Archive for 3/1/11 - 4/1/11

यश मालवीय के दो गीत

संक्षिप्त परिचय:
नाम: यश मालवीय
जन्म: 18 जुलाई 1962 कानपुर, उत्तर प्रदेश
कुछ प्रमुख कृतियाँ: कहो सदाशिव, उड़ान से पहले, एक चिडिया अलगनी पर एक मन में, राग-बोध के 2 भाग
संपर्क: रामेश्वरम, ए - 111, मेंह्दौरी कालोनी, इलाहाबाद -211 004, उ प्र

यश मालवीय समकालीन युवा साहित्यकारों  मे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं । उनके गीतों में मानवीय संवेदनाओं के प्रति विचित्र आग्रह है जो प्रस्तुत दो गीतों में देखा जा सकता है । यश को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का निराला सम्मान, और उमाकांत मालवीय बाल साहित्य सम्मान भी मिल चुका है ।
आज आपके सम्मुख प्रस्तुत है यश मालवीय के दो गीत..


[एक]

देह भर में धूप
मेहँदी सी रची है
आज घर पर ही रहेंगे
है दिसम्बर
कैजुअल बाकी बची है
आज घर पर ही रहेंगे

रौशनी है रौशनी के
दायरे हैं
पूछिए मत
आइने भी बावरे हैं
है घना कुहरा
कि मौसम भी टची है
आज घर पर ही रहेंगे

बहुत कम हो कर
बहुत जादा खुशी है
फूल होकर
छू रही सी खामुशी है
एक रेखा सहज
चेहरे पर खिंची है
आज घर पर ही रहेंगे
चाय के संग
भाप मुँह की बोलती है
हवा मन की
गिरह जैसे खोलती है
जगी आँखों धूम
सपनों की मची है
आज घर पर ही रहेंगे |

[दो]

भीतर -भीतर कितनी बार
उबलना होता है
बालू बांध पांव में
मीलों चलना होता है

खामोशी कोने अतरों से
झाँका करती है
सिलकर होंठ ,मूल्य शब्दों का
आंका करती है
अंधियारों में बिना रौशनी
जलना होता है

कभी -कभी गलियाँ -चौराहे
गली बकते हैं
कोल्हू के जो बैल ,
परिधि में अपने थकते हैं
बंद सुरंगों से भी हमें
निकलना होता है

मौन ठिठुरते हैं
अपनी ही आग सौंपते हैं
हम वहशी अतीत को
जीवन राग सौंपते हैं
बर्फीली चट्टानों जैसा
गलना होता है |
***
- यश मालवीय

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भरत तिवारी की क्षणिकाएँ

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं ....
- निदा फ़ाज़ली

संक्षिप्त परिचय:
नाम : भरत तिवारी ‘दस्तकार’
पिता : स्व. श्री एस . एस. तिवारी
माता : स्व. श्रीमती पुष्प मोहिनी तिवारी
जन्म भूमि : फैज़ाबाद (अयोध्या) उत्तर प्रदेश
कर्मभूमि : नई दिल्ली
शिक्षा : डा. राम मनोहर लोहिया (अवध विश्वविद्यालय ) से विज्ञान में स्नातक
मैनेजमेंट में स्नातकोत्तर
अभिरुचि: कला , संगीत , लेखन (नज़्म, गीत, कविता) और मित्रता
संप्रतिः पि. ऍम. टी. डिजाइंसके ऍम. डी. आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजाईन में बेहद झुकाव तथा उसमे नई रचनात्मकता के लिए लगातार उधेड़बुन.
प्रकाशनः देश की कई पत्र पत्रिकाओं और ब्लोग्स में सतत प्रकाशन. खुद के ब्लॉग “दस्तकार” का पिछले २ सालों से सफलतापूर्वक संचालन
पता : बी – ७१ , त्रिवेणी , शेख सराय – १, नई दिल्ली , ११० ०१७
ईमेल :mail@bharttiwari.com
दूरभाष : 011-26012386
अपने बारे में : माँ मेरी हिन्दी की अध्यापिका थीं और उनका साहित्य से लगाव काफी प्रभाव डाल गया बचपन से ही अमृता प्रीतम , महादेवी वर्मा , कबीर और साथ ही जगजीत सिंह के गायन ने निदा फाज़ली, ग़ालिब की ओर मोड़ा शायद वहीँ से चिंतन की उत्पत्ति हुई जो अब मेरे लेखन का रूप लेती है
बेड साइड बुक्स :गुनाहों का देवता , निदा फाज़ली संग्रह, इलुजंस, द एल्कमिस्ट, ग़ालिब, गुलज़ार और भी हैं, लंबी लिस्ट है

