डॉ. सुनील जोगी की कविता- माँ

संक्षिप्त परिचय
नाम : डॉ. सुनील जोगी
जन्म : १ जनवरी १९७१ को कानपुर में।
शिक्षा : एम. ए., पी-एच. डी. हिंदी में।
कार्यक्षेत्र : विभिन्न विधाओं में ४० पुस्तकें तथा गीत, ग़ज़ल व भजन के २५ कैसेट प्रकाशित। देश विदेश के अनेक मंचों व चैनलों से काव्य पाठ। फ़िल्मों के लिए गीत लेखन। पत्र पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन। अनेक धारावाहिकों के शीर्षक गीत व स्क्रिप्ट लेखन। लोक सभा के अपर निजी सचिव के रूप में संसद भवन में कार्य। इंडिया मीडिया एंड इंटरटेनमेंट एकेडमी के निदेशक तथा अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति, भारत के राष्ट्रीय महासचिव।
मातृ दिवस के सुअवसर पर उनकी एक बेहद ही भावपूर्ण रचना आप सबके नज़र है. आशा है आपको पसंद आएगी...

माँ

किसी की ख़ातिर अल्‍ला होगा, किसी की ख़ातिर राम
लेकिन अपनी ख़ातिर तो है, माँ ही चारों धा
जब आँख खुली तो अम्‍मा की गोदी का एक सहारा था
उसका नन्‍हा-सा आँचल मुझको भूमण्‍डल से प्‍यारा था
उसके चेहरे की झलक देख चेहरा फूलों-सा खिलता था
उसके स्‍तन की एक बूंद से मुझको जीवन मिलता था
हाथों से बालों को नोचा, पैरों से खूब प्रहार किया
फिर भी उस माँ ने पुचकारा हमको जी भर के प्‍यार किया
मैं उसका राजा बेटा था वो आँख का तारा कहती थी
मैं बनूँ बुढ़ापे में उसका बस एक सहारा कहती थी
उंगली को पकड़ चलाया था पढ़ने विद्यालय भेजा था
मेरी नादानी को भी निज अन्‍तर में सदा सहेजा था
मेरे सारे प्रश्‍नों का वो फौरन जवाब बन जाती थी
मेरी राहों के काँटे चुन वो ख़ुद ग़ुलाब बन जाती थी
मैं बड़ा हुआ तो कॉलेज से इक रोग प्‍यार का ले आया
जिस दिल में माँ की मूरत थी वो रामकली को दे आया
शादी की, पति से बाप बना, अपने रिश्‍तों में झूल गया
अब करवाचौथ मनाता हूँ माँ की ममता को भूल गया
हम भूल गए उसकी ममता, मेरे जीवन की थाती थी
हम भूल गए अपना जीवन, वो अमृत वाली छाती थी
हम भूल गए वो ख़ुद भूखी रह करके हमें खिलाती थी
हमको सूखा बिस्‍तर देकर ख़ुद गीले में सो जाती थी
हम भूल गए उसने ही होठों को भाषा सिखलाई थी
मेरी नींदों के लिए रात भर उसने लोरी गाई थी
हम भूल गए हर ग़लती पर उसने डाँटा-समझाया था
बच जाऊँ बुरी नज़र से काला टीका सदा लगाया था
हम बड़े हुए तो ममता वाले सारे बन्‍धन तोड़ आए
बंगले में कुत्ते पाल लिए माँ को वृद्धाश्रम छोड़ आए
उसके सपनों का महल गिरा कर कंकर-कंकर बीन लिए
ख़ुदग़र्ज़ी में उसके सुहाग के आभूषण तक छीन लिए
हम माँ को घर के बँटवारे की अभिलाषा तक ले आए
उसको पावन मंदिर से गाली की भाषा तक ले आए
माँ की ममता को देख मौत भी आगे से हट जाती है
गर माँ अपमानित होती, धरती की छाती फट जाती है
घर को पूरा जीवन देकर बेचारी माँ क्‍या पाती है
रूखा-सूखा खा लेती है, पानी पीकर सो जाती है
जो माँ जैसी देवी घर के मंदिर में नहीं रख सकते हैं
वो लाखों पुण्‍य भले कर लें इंसान नहीं बन सकते हैं
माँ जिसको भी जल दे दे वो पौधा संदल बन जाता है
माँ के चरणों को छूकर पानी गंगाजल बन जाता है
माँ के आँचल ने युगों-युगों से भगवानों को पाला है
माँ के चरणों में जन्नत है गिरिजाघर और शिवाला है
हिमगिरि जैसी ऊँचाई है, सागर जैसी गहराई है
दुनिया में जितनी ख़ुशबू है माँ के आँचल से आई है
माँ कबिरा की साखी जैसी, माँ तुलसी की चौपाई है
मीराबाई की पदावली ख़ुसरो की अमर रुबाई है
माँ आंगन की तुलसी जैसी पावन बरगद की छाया है
माँ वेद ऋचाओं की गरिमा, माँ महाकाव्‍य की काया है
माँ मानसरोवर ममता का, माँ गोमुख की ऊँचाई है
माँ परिवारों का संगम है, माँ रिश्‍तों की गहराई है
माँ हरी दूब है धरती की, माँ केसर वाली क्‍यारी है
माँ की उपमा केवल माँ है, माँ हर घर की फुलवारी है
सातों सुर नर्तन करते जब कोई माँ लोरी गाती है
माँ जिस रोटी को छू लेती है वो प्रसाद बन जाती है
माँ हँसती है तो धरती का ज़र्रा-ज़र्रा मुस्‍काता है
देखो तो दूर क्षितिज अंबर धरती को शीश झुकाता है
माना मेरे घर की दीवारों में चन्‍दा-सी मूरत है
पर मेरे मन के मंदिर में बस केवल माँ की मूरत है
माँ सरस्‍वती, लक्ष्‍मी, दुर्गा, अनुसूया, मरियम, सीता है
माँ पावनता में रामचरितमानस् है भगवद्गीता है
अम्‍मा तेरी हर बात मुझे वरदान से बढ़कर लगती है
हे माँ तेरी सूरत मुझको भगवान से बढ़कर लगती है
सारे तीरथ के पुण्‍य जहाँ, मैं उन चरणों में लेटा हूँ
जिनके कोई सन्‍तान नहीं, मैं उन माँओं का बेटा हूँ
हर घर में माँ की पूजा हो ऐसा संकल्‍प उठाता हूँ
मैं दुनिया की हर माँ के चरणों में ये शीश झुकाता हूँ
***
- डॉ. सुनील जोगी

