Archive for 2010

नए साल की इबादत में भिन्न-भिन्न भावों से सजी सौगात

HAPPY NEW YEAR- 2011

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।

(सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।)
इसी सनातन भावना को साथ लेकर एक बार पुनः हम जा रहे हैं वर्ष २०११ का स्वागत करने हमारे भिन्न-भिन्न भावों से सजी इन रचनाओं के साथ...

नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ..

शुभकामनाएँ ...

नए साल की नज़्मे
शुभकामनाओं के मलयानिल से
आरत्रिका की तरह आई हैं
हर किरण में स्नेहिल दुआएं-
तुम्हारे लिए !
नया साल
तुम्हें तुम्हारी पहचान दे
पहचान को सलामत रखे
आतंक के साए को दूर करे
रग-रग में विश्वास भर जाये
खूबसूरत सपने
हक़ीक़त में ढल जाएँ
जो पंछी अपने बसेरे से भटक गए हैं
वे लौट आएँ
कहीं कोई द्वेष की चिंगारी ना रहे
ठंडी हवाएँ उन्हें शांत कर जाएँ
मुस्कानों की सौगातों से
सबकी झोली भर जाए............
आओ मिलकर कहें-
'आमीन'
नया वर्ष मंगलमय हो !

- रश्मि प्रभा

नए साल की इबादत में

नए साल की इबादत में मैंने लिखी हैं
कुछ प्रार्थानाएँ
कुछ कविताएँ
कुछ गीत
नए साल के स्वागत में मैने बिछाए हैं
कुछ पंखुड़ियाँ
कुछ पत्ते
कुछ फूल
नए साल के इंतज़ार में मैंने खोल दिए हैं
सब कुण्डे
सब दरवाजे
सब झरोखे
नए साल के उत्सव में मैंने बुलाया है
पूरा गाँव
पूरा देश
पूरा विश्व

- संगीता सेठी

नये साल की
उफ! कितनी
तस्वीर घिनौनी है।
फिर
अफवाहों से ही
अपनी आंख मिचैनी है।

वही सभी
शतरंज खिलाड़ी
वही पियादे हैं,
यहां हलफनामों में भी
सब झूठे वादे हैं,
अपनी मूरत से
मुखिया की
मूरत बौनी है।

आँगन में
बंटकर तुलसी का
बिरवा मुरझाया,
मझली भाभी का
दरपन सा
चेहरा धुंधलाया,
मछली सी
आंखों में
टूटी एक बरौनी है।


गेहूं की
बाली पर बैठा
सुआ अकेला है,
कहासुनी की
मुद्राएं हैं
दिन सौतेला है,
दिन भर बजती
दरवाजे की
सांकल मौनी है।

-जयकृष्ण राय तुषार

नया साल मनाएँ

गए साल की बीती यादें
एक नया इतिहास बनाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

जब चहुँ ओर हरियाली होगी
देश में तब खुशहाली होगी
जन-जन के जीवन को हम
एक सुखमय आदर्श बनाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

स्वास्थ्य जीवन रक्षक होगा
स्वाध्याय हमारा लक्ष्य होगा
ऊँच-नीच के भेद मिटाकर
एक नया समाज बनाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

समय तो यूँ ही चलता रहेगा
जो दुःख कल था कल न रहेगा
नए साल की पहली सुबह का
एक अभिनन्दन गान हम गाएँ
आओ हम सब मिल-जुल कर
यह नया साल मनाएँ.

-अश्विनी कुमार रॉय

दीपमहल

दुनिया को नया
पहाड़ों को हरा
आसमान का
वो पुराना
नीलापन
सब ले आया

तुम
आ जाओ
उस आकार में
अन्दर से साफ़ था जो

मैं
गँगा में नहा लूँगा
कुछ बूंदें
तुमसे लिपट जाएँ

एक दीप महल
कैलाश सा
उज्वल
तुमसा पवित्र
शांत
नदी के हर पानी सा नया

हर छड
नया वर्ष
हर पल
पुराने
वो पुराने
हम

ऐसे जीते हैं
चलो
सब सही हो जाये

-भरत तिवारी

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कुछ ग़ज़लें- श्रद्धा जैन

संक्षित परिचय:

नाम- श्रद्धा जैन 
जन्म- ८ नवम्बर १९७७ को विदिशा मध्यप्रदेश
शिक्षा- एम. एस. सी. केमेस्ट्री, एम ए हिंदी, बी ऐड

श्रद्धा जैन पिछले ११ सालों से सिंगापुर में निवासित, और फिलहाल ग्लोबल इंडियन इंटर नेशनल स्कूल में हिंदी भाषा की अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं. उनकी कुछ ग़ज़लें आपकी नज़र हैं.....
1.
कहाँ बनना, संवरना चाहती हूँ
मैं ख़ुशबू हूँ, बिखरना चाहती हूँ

अब उसके क़ातिलाना ग़म से कह दो
मैं अपनी मौत मरना चाहती हूँ

हर इक ख्वाहिश, ख़ुशी और मुस्कराहट
किसी के नाम करना चाहती हूँ

गुहर मिल जाए शायद, सोच कर, फिर
समुन्दर में उतरना चाहती हूँ

ज़माना चाहता है और ही कुछ
मैं अपने दिल की करना चाहती हूँ

है आवारा ख़यालों के परिंदे
मैं इनके पर कतरना चाहती हूँ

कोई बतलाए क्या है मेरी मंज़िल
थकी हूँ, अब ठहरना चाहती हूँ


2.
शीशे के बदन को मिली पत्थर की निशानी
टूटे हुए दिल की है बस इतनी-सी कहानी

फिर कोई कबीले से कहीं दूर चला है
बग़िया में किसी फूल पे आई है जवानी

कुछ आँखें किसी दूर के मंज़र पर टिकी हैं
कुछ आँखों से हटती नहीं तस्वीर पुरानी

औरत के इसी रूप से डर जाते हैं अब लोग
आँचल भी नहीं सर पे नहीं आँख में पानी

तालाब है, नदियाँ हैं, समुन्दर है पर अफ़सोस
हमको तो मयस्सर नहीं इक बूंद भी पानी

छप्पर हो, महल हो, लगे इक जैसे ही दोनों
घर के जो समझ आ गए ‘श्रद्धा’ को मआनी


3.
हश्र औरों का समझ कर जो संभल जाते हैं
वो ही तूफ़ानों से बचते हैं, निकल जाते हैं

मैं जो हँसती हूँ तो ये सोचने लगते हैं सभी
ख़्वाब किस-किस के हक़ीक़त में बदल जाते हैं

ज़िंदगी, मौत, जुदाई और मिलन एक जगह
एक ही रात में कितने दिए जल जाते हैं

आदत अब हो गई तन्हाई में जीने की मुझे
उनके आने की ख़बर से भी दहल जाते हैं

हमको ज़ख़्मों की नुमाइश का कोई शौक नहीं
कैसे ग़ज़लों में मगर आप ही ढल जाते हैं
**

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सीमा गुप्ता की कविताएँ

संक्षिप्त परिचय:
नाम : सीमा गुप्ता
जन्म : अम्बाला (हरियाणा)
शिक्षा : एम.कॉम.
लेखन और प्रकाशन : मैंने अपनी पहली कविता “लहरों की भाषा” चौथी कक्षा में लिखी थी जिसे की बहुत सराहा गया। उसी ने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। मेरी कई कविताएँ और ग़ज़लें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। मेरी अधिकतर कविताओं में पीड़ा, विरह, बिछुड़ना और आँसू होते हैं; क्यों – शायद मेरे अन्तर्मन से उभरते हैं।
मेरी कविताएँ अंतरजाल पर “हिन्दी युग्म” में भी प्रकाशित हो चुकी हैं। "विरह के रंग" पहला काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है.
संप्रती : जनरल मैनेजर (नवशिखा पॉली पैक), गुड़गाँव
कभी यूँ भी हो

कभी यूँ भी हो
देखूं तुम्हे ओस में भीगे हुए
रेशमी किरणों के साए तले सारी रात

चुन लूँ तुम्हारी सिहरन को
हथेलियों में थाम तुम्हारा हाथ

महसूस कर लूँ तुम्हारे होठों पे बिखरी
मोतियों की कशमश को
अपनी पलकों के आस-पास

छू लूँ तुम्हारे साँसों की ऊष्णता
रुपहले स्वप्नों के साथ-साथ

ओढ़ लूँ एहसास की मखमली चादर
जिसमे हो तुम्हारी स्निग्धता का ताप

कभी यूँ भी हो .....
देखूं तुम्हे ओस में भीगे हुए
रेशमी किरणों के साए तले सारी रात


"नर्म लिहाफ़"

सियाह रात का एक कतरा जब
आँखों के बेचैन दरिया की
कशमश से उलझने लगा
बस वही एक शख्स अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला

मै ठिठक कर उसके एहसास को
छूती टटोलती आँचल में छुपा
रूह के तहख़ाने में सहेज लेती हूँ
कुछ हसरतें नर्म लिहाफ़ में
डूबके मचलने लगती हैं
जब वही एक शख्स अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला

कुछ मजबूरियों की पगडंडियाँ
जो मेरे शाने पे उभर आती हैं,
अपने ही यक़ीन के स्पर्श की
सुगबुगाहट से हट
चाँद के साथ मेरी हथेलियों में
चुपके-चुपके से सिमटने लगती है
सच वही बस वही एक शख्स जब अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला


वक़्त की कोख में नहीं..

शाम ढले ही
ख़ामोशी के तहखानों में
कुछ वादों के उड़ते से ग़ुबार
समेट लेते हैं मेरे अस्तित्व को
फिर अनजानी ख्वाहिशों की आँखें
क़तरा-क़तरा सिहरने लगती हैं
और रात के आँचल की उदासी
सूनेपन के कोहरे में सिमट
अपनी घायल सांसो से उलझती
ओस के सीलेपन से खीज़ कर
युगों लम्बे पहरों में ढलने लगती है
तब मीलों भर का एकांत
तेरी विमुखता की क्यारियों से
अपना बेज़ार दामन फैला
अधीरता के दायरों का स्पर्श पा
ढूंढ़ लाता है कुछ अस्फुट स्वर .....
"तुम्हे भूल पाऊं कभी,
वो पल वक़्त की कोख में नहीं..."


"अश्कों के घुंघरू"

धडकनों के अनगिनत जुगनू
कहाँ सब्र से काम लेते हैं
चारो पहर ख़ुद से उलझते हैं
तेरे ही क़िस्से तमाम होते हैं
लम्हा-लम्हा तुझको दोहराना
यही एक काम उल्फत का
हवाओं के परो पर लिखे
इनके पैग़ाम होते हो
कभी बेदारियां खुद से
कभी शिक़वे शिक़ायत भी
तेरी यादो की शबनम में
मेरे अश्को के सब घुंघरू
तबाह सुबह शाम होते हैं
धडकनों के अनगिनत जुगनू
कहाँ सब्र से काम लेते हैं

"पल रिसता रहा"

प्रेम पराकाष्ठा की परिधि को
जिस पल ने था पार किया
वो शरमा के सिमट गया
जिस में भरा
आक्रोश था, तक़रार थी
वो पल विद्रोह कर
चला गया
जिस ने सही
क्रोध की पीड़ा
वो अश्रुओं संग
क्षितिज में विलीन हुआ
विरह अग्नि में
जो अभिशप्त हुआ
और झुलस गया
वो अभागा "पल रिसता रहा..."
**

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दीपा जोशी की दो कविताएँ

संक्षिप्त परिचय
नाम : दीपा जोशी
जन्मतिथि : 7 जुलाई 1970
स्थान : नई दिल्ली
शिक्षा : कला व शिक्षा स्नातक, क्रियेटिव राइटिंग में डिप्लोमा और रेडियो राइटिंग में PG.
कार्यक्षेत्र : भारतवर्ष के हृदय ‘दिल्ली’ में सूचना व प्रसारण मंत्रालय में कार्यरत।
मासिक पत्रिकाओं व हिन्दी दैनिक में कुछ लघु लेखों व कविताओं का प्रकाशन।
अंग्रेज़ी में कुछ रचनाओं का प्रकाशन।
अन्य रुचि : संगीत सुनना व गुनगुनाना
वह एक फूल

