Archive for 10/1/10 - 11/1/10

समीर लाल ’समीर’ की दो कविताएँ


श्री समीर लाल का जन्म २९ जुलाई, १९६३ को रतलाम म.प्र. में हुआ. विश्व विद्यालय तक की शिक्षा जबलपुर म.प्र से प्राप्त कर आप ४ साल बम्बई में रहे और चार्टड एकाउन्टेन्ट बन कर पुनः जबलपुर में १९९९ तक प्रेक्टिस की. सन १९९९ में आप कनाडा आ गये और अब वहीं टोरंटो नामक शहर में निवास करते है. आप कनाडा की सबसे बड़ी बैक के लिए तकनिकी सलाहकार हैं एवं पेशे के अतिरिक्त साहित्य के पठन और लेखन की ओर रुझान है. सन २००५ से नियमित लिख रहे हैं. आप कविता, गज़ल, व्यंग्य, कहानी, लघु कथा आदि अनेकों विधाओं में दखल रखते हैं एवं कवि सम्मेलनों के मंच का एक जाना पहचाना नाम हैं. भारत के अलावा कनाडा में टोरंटो, मांट्रियल, ऑटवा और अमेरीका में बफेलो, वाशिंग्टन और आस्टीन शहरों में मंच से कई बार अपनी प्रस्तुति देख चुके हैं.
आपका ब्लॉग “उड़नतश्तरी” हिन्दी ब्लॉगजगत का विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय नाम है एवं आपके प्रशांसकों की संख्या का अनुमान मात्र उनके ब्लॉग पर आई टिप्पणियों को देखकर लगाया जा सकता है.
आपका लोकप्रिय काव्य संग्रह ‘बिखरे मोती’‘ वर्ष २००९ में शिवना प्रकाशन, सिहोर के द्वारा प्रकाशित किया गया. लघु उपन्यासिका ’सफर की सरगम’ एवं कथा संग्रह ‘द साईड मिरर’ (हिन्दी कथाओं का संग्रह) प्रकाशन में है और शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है.
सम्मान: आपको सन २००६ में तरकश सम्मान, सर्वश्रेष्ट उदीयमान ब्लॉगर, इन्डी ब्लॉगर सम्मान, विश्व का सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दी ब्लॉग, वाशिंगटन हिन्दी समिती द्वारा साहित्य गौरव सम्मान सन २००९ एवं अनेकों सम्मानों से नवाजा जा चुका है.
समीर लाल का ईमेल पता है: sameer.lal@gmail.com

मेरी माँ लुटेरी थी: समीर लाल ’समीर’

माँ!!
तेरा
सब कुछ तो दे दिया था तुझे
विदा करते वक्त
तेरा
शादी का जोड़ा
तेरे सब जेवर
कुंकुम, मेंहदी, सिन्दूर
ओढ़नी
नई
दुल्हन की तरह
साजो
सामान के साथ
बिदा
किया था...
और हाँ
तेरी छड़ी
तेरी ऐनक,
तेरे नकली दांत
पिता
जी ने
सब कुछ ही तो
रख दिये थे
अपने हाथों...
तेरी
चिता में |

लेकिन
फिर भी
जब से लौटा हूँ घर
बिठा कर तुझे
अग्नि रथ पर
तेरी छाप क्यों नजर आती है?

वह धागा
जिसे तूने मंत्र फूंक
कर दिया था जादुई
और बांध दिया था
घर
मौहल्ला,
बस्ती
सभी को एक सूत्र में
आज
अचानक लगने लगा है
जैसे टूट गया वह धागा
सब कुछ
वही तो है
घर
मौहल्ला
बस्ती
और वही लोग
पर घर की छत
मौहल्ले का जुड़ाव
और
बस्ती का सम्बन्ध
कुछ ही तो नहीं
सब कुछ लुट गया है न!!
हाँ माँ !
सब कुछ
और ये सब कुछ
तू ही तो ले गई है लूट कर
मुझे पता है
जानता हूं न बचपन से
तेरा लुटेरापन |

तू ही तो लूटा करती थी
मेरी पीड़ा
मेरे दुख
मेरे सर की धूप
और छोड़ जाती थी
अपनी लूट की निशानी
एक मुस्कान
एक रस भीगा स्पर्श
और स्नेह की फुहार
अब सब कुछ लुट गया है!!

स्तम्भित हैं
पिताजी तो
यह भी नहीं बताते
आखिर
कहां लिखवाऊँ
रपट अपने लुटने की
घर के लुटने की
बस्ती और मौहल्ले के लुटने की
और सबसे अधिक
अपने समय के लुट जाने की...
***

आज फिर रोज की तरह
माँ याद आई!!
माँ
सिर्फ मेरी माँ नहीं थी
माँ
मेरे भाई की भी
माँ थी
और भाई की बिटिया की
बूढ़ी दादी..
और
मेरी बहन की
सिर्फ माँ नहीं
एक सहेली भी
एक हमराज...
और फिर उसकी बेटियों की
प्यारी नानी भी वो ही...
उनसे बच्चों सा खेलती नानी...
वो सिर्फ मेरी माँ नहीं
गन्सु काका की
माँ स्वरुप भाभी भी
और राधे ताऊ की
बेटी जैसी बहु भी...
दादा की
मूँह लगी बहू
दादी की आदेशों की पालनकर्ता
उनकी परिपाटी की मूक शिष्या..
उन्हें आगे ले जाने को तत्पर...
और नानी की
प्यारी बिटिया
वो थी
अपनी छोटी बहिन और भाईयों की दीदी
और अपनी दीदी की नटखट छुटकी..
नाना का अरमान
वो राधा की सहेली ही नहीं
माँ सिर्फ मेरी ही नहीं..
उसकी बेटी की भी
माँ थी...
माँ
कितना कुछ थी..
बस और बस,
माँ सिर्फ माँ थी..
हर रुप में..
हर स्वरुप में..
मगर फिर भी
सिर्फ मेरी ही नहीं...
माँ हर बार
सिर्फ माँ थी.
अब
माँ नहीं है
इस दुनिया में...
वो मेरे पिता की
पत्नी, बल्कि सिर्फ पत्नी ही नहीं
हर दुख सुख की सहभागी
उनकी जीवन गाड़ी का
दूसरा पहिया...
अब
पिता छड़ी का सहारा लेते हैं..
और फिर भी
लचक कर चलते हैं...
माँ!!
जाने क्या क्या थी
माँ थी
मेरा घर
वो गई
मैं बेघर हुआ!
***
-समीर लाल ’समीर’

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नवनीत पाण्डे की दो कविताएँ

नवनीत पाण्डे राजस्थानी और हिंदी में गद्य और पद्य की दोनों विधाओं में समान गति से लिखते हैं. आपकी 'सच के आस-पास' हिंदी कविता संग्रह और 'माटी जूण' राजस्थानी उपन्यास के अलावा बाल साहित्य की भी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. राजस्थानी कहानी संग्रह व हिंदी कविता संग्रह निकत्क भविष्य में हमारे समक्ष होगा. इन दिनों आप अपने ब्लॉग 'poet of india' में लिखते हैं. वर्तमान में आप भारत संचार निगम लिमिटेड के बीकानेर कार्यालय में अपनी बहुमूल्य सेवाएँ दे रहे हैं. आज उन्ही की कलम से निकली प्रेम को अलग-अलग अर्थों में परिभाषित करती दो रचनाएँ सुधि साहित्य प्रेमियों और पाठकों की नज़र है.....