(एक)

क्या वजह होगी

जो सन्नाटा

बन गया था जीवन

क्यों टूटा !



(दो)

तुम्हारी वो आवाज़

आज भी सुनाई देती है

जब कभी

हमारे तुम्हारे बीच का सन्नाटा बोलता है



(तीन)

तुम्हारी आँखें बोलती हैं

आखों का बंद मौन

सारे सन्नाटे को चुप कर देता है

और दिल एक जरिया बस

आवाज़ वैय्कुम में सफर नहीं करती



(चार)

मेरी एक चुप

हमारी सारी बातों को समेट गयी

तुम पूछ लेते

ये सन्नाटा ना होता तब



(पांच)

ये लड़ाई का सन्नाटा

अजीब होता है

बोलता है जैसे शोर

कर नहीं पाता दूर सन्नाटे को लेकिन

अपनी मौत को खुद तलाशता

गुम होने के लिए



(छह)

वैसे तुम कभी बोले नहीं

मैंने हमेशा सुना , फिर भी

कहीं इसी को प्यार की भाषा नहीं कहते

एक बार शायद कुछ कहा था तुमने

वो मैं सुनना नहीं चाहता था

उसे शायद प्यार की भाषा नहीं कहते होंगे

उसके बाद ही तो पैदा हुआ था

हमारा सन्नाटा

अब तक फैला है



(सात)

बंद कमरे की हवा

गीला लिहाफ तकिये का

इंतज़ार है

दरवाजे के खुलने का

शायद ताज़ी हवा उड़ा ले जाये

इस सीले सन्नाटे को

***

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मैं नीर भरी दुःख की बदली!

२६ मार्च महादेवी वर्मा के जन्म दिवस पर विशेष

आधुनिक युग की मीरा कहलाने वाली तथा हिंदी की सशक्त कवयित्रियों व छायावाद के प्रमुख चार स्तंभों में से एक महादेवी वर्मा ने, संख्या की दृष्टि से, सबसे कम कविताएँ लिखी हैं। किन्तु, इनकी कविताओं की गुणवत्ता ने विदेशी साहित्यालोचकों तक का ध्यान आकृष्ट किया है। इटली की हिन्दी विदुषी फ्रांचेस्का ओर्सिना (Francesca Orsini)ने महादेवी को एक 'Reticent Autibiographer' करार देते हुए महादेवी के व्यक्तिव के तीन पहलुओं पर प्रकाश डाला है। महादेवी के व्यक्तित्व का एक पहलू है,जो उनकी कविताओं में 'कवि-कल्पित व्यक्तित्व' (Poetic Presona)के रूप में व्यक्त हुआ है। दूसरा पहलू उनके 'विचारक व्यक्तित्व' का है, जो उनके चिन्तन-प्रधान साहित्यक निबंधों में व्यक्त हुआ है और तीसरा पहलू है, उनके करुणापूर्ण एवं सहानुभूति-स्नात व्यक्तित्व का, जो वाणी, लेखनी और कर्म से वंचितों के प्रति तथा नरेतर जगत के प्रणियों के प्रति ममतापूर्वक सक्रिय था।
वेदना और करुणा महादेवी वर्मा के गीतों की मुख्य प्रवृत्ति रही। असीम दु:ख के भाव में से ही महादेवी वर्मा के गीतों का उदय और अन्त दोनों होता है। आज उन्ही को याद करते हुए, उनको सच्ची श्रद्धांजलि देते हुए उन्ही की प्रसिद्द तीन कविताएँ आपके समक्ष प्रस्तुत है....

