Archive for 1/1/10 - 2/1/10

कवि कुलवंत सिंह की कविताएँ














प्रभात

जाग जाग है प्रात हुई,
सकुची, लिपटी, शरमाई ।


अष्ट अश्व रथ हो सवार
रक्तिम छटा प्राची निखार
अरुण उदय ले अनुपम आभा
किरण ज्योति दस दिशा बिखार ।


सृष्टि ले रही अंगड़ाई,
जाग जाग है प्रात हुई ।


कण - कण में जीवन स्पंदन
दिव्य रश्मियों से आलिंगन
सुखद अरुणिम ऊषा अनुराग
भर रही मधु, मंगल चेतन


मधुर रागिनी सजी हुई
जाग जाग है प्रात हुई ।


अंशु-प्रभा पा द्रुम दल दर्पित
धरती अंचल रंजित शोभित
भृंग - दल गुंजन कुसुम - वृंद
पादप, पर्ण, प्रसून, प्रफुल्लित ।


उनींदी आँखे अलसाई
जाग जाग है प्रात हुई ।


रमणीय भव्य सुंदर गान
प्रकृति ने छेड़ी मद्धिम तान
शीतल झरनों सा संगीत
बिखरते सुर अलौकिक भान ।


छोड़ो तंद्रा प्रात हुई
जाग जाग है प्रात हुई ।


उषा धूप से दूब पिरोती
ओस की बूंदों को संजोती
मद्धम बहती शीतल बयार
विहग चहकना मन भिगोती ।
देख धरा है जाग गई
जाग जाग है प्रात हुई ।

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प्रणय गीत

गीत प्रणय का अधर सजा दो ।
स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो ।


.शीतल अनिल अनल दहकाती,
सोम कौमुदी मन बहकाती,
रति यामिनी बीती जाती,
प्राण प्रणय आ सेज सजा दो ।
गीत प्रणय का अधर सजा दो ।


.गीत प्रणय का अधर सजा दो ।
स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो ।


.ताल नलिन छटा बिखराती,
कुंतल लट बिखरी जाती,
गुंजन मधुप विषाद बढाती,
प्रिय वनिता आभास दिला दो ।
गीत प्रणय का अधर सजा दो ।


.गीत प्रणय का अधर सजा दो ।
स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो ।


.नंदन कानन कुसुम मधुर गंध,
तारक संग शशि नभ मलंद,
अनुराग मृदुल शिथिल अंग,
रोम रोम मद पान करा दो ।
गीत प्रणय का अधर सजा दो ।


.गीत प्रणय का अधर सजा दो ।
स्निग्ध मधुर प्यार छलका दो ।

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झंकृत

झन - झन झंकृत हृदय आज है
वपु में बजते सभी साज हैं ।
पी आने का मिला भास है
मिटेगा चिर विछोह त्रास है ।


मंद - मंद मादक बयार है
खिल प्रकृति ने किया शृंगार है ।
आनन सरोज अति विलास है
कानन कुसुम मधु उल्लास है ।


अंग - अंग आतप शुमार है
देह नही उर कि पुकार है ।
दंभ, मान, धन सब विकार है
प्रेम ही जीवन आधार है ।


रोम - रोम रस, रुधित राग है
मिला जो तेरा अनुराग है ।
मन सुरभित, तन नित निखार है
नभ - मुक्त, तल नव विस्तार है ।


घन - घन घोर घटा अपार है
संग तुम मेरा अभिसार है ।
अनंत चेतना का निधान है
मिलन हमारा प्रभु विधान है ।

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शशि पाधा और रचना श्रीवास्तव की कविताएँ

- शशि पाधा

अदृश्य


कौन तुम चन्दन से भीगे
साँसों में राम जाते हो ?
कौन तुम मन वीणा के
सोये तार जगाते हो ?
कौन तुम ?


धरती जब भी पुलकित होती
कर तेरे ने छुया होगा
पुष्प पाँखुरी जब भी खिलती
अधर तेरे ने चूमा होगा
वायु की मीठी सिहरन में
क्या तुम ही मिलने आते हो ?
कौन तुम ओस कणों में
मोती सा मुस्काते हो ?
कौन तुम ?