खिला कहीं किसी चमन में
एक फूल सुन्दर
अनुपम थी उसकी आभा
विस्मयी थी उसकी रंगत

इतना सुगंधित कि
हर मन हर्षा जाता
अपने गुणों से
वह प्रकर्ति का उपहार था
कहलाता

ज्यों ज्यों समय बीता
वह पुष्प और महका
अपने सौन्दर्य से
उस बगिया का
केन्द्र बन बैठा

तभी एक रात
भयानक तूफान आया
अपने बल से जिसने
चट्टानों को भी सरकाया
तूफान के जोर को
वह फूल भी न सह पाया
पलक झपकते ही
धूल में जा समाया

मन चमन के दुर्भाग्य पर
पछताया
क्यों इतना सुन्दर कुसुम
वह न सम्भाल पाया
काल के जोर को
कोई
क्यूँ न थाम पाया

तभी चमन ने
अपनी महक से
जीवन का अर्थ समझाया
कुछ पल ही सही
उस कुसुम ने
चमन को महकाया
जब तक जिया
सभी के मन को लुभाया
अल्प ही सही
उसका जीवन सच्चा जीवन कहलाया
**

भ्रष्टाचार

मिला निमंत्रण
एक सभा से
आकर सभा को
सम्बोधित कीजिए
अपनी सरल व सुलझी
भाषा में
भ्रष्टाचार जैसी बुराई
पर कुछ बोलिए।

ऐसे सम्मान का था
ये प्रथम अवसर
गौरव के उल्लास में
हमने भी हामी भर दी
समस्या की गहनता को
बिना जाने समझे
हमने इक नादानी कर दी।

वाह वाही की चाह में
हमने सोचा
चलो भाषण की
रूप रेखा रच ले
अखबारों व पत्रिकाओं में
इस विषय में
जो कुछ छपा हो
सब रट लें।

जितना पढ़ते गए
विषय से हटते चले गएजो एक आध
मौलिक विचार थे भी
वो मिटते चले गए।

लगने लगा हमें
कि ये हमने क्या कर दिया
अभिमन्यु तो भाग्य से फँसा था
हमने चक्रव्यूह खुद रच लिया ।

देखते ही देखते
आ पहुँचा वो दिन
किसी अग्नि परीक्षा से
जो नही था अब भिन्न
तालियों की
गड़गड़हट से
हुआ हमारा अभिनंदन
घबराहट में र्धैय के टूटे सभी बंधन
ना जाने कैसे
रटा हुआ
सब भूल गए
कहना कुछ था
और कुछ कह गए।

मन के किसी कोने में
छिपे उदगार बोल उठे
खुद को मासुम
व सम्पू्र्ण समाज को
भ्रष्ट बोल गए।

उस दोषारोपण ने
सभा का बदल दिया रंग
उभर आई भीड़
धीरे धीरे होने लगी कम।

देखते ही देखते
वहाँ रह गए बस हम
और इस तरह
दुखद हुआ
उस महासभा का अंत
**

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श्याम सखा श्याम के 'कोहरे' पर दो गीत

श्याम सखा श्याम पेशे से चिकित्सक [ छाती रोग]MBBS FCGP होने के साथ-साथ एक बेहद भावुक कवि हृदय के धनि भी हैं. अब तक आपकी १८ पुस्तकें[ ३ उपन्यास-४ कथा संग्रह १गज़ल संग्रह १ दोहा सत्सई आदि प्रकाशित हो चुकी हैं. इसके साथ ही आपकी लगभग १०० कहानिया, लघु कथाएं व इतनी ही गज़ल कविताएं भी प्रकाशित हो चुकी हैं. वर्तमान में आप 'मसि-कागद प्रयास ट्रस्ट' की साहित्य्क त्रैमासिकी का ११ वर्ष से निरन्तर संपादन कर रहे हैं. आज इन्ही की नज़र से कोहरे के दो रूप प्रस्तुत है....
कोहरा

(१)

धुंध है
कोहरा है
ठिठुर-ठिठुर
बदन हुआ दोहरा है

झीलों में दुबके
बैठे हैं हंस
मौसम झेल रहा
मौसम का दंश
हर और ठिठुरन का पहरा है

परिजन घर में हैं
चोर इसी डर में हैं
राहगीर सभी
बटमारों की जद में हैं

टोपी पहन चौकीदार हुआ बहरा है

कोहरा
है झल्ला गया
सब तरफ़ बस
छा गया
जन जीवन हुआ,
पिटा सा मोहरा है

(२)

धुंध है
अंधेरा है
नभ से उतर कोहरे ने
धरा को घेरा है

दुबके पाँखी
गइया गुम-सुम
फूलों से भौंरे
तितली गुम
मौसम ने मौन राग छेड़ा है

ठिठुरे मजूर
अलाव ताप रहे
पशु पंछी भी
थर-थर काँप रहे
धुंध में राह ढूंढ रहा सवेरा है

रेल रुकी
उड़ पाते विमान नहीं
सहमी फ़सलें
खेत जोतें किसान नहीं

सूझे हाथ न तेरा मेरा है

सूरज की
किरने हुईं गाइब
चंदा घर जा
बैठा है साहिब
सब जगह कोहरे का डेरा है
--

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प्रवेश सोनी की कविताएँ

श्रीमती प्रवेश सोनी एक साधारण गृहणी होने के साथ-साथ एक बेहद भावुक कवयित्री भी हैं. जब भी आप किसी की आँख में आंसू या वेदना देखती हैं तो अपनी कलम और तूलिका से अपने ह्रदय के कोमल आवेगों से रंग भरने लगती हैं. कभी शब्दों से तो कभी रंगों से. जीवन के हर क्षण को संवेदनाओं के सप्तरंगी इन्द्रधनुषीय रंगों से सजाने की कल्पना को उनके बनायें चित्रों और उनकी रची कविताओं में स्पष्तः ढलते देखा जा सकता है जिनके साकार होने की ख्वाहिशें ही उनको सृजन की शक्ति भी देती हैं. आज ऐसे ही भावुक और निश्छल भावों से सजी उनकी कुछ रचनाएँ...........

चाहत थी मन की

चाहत थी अपनी
राग की नदी बन बहूं तुम्‍हारी सांसों में
यही तो रही चाह तुम्‍हारी भी,
पर सहेज नहीं पाए
तुम अपने मन का आवेग
स्‍वीकार नहीं पाए
अपने भीतर मेरा निर्बंध बहना,
जो बांधता रहा तुम्‍हें किनारों में,

हर बार सह-बहाव से अलग
तुम निकल जाते रहे किनारा लांघकर
खोजते तुम्‍हें उसी मरुस्थल में
बूंद बूंद विलुप्त होती रही मैं
साथ बहने की मेरी आकांक्षाएं
पंछी की प्यास बनकर रह गईं
राग में डूबे मन ने फिर फिर चाहा
तुम्‍हारी चाहत बने रहना- आजन्‍म
तुम हार तो सकते हो दीगर हालात से
मगर संवार नहीं सकते
अपना ये बिखरा जीवन-राग

मुझमें भी अब नहीं बची सामर्थ्‍य
धारा के विपरीत बहा ले जाने की
न आंख मूंदकर मानते रहना हर अनुदेश
मैं अनजान नहीं हूं अपनी आंच से
नहीं चाहती‍ कि कोई आकर जलाए तभी जलूं
बुझाए, तब बुझ जाऊं
नहीं चाहती कि पालतू बनकर दुत्कारी जाऊं
और बैठ जाऊं किसी कोने में नि:शब्‍द
मुझे भी चाहिए अपनी पहचान
अपने सपने -
जो कैद है तुम्‍हारी कारा में
चाहिए मुझे अब अपनी पूर्णता
जो फांक न पैदा करे हमारे दिलों में ...
करो तुम्‍हीं फैसला आज
क्या मेरी चाहत गलत है
या तुम्‍हीं नहीं हो साबुत, साथ निभाने को ..?
***

वेदना का मौन निमंत्रण

वेदना का मौन निमंत्रण
आँख से चल पड़ा,
ना जाने कौनसे मन पे
देगा दस्तक
किस मन से पाएगा
अनुभूति का आधार
किस हर्प में
शब्द बन जुडेगा
ना जाने किस कथा का
होगा आधार
आबे -गंगा से भी
पूछ लेगा,
कितना मैला में,
तू कितना पावन
दर्द मैंने दिल का धोया
तुने धोया किसका अंतर्मन ?
***

धुएं की लकीर

यह घिनौना धुआँ
क्यों न चुभा
किसी आँख में

जली है आज फिर
कोई बेटी
ज़िन्दा आग में

यह आसमा भी
न रोया
उसकी आह पे
धरती का ना फटा कलेजा
उसकी हाहाकार से

गूँजी उसकी चीत्कारें
मूक बधिर सी थी
इंसानियत की कतारे

अंधानुगामी हुआ
अर्थ का लोभी
मनुष्यता के खोल में
पशुता भोगी

प्रपंचो के जाल में
फंस मीन हारी
हैवानियत के मछेरो ने
तोड़ दी सीमाएं सारी

तन-मन समर्पित कर
बनाना चाहा था
किसी की तक़दीर
हार कर तक़दीर से ही
बन जाती बस
धुएं की लकीर !

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सूचना और प्रसारण मंत्रालय के हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मान से अविनाश वाचस्‍पति सम्‍मानित

प्रख्‍यात हिन्‍दी व्‍यंग्‍यकार और साहित्‍यकार-ब्‍लॉगर अविनाश वाचस्‍पति को सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मान से सम्‍मानित करने का निर्णय लिया है। अविनाश वाचस्‍पति को यह सम्‍मान राजभाषा पुरस्‍कार वितरण समारोह में माननीय सचिव प्रदान करेंगे। उन्‍हें यह सम्‍मान हिन्‍दी साहित्‍य के क्षेत्र में किए जा रहे योगदान के लिए दिया जा रहा है। पत्र सूचना कार्यालय के शास्‍त्री भवन, नई दिल्‍ली में स्थित सम्‍मेलन कक्ष में वर्ष 2008 - 2009 के लिए पुरस्‍कारों का वितरण बुधवार दिनांक 15 दिसम्‍बर 2010 को किया जायेगा।

अंतर्जाल पर हिन्‍दी के लिए किया गया उनका कार्य किसी परिचय का मोहताज नहीं है। सामूहिक वेबसाइट नुक्‍कड़ के मॉडरेटर हैं, जिससे विश्‍वभर के एक सौ प्रतिष्ठित हिन्‍दी लेखक जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्‍त उनके ब्‍लॉग पिताजी, बगीची, झकाझक टाइम्‍स, तेताला अंतर्जाल जगत में अपनी विशिष्‍ट पहचान रखते हैं। उन्‍हें देश भर में नेशनल और इंटरनेशनल ब्‍लॉगर सम्‍मेलन आयोजन कराने का श्रेय दिया जाता है। मुंबई, दिल्‍ली, जयपुर, आगरा इत्‍यादि शहरों में कराए गए उनके आयोजन अविस्‍मरणीय और हिन्‍दी के प्रचार/प्रसार में सहायक बने हैं। इंटरनेट पर हिन्‍दी के उनके निस्‍वार्थ सेवाभाव के कारण विश्‍वभर में उनके करोड़ों प्रशसक मौजूद हैं।

भारतीय जन संचार संस्थान से 'संचार परिचय', तथा ‘हिंदी पत्रकारिता पाठ्यक्रम’ में प्रशिक्षण लिया है। व्यंग्य, कविता एवं फ़िल्म लेखन उनकी प्रमुख उपलब्धियाँ हैं। सैंकड़ों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। जिनमें नवभारत टाइम्‍स, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, भास्कर, नई दुनिया, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, सन्‍मार्ग, हरिभूमि, अहा जिंदगी, स्क्रीनवर्ल्ड, मिलाप, वीर अर्जुन, डीएलए, साप्ताहिक हिन्‍दुस्‍तान, व्यंग्ययात्रा, आई नेक्स्ट, गगनांचल इत्यादि और जयपुर की अहा जिंदगी मासिक उल्‍लेखनीय हैं। सोपानस्‍टेप मासिक और डीएलए दैनिक में नियमित रूप से व्‍यंग्‍य स्‍तंभ लिख रहे हैं। वर्ष 2008, 2009 और वर्ष 2010 में यमुनानगर, हरियाणा में आयोजित हरियाणा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में फिल्मोत्सव समाचार का तकनीकी संपादन किया है।

हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों 'गुलाबो', 'छोटी साली' और 'ज़र, जोरू और ज़मीन' में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म 'ज्योति संकल्प' में सहायक निर्देशन किया है। राष्ट्रभाषा नव-साहित्यकार परिषद और हरियाणवी फ़िल्म विकास परिषद के संस्थापकों में से एक। सामयिक साहित्यकार संगठन, दिल्ली तथा साहित्य कला भारती, दिल्ली में उपाध्यक्ष। केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद के आजीवन सदस्‍य। 'साहित्यालंकार' , 'साहित्य दीप' उपाधियों और राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान' तथा ‘कविता शिल्‍पी पुरस्‍कार’ से सम्मानित। 'शहर में हैं सभी अंधे' स्‍वरचित काव्‍य रचनाओं का संकलन हिन्‍दी अकादमी, दिल्‍ली के सौजन्‍य से प्रकाशित हुआ है। काव्य संकलन 'तेताला' तथा 'नवें दशक के प्रगतिशील कवि’ कविता संकलन का संपादन किया है।

उन्‍हें वर्ष 2009 के लिए हास्य-व्यंग्य श्रेणी में ‘संवाद सम्‍मान’ भी दिया गया है। ‘लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान’ के अंतर्गत 2010 में वर्ष के ‘श्रेष्ठ व्यंग्यकार सम्मान’ अगले वर्ष लखनऊ में आयोजित एक भव्‍य समारोह में प्रदान किया जाएगा।

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डॉ. नन्द किशोर आचार्य की कविताएँ

संक्षिप्त परिचय
श्री नन्‍दकिशोर आचार्य का जन्‍म 31 अगस्‍त, 1945 को बीकानेर में जन्‍मे अनेक विधाओं में सृजनशील श्रीआचार्य को मीरा पुरस्‍कार, बिहारी पुरस्‍कार, भुवलेश्‍वर पुरस्‍कार, राजस्‍थान संगीत नाटक अकादमी एवं भुवालका जनकल्‍याण ट्रस्ट द्वारा सम्‍मानित किया गया है। महात्‍मा गाँधी अंतर्राष्ट्री हिन्‍दी विश्वविद्याल, वर्धा के संस्कृति विद्यापीठ में अतिथि लेखक रहे हैं ।
अज्ञेय जी द्वारा सम्‍पादित चौथा सप्‍तक के कवि नन्‍दकिशोर आचार्य के जल है जहां, शब्‍द भूले हुए, वह एक समुद्र था, आती है जैसे मृत्यु, कविता में नहीं है जो, रेत राग तथा अन्‍य होते हुए काव्‍य-संग्रह प्रकाशित हैं । रचना का सच, सर्जक का मन,अनुभव का भव, अज्ञेय की काव्‍य-तिर्तीर्ष, साहित्‍य का स्‍वभाव तथा साहित्‍य का अध्‍यात्‍म जैसी साहित्‍यालोचना की कृतियों के साथ-साथ आचार्य देहान्‍तर, पागलघर और गुलाम बादशाह जैस नाट्य-संग्रहों के लिये भी चर्चित रहे हैं । जापानी जेन कवि रियोकान के काव्‍यानुवाद सुनते हुए बारिश के अतिरिक्‍त आचार्य ने जोसेफ ब्रॉदस्‍की, ब्‍लादिमिर होलन, लोर्का तथा आधुनिक अरबी कविताओं का भी हिन्‍दी रूपान्‍तरण किया है । एम.एन. राय के न्‍यू ह्यूमनिज्म (नवमानवाद) तथा साइंस एण्‍ड फिलासफि (विज्ञान और दर्शन) का भी हिन्‍दी अनुवाद उन्‍होंने किया है ।
रचनात्‍मक लेखन के साथ-साथ्‍ा नन्‍दकिशोर आचार्य को अपने चिन्‍तनात्‍मक ग्रन्‍थों के लिए भी जाना जाता है । कल्‍चरल पॉलिटी ऑफ हिन्‍दूज और दि पॉलिटी इन शुक्रिनीतिसार (शोध), संस्कृति का व्‍याकरण, परम्‍परा और परिवर्तन(समाज- दर्शन), आधुनिक विचार और शिक्षा (शिक्ष-दर्शन), मानवाधिकार के तकाजे, संस्कृति की सामाजिकी तथा सत्‍याग्रह की संस्कृति के साथ गाँधी-चिन्‍तन पर केन्द्रित उन की पुस्‍तक सभ्‍यता का विकल्‍प ने हिन्‍दी बौद्धिक जगत का विशेष ध्‍यान आकर्षित किया है।

१. फिर भी यात्रा में हूँ

न गंतव्य चुना मैंने
            न रास्ता
-प्रयोजन भी नहीं-
फिर भी यात्रा में हूँ |

ठीक कहते हो
चाहूँ तो रुक सकता हूँ यहीं
यह रुकना भी लेकिन
क्या होगा मेरा गंतव्य
लौट सकता हूँ
वह क्या होगी मेरी यात्रा?

मैंने कब चाही थी यात्रा-
कैसे चाहता?
यात्रा में हो कर ही तो
                  हुवा |

***

२. पानी कहता हूँ

पानी कहता हूँ
कभी मुझे जब
कहनी होती प्यास

कहता हूँ सपना
कहना होता है जब सच
जो खो बैठा है आस

लेता हूँ तुम्हारा नाम
ढूँढ़ना होता है जब
ख़ुद का कोई मुक़ाम

पुकारता हूँ- ईश्वर
मृत्यु का करना होता
जब भी कोई बखान

व्यंजना में होता है सच
सच में नहीं होता जो
मिलने में जाता खो |

***

३. लहरा रही है बस

वह पत्ती
चित्र में लहरा रही है जो-
कौन बतलाये-
गिर रही है धरती की ओर
लहराती हुई
या उठ रही है

क्या चाहा था चित्रकार ने
पूछते ग़र सामने होता
पर वह नहीं है
जैसे नहीं है पेड़
न वह धरती
जिन के बीच लहराती है वह पत्ती

पेड़ के या धरती के होने के
कुछ मानी नहीं अभी
पूरी है पत्ती लहराते हुए
तनिक भी बिना यह सोचे
कहाँ से आ रही है वह
कहाँ को जा रही है

वह है
पत्ती है
और लहरा रही है
             बस |

***

४. क्या पा लिया तुमने

कवि प्रेम से भी अधिक
शब्द से प्रेम करता है

प्रेम मिल भी जाता है
                कभी |
शब्द पर कभी नहीं मिलता

कविता कैसे हो तब?

रास्ता यही रहा केवल
कवि लिखे नहीं
       कविता |
ख़ुद ही हो जाय
जिसे तुम लिखती हो
                भाषा |

क्या पा लिया तुमने
मुझमे अपना शब्द?

***

५. हो नहीं पाती है

आजकल अक्सर ही
सपने में भी
लिख जाती है कविता
जागते में खो जाती है
जागते में जो लिखता हूँ
वह सपना हो जाती है

निष्कर्ष यह निकला :
कविता होती तो है लेकिन
हो नहीं पाती है |
*****
(साभार- "चाँद आकाश गाता है")

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प्राण शर्मा की दो ग़ज़लें

प्राण शर्मा की संक्षिप्त परिचय:

जन्म स्थान: वजीराबाद (पाकिस्तान)
जन्म: १३ जून १९३७

निवास स्थान: कवेंट्री, यू.के.
शिक्षा: प्राथमिक शिक्षा दिल्ली में हुई, पंजाब विश्वविद्यालय से एम. ए., बी.एड.
कार्यक्षेत्र : ग़ज़लकार, कहानीकार और समीक्षक प्राण शर्मा छोटी आयु से ही लेखन कार्य आरम्भ कर दिया था. मुंबई में फिल्मी दुनिया का भी तजुर्बा कर चुके हैं. १९५५ से उच्चकोटि की ग़ज़ल और कवितायेँ लिखते रहे हैं.

प्राण शर्मा जी १९६५ से यू.के. में प्रवास कर रहे हैं। वे यू.के. के लोकप्रिय शायर और लेखक है। यू.के. से निकलने वाली हिन्दी की एकमात्र पत्रिका ‘पुरवाई’ में गज़ल के विषय में आपने महत्वपूर्ण लेख लिखे हैं। आप ‘पुरवाई’ के ‘खेल निराले हैं दुनिया में’ स्थाई-स्तम्भ के लेखक हैं. आपने देश-विदेश के पनपे नए शायरों को कलम मांजने की कला सिखाई है। आपकी रचनाएँ युवा अवस्था से ही पंजाब के दैनिक पत्र, ‘वीर अर्जुन’ एवं ‘हिन्दी मिलाप’, ज्ञानपीठ की पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ जैसी अनेक उच्चकोटि की पत्रिकाओं और अंतरजाल के विभिन्न वेब्स में प्रकाशित होती रही हैं। वे देश-विदेश के कवि सम्मेलनों, मुशायरों तथा आकाशवाणी कार्यक्रमों में भी भाग ले चुके हैं।
ग़ज़ल- एक

क्या -क्या नहीं कहा उसे अपनी सफाई में
हर बात उसने टाल दी लेकिन हँसाई में

सुलझा है झगड़ा दोनों में,फिर भी वे डरते हैं
के मामला पड़े नहीं फिर से खटाई में

तन की सफ़ाई खूब हैं माना कि आज कल
लेकिन कमी है दोस्तो मन की सफ़ाई में

बाहर बनी मिठाई में वो बात हैं कहाँ
जो बात है ए दोस्तो घर की मिठाई में

ए " प्राण " जानता है सभी उसकी खामियाँ
फिर भी मज़ा वो लेता है सबकी बुराई में
***

ग़ज़ल- दो

माथे के सारे दाग़ मिटाना ज़रूरी है
दुनिया को साफ़ चेहरा दिखाना ज़रूरी है

मिलता नहीं है कोई ठिकाना तो क्या करूँ
कहने को हर किसीको ठिकाना ज़रूरी है

क्यों कोई छूट जाए तेरा दोस्त सूची से
दावत में हर किसीको बुलाना ज़रूरी है

मैं पूछता हूँ आपसे ये बात दोस्तो
क्या दोस्त को नज़र से गिराना ज़रूरी है

सूई से लेके धागे तक आप रखिये सब हिसाब
अच्छी तरह से घर को चलाना ज़रूरी है

इक बच्चा भी बता गया हमको पते की बात
दुश्मन से अपनी आँख चुराना ज़रूरी है

कोई जलाए या न जलाए कहीं मगर
मंदिर में दीप नित्य जलाना ज़रूरी है

हम भी हैं जाने ,दोस्त को इनकार के लिए
कोई न कोई " प्राण " बहाना ज़रूरी है
***
- प्राण शर्मा

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मंजु मल्लिक मनु की कविताएँ

रचनाकार परिचय

नाम- मंजु मल्लिक मनु

जन्म- 20 मई, 1979 को जन्म।
पति- फ़ज़ल इमाम मल्लिक
अभिरुचि- साहित्य, रंगमंच, गीत व संगीत।
रंगमंच- सूत्रधार संस्था की महासचिव। क़रीब पचास नाटकों में अभिनय। राष्ट्रीय मंचों पर गायन व नृत्य के कार्यक्रम। अभिनय के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में बेहतरीन अभिनय के लिए पुरस्कार। रंगमंचीय जीवन की शुरुआत ‘बंदी’ नाटक से। नाटक में बेहतरीन अभिनय के लिे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार।
निर्देशन- ‘गाँव की बहार’ ‘कृष्ण’ और ‘भारत’ नृत्य नाटिकाओं का निर्देशन।
प्रकाशन- देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। समय-समय पर सम-सामयिक आलेख ।
पत्रकारिता- प्रभात खब़र, हिन्दुस्तान, आज दैनिक के अलावा बानगी, लोकायत पत्रिकाओं के लिए राजनीतिक-सामाजिक रिपोर्टिंग।
प्रसारण- दूरदर्शन व आकाशवाणी से कविताएँ, लोक नृत्य, संगीत के कार्यक्रमों का प्रसारण।
संपादन- साहित्यक त्रैमासिक पत्रिका ‘सनद’ का संपादन।
प्रकाश्य- कविता संग्रह ‘क्या जंगल से लड़की लौट पाएगी’।
संप्रति- शुक्रवार साप्ताहिक के लिए देहरादून से रिपोर्टिंग।
संपर्क-
मंजु मल्लिक मनु
39/1, बसु एस्टेट, कनाल रोड, जाखन (देहरादून),
मोबाइल: 9675448609/9557975814।
ईमेल: manumallick@rediffmail.com
ईश्वर से......कुछ सवाल

क्या कुसूर था मेरा....?
सारा जहाँ तुमने बनाया,
आसमां बनाया, धरा बनाई
समंदर भी, सूरज भी
जंगल भी, शेर भी
कोयल भी, मोर भी
मैंने तुमसे कहा था मुझे बनाने को...?

