाशना उसमें मेरी सांसों के उतार-चढ़ाव

आज की सुबह ये कैसे आई
इतनी खुशहाल
कुछ सुबहें ऐसी ही होती हैं
जो मंदिर की घंटियां झनझना जाती हैं

लेकिन रात का सन्नाटा
फिर क्यों साफ कर जाता है उस महकती स्लेट को

चलो, छोड़ो न
छोड़ो ये सब
चलो, किसी पहाड़ी के एक सिरे पर दुबक कर
फिर से सपनों को मुट्ठी में भर लें
चूम लें पास से गुजरते किसी खरगोश को
सरकती हवा को
गुजरते पल को

चलो, एक कोशिश और करें
एक बार और
**

(२)

जाते हुए साल से एक पठार मांग लिया है उधार में
पठार होंगें
तो प्रार्थनाएं भी रहेंगी

कहा है छोड़ जाए
आंसू की दो बूंदें भी
जो चिपकी रह गईं थीं
एक पुरानी बिंदी के छोर पर

कुछ इतिहासी पत्ते भी चाहिए मुझे अपने पास
वो सूखे हुए से
शादी की साड़ी के साथ पड़े
सूख कर भी भीगे से

वो पुराना फोन भी
जो बरसों बाद भी डायल करता है
सिर्फ तुम्हारा ही नंबर

हां, वो तकिया भी छोड़ देना पास ही कहीं
कुछ सांसों की छुअन है उसमें अब भी

इसके बाद जाना जब तुम
तो आना मत याद
न फड़फड़ाना किसी कोने पर पड़े हुए

कि इतने समंदरों, दरख्तों, रेगिस्तानों, पहाड़ों के बीच
सूरज की रौशनी को आंचल में भर-भर लेने के लिए
नाकाफी होता है
कोई भी साल
**
-वर्तिका नन्दा

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अश्विनी रॉय 'प्रखर' की पाँच क्षणिकाएँ

संक्षिप्त परिचय

अश्विनी रॉय का जन्म 28 फरवरी 1960 को करनाल (हरियाणा) मे हुआ. आपने पशु शरीर क्रिया विज्ञान के विषय में परास्नातक तथा डेयरी एवं पशु विज्ञान में पी० एच० डी० की उपाधि प्राप्त की है. आजकल आपका निवास बीकानेर (राजस्थान) में है। मैं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के अंतर्गत जनवरी 1985 से वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत हूँ. अश्विनी रॉय अपने बारे में कहते हैं- यद्यपि मुझे हिन्दी का कोई विशेष उच्चस्तरीय ज्ञान नहीं है फिर भी मैं अपने विचारों की अभिव्यक्ति यदा-कदा लेखों तथा कविताओं के माध्यम से करता ही रहता हूँ. मैंने अंतर्जाल पर अंग्रेजी तथा हिन्दी में समकालीन विषयों पर अपनी कुछ कविताएँ एवं विविध लेख प्रकाशित किये हैं. आजकल www.royashwani.blogspot.com के नाम से मैं अंतर्जाल पर एक ब्लॉगर के रूप में भी लेखन कर रहा हूँ. मेरी रचनाएँ नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति की वार्षिक पत्रिका “संवाद” तथा राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र द्वारा प्रकाशित “करभ” पत्रिका तथा स्थानीय समाचार-पत्रों में भी छपती रहती हैं. मैं अपने केंद्र में राजभाषा अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए यहाँ से प्रकाशित होने वाली सभी पत्रिकाओं एवं पुस्तकों के संपादन से भी जुड़ा हूँ. इसके अतिरिक्त मैंने कुछ अंग्रेजी तथा हिन्दी की उष्ट्र विषयक लघु पुस्तिकाएँ भी लिखी हैं। इसी वर्ष हमारी वार्षिक पत्रिका “करभ” को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा “श्री गणेश शंकर विद्यार्थी सर्वोत्तम कृषि पत्रिका” के सम्मान से नवाज़ा गया है.