मन दर्पण में झाँक के देखूँ
तेरा ही तो रूप सजा है
नयन ताल में झिलमिल करता
तेरा ही प्रतिबिम्ब जड़ा है
मेरा यह एकाकी मन
क्या तुम ही आ बहलाते हो ?
कौन तुम रातों के प्रहरी
जुगनू सा जल जाते हो ?
कौन तुम ?


रँग तेरे की चुनरी प्रियतम
बारम्बार रँगाई मैंने
पथ मेरा तू भूल न जाए
नयन -ज्योत जलाई मैंने
कभी कभी द्वारे पे आ, क्या-
तुम ही लौट के जाते जो ?
कौन तुम अवचेतन मन में
स्पंदन बन कुछ गाते हो ?
कौन तुम ?


ऐसे तुम को बांधु मैं
इस बार जो आओ, लौट न पायो
बंद करूँ मैं नयन झरोखे
चाह कर भी तुम खोल न पायो
अनजानी सी इक मूरत बन
क्या तुम ही मुझे सताते हो ?
कौन तुम पलकों में सिमटे
सपने से सज जाते हो ?
कौन तुम ?????

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- रचना श्रीवास्तव

1. मेरे चहुँ ओर छाया कुछ कोहरा सा है



हथेलियों पर थिरकता है
पलकों की झालर से लिपटता है
क्षितिज जी बूंदों में भीग के
स्वयं से स्वयं में सिमटता है
ह्रदय के दर्पण में सोया जो एक चेहरा सा है
मेरे चहुँ ओर छाया कुछ कोहरा सा है
शब्द ताखे पर सोयें है उतरते नहीं
गेसू खुले पर हवा में बिखरते नहीं
आँखों की ढिबरी में जलता है कुछ
पर काजल बन उन में सजता नहीं
क्यों छलकता नहीं लब पर जो ठहरा सा है
मेरे चहुँ ओर छाया कुछ कोहरा सा है


चांदनी जब छम छम उतरती है
चाँद की हसीं भी तब बिखरती है
देख सुन्दरता लजाती है धरती
सकुचा के अपनी ही ड़ाल से लिपटती है
चमक जाता है मौसम जो हरा हरा सा है
मेरे चहुँ ओर छाया कुछ कोहरा सा है

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2. वो मेरा दोस्त

पसीने से भीगे तन को
छुजाये जो हवा
उस शीतलता का
अहसास वो मेरा दोस्त
कबाडी को बेचने से पहले
रद्दी में मिलजाए
पहला प्रेमपत्र
उस ख़ुशी सा वो मेरा दोस्त
भीड़ भरी बस में
हो के खडा
कोई दे दे बैठने की जगह जैसे
उस आराम सा मेरा वो मेरा दोस्त
नौकरी की अर्जी भेज न पाए
हो कल अन्तिम तारीख़ भी
एसे में हो जाये अचानक छुट्टी
उस सुकून की मानिन्द वो मेरा दोस्त
पहली फुहार की महक सा
बर्फ में फ़र वाले कोट सा
पथरीली राहों में चट्टी सा
वो मेरा दोस्त
गैरों को
मेरे नाभि में अमृत होने का
राज बता रहा था
और मै अपने साथ लिखे उसके नाम को
गाढा कर रहा था


*******


3. मेरी बिंदिया लगा जाओ

तिरंगा ओढ़ गए ,न आओगे कहते हैं
पर खूंटी पर टंगी वर्दी
मेज पर रखी मुस्कान
छुअन का अहसास कराती है
क्यों तुम्हारी खुशबु
मेरे बदन को सहलाती है
तुम्हारे हाथ की हरारत
मेरे सपनो को पिघलाती है
पगली है कहते है सभी
पर क्यों हर शय
तेरी परछाई दिखाती है
अंचल में भर जुगनू
तेरी राह पर बिछा आई हूँ
तुम आओगे इस उम्मीद में
खुला दरवाजा छोड़ आई हूँ
हवा की ये दस्तक
मुझे रात भर जगाती है
मै भाग के दरवाजे तक जाती हूँ
तो खामोशी मुझपे मुस्काती है
पागल हूँ कह के कमरे में
बंद कर दिया है
तस्वीर भी तेरी
मुझसे लेलिया है
तुम आओ तो लौट न जाओ
ये बात मुझको डराती है
आज फिजाओं में चाहत के गीत है
हर किसी के पास उस का मीत है
तुम आ जाओ
तो प्रीत मेरी भी अंगडाई ले
मांग मेरी सजे
इन सूनी कलाइयों में
कुछ चुडिया चढें
बिन्दिया जो इन्होने छीन ली है
आ के लगा जाओ
हो गए बहुत दिन अब तो आ जाओ



