Archive for 2013

खुद मुख्तार औरत व अन्य कविताएँ- देवयानी भारद्वाज


 रोज गढती हूं एक ख्वाब 
सहेजती हूं उसे
श्रम से क्लांत हथेलियों के बीच
आपके दिए अपमान के नश्तर
अपने सीने में झेलती हूं
सह जाती हूं तिल-तिल
हंसती हूं खिल-खिल...

-      देवयानी भारद्वाज
मैं अपना चश्मा बदलना चाहती हूँ

मेरे पास भरोसे की आँख थी
मैंने पाया कि चीज़ें वैसी नहीं थीं
जैसी वे मुझे नज़र आती थीं
शायद मुझे वैसी दिखाई देती थीं वे
जैसा मैं देखना चाहती थी उन्हें

फिर एक दिन
कुछ ऐसी किरकिरी
हुई महसूस
कितने ही लेंस आजमाने के बाद
मिला मुझे यह चश्मा
लेकिन नही करता यह मेरी सहायता
चीज़ों को साफ़ देखने में
वे इतनी विरूपित हैं
की छिन गया है
मन चाहा देखने का भी सुख

मैं अपना चश्मा बदलना चाहती हूँ
***

खुद मुख्तार औरत

अपने श्रम के पसीने से
रचती हूं स्वाभिमान का हर एक क्षण

रोज गढती हूं एक ख्वाब
सहेजती हूं उसे
श्रम से क्लांत हथेलियों के बीच
आपके दिए अपमान के नश्तर
अपने सीने में झेलती हूं
सह जाती हूं तिल तिल
हंसती हूं खिल खिल

क्षमा करें श्रीमान
मेरा माथा गर्व से उन्नत है
मुझ से न आवाज़ नीची रखी जाती है
न निगाहें झुकाना आता है मुझे
मैंने सिर्फ सर उठा कर जीना सीखा है


जो न देखी जाती हो आपसे यह ख़ुद मुख्तार औरत
तो निगाहें फेर लिया कीजिए
***

वह प्रेम के प्रतीक्षालय में है

उसे हर बात सिर्फ अपनी तरह से करनी है
उसका अपना झंडा है
उसके अपने रंग है
उसकी अपनी भाषा है
उसके अपने ढंग है

उसके रिश्ते सिर्फ उसकी शर्तों पर बनते हैं
उनमें अन्य की कोइ जगह नहीं
अन्य उसके हाथों के मोहरे हैं
लेकिन एक दिन मोहरे ऊब जाते हैं
चलते हुए उसके हाथों की चाल

दोस्त बिखर जाते हैं
जैसे बिखर जाती हैं कैरम की गोटियां
स्ट्राइकर के पहले ही आघात के साथ

उसे दुनिया से कोइ शिकायत नहीं
उसे पता है उसने गलत समय में
गलत देशकाल में जन्म लिया

वह प्रेम के प्रतीक्षालय में है
और वे लोग जो करते हैं उससे प्रेम
घर पर करते हैं उसकी प्रतीक्षा
***

दूर नहीं वह दिन

कितनी तो तरक्की कर गया है विज्ञान
वनस्पतियों की होने लगी हैं संकर और उन्नत किस्में
फूलों में भर दिए हैं मनचाहे रंग

देह का कोई भी अंग बदला जा सकता है
मन मुताबिक
हृदय, गुर्दा या आंख, कान
सभी का संभव है प्रत्यारोपण

मर कर भी न छूटे मोह दुनिया देखने का
तो छोड़ कर जा सकते हैं आप अपनी आंख
किसी और की निगाह बन कर
देखते रह सकते हैं इसके कारोबार
बशर्ते बचा रहा हो इस जीवन के प्रति ऐसा अनुराग

हांफने लगा न हो आपका हृदय अगर
जीने में इस जीवन को दुर्निवार
तो छोड़ जाइए अपना हृदय
किसी और सीने में फिर धड़कने के लिए एक बार
फिर शीरीं-फरहाद, और लैला-मजनूं की तरह
धड़कता रहेगा यह
अगर है कोई स्वर्ग
तो वहां से झांक कर देखा करेंगे जिसे आप