(१)

प्रेम
जो भी करता है
उसे अपना ही एक अर्थ देता है
किसी के लिए
राधा-श्याम, मीरा-गिरधर,
सोहनी-महिवाल, हीर-रांझा,
ढोला-मरवण है प्रेम
किसी के लिए
किसी को देखना भर प्रेम है
किसी को
किसी का अच्छा लगना
किसी के लिए
किसी की जान प्रेम है
तो किसी के लिए
किसी के साथ सोने की चाह भर है प्रेम
जितने प्रेम
उतने अर्थ
कुछ अनमोल
कुछ व्यर्थ
किसी के लिए ईश्वर
किसी के लिए भक्ति
किसी के लिए आसक्ति
किसी के लिए विरक्ति है प्रेम
मेरे लिए
प्रेम है एक आश्चर्य
शब्द व्यक्त से परे
एक ऐसा आश्चर्य
जो सिर्फ होता है
होता है
कहीं भी
कभी भी
***
(२)

प्रेम
तुम केवल प्रेम क्यूं नहीं हो
क्यूं है तुम्हारे साथ
तुम्हारी चाह
तुम्हारी आह
क्य बेकल है हर कोई
जानने के लिए
तुम्हारी थाह

ओ प्रेम!
आखिर क्या है
तुम्हारा रूप, स्वरूप
तुम!
मौन
वाचाल
भीतर
बाहर
व्यक्त
अव्यक्त
निज
सार्वजनिक
क्या हो तुम?
क्या है तुम्हारी पहचान
कहां है तुम्हारा
उद्भव, अवसान

प्रेम!
कहां कहां हो तुम
और कहां नहीं
सब करते हैं तुम्हारी बडाईयां
न जाने कितने
जीत, हार चुके तुम्हारे दम, बूते
अपनी जीवन लडाईयां
झेल चुके रुस्वाईयां

और आज भी
जारी है अनवरत
न जाने कहां कहां
किस किस रूप में
तुम्हारे लिए कितने संग्राम
कितने कत्ल-ए-आम

प्रेम!
तुम्हें शत् शत् प्रणाम
कितना छोटा
और आसान है
तुम्हारा नाम
पर कितनी दुरूह,
दुर्लभ
दुर्गम है तुम्हारी राह
तुम्हारी चाह!
कितनी अथाह!
जो पाए, बोराए
क्या क्या स्वांग रचाए
रंग में तेरे, रंग रंग जाए

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एकता नाहर की दो ग़ज़लें

आपके समक्ष लगनशील और युवा लेखिका एकता नाहर की कुछ रचनाएँ प्रस्तुत हैं. इनकी खूबी है कि आप तकनीकी क्षेत्र में अध्ययनरत होने के उपरांत भी हिंदी साहित्य की दोनों विधाओं गध्य और पद्य में अपने लिखने के साथ बेहद उम्दा sketches भी बनाती हैं ! बी.ई.फ़ाइनल ईअर की विद्यार्थी एकता नाहर की रचनाये समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकशित होती रहती हैं. दो अलक-अलग व्यक्तित्व की धनी एकता कवि सम्मेलनों में भी अपनी प्रस्तुति देती आई हैं. पेशेनज़र है उनके भावुक मन से निकली दो ग़ज़लें...

ग़ज़ल एक

रात की ख़ामोशी इस बात की गवाही है,
शायद आने वाली फिर एक नयी तबाही है!!

सहमा-सा हर मंजर सनसनी-सी फैली हुई,
सुनसान रास्तों पर शायद कोई आतंक का राही है!!

यह सीमा पार के हमले हैं या अपनों के हैं विद्रोह,
सारी रात कश्मीर ने इस सोच में बितायी है!!

जंग-ए-मैदान में पल-पल छलनी होते सीने,
मौत के सामानों ने कैसी होड़ मचाई है!!

‘एकता' अब तुमको भी हथियार उठाने होंगे,
अब फीकी पड़ने लगी तुम्हारी कलम की स्याही है!!

ग़ज़ल दो

तन्हा नहीं कटते ज़िन्दगी के रास्ते,
हमसफ़र किसी को तो बनाना चाहिए था !!

शब् के अँधेरे गहरे थे बहुत,
मेरे लिए रौशनी किसी को तो जलाना चाहिए था !!

रोते हुए दिल की बात वो समझ ना सके,
शायद आँखों को भी आँसू गिराना चाहिए था !!

यूँ ही ऐतवार कर बेठे एक अजनबी पर हम,
एक बार तो उस शख्स को आजमाना चाहिए था !!

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अरुण देव की दो कविताएँ

रचनाकार परिचय
नाम- अरुण देव
जन्म तिथि- १६ फरवरी, १९७२
जन्म स्थान- कुशीनगर (उ.प्र.)
शिक्षा- M.Phil,Ph.D from JNU (New Delhi).... UGC की फेलोशिप के अंतर्गत मोहन राकेश और आचार्य महावीरप्रसाद द्दिवेदी पर शोध कार्य......
सृजन- क्या तो समय (कविता-संग्रह) 2004 भारतीय ज्ञानपीठ,नई दिल्ली...... कुछ आलोचनात्मक लेख......... संस्कृति,उपनिवेश और हिंदी आलोचना बहुवचन-८...... राष्ट्र की अवधारणा,भारत का अतीत और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,बहुवचन-11,........उपनिवेश और हिंदी का स्वरूप,बहुवचन -२५ ......Mahatma Gandi international Hindi University,Verdha....... हिंदी नवरत्न..संवेद-जनवरी २०१० दिल्ली....
१. विस्मरण

कब तक चमकती रहेगी मेरी स्मृति की वह पगडंडी
जहाँ से तुम चली गयीं कुहरे में
जहाँ से मैं लौट आया अँधेरे में

कितनी लम्बी है तुम्हारी यादों की उम्र
कि कोई पत्ता टूट कर गिरे और काँप न जाएँ तुम्हारी आँखें
और न निकालने लगू मैं अपनी आँख से तिनका

कि कोई एक वाक्य तुम्हारे संदर्भ के बिना
अपने अर्थ तक पहुंच जाए
कि जब कहूँ आज कुछ अच्छा नहीं लग रहा
तो सिर्फ इसका इतना ही मतलब हो

क्या कभी उलझते हैं मेरी यादों के धागे
तुम्हारी सलाईओं में भी

विस्मरण की धूल से कभी ढक जाऊंगा मैं
ढक जाओगी तुम

क्या मद्धिम पड़ जायेगा वह सुर
जिसमें कभी साझा थे हमारे कंठ

वो चिन्हित किए गये गद्य-पद्य
क्या खो देंगे अपना अर्थ

तुम्हारे सुनाये लतीफों की वह हंसी
क्या बुझ जायेगी .

चाय का वह भरा प्याला लिए खड़ा हूँ मैं तबसे
उठ रही अब भी उससे भाप
***

२. कुफ्र

मैं प्रेम करना चाहता था ईश्वर से
बिना डरे बिना झुके
पर इसका कोई वैध तरीका स्थापित ग्रंथो में नहीं था

वहाँ भक्ति के दिशा–निर्देश थे
लगभग दास्य जैसे
जिन पर रहती है मालिक की नजर

मेरे अंदर का खालीपन मुझे उकसाता
उसकी महिमा का आकर्षण मुझे खींचता
जब जब घिरता अँधेरे में उसकी याद आती आदतन
मैं समर्पित होना चाहता था
अपने को मिटाकर एकाकार हो जाना चाहता था
पर यह तो अपने को सौंप देना था किसी धर्माधिकारी के हाथों में

मैंने कुछ अवतारों पर श्रद्धा रखनी चाही
कृष्ण मुझे आकर्षित करते थे
उनमें कुशल राजनीतिज्ञ और आदर्श प्रेमी का अद्भुत मेल था
पर जब भी मैं सोचता
भीम द्वारा दुर्योधन के टांग चीरने का वह दृश्य मुझे दिखता
पार्श्व में मंद –मंद मुस्करा रहे होते कृष्ण
मुझे यह क्रूर और कपटपूर्ण लगता था

उस अकेले निराकार तक पहुचने का रास्ता
किसी पैगम्बर से होकर जाता था जिसकी कोई-न-कोई किताब थी
यह ईश्वर के गुप्त छापेखाने से निकली थी
जो अक्सर दयालु और सर्वशक्तिमान बताया जाता था
और जिसके पहले संस्करण की सिर्फ पहली प्रति मिलती थी
इसका कभी कोई संशोधित संस्करण नहीं निकलना था
शायद ईश्वर के पास कुछ कहने के लिए रह नहीं गया था
या उसकी आवाज़ लोगों ने सुननी बंद कर दी थी

उससे डरा जा सकता था या डरे-डरे समर्पित हुआ जा सकता था

अप्सराओं से भरे उस स्वर्ग के बारे में जब भी सोचता
मुझे दीखते धर्म-युद्धों में गिरते हुए शव

अपने श्रम के अतिरिक्त क्या चाहिए मुझे ?