बनाया तो बनाया पर मेरा कसूर क्या था
जो तुमने इंसान बनाया
बोलो तो ‘हे आदि पिता’,
बोलो तो-
आखिर तुमने मुझे क्यूं बनाया...?

मगर जब बनाया ही तो मुझमें फिर एक-
पूरा जंगल उगा दिया...
समुंदर बना दिया, लहरों का वेग बढ़ा दिया
कहीं सूरज की धूप डाली तो
कहीं चाँद की शीतलता भरी
पल-पल बदलते आकाश-गंगाओं का ब्रह्मांड
मस्तिष्क की ऊर्जा में घोल डाला
आखिर तुमने ऐसा क्यों किया....?
क्यों....?
ये कुछ अनसुलझे सवाल हैं तुमसे ‘हे आदि पिता’ !

एक छल जो तुमने मुझसे किया
तबसे अबतक न तो मैं तुम्हारे ही पास हूँ.....
न धरती के साथ
कहीं का न रखा...
आखिर तुम्हें क्या मिला ‘ईश्वर’ ?
मुझमें ढेरों अहर्तायें, ढेरों आर्तनाद घोलकर
मानो एक नवजात का रोना और ममता की कहीं-
विलीन होते जाना..... देखकर भी
जैसे कलरव करते परिंदो के पर तले-
समूचे वृक्ष का सूखते जाना पाकर भी-
तुम्हें दया न आई मुझ पर ?
फिर जेठ की तपती धूप का जंगल
साथ रहा हरदम
फिर कौन-सी खुशी मिली तुम्हें
मुझे मारकर हरजल ?

इससे तो अच्छा था मुझे न बनाते कभी
कोई जंगल न उगाते कभी
कम-से-कम तुम्हारे ब्रह्मांड के अणुओं से
एक परमाणु ही जुड़ी होता कहीं
जैसी भी होती... तुम्हारी होती
एक दमकता कण सही लेकिन तुम्हारा हिस्सा कहलाती
यहाँ तो जिस्मों के वसीयत में....
मेरा कोई हिस्सा नहीं
खंभे हैं.... गलियारें हैं, मंदिरों के
रिश्ते सारे हैं मगर कोई रिश्ता नहीं

क्या कसूर था मेरा ?
सारा जहाँ बनाया तुमने
आसमां बनाया, धरा बनाया
समुंदर भी सूरज भी
जंगल भी, कोयल भी
मैंने तुमसे कहा था मुझे बनाने को ?
क्योंकि तुमने पूछा नहीं था
मैंने कहा नहीं था....!
क्या कसूर था मेरा ?


लड़की, ऊर्जा और टूटती पृथ्वी

उठो, कि दम भर इस हार का
मज़ा लेना है ज़रूर
मान लो कि-
इस जीवन के रंजो-गम, तल्खियों से
गुजरना है मंजूर...

मत रो उन अनगिनत
जिस्म के फूटे फफोले पे ‘राही’
जहाँ हाल पूछने वाला तेरा कोई नहीं...
कोई नहीं...!

राहें अनगिनत हैं माना साथी कोई नहीं
माटी की बस तू मूरत है-
तेरी सूरत और कोई नहीं

टूटती है मटकी बह जाता है पानी
लेकिन उस ऊर्जा का होता क्या है
जो पेड़ की जड़ों से लेकर
पत्तों की शिराओं तक बहता है?

अबकि जब-
परखे हुए रिश्ते और आत्मिय-जन
तुम्हे७ आग की नगरी में
जलता छोड़ गए हैं.... माना,
जलेंगे वो भी एक दिन किसी अपनों की ही तीलियों से

जिनकी आँखों ने तुम्हारे जलने का नजारा देखा है न,
तड़पेंगे वे भी किसी रिश्तों की तल्खियों से
संसार का सारा सच
हसीन नर्क के सिवा कुछ नहीं!
शायद सृष्टि का पहला मनुष्य ही फाँसी का हक़ दार था?

भूल चाहे किसी भी ‘मनु-सत्तरूपा’ की रही हो लेकिन-
धरती को सजा मिले तो अरबों-खरबों हो चली हैं!

क्योंकि दरकते पहाड़... उफनते नदी-नाले
कटते जंगल... झपटते समुन्दर में
विलीन होती धरती को बचाने वाला अब कोई नहीं... कोई नहीं
कल, ब्रह्मांड के तारे बातें करेंगे धरती की,
कि विनाश का सारा सामान
मानवों ने ही संजो रखा था


एक बच्चा कभी...
जिन्दगी की पहली पाठशाला में जा रहा था
एक कीड़ा सुंदर तितली में बदलने वाला था
एक बीज गुलाब की महक फैला सकता था
एक बरगद आशियां दे सकता था गौरेय्या को

पर, तभी तुमने सारे जंगल काट डाले थे
सारे बारूद उगल डाले थे वायूमंडल में
सारे रसायन नदी-नालों-समुंदर में बहा डाले थे

इतना जहर... इतना जहर उगला है मानवों ने
धरती की कोख में
कि उतना जहर साँपों में भी नहीं होता
सांपों को डंस कर।


अब, ईश्वर को तौबा करनी चाहिए

ईश्वर के कानों में धीरे से कहती है लड़की कि -
तोड़ता है दु:ख मुझको बार-बार
शायद कोई पत्थर समझ,
कैदियों की तारीख छपी है... शाह के हुक्मनामें में
जहाँ-
‘जिला-ए-वतन’ का फरमान लिए फिरना लिखा है-
पंक्षियों के भाग्य में !
हाराकिरी करते किसान, माँऐं-नौनिहाल, जहाँ-
सलामी भरी मौत भी हमेशा-
सरहदों पे डटे सैनानियों के भाग्य में-
नसीब नहीं होती जैसे...!

जैसे देश भूल जाता है.... वीरों के बलिदानों को
माँ भूल जाती है जैसे... कन्या-सन्तानों को
पुत्र भूल जाता है अपने दूध के कर्ज़ो को
पुरूष भूल जाता है मानवीय कर्तव्यों को
राजा भूल जाता है न्याय और भगवान को
प्रजा भूल जाती है व्यवस्था और समाज को
और इस तरह
बबर्ता भी भूल जाती है जैसे इन्सानी रिश्ते-नाते को !
तो ‘हे आदी पिता’-
अब बस,
टूट ही जाना चाहिए ‘नोह’ की इस नाव को
लहरों के वेग और पत्थरों के मार से-
टकरा-टकरा कर चकनाचूर हो जाने चाहिए

डूबना ही चाहिए उन सवारों को,
बीजों की मानिंद उन सुंदर मगर कायर
‘नोह’ के संरक्षित जीवों को
या किसी धर्मात्मा ‘मनु’ के
पुरुषार्थी काल-खण्डों में फंसे सृजन-चक्र को-
पुन: एक बार कुलबुलाने से पहले,
टूट ही जाने चाहिए
या कि पनपने से पहले की इच्छाओं को
नष्ट हो जाने चाहिए !

बल्कि लौटा लेने चाहिए... ‘वो’ जो कोई भी है-
ईश्वर-अल्लाह-गॉड
उसे प्रकृति बनाम सृष्टि की इस
नए नर्क की पुनरावृत्ति... पर्त-दर-पर्त
रचनाकर्म करने से बाज आ जाने चाहिए

कि अब बस-
कोई भी ‘मनु-सत्तरूपा’ या ‘आदम-ईव’ को
पुन: रचने से परहेज करना चाहिए
भविष्य को बिना किसी भागीरथी प्रयास के
उन समस्त संकल्पों को कुलबुलाने से पहले टूट जाने चाहिए
नियति में फंसे धर्मात्मा ‘मनु’ के पुरुशार्थ को,
या जबरदस्ती बीज-दीन... वृक्षहीन बनाई गई...
बेबस पृथ्वी के समस्त दृष्यों को कुनमुनाने से पहले ही नष्ट होने चाहिए...

बल्कि तौबा करना चाहिए.... वो जो कोई भी है-
महान ताक़तवर आदी पिता... ईश्वर.... अल्लाह को
अणुओं-परमाणुओं के उस महान रचयिता को
अब-बस... अगले सृजन से बाज आ जाना चाहिए।
इस तरह भी ईश्वर को तौबा... करनी चाहिए।


भविष्य में पृथ्वी

‘शब्द’, जिस रोज
इन्द्र का वज्र बन जाएगें
वायुवेग से आएगें और
तुम्हारे अंधेरे को पीट-पीट, मार भगांएगे

अग्निबाण बना शब्द
तुम्हारे ठण्ढे, ध्रुवीय-प्रदेश से
भालूओं को निकाल फेंकेगा एक दिन
जब, नागफांस में बंधा अवश
पतझड़ और विध्वंस के स्वर
मठाधीश कहलाते धर्म-प्रचारकों की बपौतियाँ
अखाड़े और तंबूओं सहित उखाड़ फेंकेंगी एक दिन !

समय का आखेटरत वर्तमान सभ्यतायें और
प्रयासरत विज्ञान-
आनेवाले भविष्य के अनगिनत मतावलम्यिों पर
फिर से ईश्वर की इच्छा से-
बरसते हुए वसंत के तीर भी देखेंगी विवश होकर

भविष्य में.... आकाशीय मार्ग की रखवाली करते-
चौकस, सत्यवादी पंक्षियों को-
अवाक देखते रह जाओगे,
क्योंकि उसकी इच्छा से आया प्रत्येक-
भविष्य का नया आदमी
‘शब्द-भेदी’ तीर चलाएगा चाँद पर

सूर्य का ऊर्जा चुरा भविष्य का जीव
मंगल, प्लूटो पर अपनी बस्तियाँ रौशन करेगा
तारों का समूह भविष्य के हवा-मानवों का-
क्रीड़ा-स्थल कहलाऐंगे
भविष्य से सुंदर औरतें
आऐंगी आकाश-गंगाओं की मदकती
दमकती मालाएं पहन,

और ले जाऐंगी अपने साथ.... पृथ्वी को
लॉकेट की डिबिया में बंद करके
समय के पार.... अंतरिक्षय-पथों से होते हुए
एक नयी बस्तियां बसाने...
संवंदनशील बच्चे पैदा करने...
धरा को फिर से आबाद करने
हीरे-माणिकों के पहाड़ उगाने
मोती सा धवल दूध की नदियाँ बहाने
पन्नों के वृक्ष, नीलम का शैवाल उगाने

एक नवीन मांत्रिकों का नया तंत्र-मंत्र पनपेगा-
पृथ्वी की हरियाली में,
तुम्हारी तरह निष्ठुर हो वहाँ कोई पेड़ नहीं काटेगा
आगे आयेगा काल से परे का
असीम बुद्धिमान जीव
और ठीक ईश्वर के सिंहासन के निकट-
रोती हुई पृथ्वी
तुम्हारे दोहन से सतायी गयी पृथ्वी
बिल्कुल कण बराबर हो लौट जाएगी तुम्हारे पास से
तुम्हें छोड़कर

तुम्हारी लिप्साओं से नुची बदरंग पृथ्वी को देखकर
क्रोधित ‘ईश्वर’
एक नया दण्ड तजवीज करेगा तुम्हारे लिए

अपनी फूंक से तुम्हें धूलकणों सा बेदखल कर
परमात्मा की वसीयत से तुम्हारी आत्मा निकाल
जबरदस्त लात मारेगा ‘ईश्वर’....