जीते जी दूसरे की देह में
लगवा सकत हैं आप अपना गुर्दा
एक से अपना जीवन चलाते हुए
दूसरे से किसी अन्य का जीवन चलता है
यह सोच थोड़ी और गर्वीली हो सकती है आपकी चाल

यह तो कुछ नैतिकता के प्रश्न आने लगे हैं आड़े
वर्ना जितने चाहें उतने अपने प्रतिरूप
बना सकता है मनुष्य

शायद दूर नहीं वह दिन भी अब
आपकी खोपड़ी का ढक्कन खोल
बदलवा सकेंगे जब आप इसमें उपजते विचार
राजनीतिकों की बात दीगर हैं
जिनके खोखल में अवसरानुकूल स्वत:
बदल जाते हैं विचार और प्रतिबद्धताएं
आप जो स्मृतियों में जीते हैं
नफा नुकसान की भाषा नहीं समझते हैं
आपके भी हाथ में होगा तब यह उपाय
जगह जगह होंगे ऐसे क्लिनिक
जिनमें जाकर आप
बारिश की स्मृतियों को बेच सकेंगे औन-पौने दाम
और बदले में रोप दी जाएंगी सफलता की कामनाएं तमाम
जिन चेहरों को भुलाना मुश्किल होगा
सिनेमा की डीवीडी की तरह बदली जा सकेंगी
उनकी छवियां तमाम
टाम क्रूज, जॉनी डेप्प और जेनिफर लोपेज
जिसकी भी चाहेंगे आप
उनकी स्मृतियों से अंटा होगा आपकी यादों का संसार
***

देवयानी भारद्वाज
देवयानी भारद्वाज
जन्‍म 13 दिसंबर 1972 , शिक्षा एम ए हिन्‍दी साहित्‍य (राजस्‍थान विश्‍व विद्यालय) व़र्ष 1995.
वर्ष 1994 से 2004 तक पत्रकारिता के दौरान नियमित फिल्‍म समीक्षा तथा फीचर लेखन। वर्ष 2001 में प्रेम भाटिया फैलोशिप के तहत 'विकास की असमानता और विस्‍थापित होते लोग' विषय पर अध्‍ययन (अब तक अप्रकाशित)। भोजन के अधिकार आंदोलन के साथ एक नियमित बुलेटिन 'हक' का संपादन। व़र्तमान में शिक्षा में सक्रिय स्‍वयं सेवी संस्‍था 'दिगंतर' के साथ असोसिएट फैलो के रूप में कार्यरत।
कथन, शिक्षा विमर्श, जनसत्ता, आउटलुक आदि पत्रिकाओं तथा प्रतिलिपि, समालोचन, असुविधा, आपका साथ साथ फूलों का, परिकथा ब्‍लोगोत्‍सव आदि ब्‍लोग्‍स पर कविताएं प्रकाशित। अखबारों के लिए छिट-पुट लेखन कार्य जारी। अंग्रेजी एवं हिन्‍दी में शिक्षा से संबंधित अनेक अनुवाद प्रकाशित।

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अबकि बार तू सीता बनके मत आना- एकता नाहर 'मासूम'

अबकि बार तू सीता बनके मत आना

स्त्री तेरे हज़ारों रूप,
तू हर रूप में पावन,सुन्दर और मधुर।

पर अबकि बार तू सीता या राधा बनके मत आना,
द्रोपदी और दामिनी बनके भी मत आना,
तू जौहर में जलती वीरांगना और,
प्रेम के गीत गाती मीरा बनके भी मत आना,
मेरी तरह चुप्प,बेबस और मूर्ख बनके भी मत आना।

अबकि बार तुम गुस्सैल,बिगडैल और मुहफट लड़की बनके आना,
वहीँ जो अपनी आज़ादी का राग आलापते,मुंबई के एक हॉस्टल में रहती है।
और कल जिसने एक लड़के को बुरी तरह पीटा,
क्योंकि लड़का उसकी छाती पर कोहनी मार के निकल गया।

