जब रहती है वह मेरे पास
(एक)
कोई डर नही लगता
न ही कोई होती है ऊहा-पोह
जीवन का पूरा गणित
हो जाता है विषम रहित
ठहर जाता है समय भी थोड़ी देर
अपना मनचाहा स्वप्न देखने के लिए
बादल खोजने लगते हैं अपना साथी
अपने साथ जमीन पर बरसने के लिए
पत्ता चुन लेता है एक और पत्ता
हवा के वशीभूत टहलते हुए
जलने लगती है दीपक की लौ भी
चुपचाप एक जगह स्थिर होकर
कहे गए शब्दों की पारदर्शी बूंदे
गिरने लगती हैं महासागर में
अपना ही प्रतिचक्र बनाते हुए
ऐसे में
नीरव क्षणों में
परस्पर देखने लगती है एक दूसरे की आंखे
कितना पहचान पाए
बाकी है कितना परिचय
एक दूसरे के लिए अभी भी
काल ही देख पाता है
उनके अपरिचय में दुबका प्रेम
**
(दो)
मन की समूची पृथ्वी पर
एकाएक आ जाता है बसंत
खिल जाते हैं पलाश
दूर कहीं
बांस की छत के नीचे
गोबर से लीपे गए पूरे घर में
ठंड से बचने के लिए
जल जाता है कोई अलाव
वहीं कहीं आंगन में बैठी मां
करती होगी याद बेटे को
उसकी पसंदीदा सब्जी बनाते हुए
गांव का कोई पुराना मित्र
एकाएक ही करने लगता होगा याद
बचपन के दिनों की
यही होता है हमेशा
जब भी आती है वह
हमेशा बसंत को लेकर
गड्ड-मड्ड हो जाता है बिताया हुआ जीवन
लगता है
टूट कर बिखर गई है
रेत घड़ी
सब कुछ झुठलाते हुए
**
(तीन)
तारीखें भी देखती होंगी
बीच रात में आकर
पूरे दिन की लुका-छिपी में
चुपके से सब कुछ
शायद उसे तो
समय भी पता हो पहले से
कब रहोगी तुम मेरे पास
वह सबसे सुखद समय रहता होगा
तारीख के पास भी
कोई भी हो सकता है वार
अब तो गिनती नहीं
महीनों की भी
इस बरसात में आई तारीख
याद करती होगी पिछली बरसात
नए सिरे से देखती होगी
पहले जैसा घटा सब कुछ
कितनी और गर्मिया आएंगी ऐसी ही
न मालूम कितनी यात्राओं के दरमय्यां
कोई नहीं
जो लिख पाए
इसका इतिहास
कैसे दर्ज होगा वह सब कुछ
जब रहती है वह मेरे पास
**
(चार)
कितने पल घटने हैं अभी और
होना है
कितनी और बातें
चुप्पी का भी खाता होगा कहीं तो
कितनी हड़बड़ाहट
कितनी धैर्यता
कितना बेसुध हो जाना
घटना है अभी
कितनी मुस्कुराहटें
आंखों का कितना गुस्सा
कितना उदास होना है अभी
कितना उत्साह
कितनी बैचारगी
कितनी निराशा घिरना है अभी
और यह सब
होना है केवल उन्हीं पलों में
जब रहती है वह मेरे पास
**
(पांच)
ईश्वर भी अपने अदृश्य और अभेद्य किले से
आ जाता होगा बाहर
देखता होगा फिर
अपने चमत्कार से बड़ा सहज विस्मय
जब रहती है वह मेरे पास
ईश्वर भी रहता है इर्द-गिर्द
न मालूम किसकी पूजा करता हुआ
**
(छह)
पता नहीं कितनी सदियों से
गर्भ में रह रहें शब्द
खुद अपने को प्रस्फुटित होते देखते हैं
फिर बस जाते हैं स्मृतियों में
**
(सात)
होता है कभी यूं भी
सूझता ही नहीं वह सब उन क्षणों में
जो सोचा गया था उन्हीं क्षणों के लिए
शायद अच्छा लगता होगा
सोचे हुए को
विस्मृति में जाकर बस जाना
खोजा जा सके ताकि फिर उसे
**