और इस तरह एक नये अध्याय का सूत्रपात करेगा ईश्वर
वहीं काल की गणना से परे का
असीम शक्तिशाली मगर भावुक जीवों का
अपनी इच्छा से सृजन कर
तुम्हारा समूल नष्ट करेगा ईश्वर....
और अपनी प्यारी बेटी ‘पृथ्वी’ को-
फिर से हरा-भरा करेगा ‘ईश्वर’
वहाँ... समय के पार से आये-
नये जीवों को सौंपकर
धरा फिर से आबाद करेगा ईश्वर
नये मानवों में जज़्बात भरेगा ईश्वर
मोहब्बत और मोहब्बत से संवाद करेगा ईश्वर
हां, धरा प्रेम-से फिर
और फिर.... आबाद करेगा ईश्वर।

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राकेश श्रीमाल की कविताएँ - कुछ फुसफुसाहटें

राकेश श्रीमाल मध्‍यप्रदेश कलापरिषद की मासि‍क पत्रिका ‘कलावार्ता’ के संपादक, कला सम्‍पदा एवं वैचारिकी ‘क’ के संस्‍थापक मानद संपादक के अलावा ‘जनसत्‍ता’ मुंबई में 10 वर्ष संपादकीय सहयोग देने के बाद इन दिनों महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिन्‍दी विश्‍वविद्यालय में हैं। जहांसे उन्‍होंने 7 वर्ष ‘पुस्‍तक वार्ता’ का सम्‍पादन किया। वे ललित कला अकादमी की कार्यपरिषद के सदस्‍य रह चुके हैं। वेबपत्रिका ‘कृत्‍या’ (हिन्‍दी) के वे संपादक है। कविताओं की पुस्‍तक ‘अन्‍य’ वाणी प्रकाशन से प्रकाशि‍त।) श्रीमाल जी की लेखनी हिंदी साहित्य जगत में अपना एक विशेष स्थान रखती है.

आपकी कविताओं में मुखरित आस्थावान सतत प्रेम की व्यापकता, अभिव्यंजना और जागृत अनुभूति का वर्णन, मनोयोग के साथ प्रकट होता है. प्रस्तुत कविताओं में व्याप्त विस्मित कर देने वाले प्रेम की चपलता पाठक मन पर जो प्रभाव छोडती है वो स्वयं को भी उसी में लय कर विस्मित करने वाली है...
एक

पूरी पृथ्‍वी को
तुम्‍हारा कान समझकर
संबोधित कर रहा हूं
हरी घास के एक तिनके से
बात कर रहा हूं


दो

गिलहरी की चपलता से कहीं तेज
ढूंढ लेती हो तुम मुझे
फिर बुदबुदाने लगती हो
विस्मित कर देने वाला प्रेम

तीन

ये पत्‍ते
तुम्‍हारा संदेश वाहक बन
मुझसे
मेरा हरापन देखने को कहते हैं

चार

तुम्‍हें पता नहीं
तुम्‍हारी हथेलियों से ही
ले लेता हूं थोडे से शब्‍द
फिर पढ़ता हूं उन्‍हे
किसी कविता की तरह

पांच

स्‍वीकार करता हूं मैं
मेरा होना
केवल तुम्‍हारे साथ

छह

सुनो
मैं तुमसे ही कुछ कह रहा हूं

पूरी दुनिया से छिपाते हुए

तुम
निशब्‍द ही सुन लेना इसे
बता देना सबको
फिर अपने शब्‍दों से

सात

थोड़ी अदरक डाल लिया करो
सुबह की चाय में
दो काली मिर्च के साथ

बेबाकी से पिया करों
वे सारे घुंट
जो तुम्‍हें पसंद नहीं है

आठ

सुनो
तुमसे कहना है बहुत कुछ
पर सुनो
धीरे-धीरे ही कह पाहूंगा
आने वाले मौसमों में

नौ

तुम कविता का
क बन जाना
वि को बना लेंगे स्‍याही
ता को राजी कर लेंगे
किसी भी तरह हमें पढ़ने के लिए


दस

आज रात की नींद में
मिल लेना तुम उन पलों से
जिनसे मिल ना पायी आज तुम
अगर समय हो तुम्‍हारे पास
***
-राकेश श्रीमाल

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गोविन्द गुलशन की ग़ज़लें

श्री गोविन्द गुलशन का पूरा नाम गोविन्द कुमार सक्सेना है. आपका जन्म 7 फ़रवरी 1957, मोहल्ला ऊँची गढ़ी, गंगा तट अनूप शहर , ज़िला- बुलन्द शहर में पिता श्री हरी शंकर मोरिया और माता श्रीमती राधेश सक्सैना के पावन घर में हुवा. आपने -स्नातक (कला) स्तर की शिक्षा प्राप्त की. आपको काव्य-दीक्षा गुरुवर कुँअर बेचैन /गुरु प्रवर कॄष्ण बिहारी नूर ( लख्ननवी ) के वृहिद सान्निध्य में प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुवा. आपने ग़ज़ल,गीत,दोहा,नज़्म आदि विधाओं में क्रमशः जलता रहा चराग़ (2001), हवा के टुकड़े, फूल शबनम के और अन्य विधाओं में पाँच भजन संग्रह (1978-1980) भी प्रकशित किये. हरभजन सिंह एन्ड सन्स हरिद्वार, रणधीर बुक सेल्स हरिद्वार सीडी -: मुरली मधुर बजाने वाले [छंदात्मक- कॄष्ण लीला एवं राम लीला ] (2005) कॄतियाँ भी शामिल हैं.
आपकी साहित्यिक उपलब्धियाँ एवम सम्मान -: युग प्रतिनिधि सम्मान,सारस्वत सम्मान,अग्निवेश सम्मान,साहित्य शिरोमणि सम्मान, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति (उपक्रम), दिल्ली (राजभाषा विभाग. गॄह मंत्रालय) द्वारा सर्वश्रेष्ठ काव्य रचना के लिये पुरस्कॄत. (2005)कायस्थ कुल भूषण सम्मान (अखिल भारतीय कायस्थ महा सभा),निर्मला देवी साहित्य स्मॄति पुरस्कार, इशरत किरत पुरी एवार्ड एवं अन्य अनेक.
सम्प्रति -: विकास अधिकारी (नेशनल इंश्योरेन्स कम्पनी-ग़ाज़िया बाद) सम्पर्क सूत्र -: `ग़ज़ल' 224,सैक्टर -1,चिरंजीव विहार.ग़ाज़िया बाद - २०१००२
ऐसे ही विलक्षण प्रतिभा के धनि श्री गोविन्द गुलशन जी की कुछ ग़ज़लें आप सबकी नज़र है...........


ग़ज़ल १.

दिल में ये एक डर है बराबर बना हुआ
मिट्टी में मिल न जाए कहीं घर बना हुआ

इक ’लफ़्ज़’ बेवफ़ा कहा उसने फिर उसके बाद
मैं उसको देखता रहा पत्थर बना हुआ

जब आँसुओं में बह गए यादों के सब नक़ूश
आँखों में कैसे रह गया मंज़र बना हुआ

लहरो ! बताओ तुमने उसे क्यूँ मिटा दिया
इक ख़्वाब का महल था यहाँ पर बना हुआ

वो क्या था और तुमने उसे क्या बना दिया
इतरा रहा है क़तरा समंदर बना हुआ


ग़ज़ल २.


इधर उधर की न बातों में तुम घुमाओ मुझे
मैं सब समझता हूँ पागल नहीं बनाओ मुझे

बिछुड़ के जीने का बस एक रास्ता ये है
मैं भूल जाऊँ तुम्हें तुम भी भूल जाओ मुझे

तुम्हारे पास वो सिक्के नहीं जो बिक जाऊँ
मेरे ख़ुलूस की क़ीमत नहीं बताओ मुझे

भटक रहा हूँ अँधेरों की भीड़ में कब से
दिया दिखाओ कि अब रौशनी में लाओ मुझे

चराग़ हूँ मैं , ज़रूरत है रौशनी की तुम्हें
बुझा दिया था तुम्ही ने तुम्ही जलाओ मुझे


ग़ज़ल ३.


रौशनी की महक जिन चराग़ों में है
उन चराग़ों की लौ मेरी आँखों में है

है दिलों में मुहब्बत जवाँ आज भी
पहले जैसी ही ख़ुशबू गुलाबों में है

प्यार बाँटोगे तो प्यार मिल जाएगा
ये ख़ज़ाना दिलों की दराज़ों में है

आने वाला है तूफ़ान फिर से कोई
ख़लबली-सी बहुत आशियानों में है

तय हुआ है न होगा कभी दोस्तो
फ़ासला वो जो दोनों किनारों में है

ठेस लगती है तो टूट जाते हैं दिल
जान ही कितनी शीशे के प्यालों में है

उसकी क़ीमत समन्दर से कुछ कम नहीं
कोई क़तरा अगर रेगज़ारों में है


ग़ज़ल ४.


लफ़्ज़ अगर कुछ ज़हरीले हो जाते हैं
होंठ न जाने क्यूँ नीले हो जाते हैं

उनके बयाँ जब बर्छीले हो जाते हैं
बस्ती में ख़ंजर गीले हो जाते हैं

चलती हैं जब सर्द हवाएँ यादों की
ज़ख़्म हमारे दर्दीले हो जाते हैं

जेब में जब गर्मी का मौसम आता है
हाथ हमारे , ख़र्चीले हो जाते हैं

आँसू की दरकार अगर हो जाए तो
याद के बादल रेतीले हो जाते हैं

रंग - बिरंगे सपने दिल में रखना
आँखों में सपने गीले हो जाते हैं

फ़स्ले-ख़िज़ाँ जब आती है तो ऐ गुलशन
फूल जुदा, पत्ते पीले हो जाते हैं

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डॉ. वेद व्यथित की गीतिकाएं

रचनाकार परिचय

नाम: डॉ. वेद व्यथित
मूल नाम- वेद प्रकाश शर्मा
जन्म – 9 अप्रैल, 1956 ।
शिक्षा- एम. ए. (हिंदी), पी० एचडी. (नागार्जुन के साहित्य में राजनीतिक चेतना) ।
प्रकाशन- कविता कहानी उपन्यास व आलोचना पर निरंतर लेखन ।
कृतियाँ- मधुरिमा (काव्य नाटक), आख़िर वह क्या करे (उपन्यास), बीत गये वे पल, (संस्मरण), आधुनिक हिंदी साहित्य में नागार्जुन (आलोचना), भारत में जातीय साम्प्रदायिकता (उपन्यास),
अनुवाद- जापानी तथा पंजाबी भाषाओँ में रचनाओं का अनुवाद ।
सहभागिता- हिंदी जापानी कवि सम्मेलनो में ।
संबंद्धता- अध्यक्ष - भारतीय साहित्यकार संघ
संयोजक - सामाजिक न्याय मंच
शोध सहायक - अंतरराष्ट्रीय पुनर्जन्म एवं मृत्यु उपरांत जीवन शोध संस्थान भारत
सम्पादकीय सलाहकार - लोक पुकार साप्ताहिक पत्र
परामर्शदाता - समवेत सुमन ग्रन्थ माला
सलाहकार - हिमालय और हिंदुस्तान
सदस्य - सलाहकार समिति नेहरु युवा केंद्र, फरीदाबाद, हरयाणा
विशेष प्रतिनिधि - कल्पान्त मासिक पत्रिका
उपाध्यक्ष - हम कलम साहित्यिक संस्था
पूर्व प्रांतीय संगठन मंत्री -अखिल भारतीय साहित्य परिषद हरियाणा

नवगीतिका के बारे में वे कहते हैं कि ये रचनाएँ गजल नही हैं क्योंकि गजल का एक निश्चित व्याकरण है उस के बिना गजल नही हो सकती है जैसे दोहा का निश्चित व्याकरण है बल्कि भारतीय परम्परा का शाश्वत काव्य प्रवाह है नवगीतिका. इसी शाश्वत काव्य प्रवाह के क्रम में उनकी दो गीतिकाएं प्रस्तुत है...
१.