अबकि बार तुम शालीनता और सभ्यता के झंडे फहराने मत आना,
और वो मोहल्ले की रागिनी भाभी बनकर भी नहीं,
जिसकी सहेली से मिलने की इच्छा भी पति की इज़ाज़त पर निर्भर है।
तुम, वो काँधे पे स्वतंत्र मानसिकता का बैग टाँगे, समुद्र लांघ के
स्वीडन से इंडिया घूमने आई,दूरदर्शी और आत्मनिर्भर लड़की बनके आना।

अब नहीं बनके आना तुम मर्यादा न लांघने का प्रतीक,
तुम गली की गुंडी बनके आना।
ताकि तुम्हारी आबरू को घायल करने वाले ये नपुंसक,
तुम्हारे अस्मित को नोचने वाले ये दरिन्दे,
तुम्हारे दम भर घूरने से ही अपने बिलों में छिप कर बैठ जाएँ।
और घर की कुण्डी लगाके कमरे के बिस्तर पर न फेंकी जाएँ,
तुम्हारी ख्वाहिशें,स्त्री होने का ठप्पा लगकर।

अबकि बार तुम समाज के प्रहरियों के आदर्श-मूल्यों में,
अपनी संवेदनाओ और इच्छाओ को खंडित करके,
सीधी,चुप्प,दुपट्टा सम्हाले,'मासूम' गुडिया बनके मत आना।
तुम निडर,अमूक और आफतों से लड़-झगड़ने वाली,
अपनी प्राथमिकताएं स्वयं तय करने वाली,
सीमा,बंधन और गुलामी में अंतर कर पाने वाली,
उपहास,आलोचना,और उलाहना को गर्दो-गुबार करने वाली,
आज़ाद,खूबसूरत और खुले विचारों वाली,
जीवन से भरपूर वो पागल लड़की बनके आना।
मुझे तुम वैसी ही अच्छी लगती हो।

नैतिकता और आदर्शवाद के पुराने उदाहरण पर्याप्त हैं
हम बेटिओं,बहनों और स्त्रिओं के जीवन मूल्य तय करने के लिए
अब मेरे कस्बे की लडकियां तुम्हारे स्वछंद,स्वतंत्र
और बिंदास होने का उदाहरण देखना चाहती हैं,
समाज की परम्पराओं की जंजीरों में जकड़ी ये लडकियां,
तुम्हारे उस बिंदास व्यक्तित्व में कहीं न कहीं,
खुद का भी तुम्हारी तरह होना इमेजिन करती हैं।

-एकता नाहर 'मासूम'



युवा लेखिका एकता नाहर तकनीकी क्षेत्र में अध्ययनरत होने के उपरांत भी हिंदी साहित्य की दोनों विधाओं गध्य और पद्य में अपने लिखने के साथ बेहद उम्दा sketches भी बनाती हैं ! बी.ई.फ़ाइनल ईअर की विद्यार्थी एकता नाहर की रचनाये समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकशित होती रहती हैं. दो अलक-अलग व्यक्तित्व की धनी एकता कवि सम्मेलनों में भी अपनी प्रस्तुति देती आई हैं. पेशेनज़र है उनकी इस कविता के माध्यम से उनका नजरिया-

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वह इक आम सी लड़की- शाहिद अख्तर की कविताएँ


सवालों के खोटे सिक्‍के


आंख का यह आसमान
क्‍यों इस तरह पिघलता है कि
ख्‍वाबों के खूंटों से
सरक-सरक कर
गिर जाती है नींद?

सदियों के इंतजार के बाद भी
क्‍यों तेरे मिलन की बेला
जमाने से उलझती हुई
सब्‍ज परबत की अलगनी पे
टंगी रह जाती है?
क्‍यों इंतजार की बास मारती
किसी कलुटा की तरह
अरमानों का पेट फुलाए
किसी मोरी के किनारे उकडूं बैठे
उलटियां करती रहती है जिंदगी?

रात के बंजर शिकनआलुदा बिस्‍तर पर
करवटें बदलते बदलते
क्‍यों वक्‍त अचानक चला जाता है
मुझे तन्‍हा छोड़
किसी रईस का बिस्‍तर गर्म करने ?