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डॉ. अनुज नरवाल रोहतकी की गजलें

 
हाय! गुन्डे-मवाली लोग सियादत1 कर रहे हैं
कैसे-कैसे लोग यहां सियासत कर रहे हैं

बिठाकर इनको अपनी सर-आँखों पर हम
क्यों खराब इनकी आदत कर रहे हैं

ये सियादत की कमी नहीं है तो क्या है
समझाओ,लोग क्यों बगावत कर रहे हैं

कैसे हो यकीं उनकी वतन-परस्ती पर
वे तो दहशतगर्दों की हिमायत कर रहे हैं

दीमक जैसे होते हैं ये सियासी लोग भी
बयां हम सच्ची हिकायत2 कर रहे हैं

हमें नहीं लगता कि शिकायत दूर होगी
हम उन्हीं से उनकी शिकायत कर रहे हैं

अनुज' हिंदुस्तां कर्ज़दार है उन मांओं का
जिनके लाल हमारी हिफ़ाजत कर रहे हैं

1.नेर्त्तव,सरदारी 2.कहानी
..........................................................................

2

क्या था और क्या हो गया हिन्दुस्तान, बापू देखने चले आओ
कैसे -कैसे हाथों में है तेरे देश की कमान, बापू देखने चले आओ

सत्-अहिस्सा,त्याग-तपस्या की दी थी आपने हमको शिक्षा
 इसपे अमल करना छोड़ गया क्यूं इन्सान, बापू देखने चले आओ

पश्चिमी हवा चल रही है बापू , हर चीज यहां की बदल रही है बापू
 हर दिन हो रहा है छोटा नारी का परिधान, बापू देखने चले आओ

शहीदों की तस्वीरें लगी मिलती नहीं अब किसी घर की दीवारों पर
ले लिया अब फिल् स्टार,क्रिकेटरों ने इनका स्थान, बापू देखने चले आओ

ईमानदारी धीरे-धीरे दम तोड़ रही  हैबापू संस्कार धीरे-धीरे मर रहे हैं
महिलाओं की कदर है यहां बुर्जुगों का सम्मान, बापू देखने चले आओ

अफसोस! वतन के लिए वक् है ही नहीं आज कल के आदमी के पास
खुद तक ही महदूद हो गया क्यूं आज का इंसान, बापू देखने चले आओ
.....................................................

3

अगर मैं अपनी जुबान से जाउं
यार मिरे अपनी जान से जाउं

होने लगे अगर खुद पे गुमान
यार मैं अपनी पहचान से जाउं

दिल रोक लेता है परदेस जाने से
जब भी सोचूं कि हिंदुस्तान से जाउं

तमन्ना है लिपटा हो तिरंगा मुझपे
जब भी मैं इस जहान से जाउं

जो यहां है वो कहां मिलेगा
घर छोड़ू क्यूं हिंदुस्तान से जाउं‍‍

वतन के काम आउं तो खुदा
मान से अपने सम्मान से जाउं

अनुज करूं गर दुखी किसी को
खुदा करे मैं मुस्कान से जाउं

.............................................................................

4

दिल किसी से प्यार, ना कर
उम्मीदें तार-तार, ना कर

ना कह दी तो दिल टूटेगा
ऐसा कर इजहार, ना कर

आते हैं कब जाने वाले
किसी का इंतजार, ना कर

इश् करके किसी से तू
जीवन को दुश्वार, ना कर

सादा-सादा रख खुदको
ज्यादा हुशियार, ना कर

हरेक पर यकीं करने की
गलती बार-बार, ना कर

दिल में रख दिल की बातें
आँखों को आबसार, ना कर

जहां तो हैं तमाशबीनों का
खुद से यूं तकरार, ना कर
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डॉ.अनुज नरवाल रोहतकी



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सीताराम गुप्ता का आलेख - सकारात्मक मानसिक दृष्टिकोण द्वारा ही संभव है संपूर्ण उपचार



 

 

 

 

 

 