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12 Responses to डॉ. सुनील जोगी की कविता- माँ

  1. माँ आंगन की तुलसी जैसी पावन बरगद की छाया है
    माँ वेद ऋचाओं की गरिमा, माँ महाकाव्‍य की काया है
    माँ मानसरोवर ममता का, माँ गोमुख की ऊँचाई है
    माँ परिवारों का संगम है, माँ रिश्‍तों की गहराई है

    बहुत बढ़िया !बेहतरीन !
    इस कविता ने स्वर्गीय ओम व्यास जी की याद दिला दी

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  2. जोगी जी , मां पर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत बधाई |
    drmanojrastogi.blogspot.com
    rastogi.jagranjunction.com

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  3. माँ .........
    माँ ...........
    माँ .............
    निशब्द हूँ कुछ भी कहने के लिए अद्वितीय रचना .बस माँ रूपी सागर में हिलोरें ले रहा हूँ मन करता है बस यहीं पड़ा रहूँ !
    धन्यवाद सुनील जी !
    !! जय गणेश !!

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  4. हर पंक्ति भावपूर्ण है...... बहुत सुंदर रचना

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  5. बेहतरीन रचना!

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  6. Behtreen rachna....Sunil Jogi ke shreemukh se is rachna ko sunne ka alag hi anand hai....kal yane 9 may ko Sunil Bhai panipat ke ek karyakram me rahenge..is rachna ke liye unhe aagrah karoonga...

    Vyas ji is prastuti ke liye aapko evm aapki team ko badhai...sadhuwaad..

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  7. बहुत ख़ूबसूरत और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!

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  8. परम सम्मानीय श्री श्याम त्रिपाठी जी ने मुझे जो मेल प्रेषित किया आप सबके सम्मुख साझा कर रहा हूँ क्योंकि उनके इन आशीर्वचनो से मन गद-गद हो गया..
    सम्मानीय श्याम जी को मैं नमन करता हूँ..


    श्रद्धेय व्यास जी सादर नमन ,

    सर्व प्रथम आपको मेरा अभिनंदन | कवि डा. सुनील जोगी जी की सर्व प्रिय कविता जो उन्होंने टोरंटो के मंच पर २००८ में सुनाई थी | हास्य कवि सम्मेलन में मां कविता की जो गूँज उन्होंने लगाई थी वह यहाँ के श्रोताओं के ह्रदयों में सदैव अमिट रहेगी | आज इस देश में मां का दिन है | पूर्व से आकर पछिम में इस परम्परा को निभा रहा हूँ | मैं अपने मित्रों को सुनील जी का यह अनमोल उपहार अवश्य बाटूंगा | धन्यवाद इस सुंदर कर्म के लिए | यदि हो सके तो मेरी नमस्कार सुनील जोगी तक पहुंचाएं |

    आपका प्रवासी हिंदी प्रेमी - श्याम त्रिपाठी - प्रमुख सम्पादक हिंदी चेतना

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  9. प्रिय भाई व्यास जी ,आप ने ' मां' पर सुनील जोगी की जिस कविता को प्रस्तुत किया है ,वह भाव पूर्ण और सुन्दर है .जोगी जी को बधाई और आप को धन्यवाद

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  10. kavita hai ya pura granth hai .
    bahut sunder kavita
    badhai

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  11. डा० जगदीश व्योम की माँ पर लिखी एक बहुत प्रसिद्ध कविता है जिसे यहाँ देखा जा सकता है, यह कविता अनेक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी है, सुनील जोगी की इस कविता में व्योम जी की कविता की पुरी की पूरी पंक्तियाँ ही उठा कर रख दी गईं हैं। पाठक इसे यहाँ देख सकते हैं।
    http://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/mamtamayi/maakabeer.htm

    ReplyDelete

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