झूठ के आवरण सब बिखरते रहे
साँच की आंच से वे पिघलते रहे
खूब ऊँचे बनाये थे चाहे महल
नींव के बिन महल वे बिखरे रहे
हाथ आता कहाँ चाँद उन को यहाँ
मन ही मन में वे चाहे मचलते रहे
ओस की बूँद ज्यों २ गिरी फूल पर
फूल खिलते रहे व महकते रहे
जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां
नैन और नक्श उन के निखरते रहे
देख लीं खूब दुनिया की रंगीनियाँ
रात ढलती रही दीप बुझते रहे
हम जहाँ से चले लौट आये वहीं
जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे


२. 

जहाँ में ऐसी सूरत है,जिन्हें देखा, नशा टूटा
खीज खुद पर हुई ,मुझ से मुकद्दर इस तरह रूठा
मेरा बस एक सपना था मुझे जो खुद से प्यारा था
नजर ऐसी लगी उस को आईने की तरह टूटा
अकेला एक दिल था जिन्दगी की वही दौलत था
उन्होंने चुप रह रह कर उसे पूरी तरह लूटा
कहाँ जाता सफर को छोड़ मंजिल दूर थी मेरी
रुका थोडा सुकूँ पाया मगर मद की तरह झूठा
रहा है उन का मेरा साथ वर्षों दूध शक्कर सा
शिकायत दिल में क्यों आई सब्र क्यों इस तरह टूटा

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रंजना श्रीवास्तव की कविताएं : एक अवलोकन - राजेश उत्‍साही

सम्मानीय समस्त हिंदी प्रेमी सुधि पाठकगण, आपको ये अवगत करवाते हुये अपार हर्ष हो रहा है कि आखर कलश में एक नया कॉलम 'समीक्षा- एक अवलोकन' आरम्भ कर रहे हैं। इसमें हर सोमवार शाम को आखर कलश पर पिछले दिनों प्रकाशित रचना या रचनाओं पर केन्द्रित समीक्षात्‍मक लेख प्रकाशित किया जाएगा।  चुनिंदा रचना पर प्राप्‍त पाठकों की  प्रतिक्रियाओं को भी सम्मिलित किया जाएगा।  हमारा और आपका उद्धेश्य है हिंदी का प्रचार-प्रसार तथा हिंदी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और अधिक परिष्कृत स्वरुप, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों, अनुभूति की सच्चाई और बुद्धिमूलक यथार्थवादी दृष्टि के साथ-साथ नये शिल्प-विधान का अन्वेषणात्मक स्वरुप सृजन हो | इस सन्दर्भ में आप गुणीजनों के सुझाव भी अपेक्षित रहेंगे।



कॉलम की शुरूआत के लिए चयन हेतु हमने अक्‍टूबर,2010 में प्रकाशित रचनाओं को भी इसमें शामिल किया है।  तो शुभारम्भ कर रहे हैं रंजना श्रीवास्तव जी की चार कविताओं पर श्री राजेश 'उत्साही' जी के समीक्षात्मक अवलोकन से। साथ ही अन्य सुधि पाठकों द्वारा व्यक्त किये गए बहुमूल्य सूक्ष्म अन्वेषणात्मक विचार भी साथ हैं। आशा है आपको ये पहल रुचेगी।
रंजना श्रीवास्तव की कविताएं : एक अवलोकन - राजेश उत्‍साही

रंजना श्रीवास्‍तव की कविताएं पहली नजर में साधारण और शब्‍दों का संयोजन भर लगतीं हैं। पर उन्‍हें पढ़ने के लिए एक अलग दुनिया में दाखिल होना पड़ता है। उनकी कविताओं की संवेदना महसूस करने के लिए अपने अंदर की संवेदनशीलता को झझकोर जगाना पड़ता है। एक बार, दो बार,तीन बार यानी बार-बार पढ़ने पर कविता के अर्थ खुलने लगते हैं। आइए यहां आखरकलश पर प्रस्‍तुत उनकी चार कविताओं की बात करते हैं।

पहली कविता है- क्‍या कहना है कामरेड। कविता उस नारी के बारे में है जो हमारे आसपास ही रहती है। जिसे हम रोज देखते हैं जो कभी हमारी रसोई में होती है तो कभी दफ्तर में। कभी बाजार-हाट में होती है तो कभी मॉल में। जो शोषित है उपेक्षित है और कभी रण चंडी भी। जिसने अपने अंदर की आग को हमेशा जिलाए रखा है, लेकिन उसका उपयोग करने से बचती रही है। उसके लिए परिवार,समाज और दुनिया हमेशा प्राथमिकता रही है। लेकिन वह अब और नहीं सहना चाहती। वह सड़क पर उतरने को उद्धत है। यह कविता एक तरह की चेतावनी है, बल्कि कहना चाहिए कि ऐलान है। मुझे लगता है सवाल क्रांति का नारा देने वाले कामरेडों से भर से नहीं है बल्कि समाज के ठेकेदारों से भी है। आखिर कब तक औरत घरघुस्‍सू बनी रहेगी या कि तुम बनाकर रखोगे। कविता का सबसे मजबूत पक्ष यह है कि यह एक औरत ही कह रही है। इसलिए वह सीधे दिमाग से होती हुई दिल पर चोट करती है।

दूसरी कविता- यह खबर एक झुनझुना है। कविता के बहाने रंजना हमारे इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर एक कटाक्ष कर रही हैं। रेप केस केवल एक उदाहरण है। सच तो यह है कि आजकल हर खबर रेप केस के अंदाज में ही पेश की जाती है। हर खबर को झुनझुने की तरह ही इस्‍तेमाल करते हैं। जैसे रोते बच्‍चे को हम झुनझुना बजाकर थोड़ी देर के लिए बहला देते हैं, लेकिन उसके रोने के कारणों में नहीं जानते। बच्‍चा झ़ुनझुने के संगीत में थोड़ी देर के लिए खो जाता है। यह संयोग ही है कि रंजना की यह कविता पढ़ते हुए हालिया फिल्‍म ‘पीपली लाइव’ बरबस ही याद आ जाती है। सच कह रही हैं वे कि सब हर समस्‍या की फुनगी को हिलाते हैं और समझते हैं कि वे सिस्‍टम को हिला कर रख देंगे। विभिन्‍न घोटालों के संदर्भों में आजकल जो मीडिया का जो रवैया है वह कुछ ऐसा ही है।

तीसरी कविता है- विज्ञापन की रुलाई। इस कविता को वास्‍तव में समझने के लिए कई कई बार पढ़ना होता है। यह कविता इतने अलग चरित्रों की बात करती है कि तय करना मुश्किल हो जाता है कि आप किसे पकड़ें और किसे छोड़ें। जैसे यह कविता हमारे शासकों के बारे में बात करती है। जो गाहे बगाहे विज्ञापनों की तरह ही हमारे सामने आते हैं, वे अगर अभावों का रोना भी रोते हैं तो हमें हंसी आती है। उनके चेहरे पर जबरन चिपकी हंसी मुखौटे सी नजर आती है। हम विज्ञापनों को उम्‍मीद की तरह देखते हैं और हकीकतों को विज्ञापन की तरह। यह हमारे समय की एक घिनौनी हकीकत है।

हम जब अमृत उगाएंगे- उनकी चौथी कविता है। यह कविता मुझे व्‍यक्तिगत तौर पर निराश करती है। यह रंजना के तेवर से मेल नहीं खाती। बावजूद इसके कि इसमें कही गई सब बातें हकीकत हैं रंजना नारेबाजी करती हुई नजर आती हैं। जो आशावादिता इस कविता में झलकती है वह आदर्शवाद के खोखले और रसातल में ले जाने वाले धरातल पर खड़ी दिखाई देती है।

बहरहाल यह कहना समीचीन होगा कि रंजना समकालीन समय की एक महत्‍वपूर्ण कवियत्री हैं और इस मायने में उनका होना और अधिक जरूरी हो जाता है कि वे जमीन से जुड़कर बात करती हैं। उनकी कविता में बिम्‍ब हैं, प्रतीक हैं लेकिन वे अमूर्त नहीं हैं। उन्‍हें पकड़ना आसान होता है। भाषा सरल और सहज है और पाठक के परिवेश से ही आती है। और अगर कहीं उनकी कविता एक बार समझ न आए तब भी वह दुबारा पढ़ने के लिए मजबूर करती है। इसलिए क्‍योंकि उनकी कविता में विचार परिलक्षित होता है, जिससे एक गंभीर पाठक हर हाल में संवाद करना चाहता है।
- राजेश उत्‍साही
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इसके साथ ही साथ अन्य सुधि पाठक क्या सोचते हैं, आपकी नज़र है-
शेखर सुमन जी ने कहा चारो तो नहीं लेकिन २ रचनायें पढ़ीं अच्छा लगा बाकी २ फिर कभी पढूंगा... तथा यह सिलसिला जी ने पहली प्रतिक्रिया पर बधाई प्रेषित की! शाहिद मिर्ज़ा 'शाहिद' साहब ने कुछ इस अंदाज़ में अपने आशार व्यक्त किये-
खबर के चेहरे पर
चिपका रहे हैं विज्ञापन
विज्ञापन
एक नकली दुनिया का
मानचित्र है
जो कभी नहीं बदल सकता
असल की तकदीर
असल की
तकदीर बदलने के लिए
जड से सोचा जाना होगा
फुनगी पकडकर
पेड को हिलाने से
कैसे काँपेगी भला पृथ्वी।।
कमाल की लेखनी है...
कितनी गहराई में उतरकर निकाले गए हैं ये साहित्यिक मोती.
अरुण सी रॉय ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कुछ इस तरह से कहा कि पूरब से जो कविता आती है उसमे आम आदमी का स्वर मुखर होके आता है.. रंजना जी उन्ही कविताओं का प्रतिनिधित्व कर रही हैं.. पहली कविता सबसे सशक्त है... और कामरेड को अभी कई और सवालों के जवाब देने हैं.. ना जाने कभी दे भी पायेंगे की नहीं.. जितेन्द्र 'जौहर' जी ने रंजना जी को संबोधित करते हुवे कहा कि ‘मुक्तछंद’ को ‘छंदमुक्त’ बनने से रोकने के लिए जिस फड़कती हुई काव्य-भाषा, जिस तेवर और जिस प्रवहमानता की दरकार होती है, वह सब सामान आपके पास है। मैं आप जैसी सु-सज्जित कवयित्री को सुंदर कविताओं पर बधाई देते हुए ख़ुशी का अनुभव कर रहा हूँ। सुभाष नीरव जी ने अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किये- रंजना श्रीवास्तव की कविताएं महज कविताएं ही नहीं हैं, कविता से आगे भी बहुत कुछ हैं। इन कविताओं में विचार तो है ही पर वह कवि की सम्बेदना में इतना घुला-मिला है कि वह खुरदरा नहीं लगता। रंजना जी का कविता में अपनी बात कहने का एक अलग ही मुहावरा है जो उन्हें समकालीन कविता में एक भिन्न और विशिष्ट पहचान देता है। ऐसी दमदार कविताओं के लिए रंजना जी को बधाई ! आपने उनकी सशक्त कविताएं प्रकाशित की है, आप भी बधाई के पात्र हैं। सुरेन्द्र रत्ती जी को रंजना जी की चारों कविताएँ पसंद आई परन्तु पहली कविता से विशेष प्रभावित हुवे. भारतेंदु मिश्र जी ने रंजना जी को बधाई प्रेषित करते हुवे कहा कि कविताएँ अनुभूति की सच्चाई बयान करती है साथ ही ये सुझाव भीदिया कि ऐसे ही लिखती रहें और जल्दबाजी के चक्कर मे न पडे।


नवीन सी. चतुर्वेदी जी को रंजना जी की कविताओं ने प्रभावित किया. वे लिखते हैं कि उनकी कामरेड वाली कविता सोचने पर विवश करती है तथा दूसरी कविता का यह उद्गार सहज ही सराहनीय है
"फुनगी पकडकर
पेड को हिलाने से
कैसे काँपेगी भला पृथ्वी।।"

तीसरी कविता की जेहन हिला देने वाली पंक्तियाँ:-

अभाव के चेहरे पर
हँसी का विज्ञापन है

उस सरहद के बारे में
जहाँ गोलियों की बारिश में
चलती हैं कक्षाएँ
जहाँ खतरा धूल
और पानी के जैसे
हवा में घुल-मिल गया है

और आप की चौथी कविता के ये अंश:-

जो गंगा में धुलकर
हो जाते हैं पाक

हम जब अमृत उगायेंगे
सौंपेगे उसकी कुछ बूँद
और बदल जायेगा
अमरीका का स्वभाव

इनके साथ ही संजय भास्कर, अनामिका की सदाएँ, राजभाषा हिंदी, प्रतुल वशिष्ठ, राजीव, और सभी सम्मानित पाठकों को रंजना जी की कविताओं ने बहुत प्रभावित किया और अपनी बहुमूल्य उपस्थिति से सृजनधर्मी और आखर कलश की गरिमा बधाई. आप सभी का आभार !