हिंसा और अन्याय के इस विशाल साम्राज्य में
जैसे वह एक आदिम लत हो


मठ और महंतो से परे
उस ईश्वर से प्रेम करने का क्या कोई रास्ता है
और क्या उसकी जरूरत भी है
***

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प्रमोद कुमार चमोली की लघुकथा- सरप्राईज

सरप्राईज


रविवार का दिन! घर पर बैठा पुराने कागजात को तरतीब से लगाने का प्रयास कर रहा था। इन्ही कागजों में अचानक एक पुरानी फोटो हाथ आ गई। इस फोटो में मैं अपने पुराने सबसे अजीज मित्र महेश के साथ खडा हूँ। फोटो क्या दिखा! अतीत को कुरेदती हुयी स्मृतियां फिल्म की तरह दिमाग में चलने लगी। एक वो समय था कि जब हम दोनो एक दूसरे के बगैर नहीं रह सकते थे। एक ये समय कि मिले हुए अरसा बीत गया। अरे! महेश से मिले हुए तो दो वर्ष हो गए। उसकी माताजी के स्वर्गवास के समय उसके घर जाना हुआ था। उस समय तो लगातार पांच-सात बार जाना हो गया था। क्या करें भाई! महेश ने घर भी तो बहुत दूर बना लिया। फिर लाईने भी हमारी अलग-अलग! वो बैंक में कार्यरत, मैं स्कूल में टीचर। अब तो दोस्तों से मिलना सुख-दुःख में ही हो पाता है। वो भी अगर मालूम चले तो। दोस्तों से मिलने का मन तो बहुत करता है पर वक्त मिले तब ना!
चलो आज कुछ काम नहीं हैं, फ्री हूँ, एक दम फ्री महेश से मिल ही लेते हूँ। फोन कर लूं ..... नहीं नहीं अचानक पहुँच कर ही उसे सरप्राईज दूंगा। सर .... प्राईज ... ! स्कूटर पर किक लगाकर रवाना हुआ। कुछ ही समय में उसके घर के सामने। डोर बैल दबाई, अन्दर से महेश के बाऊजी ने दरवाजा खोला। मैं महेश का पूछता उससे पहले ही बाऊजी बोले बहुत दिनों से आया है। भूल गया क्या ? मैने कहा नहीं नहीं ऐसा नहीं है। क्या करूँ ? समय ही नहीं मिलता। बाऊजी हंसते हुए बोले आजकल की पीढी के पास समय के अलावा सब कुछ है। अच्छा अब ये सब छोड तु अन्दर भी आएगा या समय नहीं है। उनके आग्रह के अपनेपन व मिठास ने मुझे अन्दर बैठने को मजबूर कर दिया। बाऊजी ने बताया महेश बच्चों को लेकर मेला देखने गया है। उसे भी तो रविवार को ही समय मिलता है। काफी देर हो गई है, वो लोग आने वाले ही होगें। मैने सहज होते हुए कहा कोई बात नहीं बाऊजी वो लोग आ जाऐंगे। मै आज महेश से मिलने की ठान कर आया हूँ, मिलकर ही जाऊंगा। जब तक महेश नही आता आप से बातचीत करके अनुभवों का लाभ लुंगा। हाँ हाँ क्यो नहीं तुम्हारे आने से मुझ रिटायर आदमी का भी कुछ समय पास हो जाऐगा। महेश के बाऊजी से बातचीत चलती रही। बाऊजी पहले बडे ही हँसमुख व जिन्दादिल प्रकृति के हुआ करते थे। आज मुझे उनकी बातचीत से लगा जैसे वों महेश की माताजी के देहान्त के बाद काफी अकेलापन महसूस करते है। महेश के घर बैठकर जब हम पढा करते थे तब बाऊजी बीच में आकर हमें जरूरी टिप्स बताया करते थे। महेश के साथ दोस्तों का सा व्यवहार करते थे। महेश भी तो अपने बाऊजी की तारीफ करने नहीं थकता था। इन सब बातों का गवाह मैं भी हूँ।
बाऊजी से बाते करते करते एक घण्टा बीत गया समय का मालूम ही नहीं चला। तभी स्कूटर के हार्न की आवाज आयी, लगता है वो लोग आ गये। बाऊजी ने उठते हुए कहा, अच्छा बेटा ! कभी कभार आ जाया कर, तुझसे बात करके आज अच्छा लगा। इतना कहकर वे अन्दर चले गए।
महेश ने बाहर ही मेरे स्कूटर को पहचान लिया था। कमरें में आकर बडी गर्मजोशी से गले मिला। हमारे बीच कुछ शिकवे शिकायत हुई। आपस मे एक दुसरे का हाल-चाल जानने के बाद, महेश ने पूछा अच्छा ये बता कितनी देर हुई तुझको यहाँ आये हुए। मैने बताया यही कोई घण्टा सवा घण्टा हुआ होगा। बाऊजी के साथ बातचीत में समय का पता ही नही चला। इतना सुनते ही उसके चेहरे के भाव बदल गये। मेरे पास खिसकते हुए धीरे से फुसफुसा कर बोला! क्या बताऊं यार ? बाऊजी भी न आजकल हर किसी को पकड कर बैठ जाते हैं। मेरे सारे दोस्तों ने उनके डर से घर आना ही बंद कर दिया। सॉरी यार तू पहले फोन कर देता तो तुझे इतना बोर नही होना पडता। इतना सुनते ही मुझे लगा कि मैं बिना फोन किये आकर महेश को सरप्राईज देना चाहता था पर महेश ने सर्प्राईज मुझे दे दिया। मेरा ध्यान अब महेश के बाऊजी की कही उन बातों पर जा रहा था जिन्हे मैं उनकी जिन्दादिली या मजाकिया अन्दाज के विपरीत समझ रहा था। जिनकों मैं उनका पत्नी वियोग समझ बैठा था। वो सभी बातें महेश से मिले इस सरप्राईज के बाद मुझे अच्छी तरह समझ आ रही थी।

रचनाकार परिचय
नामः प्रमोद कुमार चमोली
पिता का नामः श्री प्रेमलाल चमोली
जन्मतिथिः ०५-०५-१९६६
योग्यताः एम.ए., एम.एड., बी.जे.एम.सी.
पताः राधा स्वामी सत्संग भवन के सामने, गली नं. २, अम्बेडकर कॉलोनी, पुरानी शिवबाडी रोड, बीकानेर-३ (राज.)
लेखन अभिरूचिः कथा, लघुकथा, व्यंग्य, संस्मरण, नाटक व आलेख
प्रकाशनः
(१) हंस, पाखी, मधुमति, दैनिक भास्कर (रसरंग), राजस्थान पत्रिका, अक्षर खबर, विकल्प, गवरजा, दैनिक युगपक्ष, लोकमत व नोखा जनपक्ष इत्यादि में कथा/लघुकथा/व्यंग्य तथा आलेख प्रकाशित।
(२) समतुल्य शिक्षा कार्यक्रम (सतत शिक्षा) के लिये स्तर ’ए‘ (कक्षा तीन के समकक्ष) के लिए पर्यावरण अध्ययन की पुस्तक का लेखन।
(३) शिक्षक दिवस प्रकाशन में जीवन के कितने पाठ तथा सृजन के रंग, कथा संग्रह में कहानियां प्रकाशित।
(४) आकाशवाणी से वार्ता, रेडियो नाटक व झलकी प्रसारित।
(५) विभिन्न स्मारिकाओं में लेखन व सम्पादन कार्य
पुरस्कार एवं सम्मानः
(१) २००५-०६ में जवाहरकला केन्द्र जयपुर द्वारा आयोजित लघु नाट्य प्रतियोगिता में लघुनाटक ’आशियाना‘ को प्रथम स्थान।
(२) २००७-०८ की जवाहर कला केन्द्र जयपुर द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में लघुनाटक ’जिन्दगी फिर मुस्करायेगी‘ को प्रथम दस स्थानों में चयन।
(३) राव बीकाजी संस्थान बीकानेर द्वारा शिक्षा और साहित्य में उल्लेखनीय सेवाओं के लिये सम्मान।
(४) रेडियो नाटक ’सही रास्ता‘ का राज्य स्तरीय प्रसारण।
(५) शिक्षा में उल्लेखनीय सेवा के लिए २००७ में लॉयन क्लब बीकानेर द्वारा सम्मान।
(६) दैनिक भास्कर द्वारा २००८ का शिक्षक सम्मान।
(७) आदर्श मौहल्ला नागरिक समिति द्वारा शिक्षक सम्मान।
(८) नगर विकास न्यास, बीकानेर द्वारा वर्ष २००९-१० हेतु हिन्दी साहित्य का मैथलीशरण गुप्त सम्मान।
अन्यः बीकानेर में विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं नाट्य प्रस्तुतियों में मंच और मंच पार्श्व में सहयोग।
सम्प्रतिः राजकीय नेत्रहीन छात्रावासित विद्यालय, बीकानेर में वरिष्ठ अध्यापक (विज्ञान) के पद पर कार्यरत।