व्यक्ति का मानस या मन (Psyche) एक उद्यान की तरह होता है जिसे चाहे तो आप अपनी सूझ-बूझ से सजाएँ-सँवारें या उसे जंगली बन जाने दें। चाहे आप उद्यान को उर्वर बनाएँ अथवा उसे जंगली बन जाने दें मगर उसमें कुछ न कुछ तो उगेगा ही। यदि आप उद्यान में अच्छी प्रजाति के उपयोगी बीज अथवा पौधों का रोपण नहीं करेंगे तो बहुत से अनुपयोगी पौधे एवं खर-पतवार स्वयमेव उग आएँगे और उनकी वृद्धि भी होती ही रहेगी।

      ’’मन में स्वस्थ सकारात्मक विचारों का जो बीजारोपण सप्रयास किया जाता है अथवा अनचाहे नकारात्मक या ध्वंसात्मक  विचारों का बीजारोपण हो जाने से रोका नहीं जाता है तो वे विचार रूपी बीज उसी प्रकार के पौधे उगाएँगे और उसी प्रकार के फूल-फल भी आएँगे और देर-सबेर आप तदनुरूप कुछ न कुछ क्रिया करेंगे। अच्छे विचार बीजों के अच्छे सकारात्मक व स्वास्थ्यप्रद तथा बुरे विचार बीजों के बुरे, नकारात्मक व घातक फल आपको वहन करने ही  पडेंगे।‘‘ ये विचार व्यक्त किये हैं जेम्स एलेन ने अपनी पुस्तक As A Man Think में।

 जोस सिल्वा अपनी पुस्तक “You the Healer” में कहते हैं कि मन मस्तिष्क को चलाता है और मस्तिष्क शरीर को।

 The mind runs the brain and the brain runs the body. And so the body complied. The brain is an organ of healing. It runs the body.

     उपचार की सारी प्रक्रिया में हमारे मन का अवचेतन भाग (Subconscious mind) सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब हमारे अवचेतन मन में कोई विचार, कोई खयाल आता है या डाल दिया जाता है तो हमारा अवचेतन मन उसे बिना किसी तर्क-वितर्क के स्वीकार कर लेता है और सीधे मस्तिष्क को आदेश दे डालता है। मस्तिष्क की कोशिकाएँ जिन्हें न्यूरोंस कहा जाता है, फौरन इस दिशा में सक्रिय हो जाती हैं और हमारे विचार को कार्यरूप में परिणत कर डालती हैं। वैसे भी हमारा स्वास्थ्य हमारे मस्तिष्क की कोशिकाओं की उच्च प्राथमिकता होता है। जैसे ही हम मन द्वारा मस्तिष्क की इस कोशिकाओं की उत्तम स्वास्थ्य अथवा रोग-मुक्ति के लिए प्रोग्रामिंग करते हैं ये अतिशीघ्रता से सक्रिय होकर अपने कार्य को सम्पन्न करती है अर्थात् हमें आरोग्य प्रदान करती है, हमारा उपचार करती है।

मायर्स कहते हैं कि अवचेतन मन केवल कूडे-कचरे का ढेर नहीं है अपितु ये सोने की खान भी है।

     ’’रोग के कारण चित्त और आत्मा के अन्तराल में ही निवास करते प्रतीत होते हैं। अपने जीवन की स्थितियों में परिवर्तन लाने के लिए जीवन दृष्टि में बदलाव लाने की आवश्यकता है क्योंकि जैसा आप साचेंगे, वैसे ही आप बनते चले जाएँगे। अध्यात्म विज्ञान के अनुरूप यदि वास्तव में सभी कुछ चित्त से ही दिशा निर्देशित होता है तो हम अपने चित्त में जो दृष्टिपथ अंकित करेंगे, वही तो भौतिक स्तर पर प्रकट होगा। यदि हम अपने चित्त में प्रेम और आभार के विचार जगाएँगे तो तदनुसार जीवन भी प्रेम और समृद्धि से भरपूर रहेगा।‘‘

–Paula Horan (Empowerment Through Reiki)

     मानव मन एक कम्प्यूटर की तरह काम करता है। इसमें जो डालोगे वही बाहर निकलेगा। अच्छे विचार मस्तिष्क को स्वास्थ्यप्रद हार्मोंस उत्सर्जित करने के लिए प्रेरित करते हैं तथा बुरे विचार मस्तिष्क को व्याधिजनक हार्मोंस उत्सर्जित करने के लिए प्रेरित करते हैं। विचार हम पर शासन करते हैं लेकिन हम विचारों पर शासन कर सकते हैं। विचारों पर शासन करने का तरीका है विचारों का चुनाव करना। विचार समाप्त नहीं किये जा सकते लेकिन अच्छे विचारों का चुनाव संभव है। बुरे विचारों से छुटकारा संभव है लेकिन तभी तब, जब अच्छे विचार, स्वस्थ सकारात्मक विचार भी हों।