क्‍यों मेरा महबूब
तमाम मन्‍नतों के बावजूद
दिल की इस काल कोठरी पर
पोतता रहता है
शब-ए-हिज्र की स्‍याही?
क्‍यों जेहन की इस बोसीदा सी झोली में
खनखनाते रहते हैं
बस ऐसे ही सवालों के
ये खोटे बेकार सिक्‍के?
***



वह इक आम सी लड़की

वह इक आम सी लड़की
रोज सुबह सवरे
कॉफी का प्‍याला पीते हुए
कुछ सोचती जाती है
अपने बारे में
अपने सपनों के बारे में ...

वह सोचती रहती है
दुनिया जहान के बारे में
कालेज की राह में
घूरते लड़कों के बारे में
पड़ोस के उस लड़के के बारे में
जो उस बहुत भाता है
उसे देखने का मन तो करता है
लेकिन कभी कभार ही दिखता है
वह इक आम सी लड़की
गुपचुप सी बैठी
कॉफी के प्‍याले को देखती रहती है
काफी की चुस्कियों के संग
वह डालती रहती है अपने सपनों में रंग
ना जाने कितने रंगों से
सजाती है अपने सपने का संसार

वह इक आम सी लड़की
ना जाने कब से गुम है अपने ख्‍यालों में
दफत:अन, किचन से पुकारती है मां
हड़बड़ाती हुई उठती है
और छलक जाती है प्‍याले से काफी

कभी दामन पे काफी का दाग सहेजे
कभी बिखरे सपनों को दामन में समेटे
हर रोज दौड़ती रहती है
आंगन से किचन
और किचन से आंगन
वह इक आम सी लड़की
काफी के प्‍याले
और किचन के बीच
ना जाने कितनी दूरी है
वहां ही कैद हो जाती है
जिंदगी भर दौड़ती रह जाती है
वह इक आम सी लड़की
***

दफ्त:अन दिल मेरा गिरा

फिर कोई घटा उठी
फिर कोई सदा चली
फिर आकाश में बिछी
आवारा बादलों की कश्तियां
फिर यहां वहां बिखरा नूर तेरा
फिर कहीं रंगीन हुआ मंजर कोई
फिर आई नसीम-ए-सबा
लिए उनका पैगाम
फिर आई मश्‍क सी खुशबू तेरे बदन की
फिर गूंजा कहीं कोई नग्‍मा
फिर आंखों से छलका
पलकों पर ठहरा
ओस सा, आस का एक नन्‍हा कतरा
फिर क‍हीं एक हूक सी उठी
और ना जाने कहां गिरा
दिल मेरा, दफ्त:अन
***
- शाहिद अख्‍तर
बीआईटी, सिंदरी, धनबाद से केमिकल इं‍जीनियरिंग में बी. ई. मोहम्‍मद शाहिद अख्‍तर छात्र जीवन से ही वामपंथी राजनीति से जुड़ गए। अपने छात्र जीवन के समपनोपरांत आप इंजीनियर को बतौर कैरियर शुरू करने की जगह एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। पूर्णकालिक कार्यकर्ता की हैसियत से आपने बंबई (अब मुंबई) के शहरी गरीबों, झुग्‍गीवासियों और श्रमिकों के बीच काम किया। फिल्‍हाल आप प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) की हिंदी सेवा 'भाषा' में वरिष्‍ठ पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं।
शाहिद अख्तर साहब समकालीन जनमत, पटना में विभिन्‍न समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ अंग्रेजी में महिलाओं की स्थिति, खास कर मु‍स्लिम महिलाओं की स्थिति पर कई लेख लिख चुके हैं।
अनुवाद:
1. गार्डन टी पार्टी और अन्‍य कहानियां, कैथरीन मैन्‍सफील्‍ड, राजकमल प्रकाशन
2. प्राचीन और मध्‍यकालीन समाजिक संरचना और संस्‍कृतियां, अमर फारूकी, ग्रंथशिल्‍पी, दिल्‍ली
अभिरुचियाँ:
विविध विषयों पर पढ़ना, उनपर चर्चा करना, दूसरों के अनुभव सुनना-जानना और अपने अनुभव साझा करना, प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेना
संप्रति:
मोहम्‍मद शाहिद अख्‍तर
फ्लैट नंबर - 4060
वसुंधरा सेक्‍टर 4बी
गाजियाबाद - 201012
उत्‍तर प्रदेश

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नवनीत पाण्डे के कुछ शब्दचित्र




पता नहीं...