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सुरिंदर रत्ती की कविता - रावण

विजय दशमी की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ

 रचनाकार:


नाम: सुरिंदर रत्ती

मुंबई (महाराष्ट्र)

रावण

आज अख़बार में एक ख़बर पढ़ी

रावण का कद छोटा हो गया है ।

मैं पढ़ कर थोड़ा हैरान हुआ

महंगाई ने भले ही रावण का कद

छोटा कर दिया हो

लेकिन रावणों के ग़लत मंसूबों पर

पानी फेरना अत्यंत कठिन काम है ।

रावण आज भी हमारे हृदय में बसता है ।

राम को दिल में रखने की जगह नहीं है ।

रावण के दस सिर हैं

और दस सिरों में से अनेक प्रकार के

विषय-विकार जन्म लेते हैं ।

आज के आधुनिक युग में,

विभीषण भी बहुत हैं

और रावण भी बहुत हैं

देश और धर्म की सेवा करनेवाले

विरले ही नज़र आते हैं ।

रावण वो विशाल वृक्ष है,

जिसकी जड़ों पर हर इंसान

अपने स्वार्थ का पानी डाल कर,

उसको पुष्टि देता है, ताक़त देता है ।

आज हम सब लोग रावण के हाथ

मज़बूत कर रहे हैं ।

कौन कहता है के रावण मर गया है,

उसका कद छोटा हो गया है ।

आप अपने इर्द-गिर्द देखेंगे तो

राम के भेस में रावण नज़र आयेंगे,

हम सभी रावण की ही भक्ति

रोज़ करते हैं ।

उसकी हर बुराई की नकल करते हैं,

उस पर अमल करते हैं ।

हमारे देश भारत में

प्रतिदिन सीता की इज्ज़त नीलाम होती है

और लोग सिर्फ़ तमाशा देखते हैं ।

आप कह सकते हैं, युग बदला है

लेकिन हमारा स्वभाव, हमारी बुरी आदतें

नहीं बदली ।

हमारे विषय-विकारों का दायरा,

रावण के कद से कई लाख गुणा बड़ा है ।

रावण हमारी प्रेरणा का साधन बन गया है ।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम के वचन

किताबों तक ही सीमित रह गये हैं

और हम सिर्फ़ रामराज की कल्पना ही

कर सकते हैं ।

आप ही बताईये रावण के भक्त

राम की भक्ति कैसे कर सकते हैं?

मन में राम को बसा लो या रावण को,

क्योंकि मन तो हमारे पास एक ही है ।

गुरूग्रंथ साहिब की गुरूबाणी में लिखा है

"एक लख पूत सवा लख नाती

तिस रावण के घर दीया न बाती"

तो साथीयो कहने का अर्थ यह है

बुराई पर अच्छाई कि विजय अवश्य होगी ।

ये बात आप स्वर्ण अक्षरों में लिख लो ।
***

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देवी नागरानी की चार ग़ज़लें

रचनाकार परिचय
नाम- देवी नागरानी
जन्म- 11 मई 1949 को कराची में
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ: ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)

प्रकाशन-प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।
"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।"
गजलः एक
किस्मत हमारी हमसे ही मांगे है अब हिसाब
ऐसे में तुम बताओ कि हम दें भी क्या जवाब.

अच्छाइयां बुराइयां दोनों हैं साथ साथ
इस वास्ते हयात की रंगीन है किताब.

घर बार भी यहीं है तो परिवार भी यहीं
घर से निकल के देखा तो दुनियां मिली ख़राब.

पूछूंगी उनसे इतने ज़माने कहां रहे
मुझको अगर मिलेंगे कहीं भी वो बेनकाब.

मुस्काते मंद मंद हैं हर इक सवाल पर
हर इक अदा जवाब की उनकी है लाजवाब.

पिघले जो दर्द दिल के, सैलाब बन बहे
आंखों के अश्क बन गए मेरे लिये शराब.

‘देवी’ सुरों को रख दिया मैंने संभालकर
जब दिल ने मेरे सुन लिया बजता हुआ रबाब.
॰॰
ग़ज़ल: दो
आंसुओं का रोक पाना कितना मुश्किल हो गया
मुस्करहट लब पे लाना कितना मुश्किल हो गया.

बेख़ुदी में छुप गई मेरी ख़ुदी कुछ इस तरह
ख़ुद ही ख़ुद को ढूंढ़ पाना कितना मुश्किल हो गया.

जीत कर हारे कभी, तो हार कर जीते कभी
बाज़ियों से बाज़ आना कितना मुश्किल हो गया.

बिजलियों का बन गया है वो निशाना आज कल
आशियाँ अपना बचाना कितना मुश्किल हो गया.

हो गया है दिल धुआं-सा कुछ नज़र आता नहीं,
धुंध के उस पार जाना कितना मुश्किल हो गया.

यूँ झुकाया अपने क़दमों पर ज़माने ने मुझे
बंदगी में सर झुकना कितना मुश्किल हो गया.

साथ ‘देवी’ आपके मुश्किल भी कुछ मुश्किल न थी
आपके बिन मन लगाना कितना मुश्किल हो गया.
॰॰
गज़लः तीन
कौन किसकी जानता है आजकल दुश्वारियां
जानते हैं लोग अपनी बेसरो सामानियां.

मैंने ग़ुरबत में हमेशा देखी है आसानियां
दौल्तो-सर्वत से लेकिन बढ़ गई दुशवारियां.

मुस्कराकर राहतों का लुत्फ़ लेते हैं सभी
रास्ते दुश्वार हों तो बढ़ती है बेताबियां.

ढेर से तोहफे हमें देती है हर पल ज़िंदगी
उनके बदले दिन ब दिन आती रहीं दुश्वारियां.

चाहती हूं मैं मिटा दूं हर नये उस अक्स को
लौट कर रह रह के फिर आ जाती हैं परछाइयां.

साया भी मेरा मुझीसे है ख़फा ‘देवी’ बहुत
नागवार उसको भी हैं शायद मेरी नादानियां.
॰॰

गजलः चार
मेरा शुमार कर लिया नज़ारों में जाने क्यों
लाकर खड़ा किया है सितारों में जाने क्यों?

गुलशन में रहके ख़ार मिले मुझको इस क़दर
अब तो खिज़ां लगे है बहारों में जाने क्यों?

वैसे तो बात होती है उनसे मेरी सदा
पर आज कह रहे हैं इशारों में जाने क्यों?

सौ सौ को जो तरसते रहे उम्र भर सदा
होती है उनकी गिनती हज़ारों में जाने क्यों?

गै़रत वहां मिली है जहां ढूंढा अपनापन
देखी न पुख़्तगी ही सहारों में जाने क्यों.

वादे वही रहे हैं, वफाएँ वही रहीं
उठ-सा गया यक़ीन ही यारों में जाने क्यों?
*******
(चराग़े-दिल)

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स्व. शिवराम जी की कविता- नारी

श्रद्धांजलि


स्‍व. शिवराम- हिंदी और राजस्थानी साहित्य का एक ऐसा चमकता सितारा जिसने अपनी रोशनाई से समूचे साहित्य जगत को जगमगाया..! अब ये सितारा हमारे बीच नहीं रहा..पर समूचे साहित्य जगत में उनके योगदान तक युगों-युगों तक नहीं भूल पायेगा..! आइये आज उन्ही की एक अमर कृति से उनको श्रद्धांजली अर्पित करें..!