      अतः स्वस्थ-सकारात्मक विचारों से मन को आप्लावित रखें। बुरे विचारों के लिए मन में स्थान ही नहीं बचेगा और वे प्रभावित ही नहीं कर सकेंगे। स्वस्थ-सकारात्मक विचारों को प्रभावित करने दीजिए और उनका प्रभाव देखिए। आज ही किसी एक सकारात्मक विचार को हावी होने दीजिए उस विचार का कल्पना चित्र बनाइए और उसमें खो जाइए। बार-बार लगातार इसे दोहराते रहिए, लाभ होगा। एक तरीका आपके हाथ आ जाएगा।

      अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के भाषाविद् जॉन ग्रिंडर तथा कम्प्यूटर विशेषज्ञ रिचर्ड बैंडलर द्वारा विकसित न्यूरो लिंग्विस्टिक प्रोग्रामिंग (NLP) कहती है कि विश्वास के ऊपर ही निर्भर है सुख-दुख, सफलता-असफलता, शांति-क्रोध तथा क्रिया एवं कर्म का स्तर। विश्वास उपजता है मन में। मन की शक्ति द्वारा ही हम शिक्षा, खेल-कूद, संगीत-नृत्य, उद्योग-व्यवसाय, व्यक्तित्व विकास तथा चिकित्सा एवं उपचार के क्षेत्र में असाधारण सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसी के द्वारा कैंसर तक के रोगी को ठीक किया जा सकता है अथवा शरीर के टूटे हुए अंग का उपचार किया जा सकता है।

      सकारात्मक सोच, सकारात्मक इच्छा, सकारात्मक विश्वास तथा सकारात्मक आकांक्षा ये सभी तत्त्व हमारे अच्छे स्वास्थ्य के निर्माण के महत्वपूर्ण घटक हैं। जो व्यक्ति जीवन में इन तत्त्वों पर आधारित सकारात्मक मानसिक दृष्टिकोण (Positive Mental Attitude) अपनाता है वह शायद ही बीमार होता हो। स्वस्थ होने का अनुभव मात्र स्वास्थ्य उत्पन्न करता है तथा समृद्धि का अनुभव समृद्धि। मेरे प्रिय मित्र इस समय आप अपने मन में क्या अनुभव कर रहे हैं? इस समय आप अपने मन में जो अनुभव कर रहे हैं आप वही तो ह। विश्वास नहीं आता तो मन में व्याप्त अनुभव अथवा विचार को बदलकर देख लीजिए। हर अनुभव के साथ आप बदल जाते हैं। आफ अनुभव अथवा विचार ही आपको अच्छा या बुरा बनाते हैं।

 The feeling of health produces health. The feeling of wealth produces wealth. My dear friend! What do you feel? Healthy or wealthy or both?

     अभाव और सम्पन्नता दोनों अनुभव हैं। अभाव का अनुभव खराब तथा सम्पन्नता का अनुभव अच्छा ही हो यह जरूरी नहीं। हर अनुभव में आनंद प्राप्त करने का प्रयास होना चाहिए। अनुभव अच्छा या बुरा नहीं होता ये तो हमारी सोच का परिणाम मात्र है। सोच बदलने से परिणाम बदल जाता है जिसे आप हार या असफलता समझते हैं वो जीत या सफलता में बदल जाती है। विषम परिस्थितियों में जीवन-यापन, यात्रा अथवा खानपान का अनुभव आप चाहें तो कष्टप्रद हो सकता है और आफ चाहने पर ही रोमांचक तथा प्रेरणास्पद हो सकता है।