सम्पर्क: मोबाइल - 9414967834. वरिष्ठ वैज्ञानिक (शरीर क्रिया विज्ञान) राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र, पोस्ट ऑफिस बॉक्स नंबर-07. जोड़बीड़, बीकानेर-334 001 (राजस्थान).




१.
बरसें बादल
तो
दल-दल
अन्यथा
हर कोई रहे
निर्जल.
**

२.
सोना हो
तो
कैसा सोना
सोना नहीं
तो
खूब सोना !
**

३.
महँगाई के
इस दौर में
उसका जीना
तब दूभर हुआ
जब पाँच
लड़कियों के बाद
एक लड़का
पैदा हुआ !
**

४.
जिसे रोज़ी मिले
वह रोटी खाए
नहीं तो
भाग्य में
ज़ीरो (रोज़ी का उलट) ही आए.
**

५.
पेड़ लगाएँ
तो
वन महोत्सव
पेड़ कटें
तो
नव-निर्माण
उत्सव !
**

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नवनीत पाण्डे की दो कविताएँ

नवनीत पाण्डे राजस्थानी और हिंदी में गद्य और पद्य की दोनों विधाओं में समान गति से लिखते हैं. आपकी 'सच के आस-पास' हिंदी कविता संग्रह और 'माटी जूण' राजस्थानी उपन्यास के अलावा बाल साहित्य की भी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. राजस्थानी कहानी संग्रह व हिंदी कविता संग्रह निकत्क भविष्य में हमारे समक्ष होगा. इन दिनों आप अपने ब्लॉग 'poet of india' में लिखते हैं. वर्तमान में आप भारत संचार निगम लिमिटेड के बीकानेर कार्यालय में अपनी बहुमूल्य सेवाएँ दे रहे हैं

माँ हंसकर टाल जाती है

नानी ने जो सुनाई थी माँ को
उसके बचपन में
मुझे माँ ने वही कहानियाँ सुनाई
मेरे बचपन में
क्या कहानियाँ थी, क्या थे कथानक
कितने अजीब, कितने भयानक
कहीं भी, कुछ भी हो जाता था अचानक
समझ नहीं पाते थे,
कितने प्रश्न आते थे..
माँ हंस कर टाल जाती थी
बस, कहानी कहती जाती थी...
माँ आज भी कहाँ बताती है
हंस कर टाल ही तो जाती है...
कहानी और कहानियाँ
बनती ही जाती है...
*******

क्या है उत्तर इस अनुत्तरित प्रश्न का

आज फ़िर फ़ेंक गया
कि फ़ेंक गयी
अलसुबह कि
आधी रात को
पता नहीं, कब?
एक नवजात
शहर के सुनसान इलाके में
मरा कि अधमरा
करता संघर्ष मृत्यु से
आज फ़िर हुयी भीड
गढी चटकारे ले ले कर
तरह-तरह की कहानियाँ, बातें
कोसा निर्दयी बिनब्याही मां को
(सारी फ़ब्तियां, गालियां, फ़तवे)
सिर्फ़ उस मां को
किसी ने कुछ भी न कहा
उस
मक्कार धोखेबाज़ कसूरवार पिता को
क्या हो गया है
इस आदम जात को?
आखिर कब तक और क्यूं
नवजातों को यूं फ़ेंका, मारा जाएगा
उसे पाप पुकारा जाएगा
क्या सचमुच ही यह पाप है?
यह कैसा इंसाफ़ है?
एक मनचाहे सम्बन्ध की
क्या होगी हमेशा
यही परिणिति
एक निरपराध, असहाय
मासूम नवजात की
ऎसी गति, दुर्गति?
क्या कभी बदल पाएंगे हम
अपनी यह मति-वृति?
क्या है उत्तर
इस अनुत्तरित प्रश्न का
आखिर कब तक
भुगतेगा परिणाम
एक नवजात
एक क्षणिक आवेग, एक व्यसन का?
*******