जन्म- 23 दिसंबर 1949 को राजस्थान के करौली नगर में ।
शिक्षा - गांव गढ़ी बांदुवा, करौली और अजमेर में।
परिचय
33 वर्षों से हिन्दी की महत्वपूर्ण साहित्यिक लघु पत्रिका 'अभिव्यक्ति' का संपादन ।
प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे। जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से वे एक । अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा 'विकल्प' के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका । वर्तमान में 'विकल्प' के महासचिव थे।
भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) सदस्यता ग्रहण की। पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य ।
प्रकाशित पुस्तकें
• जनता पागल हो गई है (नाटक संग्रह)
• घुसपैठिए (नाटक संग्रह)
• दुलारी की माँ (नाटक)
• एक गाँव की कहानी (नाटक)
• राधेया की कहानी (नाटक)
• सूली ऊपर सेज (सेज पर विवेचनात्मक पुस्तक)
• पुनर्नव (नाट्य रूपांतर संग्रह)
• गटक चूरमा (नाटक संग्रह)
• माटी मुळकेगी एक दिन (कविता संग्रह)
• कुछ तो हाथ गहो (कविता संग्रह)
• खुद साधो पतवार (कविता संग्रह)
देहावसान - १ अक्टूबर २०१०, शुक्रवार
नारी

बरसात की रात के
खुले आकाश मेँ
दमकता चाँद हो तुम
सर्दियोँ की सुबह का
उगता हुआ सुरज
फलोँ से लक-दक
पेड हो आम का
कल-कल बहती
नदी हो, सदानीरा
चुल्हे की आँच हो
टँगस्टन तार हो
बल्ब के भीतर का
कौन कहता है
कि अबला हो तुम
तुम सम्बल हो,प्रेरणा हो
ह्रदयहीन दुनिया का
ह्रदय हो
तुम्हारे ही बल पर
कायम है यह कायनात
स्वाधीनता हक है तुम्हारा और
यही तुम्हारे पास नहीँ
***

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नन्द भारद्वाज की कविता- जो टूट गया है भीतर

नंद भारद्वाज- वैसे तो ये नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं फिर भी एक संक्षिप्ते परिचय:
राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर के माडपुरा गाँव में फागुन वदी अष्टमी, वि. संवत् २००५ (२० मार्च १९४९) को जन्म, लेकिन राजकीय दस्तावेज में १ अगस्त १९४८ दर्ज। हिन्दी और राजस्थानी में कवि, कथाकार, समीक्षक और संस्कृतिकर्मी के रूप में सुपरिचित। सन् १९६९ से कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, संवाद और अनुवाद आदि विधाओं में निरन्तर लेखन और प्रकाशन। जन संचार माध्यमों विशेषत; पत्रकारिता, आकाशवाणी और दूरदर्शन में सम्पादन, लेखन, कार्यक्रम नियोजन, निर्माण और पर्यवेक्षण के क्षेत्र में पैंतीस वर्षों का कार्य अनुभव।

प्रकाशन : राजस्थानी में अंधार पख (कविता संग्रह), दौर अर दायरौ (आलोचना), सांम्ही खुलतौ मारग (उपन्यास) और अल्बेयर कामू के उपन्यास ‘ल स्ट्रैंजर‘ का राजस्थानी में अनुवाद बैतियाण प्रकाशित। हिन्दी में झील पर हावी रात (कविता संग्रह), संवाद निरन्तर (कला, साहित्य और संस्कृति पर साक्षात्कारों का संग्रह), और साहित्य परम्परा और नया रचनाकर्म (आलोचनात्मक निबंधों का संग्रह), हरी दूब का सपना (कविता संग्रह) और संस्कृति जनसंचार और बाजार (समकालीन मीडिया पर केन्द्रित निबंधों का संग्रह) प्रकाशित । सम्पादन : सन् १९७१-७२ में जोधपुर से प्रकाशित दैनिक ‘जलते दीप‘ का संपादन। सन् १९७२ से १९७५ तक राजस्थानी साहित्यिक पत्रिका ‘हरावळ‘ का संपादन। सन् १९८९ में राजस्थान साहित्य अकादमी से प्रकाशित ‘राजस्थान के कवि‘ शृंखला के तीसरे भाग रेत पर नंगे पाँव का संपादन, १९८७ में राजस्थान शिक्षा विभाग द्वारा प्रकाशित सृजनधर्मी शिक्षकों की राजस्थानी रचनाओं के संकलन सिरजण री सौरम, और वर्ष २००७ में नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली से स्वतंत्रता के बाद की राजस्थानी कहानियों के संकलन तीन बीसी पार का संपादन । सम्मान : राजस्थानी ग्रेजुएट्स नेशनल सर्विस एसोसिएशन, मुंबई द्वारा ‘अंधार पख‘ पर वर्ष की श्रेष्ठ कृति का पुरस्कार सन् १९७५ में । राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा ‘दौर अर दायरौ‘ के लिए नरोत्तमदास स्वामी गद्य पुरस्कार सन् १९८४ में द्वारिका सेवा निधि ट्रस्ट, जयपुर द्वारा राजस्थानी साहित्य की विशिष्ट सेवा के लिए पं ब्रजमोहन जोशी गद्य पुरस्कार सन् १९९५ में मारवाड़ी सम्मेलन, मुंबई द्वारा ‘सांम्ही खुलतौ मारग‘ पर घनश्यामदास सराफ साहित्य पुरस्कार योजना के अन्तर्गत ‘सर्वोत्तम साहित्य पुरस्कार २००२ में। सन् २००३ में दूरदर्शन महानिदेशालय द्वारा भारतीय भाषाओं की कालजयी कथाओं पर आधारित कार्यक्रम शृंखला के निर्माण में उल्लेखनीय योगदान के लिए विशिष्ट सेवा पुरस्कार, सांम्ही खुलतौ मारग पर केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार २००४ में और संबोधन संस्थान, कांकरोली द्वारा वर्ष २००५ में हरी दूब का सपना पर आचार्य निरंजननाथ साहित्य पुरस्कार से सम्मानित।
जो टूट गया है भीतर 

एक अवयव टूट कर बिखर गया है कहीं भीतर
लहूलुहान–सा हो गया है मेरा अन्त: करण
पीड़ा व्यक्त होने की सीमा तक, आकर ठहर गई है।
कुछ देर और इसी तरह मुस्कुराते रहना है मुझे
इसी सयानी दुनिया में निस्संग
सहज ही बने रहना है
सफर में, बाकी बरस कुछ और

क्या फर्क पड़ता है नदी की शान में,
कितना बदल गया है मेरा अहसास
किसे परवाह
क्यों पीली पड़ गई दीखती हैं
भरी दोपहर में दरख्तों की हरी पत्तियाँ
सड़कों पर दूर तक दहशत
और दरारें निकल आई हैं परकोटे की भींत में
सहम गई हैं उजड़े हुए किले की पुरानी दीवारें
कहीं भूकम्प आने को है शायद
                             समय के गर्भ में।

यह दृश्य इतना बेरंग तो नहीं दीखा था कभी
इतनी हताश तो नहीं दीखी थी
चाँद और सूरज की रौशनी,
नदी उलट कर लौटने लगी है
अपने ही उद्गम की ओर।
धुआं आसमान से उतर कर
समाने लगा है चिमनी की कोख में।
अपनी उड़ान बीच ही में समेट कर
उतर आए हैं असंख्य पक्षी
इस सूखे बंजर ताल में,

तुम क्यों उदास होती हो मूर–हेन
तुम्हें तो मिल ही जाएगी
अपने हिस्से की ठण्डी झील
                     – हरी संवेदना

मुँह अँधेरे उड़ जाना उगते सूरज की सीध
पलट कर नहीं देखना
इस उजाड़ बंजर को आँख भर ,

तुम किस–किस के लिये करोगी पछतावे
किसके आहत होने का रखोगी ख़याल
इस करवट बदलती दुनिया में,
जो टूट गया है अवयवकिसी के भीतर,
उसे उबर कर आने दो अपनी ही आत्म–पीड़ा से ऊपर
सहने दो बन्दी को अपने हिस्से का अवसाद
चुन लेने दो जीये हुए अनुभव का कोई अंश
शायद बच रहा हो कहीं एक संकल्प
                       शेष संभावना।
***

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रंजना श्रीवास्तव की चार कविताएँ