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सुमन 'मीत' की रचना- याद आता है..

मंडी, हिमाचल प्रदेश की गोद में बसने वाली सुमन 'मीत' अपना परिचय कुछ इस अंदाज़ में देतीं हैं-
पूछी है मुझसे मेरी पहचान; भावों से घिरी हूँ इक इंसान; चलोगे कुछ कदम तुम मेरे साथ; वादा है मेरा न छोडूगी हाथ; जुड़ते कुछ शब्द बनते कविता व गीत; इस शब्दपथ पर मैं हूँ तुम्हारी “मीत”!!
आप 'बावरा मन' और 'अर्पित सुमन' के माध्यम से अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति की खुशबुओं से सरोबार करती रही हैं...आज उन्ही सुगन्धित पुष्पों से चुनकर कुछ पुष्प आप सुधीपठकों की नज़र है.
याद आता है

याद आता है

वो माँ का लोरी सुनाना

कल्पना के घोड़े पर

परियों के लोक ले जाना

चुपके से दबे पांव

नींद का आ जाना

सपनों की दुनियाँ में

बस खो जाना ...खो जाना...खो जाना..................


याद आता है

वो दोस्तों संग खेलना

झूले पर बैठ कर

हवा से बातें करना

कोमल उन्मुक्त मन में

इच्छाओं की उड़ान भरना

बस उड़ते जाना...उड़ते जाना...उड़ते जाना.............


याद आता है

वो यौवन का अल्हड़पन

सावन की फुहारें

वो महका बसंत

समेट लेना आँचल में

कई रुमानी ख़ाब

झूमना फिज़ाओं संग

बस झूमते जाना...झूमते जाना...झूमते जाना............


याद आता है

वो हर खुशनुमा पल

बस याद आता है..............

याद आता है.............

याद आता है...........!!
***

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गौरीशंकर आचार्य 'अरुण' की ग़ज़लें

राजस्थान की छन्दबद्ध हिन्दी कविता को पिछली आधी सदी से समृद्ध करते रहने वाले सुपरिचित कवि, गीतकार और गज़लकार श्री गौरीशंकर आचार्य ‘अरुण’ का जन्म ९ जुलाई १९३७ को बीकानेर में हुआ। एम.ए. (हिन्दी) तक शिक्षित श्री अरुण ने अपना सम्पूर्ण जीवन साहित्य और शिक्षा को समर्पित किया। आपकी गद्य और पद्य की कई कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी है, जिनमें कविता संग्रह ‘आद्या’ (१९७१) काफी चर्चित रही है। श्री अरुण की रचनाएँ देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होती रही है। आपने अपनी अन्य महत्त्वपूर्ण साहित्यिक सेवाओं के क्रम में राजस्थान पत्रिका के बीकानेर संस्करण में लम्बे समय तक ‘शख्सियत’ नामक स्तम्भ का लेखन किया जिसमें उन्होंने दिवंगत साहित्यकारों व कला धर्मियों के व्यक्तित्व-कृतित्व को नई पीढी के समक्ष प्रस्तुत किया। वर्तमान में ‘अभिनव बाल निकेतन विद्यालय’ के निदेशक के रूप में पूर्ण सक्रियता से साहित्य, समाज और शिक्षा की सेवार्थ पूर्ण मनोयोग से संलग्न है।
१. अंधेरों से कब तक नहाते रहेंगे

अंधेरों से कब तक नहाते रहेंगे।
हमें ख्वाब कब तक ये आते रहेंगे।

हमें पूछना सिर्फ इतना है कब तक,
वो सहरा में दरिया बहाते रहेंगे।

खुदा न करे गिर पडे कोई कब तक,
वे गढ्ढों पे चादर बिछाते रहेंगे।

बहुत सब्र हममें अभी भी है बाकी,
हमें आप क्या आजमाते रहेंगे।

कहा पेड ने आशियानों से कब तक,
ये तूफान हमको मिटाते रहेंगे।

***

२. मलने को हवा आई

इक रोज गुलिस्तां से मिलने को हवा आईं।
इक हाथ में खंजर था इक हाथ में शहनाई।

सोचा था कि मिलने पर, दिल खोल मिलेंगे हम,
.कमबख्त जुबां उनसे कुछ भी तो न कह पाई।

कुछ सोच समझ कर यूं मजमून लिखा उसने,
लफ्जों से तो मिलना था, मानी में थी तन्हाई।

इक .कत्ल हुआ .कातिल लगता था किसी के कुछ,
मुल्जिम ने अदालत से कुछ भी न सजा पाई।

रहते थे यहाँ पर जो वे लोग फरिश्ता थे,
इस वक्त यहाँ रहने, जाने क्यों .कजा आई।

***

३. रुख हवाओं का समझना चाहिए

रुख हवाओं का समझना चाहिए।
बादलों को फिर बरसना चाहिए।

आँख ही यदि रास्ता देखे नहीं,
पाँव को खुद ही संभलना चाहिए।

क्या असर होगा फ.कत यह सोचकर,
लफ्ज को मुँह से निकलना चाहिए।

कौन कहता है नहीं रखती असर,
आह को दिल से निकलना चाहिए।

बात जीने की या मरने की नहीं,
वक्त पर कुछ कर गुजरना चाहिए।

देख कर आंसू किसी की आँख में,
दिल अगर है तो पिघलना चाहिए।

है कहाँ महफूज राहें अब ‘अरुण’,
सोचकर घर से निकलना चाहिए।

***

४. लोग ऐसे हैं, मगर कम हैं

जिन्हें अपना नहीं पर दूसरों के दर्द का गम है।
जमाने में अभी भी लोग ऐसे हैं मगर कम है।

बहुत हमराह बनकर लूटते हैं राह में अक्सर,
जो मंजिल तक निभाते साथ ऐसे हमसफर कम हैं।

बदलती जा रही है वक्त की फितरत दिनो दिन पर,
अभी रिश्तों की धडकन में बचा दम है, मगर कम है।

मुहब्बत लफ्ज का मतलब समझ लें तो जरा सा है,
हमारे दिल में वो हो और उस दिल में अगर हम हैं।

लकीरें भाग्य की जो शख्स चाहे गर बदलना तो,
बहुत मुश्किल नहीं जिसके इरादों में अगर दम है।

जुदा होते नहीं वो एक पल भर भी कभी हमसे,
समन्दर के उधर वो और साहिल पे इधर हम हैं।

***

५. हम समन्दर के तले हैं

हम समन्दर के तले हैं, दोस्तों पोखर नहीं।
हाँ नदी होकर बहे हैं, नालियां होकर नहीं।

जिन्दगी हमने सवांरी मौत को रख सामने,
आदमी होकर जिए हैं, जानवर होकर नहीं।

मानते हैं हम उसूलों को इबादत की तरह,
फर्ज से अपने रहे हम, बेखबर होकर नहीं।

हर बसर के वास्ते दिल से दुआ करते हैं हम,
दोस्त बनकर खुश हुए हैं, दोस्ती खोकर नहीं।

रास्ते हमने बुहारे आज तक सबके लिए,
प्यार बोकर खुश हुए हैं, झाडियाँ बोकर नहीं।

दायरे अपने सभी के हैं अलग तो क्या हुआ,
हमवतन होकर रहे हैं, हम अलग होकर नहीं।

***

६. और दिन आए न आए

और दिन आए न आए, एक दिन वो आएगा।
जब परिन्दा आशियाना छोडकर उड जाएगा।

मान लेगी मौत अपनी हार उसके सामने,
वक्त के माथे पे अपना नाम जो लिख जाएगा।

जख्म अपने जिस्म के ढक कर खडे हैं आप क्यों,
रहम दिल कोई तो होगा ढूंढिए मिल जाएगा।

.कत्लोगारद कर बहाया खून, उसको क्या मिला,
काश इतना सोचता वो साथ क्या ले जाएगा।

पुर सुकूं थी जिंदगी, इन्सानियत थी, प्यार था,
वक्त ऐसा इस जहां में फिर कभी क्या आएगा।

ये लुटेरों के मकां हैं, मांगने आया है तू,
भाग जा वरना जो तेरे पास है लुट जाएगा।

क्यों .कसीदे कह रहे हैं आप अपने नाम पर,
वक्त खुद अपनी जुबां से सब बयां कर जाएगा।
***
गौरीशंकर आचार्य ‘अरुण’
दूरभाष: 09413832640

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देवोत्थानी एकादशी- जया केतकी

देवोत्थानी एकादशी

!! उत्तिष्ठ गोविन्दम् उत्तिष्ठम् गरुडध्वजः !!



आषाढ शुक्ल से कार्तिक शुक्ल तक ठाकुर जी क्षीरसागर में शेषशैया पर शयन करते हैं। भक्त उनके शयन और प्रबोध के यथोचित कृत्य करते हैं। तुलसी का वृक्ष हिन्दू धर्म में पूजनीय है। यह धर्म और आस्था के साथ ही औषधि जगत में भी महत्व रखता है। हिन्दू धर्म के अनुसार प्रतिदिन प्रातः स्नान के बाद तुलसी में जल चढाना शुभ माना जाता है। ठाकुर जी की पूजा बिना तुलसी दल के पूरी ही नहीं होती।
भगवान् क्षणभर भी सोते नहीं हैं, उपासकों को शास्त्रीय विधान अवश्य करना चाहिये। यह कृत्य कार्तिक शुक्ल एकादशी को रात्रि के समय किया जाता है। इस व्रत के दिन स्नानादि से निवृत्त होकर आँगन में चौक पूरकर विष्णु भगवान् के चरणों को अंकित करते हैं। रात्रि में विधिवत पूजन किया जाता है। आँगन या ओखली में एक बडा-सा चित्र बनाते हैं। इसके पश्चात् फल, सिंघाडा, गन्ना तथा पकवान आदि समर्पित करते हैं। एक अखण्ड दीपक रात भर जलता है। रात को व्रत की कथा सुनी जाती है। इसके बाद ही मांगलिक कार्य आरम्भ होते हैं। इस दिन उपवास करने का विशेष महत्त्व है। उपवास न कर सके तो एक समय फलाहार करना चाहिये और नियमपूर्वक रहना चाहिये। रात्रि-जागरण का भी विशेष महत्त्व है।
हरि को जगाने के लिये कीर्तन, वाद्य, नृत्य और पुराणों का पाठ करते हैं। धूप, दीप, नैवेद्य, फल और अर्ध्य से पूजा करके घंटा, शंख, मृदंग वाद्यों की मांगलिक ध्वनि द्वारा भगवान् को जागने की प्रार्थना करें।
प्रार्थना:-
उदितष्ठोतिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते,
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदमघ्।
उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।।
दीपावली से ग्यारहवीं तिथि में देवत्व प्रबोधन एकादशी मनाई जाती है। मान्यता है कि देव प्रबोधन मंत्रों से दिव्य तत्वों की जागृति होती है।
मंत्र-
ब्रह्मेन्द्ररुदाग्नि कुबेर सूर्यसोमादिभिर्वन्दित वंदनीय,
बुध्यस्य देवेश जगन्निवास मंत्र प्रभावेण सुखेन देव।
इसका अर्थ है- ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, अग्नि, कुबेर, सूर्य, सोम आदि से वंदनीय, हे जगन्निवास, देवताओं के स्वामी आप मंत्र के प्रभाव से सुखपूर्वक उठें।
यह एकादशी भगवान विष्णु की आराधना का अवसर है। ब्रह्ममुहूर्त में नगर में भगवान नाम कीर्तन गाजे-बाजे के साथ बालक, युवा, नर-नारि मिलकर नगर परिक्रमा करते हैं। आतिशबाजी के साथ देवोत्थान उत्सव मनाते हैं। गृहलक्ष्मी कलश के ऊपर दीप प्रज्वलित कर चलती हैं। पुराणों में इस तिथि में पूजन कार्य को फलदायी माना जाता है। इस दिन व्रत करने, भगवत भजन करने से अभीष्ट फल प्राप्त होता है । संध्या के समय गन्ने का मंडप बनाकर मध्य में चौकी पर भगवान विष्णु को प्रतिष्ठित करने एवं दीप प्रज्वलित करके अक्षत, पुष्प, नैवेद्य आदि के साथ पूजा श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।
भारतीय संस्कृति के अनुसार हमारे देश में सदा दिव्य शक्ति को जाग्रत किया जाता है। संपूर्ण विश्व में शांति, समृद्धि, मानवीय मूल्य, धर्म, सत्य, न्याय, सत्कर्म, अच्छाई व सच का दीपक जलता रहे ऐसा विश्वास किया जाता है। विश्व में हिंसा, अनाचार, अराजकता, अव्यवस्था व अशांति का बोलबाला है। ऐसे समय में ईश्वर आराधना का महत्व बढ जाता है।

