रचनाकार परिचय
नाम: डॉ. प्रभा मुजुमदार
जन्म तिथि: 10.04.57, इन्दौर (म.प्र.)
शिक्षा: एम.एससी. पीएच.डी.(गणित)
सम्प्रति: तेल एवम प्राकृतिक गैस आयोग के आगार अध्ययन केन्द्र अहमदाबाद मे कार्यरत
प्रथम काव्य संग्रह: ‘अपने अपने आकाश’ अगस्त 2003 मे प्रकाशित. ‘तलाशती हूँ जमीन’
दूसरा काव्य संग्रह: 2009 मे.
विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं ‘वागर्थ’, ‘प्रगतिशील वसुधा’, ‘नवनीत’, ‘कथाक्रम’, ‘आकंठ’, ‘उन्नयन’, ‘संवेद वाराणसी’, ‘देशज’, ‘समकालीन जनमत’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘अहमदाबाद आकार’, ‘देशज’, ‘पाठ’, ‘लोकगंगा’, ‘समरलोक’, ‘समय माजरा’ अभिव्यक्ति अक्षरा उदभावना आदि में प्रकाशित.
नेट पत्रिकाओं ‘कृत्या’, ‘सृजनगाथा’, ‘साहित्यकुंज’ मे प्रकाशन
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण.
सम्पर्क: डॉ. प्रभा मुजुमदार, ए-3,अनमोल टावर्स, नारानपुरा, अहमदाबाद-380063.
दूरभाष: 079/27432654 मो. 09426614714
एहसास
एक पहचान थी
जो धीरे धीरे
मगर लगातार
मिटती जा रही है.
काफिले के भीतर
मै समाती जा रही हूँ.
मेरे शब्द
भीड के नारों में
खोते जा रहे हैं.
सोच.....
अब उसका महत्व नही
शायद जरुरत भी नही.
क्या है खोने के लिये अब
फिर भी अपने से इतना मोह.
मुठ्ठी में समा गये हों
जैसे सम्पूर्ण प्राण
मै कस कर
अपनी ही हथेलियां
भींचती जा रही हूँ.
***
मूल्यबोध
संशय के कोहरे में
डूबा हुआ सच
रिश्तों की गर्माहट
नकारता हुआ स्वार्थ
लोह दुर्ग के भीतर
गरजता फुफकारता अहम...
अपने ही अवमूल्यन को
समय के सापेक्ष देखते हुए
आत्म तुष्टि का अहसास
क्या एक विवशता भर है
सुनियोजित चुनाव नही?
***
सम्पूर्ण
दर्पण में उभरा एक अक्स
कभी धुन्धलाता
तो कभी चमकता हुआ
सूरज की प्रखरता के साथ
घटती बढती परछाई.
खंडहर में
शब्दों की गूँजती हुई
प्रतिध्वनियां....
अलग अलग ये हिस्से
मेरे ही हैं न?
***
सम्भावना
फिर खत्म हो गई एक कहानी.
चिन्दियाँ हवा में उड गईं.
शब्द पैराग्राफ और पन्नें
धूल, मिट्टी और पानी में गल गये.
जलते जख्म रिस कर गिरे थे
तब पूरी हुई थी शब्दों की यात्रा
कितने कितने अंतरविरोधों को पार कर.
फिर चुक गई मैं हमेशा की तरह
समय से बहुत पहले.
बटोरती हूँ शक्ति
आँसूओं की हर बून्द के साथ
अभिव्यक्त होती रहेगी अनुभूति.
फिर कोई नई कहानी आकार लेगी
इसी मलबे में से
बीते समय की पगध्वनियों से
आगत की सम्भावनाओं से.
***
आत्मबोध
एक नियत आकार
ले चुकने के बाद
बेमानी हो जाता है
अपने साँचे को लेकर
चिंतन और मंथन करना.
धुरी के साथ साथ
लगातार घूमते रहना एक सच है.
विपरीत दिशा या
मनचाही रफ्तार की
गुंजाइश नही है.
अपने अपने अधूरेपन को
सम्पूर्णता के साथ जी पाना
काश सम्भव हो पाता
तुलनाओं से होती निराशा
और पिछड जाने के दन्श से
छुटकारा तो मिलता.
क्यों अपने पर इतने प्रहार
नई शाखाओं मे पनपने के लिये
यथार्थ का बोध
हाथ पैर टूट जाने के बाद ही
क्यों होता है ?
***
समाधान
प्रश्न ...
जो खत्म नही होते
और उत्तर
तलाशे नही जा सकते
मकडी के जाले में
फँसे होने का
अहसास दिलाते हुए
चट्टानों से टकराकर
लौटती गरजती लहरों के साथ
तो कभी इन्द्रधनुष के रंगों में
तलाशती हूँ
शायद छिपा हो
कोई जवाब.
***
अभिनय
मेरे चारों ओर
मुखौटों के जंगल है.
मुखौटें...
जिन्हें सुविधानुसार पहनने
उतारने और
बदलने की आजादी होती है.
गांव की चौपाल से लेकर
वैश्विक मंचों तक
सब कुछ कैमरों में कैद है.
प्रशिक्षण शालाओं में
सिखाया जा रहा है
बोलने, हंसने, रोने
और खडे होने के ढंग.
मुझे अपनी उपस्थिति दर्ज करानी है
हर जूलुस में
हर जलसे में.
***
behtrin kavitayen... main khusd ek kavi hoon..aur aapki soch aur samajh ko salam karta hoon...
ReplyDeletemaine dobara padha... aur daave se kah sakta hoon..prabha ji aaj tak maine kisi blog par itni achchi kavita nahi padhi..
ReplyDeleteप्रभा जी की कविताएँ हमेशा ही गहरी अर्थवत्ता के साथ प्रकट होती है। आखर कलश और प्रभजी दोनो को बधाई।
ReplyDeleteप्रमोद ताम्बट
भोपाल
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behtreen arthpurn rachnaye ..badhai
ReplyDeleteगंभीर कवितायें।
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी सभी कविताएं
ReplyDeleteसंपूर्ण खास पसंद आई...बधाई.
vicharotejak kavitaen..
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