रचनाकार परिचय:
नाम : रंजना श्रीवास्तव
जन्म : गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: एम.ए., बी.एड
प्रकाशित पुस्तकें : चाहत धूप के एक टुकड़े की(कविता संग्रह), आईना-ए-रूह(ग़ज़ल संग्रह), सक्षम थीं लालटेनें(कविता संग्रह-2006 में)।
संपादन : सृजन-पथ (साहित्यिक पत्रिका) के सात अंकों का अब तक संपादन।

पूर्वांचल की अनेक साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध। हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं यथा- वागर्थ, नया ज्ञानोदय, आउटलुक, इंडिया टुडे, अक्षर पर्व, परिकथा, पाखी, कादम्बिनी, सनद, पाठ, साहिती सारिका, वर्तमान साहित्य, काव्यम्, राष्ट्रीय सहारा, उत्तर प्रदेश, जनसत्ता (सबरंग), जनसत्ता कोलकाता(दीवाली विशेषांक), संडे पोस्ट, निष्कर्ष, शब्दयोग, पर्वत राग आदि में कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ एवं स्त्री विमर्श विषयक लेख प्रकाशित।
सम्मान : ‘चाहत धूप के एक टुकड़े की’ कविता संग्रह पर सिलीगुड़ी गौरव सम्मान, उत्तर बंग नाट्य जगत से विशिष्ट कविता लेखन के लिए सम्मानित। हल्का-ए-तामीर-ए-अदब(मऊ आइमा), इलाहाबाद से साहित्य की महती सेवाओं हेतु प्रशस्ति पत्र।
संपर्क : श्रीपल्ली, लेन नं. 2, पो.ऑ. सिलीगुड़ी बाज़ार, सिलीगुड़ी(प. बंगाल)-734005
१.
क्‍या कहना है कामरेड!

वह जिस चाकू से
काटती थी सब्जी
उससे दुःख का गला
रेत सकती थी
पर किसी हत्या के
अपराध में
शामिल होने से
कतराती रही उम्र भर
उसके चूल्हे में जो आग थी
जला सकती थी
उसकी विपन्नता के
सारे संकल्पों को
पर उसने उस पर
सिर्फ रोटियॉं पकायीं
और परिवार के हिस्से में
भूख से लडने की
सारी विपदाओं को
धुआँ हो जाने दिया
उसने उन हथियारों को
जो उसकी रसोई का
हिस्सा थे
और उसकी देह व मन के भी
प्रतिशोध या प्रतिकार की
शैली में
सक्रिय नहीं होने दिया
उसकी गुफाओं के अंधेरे में
कई बार सूरज चमका
और आसमान में
व्यवस्थित हो गया
पर वह धरती बनी रही
वह दरवाजे
बंद करती रही लगातार
लोग उसमें प्रवेश करते रहे
उससे बाहर जाते रहे
उसका अपने बारे में
जानना इतना कम हुआ
कि उसके बारे में जानने लगा
उसका घर-परिवार
उसका समाज
यहाँ तक
कि उसका ईश्वर भी
यह डुगडुगी पीटी गयी
कि जब भी अपने बारे में
सोचेगी स्त्री
अनैतिक हो जायेगी
उसकी सोच
मुल्ला-मौलवी, कुल-पुरोहित
देवी-देवता सब के सब
कुपित हो जायेंगे
अब इन सारे कुपितों की
सनकी बिरादरी में
एक अनैतिक स्त्री का समय
अपने झंडे को
दे रहा है लाल सलाम
इस क्रान्ति के बारे में
तुम्हारा क्या कहना है
कामरेड!
जो घर से चलकर
सडकों पर उतर आयी है।।

२.
यह खबर एक झुनझुना है

यह एक रेप केस का
लाइव टेलीकास्ट है
उत्तेजना है, भीड है,
आवाजे हैं पुलिस है,
सबूत है, गवाह है
आरोप-प्रत्यारोप है
माफी है और सजा की
दरख्वास्त भी
यह खबर एक झुनझुना है
जिसे सब
अपने-अपने तरीके से
बजा रहे हैं
मीडिया, पत्रकार, राजनीतिज्ञ
पर कोई इस खबर के
दुःख के भीतर नहीं है
कोई वहाँ नहीं है
जहाँ लावा पिघल रहा है
और फैल रही है आग
कोई वहाँ भी नहीं है
जहाँ से फेंकी गयी थी
माचिस की तीली
सब के सब
अखबार बने हुए हैं
और खबर के आइने में
देख रहे हैं
अपनी-अपनी शक्लें
अपना-अपना कद
कितना ऊँचा हुआ है
इसकी फिक्र में
खबर के चेहरे पर
चिपका रहे हैं विज्ञापन
विज्ञापन
एक नकली दुनिया का
मानचित्र है
जो कभी नहीं बदल सकता
असल की तकदीर
असल की
तकदीर बदलने के लिए
जड से सोचा जाना होगा
फुनगी पकडकर
पेड को हिलाने से
कैसे काँपेगी भला पृथ्वी।।

३.
विज्ञापन की रुलाई

उसके रोने को
हँसने की तरह देखते हैं सब
अभाव के चेहरे पर
हँसी का विज्ञापन है
वह हँसी के बारे में
बहुत कुछ
जानना चाहता है
जैसे बच्चे
जानना चाहते हैं
देश के बारे में
गाँधी के बारे में
आजादी के बारे में
उस सरहद के बारे में
जहाँ गोलियों की बारिश में
चलती हैं कक्षाएँ
जहाँ खतरा धूल
और पानी के जैसे
हवा में घुल-मिल गया है
वह जानता है
जब तक हँसता रहेगा
भरता रहेगा उसका पेट
मिलता रहेगा काम
और जैसे ही रोयेगा
दुत्कार देंगे सब के सब
वह अपनी हँसी को
फूल की तरह सहेजता है
तकि मुरझा न जाए
उसकी मुस्कान
वह इसी मुस्कान की बदौलत
अपनी गरीबी से
लडता आया है
अपने भूख के गड्ढे को
भरता आया है
उसे इतना मालूम है
कि सस्ती चीजों के
विज्ञापन में मँहगे लोग
जी-जान से जुटे हैं
और एक न एक दिन
सारी सस्ती चीजें
मंहगी होती जायेंगी
तब वह रोयेगा
विज्ञापन की रुलाई
और जीत जायेगा युद्ध।।

४.
हम जब अमृत उगायेंगे

तुम सामंत हो,
वजीर हो या बादशाह
यह चमकता हुआ सिंहासन
हमने ही सौंपा है
तुम अमरीका से
करते हो परामर्श
और हमें ठुकरा देते हो
भला वो क्या जानेगा
भारत के बारे में
हमारे आवेगों,
संवेगों के बारे में
हमारे घरों व माँओं के बारे में
हमारी उस भूख के बारे में
जो अँतडियों में जलकर
आग बनती जाती है
हमारी गायों, भैसों व
बकरियों के बारे में
हमारे खेती के
औजारों के बारे में
हमारे होरी व धनिया के बारे में
हमारे उन आदर्शों के बारे में
जो गंगा में धुलकर
हो जाते हैं पाक
ओबामा !
तुम्हारे मंसूबों, हथियारों
व बाजारों से
भला क्या बदल पायेगा यहाँ
तुम अपने जहर को
अपने ही खेतों में छींटो
हम जब अमृत उगायेंगे
सौंपेगे उसकी कुछ बूँद
और बदल जायेगा
अमरीका का स्वभाव
हमारी आकाश-गंगा में
उज्जवल धाराएँ हैं
हम तैरकर पार कर लेंगे
दुःखों का समंदर
और इन सिरफिरे सामंतों को
जो संसद के रखवाले हैं
और जो अमरीका की
भाषा बोलते हैं
सिर के बल चलाकर
भारत की
धरती पर खडा कर देंगे।।
***

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पंकज त्रिवेदी की कविता- सिर्फ तुम.....!!