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कुमार लव की पांच कविताएँ

संक्षिप्त परिचय:
नाम : कुमार लव
जन्म : 1986, उत्तर प्रदेश (भारत)
शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा: पुंछ, ऊधमपुर और चेन्नै में
उच्च शिक्षा: हैदराबाद में- बीटेक.
दिल्ली में- ऍम.बी.ए.
कार्य : इनफोसिस (२००७-२००९)
प्रकाशन : कृत्या, साहित्य कुञ्ज और अभिव्यक्ति में सम्मिलित
ब्लॉग लेखन :
गर्भ में (http://garbhmein.blogspot.com/)
वक्रोक्ति - हिंदी (http://vakrokti-hindi.blogspot.com/)
वक्रोक्ति (http://vakrokti.blogspot.com/)
सम्पर्क:
kummarluv@gmail.com
+91-9999224215

गुलाबी दुनिया

जीवंत यादें
कुछ मृत सपनों की
दौड़ रही हैं
मेरे मस्तिष्क में.

भटक रही हैं
पवित्र आत्माएं
मेरे सिर के भीतर.
गूँज रही हैं
उनकी अंतिम चीखें
लाल दीवारों से टकराकर.

टक्कर
इतनी तेज़
फट जाते हैं बार बार
अन्दर लगे पाइप.
**

तेरे कैनवस दे उत्ते

प्रिय अ,
याद है तुम्हें वह दिन
जब अमृताजी को सुनते हुए
कहा था तुमसे-
मैं भी उतर आऊंगा एक दिन - कई वर्षों बाद -
तुम्हारे कैनवस पर,
और तुम बोल उठी थी
ले जाएगा तुम्हारा ब्रश हमें
सोने के दो कंगन
और बारिश की कुछ बूंदों के पास.

प्रिय अ,
कुछ ही दिनों में
खो गई तुम अपनी ज़िन्दगी में
छूट गया ब्रश
धूल जम गई कैनवस पर
ऐसे सूख गए शीशियों में भरे रंग
अब बस खरोंच सकती है उन्हें
तुम्हारी उँगलियाँ.

प्रिय अ,
रुई-से सपनों और अधबुने रिश्तों के बीच
आज भी इंतज़ार हैं मुझे
रहस्यमयी लकीर बन
तुम्हें तकने का.
**

ऊँचाई

मैंने
अपनी ख़ुशी के लिए
खुद का आविष्कार किया.

वह सब किया
जो उस पल करना चाहा.
खुद को सबसे ऊंचा माना.


पर
एहसास हुआ
धीरे-धीरे
बेमतलब था
यह सारा भटकाव.

न मुझसे उभरा कोई मतलब
न औरों को देने दिया.
(ऊंचा जो था मैं!)
**

मोड़

कई मोड़ हैं
बिखरे हुए
इस शहर में.

कभी इन्हीं मोड़ों पर
मिल जाते थे
तुम्हारे दोस्त और तुम.

चाय की प्याली पर
बातें भी खूब होती थीं,
कुछ-कुछ समझने लगा था तुम्हें
चाहे जानता नहीं था -
जानना चाहता भी नहीं था.

आज भी वे मोड़
वहीँ पड़े हैं.
**

किसलिए?

मैंने देखा
अपने सबसे चमकदार दोस्तों को
सड़क के बीच
लड़ते हुए,
कुछ और लोगों के लिए
अपने से दुगने बड़े दबंगों से
बिना जाने क्यों
बिना जाने किस बात पर
लड़ रहे थे वह
उनके आने से पहले.

शायद क्वार्टर के लिए
या सोडे के लिए
या किसी और वजह से
पर साथी थे
तो उनका साथ तो देना ही था.

मैंने देखा
अपने सबसे प्यारे दोस्त को
टूटते हुए
छोड़ आए थे उसे अकेला
वही सब जिन्हें बचाने को
रुका था वह वहाँ.