कौन तुम मेरे हृदय में

कौन मेरी कसक में नित
मधुरता भरता अलिक्षत?
कौन प्यासे लोचनों में
घुमड़ घिर झरता अपिरिचत?

स्वणर् स्वप्नों का चितेरा
नींद के सूने निलय में!
कौन तुम मेरे हृदय में?

अनुसरण निश्वास मेरे
कर रहे किसका निरन्तर?

चूमने पदिचन्ह किसके
लौटते यह श्वास फिर फिर ?

कौन बन्दी कर मुझे अब
बँध गया अपनी विजय मे?
कौन तुम मेरे हृदय में?

एक करुण अभाव चिर -
तृप्ति का संसार संचित,
एक लघु क्षण दे रहा
निवार्ण के वरदान शत-शत;
पा लिया मैंने किसे इस
वेदना के मधुर बय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

गूंजता उर में न जाने
दर के संगीतू-सा क्या!
आज खो निज को मुझे
खोया मिला विपरीत-सा क्या!
क्या नहा आई विरह-निशि
मिलन-मधिदन के उदय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

तिमिर-पारावार में
आलोक-प्रतिमा है अकिम्पत;
आज ज्वाला से बरसता
क्यों मधुर घनसार सुरिभत?
सुन रही हँ एकू ही
झंकार जीवन में, प्रलय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

मूक सुख-दख कर रहे
मेरा नया श्रृंगार-सा क्या?
झूम गिवर्त स्वर्ग देता -
नत धरा को प्यार-सा क्या?

आज पुलिकत सष्टि क्या
करने चली अभिसार लय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
***

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम-सा घुल रे, मृदु-तन!
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु गल-गल
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

तारे शीतल कोमल नूतन
माँग रहे तुझसे ज्वाला कण;
विश्व-शलभ सिर धुन कहता मैं
हाय, न जल पाया तुझमें मिल!
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह-हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर का उर जलता;
विद्युत ले घिरता है बादल!
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल!

द्रुम के अंग हरित कोमलतम
ज्वाला को करते हृदयंगम
वसुधा के जड़ अन्तर में भी
बन्दी है तापों की हलचल;
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!

मेरे निस्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर।
मैं अंचल की ओट किये हूँ!
अपनी मृदु पलकों से चंचल
सहज-सहज मेरे दीपक जल!

सीमा ही लघुता का बन्धन
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन
मैं दृग के अक्षय कोषों से-
तुझमें भरती हूँ आँसू-जल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!

तुम असीम तेरा प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरन्तर,
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा
अमिट चित्र अंकित करता चल,
सरल-सरल मेरे दीपक जल!

तू जल-जल जितना होता क्षय;
यह समीप आता छलनामय;
मधुर मिलन में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल!
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
***

मैं नीर भरी दुःख की बदली

मैं नीर भरी दुःख की बदली
मैं नीर भरी दुःख की बदली !
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनो में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झनी मचली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वांसों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

मैं क्षितिज भृकुटी पर घिर धूमिल,
चिंता का भर बनी अविरल,
रज कण पर जल कण हो बरसी,
नव जीवन अंकुर बन निकली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

पथ न मलिन करते आना
पद चिन्ह न दे जाते आना
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !

विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमटी कल थी मिट आज चली !
मैं नीर भरी दुःख की बदली !
**********

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अमित कल्ला की कविताएँ

संक्षिप्त परिचय:
नाम : अमित कल्ला
जन्म : o7 फरवरी, 1980, जयपुर, राजस्थान
शिक्षा : एम.ए. (आर्ट्स ऎंड एस्थेटिक्स), जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
कला के इतिहास का अध्यन, राष्ट्रीय संग्रहालय संस्थान, नई दिल्ली
अभिरुचि : कला और साहित्य
देश के विभिन्न शहरों में एकल और सामूहिक चित्र प्रदर्शनियो में भागीदारी
प्राचीन भारतीय कला, संस्कृति और साहित्य के अनन्य पक्षों की मर्मज्ञता
प्रकाशित पुस्तक : होने न होने से परे (कविता-संग्रह)
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित
सम्प्रति : जयपुर स्थित स्वतंत्र चित्रकार
संपर्क : 43, जोशी कालोनी ,टोंक फाटक
जयपुर -302015

मेरी ही सुगंध बन

तत्त्वत:
अर्थ लिए
असमाधेय
मूरत
एक-एक
शब्द
सार्थक करती है
सच कहूँ तो
रोक लेती
मुझे
मेरी ही सुगंध बन
किसी तितली सी
नयी पाँखों पर
जा-जाकर
तार-तार
उस असंभव
उडान के
रंग गिनती है
***

चिड़िया

कहकर
कुछ शब्द
कमल की पंखुरिओं से
झरते
समय को
कथा सी
ले उडी

नहीं
संभलता
उससे
समय
अब तो सिर्फ
निशाना लगाती है
चिडिया
शाख दर शाख
हरा जोबन चढाती है
***

मनहट कौन साधता,

आखिर
किस पर है
भरोसा,
अधरस्ते में छूट जाते
कुछ नये,
कुछ पुराने,
कुछ ओस में नहाये,
कुछ प्रार्थनाओं,
कुछ प्रतिघातों में,
कुछ पास,
कुछ दूर,
कुछ दुबके दुबके
अंतर्मन में,

कहाँ है
अजरावर अनजानी काया,
अखंड लय विन्यास ,
सूर्यरथ ,
रंगमहल के राजा
कौन
रहता राखता
किसके शब्द
कहे सुने जाते
कौन
खीच लाता उस दृग तक
कौन
कागज़ के दीप जलाता
मनहट कौन साधता,
आवारा बादल
या
अथाह आलिंगन
***

जोगन का जोबन

चुराकर
जोगन का जोबन
रंग डाला
सुनहरा रंग
खुद ने
ओढ़ी है
काली कमली
अब क्या कहूँ
उससे,
आते ही
कमंडल में
हो जाता
जो
गंगाजल
***

कहाँ

कहाँ
विभाजित क्षितिज
कहाँ
विवर्जित माया
कहाँ
नैना सुरत सयानी
कहाँ
अगम निगम का खेला
कहाँ

बिसर मुक्तिफल जाता
कहाँ
रेखाओ कई महानिद्रा
कहाँ
रंग संग बसेरा
कहाँ
भर-भर कंचन वर्षा
कहाँ
पानी को पानी से धोना
कहाँ
छाव को छाव से अलग करना
कहाँ
आख़िर एसा मेला ।
***

मायावी हूँ

मायावी हूँ
नही थकता
वंचित भी नही रहता
ज्योत्सना के साथ
खोज लेता
इन्द्र से अवक्रीत
स्वप्न

आख़िर क्या रिश्ता
बे ख़बर
नगर-नयन का,
किसी
कथा सा
गोल-गोल
संयोग के पार
केवल ए़क नज़ारा ही
काफी होता है

घटाकाश का प्रखर वेग
अन्तःपुर की व्यकुलता दर्शाता ,
कहाँ
फर्क पड़ता मुझे

अनवरत
बरसती आग में
शाही स्नान कर
फ़िर नई काया धरता हू
***

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होली की उमंग-आखर कलश के संग

आखर कलश परिवार की तरफ से होली की हार्दिक शुभकामनाएँ







रंग दे चुनर कान्हा जी भर के ....रश्मि प्रभा


होली आई होली आई
रंग दे चुनर कान्हा जी भर के
प्यार के रंग से कान्हा प्यार के रंग से
होली आई होली आई....

बरस बीता के अब होली आई
मन में उगे हैं आम के बौर
महके है आँगन
खनके है चूड़ी
चेहरे पे प्यार की लाली है छाई
कान्हा ले ले सारे रंग
प्यार के रंग कान्हा प्यार के रंग
होली आई होली आई
रंग दे चुनर कान्हा जी भरके ....