देवोत्थान एकादशी को डिठवन भी कहा जाता है। चार माह के शयनोपरांत भगवान विष्णु क्षीरसागर में जागते हैं। हरि-जागरण के उपरांत ही शुभ-मांगलिक कार्य प्रारंभ होते हैं। क्योंकि शयनकाल में मांगलिक कार्य नहीं किए जाते। कार्तिक शुक्ल पक्ष की देवउठनी एकादशी और तुलसी विवाह के साथ ही परिणय-मंगल आदि के सभी मांगलिक कार्य पुनः प्रारंभ होते हैं। देवोत्थान एकादशी को दीपपर्व का समापन दिवस भी माना जाता है। इसीलिए इस दिन लक्ष्मी का पुण्य स्मरण करना चाहिए।


देवउठनी एकादशी के बाद गूँजेगी शहनाई
वर्ष २०१० में विवाह करने के इच्छुक जोडों की राह फिर साफ हो गई हैं। कुछ शुभ मुहूर्त छोडकर नवंबर व दिसंबर में विवाह होने से विवाह समारोहों की भरमार होगी। १८नवंबर २०१० से अनेक जोडे वैवाहिक बंधन में बंध सकेंगे। नवंबर से जनवरी तक वैवाहिक मौसम माना जाता है।
एक ही तारीखों पर काफी विवाह मुहूर्त होने से एक ही दिन में बैंड व घोडे वालों को काफी बारातों के ऑर्डर होंगे। उन्हें जल्दी एक बारात निपटाकर दूसरी पार्टी की बारात में जाना होगा। विवाह कार्यक्रम के लिए शादीहाल, गार्डन व धर्मशालाएँ महीनों पहले बुक होती हैं। फरवरी के मुहूर्त तक अभी से बुकिंग आरंभ कर दी गई है।
देवउठनी एकादशी सामाजिक चैतन्यता की प्रतीक मानी जाती है। तुलसी के पौधे ने घर के आँगन को तपोभूमि सा स्वरूप दिया है। आध्यात्मिक पर्यावरण को मनोरम बनाने में तुलसी की निर्णायक उपस्थिति रही है। कार्तिक मास तुलसी पूजन के लिए विशेष रूप से पवित्र माना गया है। नियमित रूप से स्नान के पश्चात् ताम्रपात्र से तुलसी को प्रातःकाल जल दिया जाता है। संध्याकाल में तुलसी के चरणों में घी का दीपक जलाते हैं। कार्तिक पूर्णिमा को इस मासिक दीपदान की पूर्णाहुति होती है।
कार्तिक मास की अमावस्या को तुलसी की जन्मतिथि मानी गई है, इसलिए संपूर्ण कार्तिक मास तुलसीमय होता है। कोई कार्तिक मास की एकादशी को तुलसी विवाह रचाते हैं। इस दिन तुलसी विवाह करना ज्यादा श्रेयस्कर माना जाता है। तुलसी विवाह की चिरायु परंपरा अनुपमदृश्य उपस्थित करती है। सामाजिक तौर पर देवउठनी ग्यारस या एकादशी से ही परिणय-मंगल व अन्य मांगलिक कार्य शुरू किए जाते हैं, इसलिए वैज्ञानिक विवेचन के अनुसार देवउठनी ग्यारस ही तुलसी विवाह की तर्कसंगत तिथि है।

तुलसी के संबंध में अनेक पौराणिक गाथाएँ विद्यमान हैं। विशिष्ट स्त्री जो अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी हो, उसे तुलसी कहा जाता है। तुलसी के अन्य नामों में वृन्दा और विष्णुप्रिया खास माने जाते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार जालंधर असुर की पत्नी का नाम वृन्दा था, जो बाद में लक्ष्मी के श्राप से तुलसी में परिवर्तित हो गई थी। मान्यता है कि राक्षसों के गुरु, शुक्र ने जालंधर दानव को संजीवनी विद्या में पारंगत किया था। जालंधर की पत्नी वृन्दा पतिव्रता नारी थी और पत्नी की इस पतिव्रता शक्ति के कारण वह अमरत्व के नशे में चूर होकर देवताओं को सताता था। नारद मुनि ने जालंधर के समक्ष पार्वती के सौंदर्य का वर्णन कर दिया, जिसे सुनकर दानव मुग्ध हो गया। फिर पार्वतीजी को पाने की इच्छा से जालंधर ने छद्म रूप से शिव का रूप धारण किया और कैलाश पर्वत जा पहुँचा। पार्वतीजी ने सहायता के लिए भगवान विष्णु का स्मरण किया। तब अपनी माया से भगवान विष्णु ने वृन्दा का सतीत्व भंग किया और जालंधर का वध किया।
वृन्दा के नाम पर ही श्रीकृष्ण की लीलाभूमि का नाम वृन्दावन पडा। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि आदिकाल में वृन्दावन में वृन्दा यानी तुलसी के वन थे।

तुलसी प्रत्येक आँगन में होती है और इसकी उपस्थिति से हर आँगन वृन्दावन हो उठता है। तुलसी के वृक्ष को अर्ध्य धूप, दीप, नैवेद्य आदि से प्रतिष्ठित किया जाता है। आयुर्वेदिक संहिताओं में उल्लेखित तुलसी की औषधि-क्षमताओं से धरती अभिभूत है। तुलसी पर्यावरण को स्वास्थ्यवर्धक बनाती है।
***


जया शर्मा केतकी

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अपर्णा मनोज भटनागर की कविताएँ

अपर्णा मनोज भटनागर एक ऐसी रचनाधर्मी हैं जिनके काव्य में भावुकता शब्दों का जामा पहन अपने स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत होती है. शब्दरथि भाव, दर्द की की गहराई तक जाकर जब आकार पाते हैं तो पाठकमन स्वतः ही उन भावों के साथ बहता चला जाता है. आपके काव्य में परिष्कृत शब्दावली से युक्त शिल्प के साथ-साथ चिंतन और बोद्धिकता की प्रधानता भी रहती है जो कि चेतना को झकझोरने की क्षमता रखती हैं. आपका काव्य जब नव बिम्बों और उपमानो का जामा पहन पाठकों के समक्ष उपस्थित होता है तो पाठक सहज रूप से आबद्ध होता चला जाता है. ऐसी ही विलक्षण शब्दों और तीक्ष्ण भावों से सजी उनकी कुछ कविताएँ, जो अपने साथ ऐसे ही भावों, अनुभवों और नवीन प्रतीकों को सजाये हुए है, आपके समक्ष प्रस्तुत है..
राम से पूछना होगा

वह दीप चाक पर चढ़ा था
बरसों से ..
किसी के खुरदरे स्पर्श से
स्पंदित मिट्टी
जी रही थी
धुरी पर घूर्णन करते हुए
सूरज को समेटे
अपनी कोख में ..


वह रौंदता रहा
घड़ी-घड़ियों तक ...
विगलित हुई
देह पसीने से
और फिर न जाने कितने अग्नि बीज
दमक उठे अँधेरे की कोख में .


तूने जन्म दिया
उस वर्तिका को
जो उर्ध्वगामी हो काटती रही
जड़ अन्धकार के जाले
और अमावस की देहर
जगमगा उठी
पूरी दीपावली बन.


मिट्टी, हर साल तेरा राम
भूमिजा के गर्भ से
तेरी तप्त देह का
करता है दोहन
और रख देता है चाक पर
अग्नि परीक्षा लेता
तू जलती है नेह के दीवट में
अब्दों से दीपशिखा बन .
दीप ये जलन क्या सीता रख गयी ओठों पर ?
राम से पूछना होगा !
***

भूख

भूख का दमन चक्र
अपने पहिये के नीचे
...कुचलता है
औरों की भूख ..
तब भूख सत्ता का
प्रहसन भर होती है
जिसमें अमरत्व के लिए
रक्ष हारते हैं
देव जीतते हैं
और क्षुधा में बँट जाता है संसार
विष-अमृत
स्वर्ग-नरक
जाति-धर्म
संग-असंग
रंग-ढंग
बड़े बेढब ढंग से
हम पृथ्वी पर
कटे नक़्शे देखते हैं ..
भूख अकसर ऐसे ही काटती है
आदमी का पेट -
देशांतर रेखाओं की तरह
या शून्य डिग्री से ध्रुवों की ओर कटते अक्षांश ?
जिनके बीच समय का दबाब
तापमान और भूख का भूगोल
नयी परिरेखाएं खींचता है
पर इसका स्खलन नहीं होता
इतिहास के खंडहर की तरह ..
इसे समय की छाती पर
काही , ईवी , कुकुरमुत्ते की तरह
रोज़ उगता देखती हूँ !
***

सलीब

जब भी सलीब देखती हूँ
पूछती हूँ
कुछ दुखता है क्या ?
वह चुप रहती है
ओठ काटकर
बस अपनी पीठ पर देखने देती है
मसीहा ...
तब जी करता है
उसे झिंझोड़कर पूछूं
क्यों तेरी औरत
हर बार चुप रह जाती है सलीब ?
तब मूक वह
मेरी निगाहें पकड़ घुमा देती है
और कीलों का स्पर्श
दहला देता है मेरा वजूद
कुछ ठुक जाता है भीतर .
मेरी आँखें सहसा मिल जाती हैं
मसीहा से ..
वह मेरे गर्भ में रिसता है
और पूरी सलीब जन्म लेती है
मैं उसका बदन टटोलती हूँ
हाथ पैर
मुंह - माथा ..
अभी चूमना शेष है
कि ममता पर रख देता है कोई
कंटीला ताज
और मसीहा मुसकराता है ..
सलीब की बाहें
मेरा स्पर्श करती हैं
मैं सिहरकर ठोस हो गयी हूँ -
एक सूली
जिस पर छह बार अभियोग चलता है
और एक शरीर सौंप दिया जाता है
जिसने थक्का जमे खून के
बैंगनी कपड़े पहने हैं
कुछ मुझमें भी जम जाता है
ठंडा , बरफ , निस्पंद
फिर मैं सुनती हूँ
प्रेक्षागृह में
नेपथ्य से
वह चीखता है - "पिता मेरी आत्मा स्वीकार कर "
आकाश तीन घंटे तक मौन है
अँधेरी गुफा में कैद
दिशाएँ निस्तब्ध
कोई मुझे कुचल रहा है ..
कुचल रहा है
क्षरण... क्षरण ..
आह ! मेरे प्रेम का मसीहा
सलीब पर टंगा है .
और मेरी कातरता चुप !
***

( सलीब नारी है, मसीहा प्रेम - यहाँ मसीहा का trial दिखाया गया है. छह बार trial किया गया - तीन बार यहूदियों के सरदार ने और तीन बार romans ने. अंत में मसीहा के चीखने का स्वर है और सूली के बिम्ब से कातरता को दर्शाया है. कविता कीलों पर चल रही है, सलीब पर टंगी है और सूली पर झूल रही है- आशा है मर्म समझना कठिन न होगा.)
-अपर्णा भटनागर

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