मैंने देखा
अपने सबसे क़रीबी दोस्त को
टूटते हुए
अलग जो कर लिया था उसे
उसकी पहचान के कारण
उसका ईमान मुसल्लिम होने के कारण.

मैंने देखा
यहाँ के सबसे शांत व्यक्ति को
हल्ला मचाते नशेड़ियों की
चक्की में पिसते हुए.

और फिर देखा
खिड़की से आती रोशनी में
उसके शांत चेहरे को
और आँखों के झिलमिलाते कोनों को
सोते हुए.
**
-कुमार लव

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जितेन्द्र ‘जौहर’ की दो ग़ज़लें


परिचय:
नाम : जितेन्द्र ‘जौहर’
जन्म: 20 जुलाई,1971 (कन्नौज, उ.प्र.) भारत।
शिक्षा: एम. ए. (अंग्रेज़ी:भाषा एवं साहित्य), बी. एड., सी.सी.ए. / परास्नातक स्तर पर बैच टॉपर / अ.भा.वै.महासभाद्वारा ‘रजत-प्रतिमा’ से सम्मानित।
साहित्यिक गतिविधियाँ / उपलब्धियाँ
लेखन-विधाएँ: गीत, ग़ज़ल, दोहा, मुक्तछंद, हाइकू, मुक्तक, हास्य-व्यंग्य, लघुकथा, समीक्षा, भूमिका, आलेख, आदि।
हिन्दी एवं अंग्रेज़ी में समानान्तर लेखन।
सक्रिय योगदान: सम्पादकीय सलाहकार ‘प्रेरणा’(शाहजहाँपुर, उ.प्र.) विशेष सहायोगी ‘अभिनव प्रयास’ (अलीगढ़, उ.प्र.) एवं ‘विविधा’(उत्तराखण्ड)।
प्रसारण: ई.टी.वी. के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘गुदगुदी’ में अनेक एपीसोड प्रसारित।

वीडियो एलबम में फ़िल्मांकित गीत शामिल।
सिटी चैनल्स पर सरस कव्य-पाठ।
काव्य-मंच: संयोजन एवं प्रभावपूर्ण संचालन के लिए विशेष पहचान। ओजस्वी व मर्यादित हास्य-व्यंग्यपूर्ण काव्य-पाठ का प्रभावी निर्वाह।
समवेत संग्रह: ‘हास्य कवि दंगल’ (धीरज पॉकेट बुक्स, मेरठ), ‘ग़ज़ल...दुष्यंत के बाद’ (वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली), ‘हिन्दुस्तानी ग़ज़लें’ भाग-1, 2 व 3 (ऋचा प्रकाशन, कटनी), ‘उ.प्र. काव्य विशेषांक’ (संयोग साहित्य, मुम्बई), ‘अष्टकमल’ (माण्डवी प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद), ‘हिन्दी साहित्य के जगमगाते रत्न’ भाग-1 (ॐ उज्ज्वल प्रकाशन, झाँसी), ‘कलम गूँगी नहीं’ (कश्ती प्रकाशन, अलीगढ़), ‘कुछ शिक्षक कवि’ (लक्ष्मी पब्लिकेशंज़, नई दिल्ली), ‘शब्द-शब्द मोती’ (प्रतिभा प्रकाशन, जालौन), ‘स्मृतियों के सुमन’ (पुष्पगंधा प्रकाशन, छ्त्तीसगढ़) सहित अनेकानेक महत्त्वपूर्ण समवेत संग्रहों में रचनाएँ संकलित।
अनुवाद: अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ‘ऑफ़रिंग्स’ का हिन्दी अनुवाद।
संपादन: ‘अशोक अंजुम: व्यक्ति एवं अभिव्यक्ति’ (समग्र मूल्यांकनपरक कृति)। ‘अरण्य का सौन्दर्य’ (डॉ. इन्दिरा अग्रवाल के सृजन पर आधारित समीक्षा-कृति)। ’सरस्वती सुमन’ (त्रैमा.) का बहुचर्चित ‘मुक्‍तक/रुबाई विशेषांक’। ‘त्योहारों के रंग, कविता के संग’ (तैयारी में...)।
विशेष: अनेक काव्य-रचनाएँ संगीतबद्ध एवं गायकों द्वारा गायन। राष्ट्रीय/ प्रान्तीय/ क्षेत्रीय स्तर पर विविध साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं के निर्णायक-मण्डल में शामिल।
उ. म. क्षे. सांस्कृतिक केन्द्र, (सांस्कृतिक मंत्रालय, भारत सरकार) एवं
‘स्टार इण्डिया फ़ाउण्डेशन’ द्वारा आयोजित कार्यशालाओं में ‘फोनेटिक्स’,
‘सेल्फ़-डेवलपमेण्ट’, ‘कम्यूनिकेशन एण्ड प्रेज़ेण्टेशन स्किल’, आदि विषयों पर कार्यशालाओं में रिसोर्स पर्सन/मुख्य वक्ता के रूप में प्रभावपूर्ण भागीदारी।
सम्मान/पुरस्कार: अनेक सम्मान एवं पुरस्कार (समारोहपूर्वक प्राप्त)। जैसे- पं. संतोष तिवारी स्मृति सम्मान, साहित्यश्री(के.औ.सु.ब. इकाई मप्र), नागार्जुन सम्मान, साहित्य भारती, महादेवी वर्मा सम्मान, आदि के अतिरिक्त विभिन्न प्रशस्तियाँ व स्मृति-चिह्न प्राप्त। प्रकाशित रचनाओं पर 500-600 से अधिक प्रशंसा व आशीष-पत्र प्राप्त।
सम्प्रति: अंग्रेज़ी-अध्यापन (ए. बी. आई. कॉलेज, रेणुसागर, सोनभद्र, उप्र 231218).
सम्पर्क: आई आर- 13/6, रेणुसागर, सोनभद्र, (उ.प्र.) 231218 भारत.