कोरी चुनर मेरी देखे है रस्ता
देर न कर कान्हा रंग दे मुझे
ढलके चुनर मोरी
बोले है धड़कन
रंग दे मुझे कान्हा अपने रंग में
अपने रंग में
अपने रंग में
होली आई होली आई
रंग दे चुनर कान्हा जी भर के ....
***
-रश्मि प्रभा
होली आई रंग लाई .. डॉ. कविता किरण

होली आई रंग लाई मोरे रंग रसिया
रंग रसिया मोरे मन बसिया।
तू भी आजा परदेसी
आ बाँच मेरे मन की पतिया।

होली आई रंग लाई...........।


रूत ये रंगीली मोसे करत ठिठोरी
सूनी गई दीवाली तेरी सूनी गई होरी
बिरज में चहुँ दिस उडत गुलाल है
कोरी काहे रही बरसाने की छोरी
सूने-सूने दिन मोरे
सूनी-सूनी मोरी रतिया।

होली आई रंग लाई............।


भर पिचकारी मारे सखियाँ साँवरिया
बावरी-सी पिया-पिया रटूँ मैं गुजरिया
देह से लिपट जाए गीली जो चुनरिया
बज उठे भीग-भीगे तन की बाँसुरिया
सागर से मिलने को व्याकुल
हो जाए प्यासी नदिया।

होली आई रंग लाई.............।

कह दे ये कोई मोरे सजना से जाय के
सब कुछ खोना चाहूँ इक तुझे पाय के
अपलक राह तक थके ये नयनवा
छिप गये कहाँ पिया सुरति दिखाय के
ऐसे तडप बिन तेरे
जैसे बिन पानी की मछिया

होली आई रंग लाई.............।
***
- डॉ. कविता किरण

फागुन रंगीले की सवारी- राजेन्द्र स्वर्णकार

बसंत बहार राग गा'तो- गा'तो आयो फाग
फागुन रंगीले की सवारी चली आई है !
क्या जवान ,बच्चे बूढ़े …सब पे ही टोना कियो
आवत ही धूम घर घर में मचाई है !
ज़बरन् छेड़ छाड़ , हुलियो दियो बिगाड़ ,
भोरी - भोरी गोरिन से ख़ास ही लड़ाई है !
केश बिखरावै , उर पट सरकावै ,
मुख चूम सहलावै , दैया , ग़ज़ब ढिठाई है !
***
- राजेन्द्र स्वर्णकार
अपर्णा मनोज भटनागर की नज़र से होली
१.


आओ देखो तो
आज जो तारीख काटी है
एक बहुत पुरानी होली की है
तुम्हारे हाथ भरे हैं
गुलाबी अबीर से
मुझे गुलाबी पसंद है
तुम्हें नीला ..
शायद ये कलेंडर मैं फाड़ना भूल गई थी ..
काफी कुछ बचा रहा इस तरह तुम्हारे -मेरे बीच
एक बार फिर चाहूँ
इस बचे को उलटो-पलटो तुम


२.
जाओ , देखो तो
क्या रख आई हूँ तुम्हारी स्टडी -टेबल पर
हल्दी की छींटवाला , एक खत चोरी-भरा

पढ़ लेना समय से
खुली रहती है खिड़की कमरे की
धूप , हवा , चिड़िया से

कहीं उड़ न जाएँ
हल्दी की छींट...ताज़ी .