      विशेषज्ञ कहते हैं कि जो सुखी हैं, संतुष्ट हैं अथवा ऐसा अभिनय करते हैं उनकी उम्र भी अधिक होती है। जीवन एक नाटक ही तो है। वास्तविक जीवन में न जाने कितना अभिनय करना पडता है। कभी हम अमीर बनने का अभिनय करते हैं तो कभी गरीब बनने का, कभी स्वस्थ दिखने का तो कभी रुग्ण होने का। छुट्टी लेने के लिए लोग प्रायः अपनी या परिवार के अन्य सदस्यों की बीमारी का बहाना बनाते हैं और एक ऐसी कहानी गढते हैं कि छुट्टी देने वाला विवश हो जाता है लेकिन जो कहानी गढी गई, जो कल्पना की गई, जो भाव चेहरे पर उत्पन्न किये गए, वे भाव सबसे पहले मन में उत्पन्न हुए। जो कल्पना की गई वो भी मन में उत्पन्न हुई। और जो विचार मन में उठे वो वास्वविक जीवन में घटित भी अवश्य होंगे। अतः तभी कहा गया है कि कभी भी झूठ मत बोलो।

      जीवन में अभिनय करो लेकिन सकारात्मक अभिनय। बाहर के लोगों को प्रभावित करने के लिए नहीं अपितु मन को प्रभावित करने क लिए। अपने मन को समझाइए  कि मैं सुखी और संतुष्ट हूँ। अपने मन को प्रभावित कीजिए कि मैं पूर्णरूपेण स्वस्थ हूँ, मेरे हृदय में सबके लिए प्रेम है। यह अभिनय श्रेष्ठ अभिनय है। यदि कोई रोग आ घेरता है तो भी घबराइए मत। रोग का आना स्वाभाविक है तो जाना भी निश्चित है। उपचार करते रहिए लेकिन साथ ही मन को दुर्बल मत होने दीजिए। कहिए कि मेरे अंदर रोग से लडने की पूर्ण क्षमता है। मैं रोग को भगा कर ही दम लूँगा। विश्वास के साथ किया गया आपका संकल्प आपको हर क्षेत्र में सफलता की ओर अग्रसर करेगा इसमें संदेह नहीं।

सीताराम गुप्ता

ए.डी.-१०६-सी, पीतमपुरा,

दिल्ली-११००३४

फोन नं. ०११-२७३१३९५४/२७३१३६७९

Email: srgupta54@yahoo.co.in

 

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डॉ. टी. महादेव राव की कुछ कविताएँ - हादसा और मुंबई



**
बच्‍चे के हाथ में दाने
चुगता हुआ कबूतर
आवाज़ गोलि‍यों की
हलचल नहीं बच्‍चे में
ठि‍ठका हुआ है कबूतर
मंडरा रहे हैं आसपास गि‍द्ध
डरा हुआ है कबूतर

**

मेरा मि‍त्र
होटल के कमरे में बुनता रहा
कल के हसीन सपने
भवि‍ष्‍य के महल
हो गया सपनों सा
वह भी अमूर्त
पहचान बडी थी उसकी
आज पहचानी नहीं जा रही है
उसकी लाश

**

कि‍सी को लेने
बि‍दा करने कि‍सी को
कहीं जाने के लि‍ये
कहीं से आकर
तय कर लि‍या है सभी ने
एक ही रास्‍ता
सभी को दे गया मौत
एक ही मंज़ि‍ल
सीएसटी पर ज़ि‍न्‍दगी
हो गई ओझल

**

लगातार खबरें आ रही हैं
कि‍ लापता हैं लोग
बढ़ रही है भीड़ मुर्दाघर में
ढूंढते रहे हैं लोग लाशों को
उनसे जुड़े अपने रि‍श्‍तों को
अदद पहचान को
सारा देश गरम है
आगजनी और गोलाबारी से
छलनी है मानव का सीना

**

टेलीफोन की घंटी
मौत की खबर
मस्‍ति‍ष्‍क में सन्‍नाटा
पक्षाघात से ग्रस्‍त पल
सुन्‍न पड़ते दि‍माग
नि‍श्‍शब्‍द बि‍लखता हृदय

**

जो स्‍वर सुना था कल रात को
आज स्‍वरहीन हो गया
सुन्‍दर देह और मन
अस्‍ति‍त्‍वहीन हो गया
कुत्‍सि‍त कुवि‍चार कि‍ भरे
लोगों में भय और कुंठा
कुचलकर सभी भावनाओं को
उन लाशों पर आसीन हो गया

**

डर से भागते घायल लोगों को
कैमरे में कैद करते चैनल
जलती इमारतों की आग में
रोटी सेंकते राजनीति‍ज्ञ
लाशों के प्रश्‍नों को अनसुना कर गये
लोग नये हादसों के अंदेशे लगाने लगे
हम कहां हैं  कहां जा रहे हैं
अनुत्‍तरि‍त है मानवता का प्रश्‍न