माँ
समझौतों में पूरी हुई

पिता
संघर्षों में

दोनों ही का दिया
कुछ-कुछ है मेरे पास

पूरा किस में हूँगा
पता नहीं...
*****


अनिवार्यता

जानते हुए तुम्हारा चरित्र
मैं विवश हूं
अपने चरित्र प्रमाण-पत्र पर
कराने के लिए तुम्हारे हस्ताक्षर
यह मेरी इच्छा नहीं
मजबूरी है
एक अदद सरकारी नौकरी के लिए
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की
अलोकतांत्रिक व्यवस्था की अनिवार्यता
*****


जो पुल पार कर आते हैं

जो पुल पार कर आते हैं
निश्चित ही घमासान मचाते हैं

दिखते ही नहीं उन्हें कभी
पुल के नीचे बहती
स्रोतवाहिनी के निर्मल बहाव
किनारों के घाव
गहरे में उतरे जाते नंगे पांव
इस पार से
उस पार पहुंचने को आतुर
पसीने से नहाया मल्लाह, नाव

जो पुल पार कर आते हैं
निश्चित ही घमासान मचाते हैं
*****


वे लोग

बिरले ही होते हैं वे लोग
जो एक अधूरी उम्र में
कर जाते हैं
बड़े, महत्त्वपूर्ण
और पूरे काम व नाम

अधिकतर लोगों की
बीत जाती है पूरी उम्र
फ़िर भी
रह ही जाते है
पूरे होने से
छोटे-छोटे काम
*****


औरों के लिए ही क्यों?

सबके
नाप-तौल
मोल-भाव है तुम्हारे पास!

कभी खुद को भी तो
जांचों!
परखो यार!

सारे के सारे
बाट, मीटर
औरों के लिए ही क्यों?
*****

जैसे जिनके धनुष

न तुम कम
न मैं कम
वह भी कम नहीं वीर
जैसे जिनके धनुष हैं
वैसे उनके तीर!


तुम्हारी पीठ -१

जो तुम्हारी पीठ पर दिखता है
अगर चेहरे पर दिख जाता
मैं निश्चित ही बच जाता
*****

तुम्हारी पीठ -२

न सही चेहरा
पीठ ही सही
तुम्हारा दिया
कुछ तो है मेरे पास
पार उतर जाऊंगा
*****

तुम्हारी पीठ -३


जब तक नहीं मिले
मुझे मेरी राह

है मेरी चाह
लदा रहूं तुम्हारी पीठ पर

मुझे पता है-

तुम्हारी पीठ
पीठ नहीं
बैशाखी है उस गंतव्य के लिए
जहां मुझे पहुंचना है
*****

पहाड़ा प्रेम का

मारजा की स्कूल में
भारणी की तरह
एक नहीं
कई- कई बार पढाया गया

याद हो जाने पर भी
फ़िर- फ़िर
दोहराया, रटाया गया

उम्र ही बीत, रीत गई
पर
हो ही नहीं पाया याद
ढंग से आज तलक
पहाड़ा प्रेम का
****

गुब्बारा प्रेम का

झूठे!
कमीने!
नीच!
दगाबाज़!
बास्टर्ड!
अहसान फ़रामोश!
मैंने तुम्हें क्या समझा था,
और तुम क्या निकले!
कुछ ऎसे ही जुमले तो बचे रह जाते हैं
हर रिश्ते- सम्बन्ध में
एक-दूसरे के लिए
जब फ़ूटता है-
गुब्बारा प्रेम का
*****

नवनीत पाण्डे
नवनीत पांडे हमारे समय के साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी लेखनी हिंदी और राजस्थानी भाषा में समवेत रूप से शब्दों और भावों का एक सुरमई संसार रचती हैं। आपकी कविता आम आदमी की कविता है जो हर मोड़ पर कहीं न कहीं किसी न किसी मोड़ पर मिल ही जाती है। ऐसे ही कुछ शब्दचित्र आपक सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे है।

चित्र सौजन्य- गूगल

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वो बहारों का मौसम बदल ही गया- एक ग़ज़ल- शाहिद मिर्ज़ा शाहिद