रचनाकार परिचय
नाम- पंकज त्रिवेदी
जन्म- 11 मार्च 1963
संप्रति- श्री. सी.एच. शाह मैत्रीविद्यापीठ महिला कॉलेज।
साहित्य क्षेत्र-
लेखन- कविता, कहानी, लघुकथा, निबंध, रेखाचित्र, उपन्यास ।
पत्रकारिता- राजस्थान पत्रिका ।
अभिरुचि- पठन, फोटोग्राफी, प्रवास, साहित्यिक-शैक्षिक और सामाजिक कार्य ।
प्रकाशित पुस्तकों की सूची-
1982- संप्राप्तकथा (लघुकथा-संपादन)-गुजराती
1996- भीष्म साहनी श्रेष्ठ वार्ताओं का- हिंदी से गुजराती अनुवाद
1998- अगनपथ (लघुउपन्यास)-हिंदी
1998- आगिया (रेखाचित्र संग्रह)-गुजराती
2002- दस्तख़त (सूक्तियाँ)-गुजराती
2004- माछलीघर मां मानवी (कहानी संग्रह)-गुजराती
2005- झाकळना बूँद (ओस के बूँद) (लघुकथा संपादन)-गुजराती
2007- अगनपथ (हिंदी लघुउपन्यास) हिंदी से गुजराती अनुवाद
2007- सामीप्य (स्वातंत्र्य सेना के लिए आज़ादी की लड़ाई में सूचना देनेवाली नोर्मन मेईलर की मुलाक़ातों पर आधारित संग्रह) तथा मर्मवेध (निबंध संग्रह) - आदि रचनाएँ गुजराती में।
2008- मर्मवेध (निबंध संग्रह)-गुजराती
प्रसारण- आकाशावाणी में 1982 से निरंतर कहानियों का प्रसारण ।
दस्तावेजी फिल्म
१९९४ गुजराती के जानेमाने कविश्री मीनपियासी के जीवन-कवन पर फ़िल्माई गई दस्तावेज़ी फ़िल्म का लेखन और दिग्दर्शन ।
निर्माण- दूरदर्शन केंद्र- राजकोट
प्रसारण- राजकोट, अहमदाबाद और दिल्ली दूरदर्शन से कई बार प्रसारण।
स्तम्भ - लेखन- टाइम्स ऑफ इंडिया (गुजराती), जयहिंद, जनसत्ता, गुजरात टु डे, गुजरातमित्र, फूलछाब (दैनिक)- राजकोटः मर्मवेध (चिंतनात्मक निबंध), गुजरातमित्र (दैनिक)-सूरतः माछलीघर (गुजरात कहानियाँ)
सम्मान - सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मेलन में तत्कालीन विज्ञान-टेक्नोलॉजी मंत्री श्री बच्ची सिंह राऊत के द्वारा सम्मान।
सलाहकार- बाल श्रम उन्मूलन समिति, जिला-सुरेन्द्र नगर,गुजरात
सलाहकार सम्‍पादक- आखर कलश
ब्‍लॉग- विश्‍वगाथा
सिर्फ तुम.....!!

क्या वजूद है
तुम्हारे बिना मेरा यहाँ?
आज सुबह से तुम्हारा मौन
आकुलाता रहा है मुझको
तुम अपने धर्म-कर्म में मस्त हो
न कभी अधिकार जताया हमने
मगर जब भी तुम आती हो
ये सीमेंट की ईमारत भी
घर में बदल जाती है
नाचता है आँगन
तुम्हारे पैरों की थिरकन से
घर के छोटे से मंदिर में से
दिए की लौ मचलने लगती है
रसोई में काम करते तेरे हाथों के
कँगन की आवाज़
मन मोह लेती है...
अकेलेपन की गहराई में डूबा
मैं, अचानक ही
कुछ पढ़ने लगूं या लिखूं कोई कविता
तेरे अहसास पर.....
दौड़कर दिखाऊँ, सुनाऊँ तुम्हें
तुम हो कि स्मित बिखेरती
मेरे इस भोलेपन पर...
मगर
यह सबकुछ तब होता है-
जब तुम होती हो....
सिर्फ तुम.....!!
***
संपर्क-
पंकज त्रिवेदी
गोकुलपार्क सोसायटी, 80 फ़ीट रोड,
सुरेन्द्र नगर,
गुजरात - 363002
096625-14007
pankajtrivedi102@gmail.com

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संजय जनागल की तीन लघुकथाएँ

रचनाकार परिचय
नाम- संजय जनागल
जन्म- 3 मार्च, 1981, बीकानेर, राजस्थान
पिता- श्री भँवरलाल जनागल
शिक्षा- एम.ए.(हिंदी), बी.एड., पीजीडीसीए
लेखन- हिंदी एवं राजस्थानी भाषा में समान हस्तक्षेप
प्रकाशन- दैनिक भास्कर, दैनिक युगपक्ष, अजीत समाचार, अक्षर ख़बर, विकल्प आदि पत्र-पत्रिकाओं में ।
अंतरजाल- सृजनगाथा, रचनाकार, साहित्य शिल्पी आदि वेब पत्रिकाओं में
प्रकाशनाधीन- अपने-अपने समाज (लघुकथा संग्रह)
सामाजिक गतिविधियाँ- उपाध्यक्ष, सोशल प्रोगेसिव सोसायटी, बीकानेर
पुरस्कार- यू.आई.टी. बीकानेर का एल. पी. तैस्सीतोरी राजस्थानी गद्य (नवोदित) 2009-2010
पैसे की महिमा
रामू सोच में पड गया कि अब पैसा देखूं या योग्यता ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी लडकी का रिश्ता अजय से करूं या विजय से?
मोहन ने कहा ‘‘देख यार जमाना बदल गया है। आज सबसे पहले तो लडके की योग्यता देखनी चाहिए फिर ही कोई फैसला लेना चाहिए। केवल धन दौलत देखकर लडकी की शादी कर देना कोई अक्लमंदी नहीं है।’’
‘‘मोहन, अजय है तो बहुत योग्य लडका। वह मेरी लडकी के बराबर शैक्षिक योग्यता भी रखता है लेकिन वह बहुत गरीब घर से है उसने यहां तक पढाई कैसे की है यह बात पूरे समाज में किसी से छिपी नहीं है और एक तरफ विजय है जो दसवीं फेल है परन्तु उसके पास पैसों की कोई कमी नहीं है। आखिर कौन बाप अपनी बेटी को सुखी देखना नहीं चाहता?’’ रामू ने कहा।
रामू ने समझदारी दिखाते हुए अपनी लडकी का विवाह विजय से कर दिया। लडकी के मना करने के बावजूद उसकी एक नहीं सुनी गई। योग्यता पैसों के आगे बौनी साबित हुई।

कहीं खुशी, कहीं गम!

पार्टी की तरफ से राष्ट्रीय स्तर पर हुए सम्मेलन में जब सब खर्चों को जोडा गया तो पता चला कि करीब १५ करोड रुपये खर्चा आया है। पार्टी आलाकमान, नेता, समाज सेवक, गरीबों के हितेषी सभी खुश थे कि सम्मेलन शांतिपूर्वक हो गया और पार्टी के प्रचार के साथ-साथ हमारा भी प्रचार हो गया। सभी एक दूसरे को बधाईयां दे रहे थे। सरकार ने भी सम्मेलन में हुए खर्चों की तरफ ध्यान नहीं दिया क्योंकि मामला पार्टी से जुडा था। छोटे-मोटे नेता भी खुश थे क्योंकि पहली बार उन्हें भी अपनी बात कहने का मौका दिया गया था। भिखारी भी खुश थे क्योंकि उन्हें भाषण के बाद तरह-तरह के व्यंजन जो परोसे गये थे।
दुखी तो सिर्फ वो लोग थे जिन्हें पता था कि इस खर्चे का भार भी हम पर ही पडने वाला है।


ये कैसा खेल है?