**
समुद्र दस्‍युदल की खबर
अभी पड रही थी ठंडी
समुद्री रास्‍ते से आकर आतंकवाद ने
कर दि‍या साबि‍त
कि‍ महफूज़ नहीं कोई भी रास्‍ता
हवा हो पानी हो या ज़मीन
वह रास्‍ता बना रहा है
हमारी शांति‍ सद्भाव सहि‍ष्‍णुता को
ठेंगा दि‍खा रहा है

**

कि‍सी कोने में मन के
कि‍ जीवि‍त है मेरा मि‍त्र
तूफान में माटी के दि‍ये सा
टि‍मटि‍मा रहा है
सुनाई पड़ती है मोबाइल की घंटी
आधी रात को आंधी की तरह
शून्‍य कर दि‍या है तीन शब्‍दों ने
मेरे अस्‍ति‍त्‍व को
पंचेंद्रि‍यों को नि‍ष्‍क्रि‍य बना ग‍या है

चार दि‍न पहले ही हुई थी
उससे बातचीत
उसकी हंसी
उसकी हाज़ि‍र जवाबी
उसकी शायरी
सब कुछ तीन शब्‍दों में
खत्‍म हो गई है सि‍मटकर
’’ वह नहीं रहा ’’
**
लहरों का शोर
हो गया साठ घंटों तक अनसुना
टकराकर तट से वापस
लौटने से भी कतरा रहा है सागर
कि‍नारे की इमारतों में आगजनी
गोलीबारी का भयावह स्‍वर
लोगों के आक्रंदन
सड़कों पर भीड़ के चेहरे पर
असुरक्षा का प्रश्‍न
बि‍खरा पडा है बेतरतीब हर क्षण
वातावरण में

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अविनाश वाचस्पति का व्यंग्य - 26 जनवरी में दिल्‍ली की झांकी








26 जनवरी 26 बार से डबल बार आ चुकी है। मनाई जा रही है। आप इधर यह पढ़ रहे हैं उधर देश में गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है। इस बार परेड में झांकियों की कमी नहीं है। कमी तो सिर्फ पिछले दो बरस से दिल्‍ली की झांकी न निकालकर कृत्रिम रूप से पैदा की गई है। कोहरा खूब घमासान मचा रहा है। अगर 26 जनवरी को कोहरे ने घमासान मचाई तो 26 जनवरी की तो 62 जनवरी हो जाएगी। किसी को कुछ नजर ही नहीं आयेगा। आप कुछ भी दिखलाओ। सब बेदेखा रह जायेगा।
       वैसे एक परेड कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स के नाम पर दिनरात लगातार जारी है। कहीं मेट्रोपुल खुदकुशी करता है। कहीं एक गार्डर गिरता है। कहीं पर क्रेन ही लुढ़क पुढ़क जाती है। इतना न हुआ तो मेट्रो ही रूक जाती है या रोक दी जाती है। वैसे तो परेड की सारी झांकियों को दिल्‍ली की दीवानगियों से भरपूर करके आम पब्लिक को आनंद दिया जा सकता था। पर वे न सही, हम दे रहे हैं आप लूटिए इस आनंद को इसमें कोहरा भी बाधक नहीं बनेगा। इस बात की भरपूर गारंटी है।
आटो टैक्‍सी वालों की जीवंत झांकी यानी मीटर से न चलने का उनका रूतबा पहले की तरह ही कायम है। जगह जगह सुरक्षा कड़ी है कि परिंदा भी पर न मार सके। अब आतंकवादी न तो परिंदे हैं और न वे पर मारते हैं। वे बम फोड़ते हैं। सीधा नाता यमराज से जोड़ते हैं। यमराज से हमारे पड़ोसी का कोलेब्रेशन है। पड़ोसी अपने पड़ोस का बेड़ा गर्क करने पर जुटा हुआ है, कितना रहमदिल पड़ोसी है, स्‍वार्थी नहीं है।
       ट्रैफिक उल्लंघन करने वालों की जेबों की सुरक्षा का कोई उपाय नहीं, वे विवश होकर यातायातकर्मियों से जेब कटवा रहे हैं। लाल बत्‍ती धड़ल्‍ले से पार हो रहीहै। सुविधाशुल्‍क के अग्रिम भुगतान का कमाल है। झांकी बंद करेंगे तो जनता झांकना बंद करेगी, इस मुगालते में सरकार है। यह कोई नहीं सूंघ पा रहा है।
       खुले में लघुशंका रुपी झांकी को देखते रहिए, अगर यह जानने की कोशिश की जाए कि - तलाशो, जिसने कभी सड़क किनारे, स्‍कूल की दीवार पर, कभी हल्‍की सी ओट और बिना ओट ही इस तलबसे छुटकारा न पाया हो, तो ऐसा कोई नहीं मिलेगा। परेड छूटने के बाद यहदृश्‍य खुलेआम दिखेगा।
       थूकना तो इस देश में जुर्म है ही नहीं। यह जर्म नेताओं तक में महामारी की तरह व्‍याप्‍त हैं। सब एक दूसरे तीसरे पर सरेआम थूक रहे हैं। आप और हम उनके थूकने की क्रिया को पहचान नहीं पा रहे हैं। खुले में धूम्रपान पर रोक का कानून बनाकर लागू है। कारों तक में धूम्रपान मना है। कारसवार और कार चालक खूब धुंआ उड़ा रहे हैं सिर्फ साइलेंसर से ही नहीं, सिगरेट बीड़ी का सेवन करके भी। बस वालों पर रोक लगाने से तो सरकार बेबस ही है क्‍योंकि सरकार कार में चलती है।
       फुटपाथों पर पैदल चलने वालों की जगह विक्रेता कब्‍जा जमाए बैठे हैं और पैदलों को ही अपना सामान बेच रहे हैं। राजधानी में झांकियों की कमी नहीं है।सूचना के अधिकार के तहत मात्र दस रुपये खर्च करके आप लिखित में संपूर्णदेश में झांकने की सुविधा का भरपूर लुत्‍फ उठा तो रहे हैं। देश को आमदनीभी हो रही है, जनता झांक भी रही है। सब कुछ आंक भी रही है। देश में झांकने के लिए छेद मौजूद हैं इसलिए झांकियों की जरूरत नहीं है।
अभी तो यह गाथा सिर्फ दिल्‍ली की है। दिल्‍ली जो राजधानी है। अगर सबका हाले बयां किया गया तो न जाने क्‍या होगा
*******