नज़रें करती रहीं कुछ बयां देर तक
हम भी पढ़ते रहे सुर्खियां देर तक

आओ उल्फ़त की ऐसी कहानी लिखें
ज़िक्र करता रहे ये जहां देर तक

बज़्म ने लब तो खुलने की मोहलत न दी
एक खमोशी रही दरमियां देर तक

मैं तो करके सवाल अपना खामोश था
तारे गिनता रहा आसमां देर तक

देखकर चाक दामन रफ़ूगर सभी
बस उड़ाते रहे धज्जियां देर तक

कुछ तो तारीकियां ले गईं हौसले
कुछ डराती रहीं आंधियां देर तक

वो बहारों का मौसम बदल ही गया
देखें ठहरेंगी कैसे खिज़ां देर तक

कोई शाहिद ये दरिया से पूछे ज़रा
क्यों तड़पती रहीं मछलियां देर तक
***

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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बस्ती का पेड़ - नन्द भारद्वाज

"पहले पहल सूखी थी, /कुछ पीली मुरझाई पत्तियां / फिर सूख गई पूरी की पूरी डाल / और तब से बदस्‍तूर जारी है / तने के भीतर से आती हुई /धमनियों का धीरे-धीरे सूखना" नन्द भारद्वाज की कविता- "बस्ती का पेड़"













बाहर से आने वाले आघात का
उलटकर कोई उत्तर नहीं दे पाता
पेड़
वह चलकर जा नहीं जा सकता
किसी निरापद जगह की आड़ में -

जड़ें डूबी रहती हैं
पृथ्वी की अतल गहराई में
वहीं से पोखता रहता है
वह हर एक टहनी और पत्ती में
जीवन संचार

ऐसा घेर-घुमेर छायादार पेड़
हजारों-हजार पंछियों का
रैन-बसेरा
पीढ़ियों की पावन कमाई
वह पानीदार पेड़
अब सूख रहा है भीतर ही भीतर
जमीन की कोख में,

कुदरत के कई रूप देखे हैं
इस हरियल गाछ ने
कई कई देखे हैं
छप्पन-छिनवे के नरभक्षी अकाल -
बदहवास बस्ती ने
सूंत ली सिरों तक
कच्ची सुकोमल पत्तियां
खुरच ली तने की सूखी छाल ,
उन बुरे दिनों के खिलाफ
पूरी बस्ती के साथ जूझता रहा पेड़
चौपाए आखिरी दम तक आते रहे
इसी की सिमटती छांह में !

पास की बरसाती नदी में
अक्सर आ जाया करता था उफान
पानी फैल जाया करता था
समूचे ताल में
लोग अपना जीव लेकर दौड़ आते
इसी के आसरे
और वह समेट लेता था
अपने आगोश में
बस्ती की सारी पीड़ाएं,


समय बदल गया
बदल गये बस्ती के कारोबार
नदी के मार्ग अब नहीं बहता जल
बारहों-मास,
बहुत संकड़ी और बदबूदार हो उठी हैं
कस्बे की गलियां
पुरानी बस्ती को धकेलकर
परे कर दिया गया है नदी के पाट में
और एक नया शहर निकल आया है
इस पुश्‍तैनी पेड़ के अतराफ,


ऊंचे तिमंजिलों के बीच
अब चारों तरफ से घिर गया है पेड़
जहां तहां से काट ली गई हैं
उस फैलती आकांक्षा के
बीच आती शाखाएं

अखरने-सा लगा है
कुछ भद्र-जनों को पेड़ का अस्तित्व
उनकी नजर में
वे अच्छे लगते हैं सिर्फ उद्यान में !

जब शहर पसरता है
उजड़ जाती हैं पुरानी बस्तियां
सिर्फ पेड़ जूझते रहते हैं
अपनी ज़मीन के लिए
कुछ अरसे तक .....

पेड़ आखिर पेड़ है
कुदरत का फलता-फूलता उपहार
वह झेल नहीं पाता
अपनों का ऐसा भीतरघात
रोक नहीं पाता
अपनी ओर आते हुए
जहरीले रसायन -

नमी का उतरते जाना
जमीन की संधियों में मौन
जड़ों का एक-एक कर
काट लिया जाना -
वह रोक नहीं पाता ......