ईमेल: jjauharpoet@gmail.com
ब्लॉग: http://jitendrajauhar.blogspot.com/

-एक-

ख़ुशामद का मिरे होठों पे, अफ़साना नहीं आया।
मुझे सच को कभी भी झूठ बतलाना नहीं आया।


हुनर अपना कभी मैंने, कहीं गिरवी नहीं रक्खा,
इसी कारण मेरी झोली में नज़राना नहीं आया।


भले ही मुफ़लिसी के दौर में फ़ाक़े किये मैंने,
मगर मुझको कभी भी हाथ फैलाना नहीं आया।


किसी अवरोध के आगे, कभी घुटने नहीं टेके,
मैं दरिया हूँ मुझे राहों में रुक जाना नहीं आया।


सियासत की घटाएँ तो बरसती हैं समुन्दर में,
उन्हें प्यासी ज़मीं पे प्यार बरसाना नहीं आया।


परिन्दे चार दाने भी, ख़ुशी से बाँट लेते हैं,
मगर इंसान को मिल-बाँट के खाना नहीं आया।


अनेकों राहतें बरसीं, हज़ारों बार धरती पर,
ग़रीबी की हथेली पर कोई दाना नहीं आया।


सरे-बाज़ार उसकी आबरू लु्टती रही ‘जौहर’
मदद के वास्ते लेकिन कभी थाना नहीं आया।

**

-दो-

गगन के वक्ष पे मधुरिम मिलन की प्यास लिख देना।
धरा का दर्द में डूबा हुआ, इतिहास लिख देना।


निरन्तर क़ैद में बुलबुल के घायल पंख कहते हैं,
मेरे हिस्से में इक छोटा सही, आकाश लिख देना!


कभी मुफ़लिस की आँखों में, तुम्हें पतझड़ दिखायी दे,
नयन से सींचकर धरती पे तुम मधुमास लिख देना।


तुम्हें मज़लूम के लाचार अश्कों की क़सम ‘जौहर’
ग़ज़ल में सिसकियाँ भरता हुआ एहसास लिख देना।

**

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