अविनाश वाचस्‍पति
साहित्‍यकार सदन
पहली मंजिल, 195 सन्‍त नगर
नई दिल्‍ली 110065

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देवी नागरानी की गजलें




देवी नागरानी







ग़ज़लः १
कितने पिये है दर्द के, आंसू बताऊं क्या
ये दास्ताने-ग़म भी किसी को सुनाऊं क्या?

रिश्तों के आईने में दरारें हैं पड़ गईं
अब आईने से चेहरे को अपने छुपाऊं क्या?

दूश्मन जो आज बन गए, कल तक तो भाई थे
मजबूरियां हैं मेरी, मैं उनसे छुपाऊं क्या?

चारों तरफ से तेज़ हवाओं में हूं घिरी
इन आँधियों के बीच में दीपक जलाऊं क्या?

दीवानगी में कट गए मौसम बहार के
अब पतझड़ों के खौफ से दामन बचाऊं क्या?

साजि़श मेरे खि़लाफ मेरे दोस्तों की थी
इल्ज़ाम दुशमनों पे मैंदेवीलगाऊं क्या?

**

ग़ज़लः
दीवारो-दर थे, छत थी वो अच्छा मकान था
दो चार तीलियों पे ही कितना गुमान था.

जब तक कि दिल में तेरी यादें जवांन थीं
छोटे से एक घर में ही सारा जहान था.

शब्दों के तीर छोडे गये मुझ पे इस तरह
हर ज़ख़्म का हमारे दिल पर निशान था.

तन्हा नहीं है तू ही यहां और हैं बहुत
तेरे मेरे सर पे कोई सायबान था.

कोई नहीं थादेवीगर्दिश में मेरे साथ
बस मैं, मिरा मुक़द्दर और आसमान था.

॰॰
ग़ज़लः ३
देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये.

बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी आया नज़र रो दिये.

काम आये जब इस ज़माने के कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.

कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.

हम भी महफिल में बैठे थे उम्मीद से
उसने डाली हम पर नज़र रो दिये.

फासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये.
*******

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