पहले-पहल सूखी थी
कुछ पीली मुरझाई पत्तियां
फिर सूख गई पूरी की पूरी डाल
और तब से बदस्तूर जारी है
तने के भीतर से आती हुई
धमनियों का धीरे-धीरे सूखना -

इसी सूखने के खिलाफ
निरन्तर लड़ रहा है पेड़ -

क्या नये शहर के लोग
सिर्फ देखते भर रहेंगे
पेड़ का सूखना ? !

 ***
(चित्रछवि साभार गूगल)

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ग़ज़ल जैसी तेरी सूरत ग़ज़ल जैसी तेरी सीरत- अशोक मिज़ाज 'बद्र'

दीर्घ विराम के पश्चात् आखर कलश एक बार फिर आपसे मुख़ातिब है जनाब अशोक मिज़ाज 'बद्र' साहब की दो बेहतरीन ग़ज़लों के साथ। उम्मीद है आपको इनकी शायरी का अंदाज़ पसंद आएगा।।
(१)
ज़रा सा नाम पा जाएँ उसे, मंज़िल समझते हैं
बड़े नादान हैं मझधार को साहिल समझते हैं


अगर वो होश में रहते तो दरिया पार कर लेते,
ज़रा सी बात है लकिन कहाँ गाफिल समझते हैं।

अकेलापन कभी हमको अकेला कर नहीं सकता,
अकेलेपन को हम महबूब की महफ़िल समझते हैं

बड़े लोगों के चहरों पर शिकन भी आ नहीँ सकती,
कोई कालिख भी मल दे तो उसे वो तिल समझते हैं


अजब बस्ती है इस बस्ती में सब रंगदार हैं शायद,
शरीफों को तो वो पैदाइशी बुझदिल समझते हैं

मिज़ाज, अपना फ़क़ीराना है फिर भी शुक्र है यारो.
हमें भी लोग अपनी भीड़ में शामिल समझते हैं
 
(२)
बहुत से मोड़ हों जिसमें कहानी अच्छी लगती है,
निशानी छोड़ जाए वो जवानी अच्छी लगती है।

सुनाऊं कौन से किरदार बच्चों को कि अब उनको,
न राजा अच्छा लगता है न रानी अच्छी लगती है।


खुदा से या सनम से या किसी पत्थर की मूरत से,
मुहब्बत हो अगर तो ज़िंदगानी अच्छी लगती है।


पुरानी ये कहावत है सुनो सब की करो मन की,
खुद अपने दिल पे खुद की हुक्मरानी अच्छी लगती है

ग़ज़ल जैसी तेरी सूरत ग़ज़ल जैसी तेरी सीरत,
ग़ज़ल जैसी तेरी सादा बयानी अच्छी लगती है।


गुज़ारो साठ सत्तर साल मैदाने अदब में फिर,
क़लम के ज़ोर से निकली कहानी अच्छी लगती है