पैसे की तंगी से परेशान हो एक मां ने अपने कलेजे पर पत्थर रखकर अपने पांचों बेटों में से छोटे बेटे को बेच दिया। एक अमीर औरत ने उस गरीब मां के ९ वर्षीय बेटे को महज चंद रुपयों के बदले अपने पास रख लिया। उस औरत ने सभी को यह विश्वास दिलाया कि उसने एक गरीब मां की मदद की और उसके बेटे के जीवन को बचाने के लिए उस मासूम को अपने पास रख लिया लेकिन हकीकत कुछ और ही थी।
वह अमीर औरत अपने काम के लिए या अपनी ममता की तृप्ति के लिए उस ९ वर्षीय लडके को नहीं लाई थी बल्कि अपने सगे बेटे के लिए लाई थी जो बेजुबान खिलौनों से खेलकर थक चुका था, उसे चलता-फिरता खिलौना चाहिए था।
***
संपर्क-
संजय जनागल
बड़ी जसोलाई
रामदेवजी मंदिर के पास, बीकानेर, राजस्थान

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अरुण चन्द्र रॉय की दो कविताएँ

रचनाकार परिचय
नाम : अरुण चन्द्र रॉय
पेशे से कॉपीरायटर तथा विज्ञापन व ब्रांड सलाहकार. दिल्ली और एन सी आर की कई विज्ञापन एजेंसियों के लिए और कई नामी गिरामी ब्रांडो के साथ काम करने के बाद स्वयं की विज्ञापन एजेंसी तथा डिजाईन स्टूडियो - ज्योतिपर्व का सञ्चालन. अपने देश, समाज व लोगों से सरोकार को बनाये रखने के लिए कविता को माध्यम बनाया है.
ब्लॉग : www.aruncroy.blogspot.com
1.

एलेक्ट्रोन

एलेक्ट्रोन
अतृप्त होते हैं
अकेले होते हैं


और वे ही हैं
इस धरती के संबंधो
के आधार ।

रासायनिक गठबंधन के लिए
नए निर्माण के लिए
नए सृजन के लिए
नई उर्जा के लिए
नई सम्भावना के लिए
जरुरी है
अतृप्त होना
अकेले होना
विचरते रहना
एलेक्ट्रोन की तरह


एलेक्ट्रोन हैं हम
एलेक्ट्रोन हो तुम
चलो रचे नई सम्भावना !


2.

तुम्हारा अंक

तालिकाओं में
खोये
आकड़ों के जाल में
उलझे उलझे
हम
मानो अंक
अंक ना हो...
तुम्हारा अंक हो !

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"जय जवान जय किसान" तुझे सलाम भारत के लाल - पंकज त्रिवेदी

लाल बहादुर शास्त्री जी के जन्म दिन पर विशेष

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीयश्री लाल बहादुर शास्त्री (2 अक्तूबर, 1904 से 11 जनवरी, 1966 ) का आज जन्मदिन है | अपने पिता मिर्ज़ापुर के श्री शारदा प्रसाद और अपनी माता श्रीमती रामदुलारी देवी के तीन पुत्रो में से वे दूसरे थे। शास्त्रीजी की दो बहनें भी थीं। शास्त्रीजी के शैशव मे ही उनके पिता का निधन हो गया। 1928 में उनका विवाह श्री गणेशप्रसाद की पुत्री ललितादेवी से हुआ और उनके छ: संतान हुई।

स्नातक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात वो भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुये यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। शास्त्रीजी विशुद्ध गाँधीवादी थे जो सारा जीवन सादगी से रहे और गरीबों की सेवा में अपनी पूरी जिंदगी को समर्पित किया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी रही, और जेलों मे रहना पड़ा जिसमें 1921 का असहयोग आंदोलन और 1941 का सत्याग्रह आंदोलन सबसे प्रमुख है। उनके राजनैतिक दिग्दर्शकों में से श्री पुरुषोत्तमदास टंडन, पंडित गोविंदबल्लभ पंत, जवाहरलाल नेहरू इत्यादि प्रमुख हैं। 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने श्री टंडनजी के साथ भारत सेवक संघ के इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम किया। यहीं उनकी नज़दीकी नेहरू से भी बढी। इसके बाद से उनका कद निरंतर बढता गया जिसकी परिणति नेहरू मंत्रिमंडल मे गृहमंत्री के तौर पर उनका शामिल होना था। इस पद पर वे 1951 तक बने रहे।
शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और इमानदारी के लिये पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हे वर्ष 1966 मे भारत रत्न से सम्मनित किया गया। लाल बहादुर शास्त्री एक ऐसी हस्ती थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपनी दूरदर्शिता से देश को न सिर्फ वीरतापूर्ण विजय का तोहफा दिया, बल्कि हरित क्रांति को भी अंजाम दिया। भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 की लड़ाई में छोटे कद के शास्त्री जी विश्व मंच पर एक साहसिक नेता के रूप में उभर कर सामने आए। महर्षि दयांनद विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर रजनीश सिंह के अनुसार लाल बहादुर शास्त्री के छोटे कद को देखकर ही शायद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान उनके व्यक्तित्व की महानता को पहचानने में गच्चा खा गए थे।

उन्होंने बताया कि जुलाई, 1964 में शास्त्री जी जब राष्ट्रमंडल प्रमुखों की बैठक में भाग लेने लंदन गए, तो रास्ते में ईंधन भरने के लिए उनका विमान कराची शहर में उतरा, जहां उनका स्वागत अयूब खान ने किया। उनके अनुसार अयूब खान ने शास्त्री जी के छोटे कद को देखकर अपने एक सहयोगी से पूछा था कि क्या यही आदमी जवाहर लाल नेहरू का वारिस है। इस घटना का महत्व इसलिए बहुत अधिक था, क्योंकि उसके बाद के साल 1965 में अयूब खान ने कश्मीर घाटी को भारत से छीनने के लिए हमले की योजना बनाई थी। पाकिस्तान ने योजना के अनुसार कश्मीर में नियंत्रण रेखा से घुसपैठिए भेजे और पीछे-पीछे पाकिस्तानी फौज भी आ गई।

इस पर शास्त्री जी ने मेजर जनरल हरबख्श सिंह की सलाह पर पंजाब में दूसरा मोर्चा खुलवा दिया। अपने अत्यधिक महत्वपूर्ण शहर लाहौर को भारत के कब्जे में जाते देख पाकिस्तान ने कश्मीर से अपनी सेना वापस बुला ली। इस तरह लाल बहादुर शास्त्री ने अयूब खान का सारा गुरूर तोड़ दिया।
अपनी नाक बचाने के लिए अयूब खान ने सोवियत नेताओं से संपर्क साधा, जिनके आमंत्रण पर शास्त्री जी 1966 में पाकिस्तान के साथ शांति समझौता करने के लिए ताशकंद गए। वहां दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। हालांकि उनकी मौत की आधिकारिक रिपोर्ट आज तक जारी नहीं हुई है |
सिंह के अनुसार शास्त्री जी ने अयूब खान जैसे घमंडी शासक का गुरूर ही नहीं तोड़ा, बल्कि उन्हें अपने सामने गिड़गिड़ाने पर भी मजबूर कर दिया था। ताशकंद में खान ने शास्त्री जी से कहा कि कुछ ऐसा कर दीजिए, जिससे वह पाकिस्तान में अपने लोगों को मुंह दिखा सकें।
प्रोफेसर नीरकंवल ने कहा कि देश में हरित क्रांति की नींव रखने का श्रेय भी शास्त्री जी को जाता है, जिन्होंने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया। उन्होंने प्रधानमंत्री बनते ही कृषि क्षेत्र की शक्ल सूरत बदलनी शुरू कर दी थी और उद्योगों को सरकारी नियंत्रण से बाहर निकलवाने के लिए भी काम किया।
स्वर्गीय श्री लाल बहादुर श्रीवास्तव शास्त्री अपने विनम्र स्वभाव और मधुर वाणी के लिए प्रसिद्द थे | प्रयाग में एक दिन उनके घर पर किसी नौकर से कोइ काम बिगड़ गया | उनकी श्रीमतीजी का क्रोध में आना स्वाभाविक था | उन्होंने नौकर को बहुत डाँटा और उसके साथ सख्ती से पेश आई | शास्त्रीजी भोजन कर रहे थे | उन्होंने अपनी पत्नी से कहा - "अपनी जबान ख़राब क्यों कर रही हो? लो, तुम्हें एक शेर सुनाऊँ -"

"कुदरत को नापसंद है सख्ती जबान में |
 इसलिए तो दी नहीं हड्डी जबान में ||"

और फिर मुस्कुराते हुए शास्त्रीजी ने आगे कहा - "जब एक शेर सूना है, तो एक दूसरा शेर भी -"

"जो बात कहो, साफ़ कहो, सुथरी हो, भली हो |
कड़वी न हो, खट्टी न हो, मिश्री की डली हो ||"

कहना न होगा, इन शेरों को सुनकर श्रीमती शास्त्री के क्रोध का पारा बहुत नीचे उतर गया था |

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