मैं शायर हूँ ग़ज़ल कहने का मुझको शौक़ है लेकिन,
ग़ज़ल मेरी मुझे तेरी ज़ुबानी अच्छी लगती है।
***
मिज़ाजनामा
--------------
नाम- अशोक "मिज़ाज"
मूल नाम- अशोक सिंह ठाकुर
जन्म तिथि- २३ जनवरी १९५७.
जन्म स्थान- सागर, मध्य प्रदेश.
शिक्षा- एम. एससी. रसायन शास्त्र.
पेशा- स्टेट बॅंक ऑफ इंडिया मे शाखा प्रबंधक.
कृतियाँ -
* समन्दरो का मिज़ाज ( १९९५ उर्दू लिपि)
* समन्दरो का मिज़ाज ( हिन्दी लिपि)
* सिग्नेचर ( हिन्दी लिपि)
* ग़ज़लनामा (उर्दू लिपि)
* आवाज़ (वाणी प्रकाशन, हिन्दी लिपि)
* एक ग़ज़ल संग्रह शीघ्र ही प्रकाशानाधीनसाहित्यिक योगदान-
* 'ग़ज़ल २०००' वाणी प्रकाशन, सह संपादन.
* ग़ज़ल यूनिवर्स में सह संपादन.
 पुरूस्कार -
* म.प्र. उर्दू अकादमी द्वारा शिफा ग्वालियरी पुरूस्कार
* अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति पुरूस्कार
* हाजी गुलाम अली सम्मान
* माँ प्रभा देवी स्मृति सम्मान
* श्रीमती लीला देवी स्मृति सम्मान
* पं. ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी सदभावना सम्मान
* गोहरे अदब सम्मान
* श्री तन्मय बुखरिया स्मृति सम्मान
* दाजी सम्मान
एवं कई संस्थाओं द्वारा सम्मान पत्र व प्रशस्ती पत्र.
 अन्य उपलब्धियाँ-
* प्रसार भारती द्वारा आकाशवाणी के सभी केंद्रों के लिए 'मान्य कवि' के रूप मे अनुबंधित.
* ई. टी.वी. उर्दू एवं डी. डी. उर्दू पर इंटरव्यू का प्रसारण.
* भोपाल दूरदर्शन, दिल्ली दूरदर्शन, लखनऊ दूरदर्शन से प्रसारण.
* अंतरराष्ट्रीय व अखिल भारतीय मुशायरों मे शिरकत.
 मुशायरे-
* पानीपत, चंडीगढ़, पटियाला, अंबाला में चार इंडो-पाक मुशायरे.
* दिल्ली, गाज़ियाबाद, बुलंदशहर, राँची, रौरकेला, कटक, हैद्राबाद, बुरहानपुर, कानपुर, अलीगढ़, रूरकी,
* झाँसी, ललितपुर, जबलपुर, कटनी, विदिशा, भोपाल सहित अनेक छोटे बड़े नगरों में अखिल भारतीय मुशायरों मे शिरकत.
 चर्चित आलेख-
* 'ग़ज़ल की बहरें और संस्कृत के छन्द'.

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आखर कलश पर हिन्दी की समस्त विधाओं में रचित मौलिक तथा स्तरीय रचनाओं को स्वागत है। रचनाकार अपनी रचनाएं हिन्दी के किसी भी फोंट जैसे श्रीलिपि, कृतिदेव, देवलिस, शुषा, चाणक्य आदि में माईक्रोसोफट वर्ड अथवा पेजमेकर में टाईप कर editoraakharkalash@gmail.com पर भेज सकते है। रचनाएं अगर अप्रकाशित, मौलिक और स्तरीय होगी, तो प्राथमिकता दी जाएगी। अगर किसी अप्रत्याशित कारणवश रचनाएं एक सप्ताह तक प्रकाशित ना हो पाए अथवा किसी भी प्रकार की सूचना प्राप्त ना हो पाए तो कृपया पुनः स्मरण दिलवाने का कष्ट करें।

महत्वपूर्णः आखर कलश का प्रकाशन पूणरूप से अवैतनिक किया जाता है। आखर कलश का उद्धेश्य हिन्दी साहित्य की सेवार्थ वरिष्ठ रचनाकारों और उभरते रचनाकारों को एक ही मंच पर उपस्थित कर हिन्दी को और अधिक सशक्त बनाना है। और आखर कलश के इस पुनीत प्रयास में समस्त हिन्दी प्रेमियों, साहित्यकारों का मार्गदर्शन और सहयोग अपेक्षित है।

आखर कलश में प्रकाशित किसी भी रचनाकार की रचना व अन्य सामग्री की कॉपी करना अथवा अपने नाम से कहीं और प्रकाशित करना अवैधानिक है। अगर कोई ऐसा करता है तो उसकी जिम्मेदारी स्वयं की होगी जिसने सामग्री कॉपी की होगी। अगर आखर कलश में प्रकाशित किसी भी रचना को प्रयोग में लाना हो तो उक्त रचनाकार की सहमति आवश्यक है जिसकी रचना आखर कलश पर प्रकाशित की गई है इस संन्दर्भ में एडिटर आखर कलश से संपर्क किया जा सकता है।

अन्य किसी भी प्रकार की जानकारी एवं सुझाव हेत editoraakharkalash@gmail.com पर सम्‍पर्क करें।

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