आज तुम ही आना किचिन में
कॉफ़ी का मग लेने ..
हम्म ..
कई दिनों बाद उबाले हैं ढेर टेसू केसरिया
तुम्हें पुरानी फाग याद है न ..
मैं कुछ भूल -सी गई हूँ ..
कई दिनों से कुछ गुनगुनाया ही नहीं
साफ़ करती रही शीशे घर के .
***
- अपर्णा मनोज भटनागर
इन्टरनेट पर होली- संगीता सेठी

इन्टरनेट पर कर दी रंगों की बौछार
ई.मेल से भेज दिया पीला लाल गुलाल

पीला लाल गुलाल ऑरकुट पर भी भेजा
देख इंटरनेटी होली बीवी का मुँह सूजा

बीवी का मुँह सूजा किया फेस बुक अपडेट
लैपटॉप पर करते रहे हम दोस्तों से चैट

दोस्तों से चैट में हम इतना डूबे
कब आ गये पीछे से मेरे दोस्त अजूबे

मेरे दोस्त अजूबे रंगे होली के रंगों से
पहचाने नहीं गए क़ि शक्ले भूतों जैसे

शक्ले भूतों जैसे क़ि हम तो पैठ जमाएँ
आओ तुमको चैट की दुनिया दिखलाएँ

नहीं देखनी आज हमको दुनिया चैट की
हमको तो खानी गुझिया भाभी के हाथ की

नहीं बनी है गुझिया भाभी बोली झट से
इस बार तुम मंगवा गुझिया इंटरनेट से
***
-संगीता सेठी
शायमल सुमन की फगुनाहट

१. दिल में है

फागुन आया, तुम न आये, यादों की कहानी दिल में है
जो जख्म मिले थे बिछुड़न के, उसकी भी निशानी दिल में है

इक तड़प मिलन की ले करके जब जब आता ऋतुराज यहाँ
जीने की भी है मजबूरी पर प्यास पुरानी दिल में है

सुख-दुख, मिलन-जुदाई तो आते रहते यह सुना बहुत
सहरा-सा जीवन है फिर भी लोगों की जुबानी दिल में है

जब प्रियतम पास नहीं होते फागुन का रंग लगे फीका
आँगन के खालीपन में भी जीने की रवानी दिल में है

कोयल की मीठी कूक यहाँ, इक हूक जगा देती अक्सर
खुशबू संग सुमन मिले निश्चित वो घड़ी सुहानी दिल में है


२. फगुनाहट

देखो फिर से वसंती हवा आ गयी।
तान कोयल की कानों में यूँ छा गयी।
कामिनी मिल खोजेंगे रंगीनियाँ।।

इस कदर डूबी क्यों बाहरी रंग में।
रंग फागुन का गहरा पिया संग मे।
हो छटा फागुनी और घटा जुल्फ की,
है मिलन की तड़प मेरे अंग अंग में।
दामिनी कुछ कर देंगे नादानियाँ।।
कामिनी मिल खोजेंगे रंगीनियाँ।।

बन गया हूँ मैं चातक तेरी चाह में।
चुन लूँ काँटे पड़े जो तेरी राह में।
दूर हो तन भले मन तेरे पास है,
मन है व्याकुल मेरा तेरी परवाह में।
भामिनी हम न देंगे कुर्बानियाँ।।
कामिनी मिल खोजेंगे रंगीनियाँ।।

मैं भ्रमर बन सुमन पे मचलता रहा।
तेरी बाँहों में गिर गिर संभलता रहा।
बिना प्रीतम के फागुन का क्या मोल है,
मेरा मन भी प्रतिपल बदलता रहा।
मानिनी हम फिर लिखेंगे कहानियाँ।

३. होलियाए दोहे

होली तो अब सामने खेलेंगे सब रंग।
मँहगाई ऐसी बढ़ी फीका हुआ उमंग।।

पैसा निकले हाथ से ज्यों मुट्ठी से रेत।
रंग दिखे ना आस की सूखे हैं सब खेत।।

एक रंग आतंक का दूजा भ्रष्टाचार।
सभी सुरक्षा संग ले चलती है सरकार।।

मौसम और इन्सान का बदला खूब स्वभाव।
है वसंत पतझड़ भरा आदम हृदय न भाव।।

बना मीडिया आजकल बहुत बड़ा व्यापार।
खबरों के कम रंग हैं विज्ञापन भरमार।।

रंग सुमन का उड़ गया देख देश का हाल।
जनता सब कंगाल है नेता मालामाल।।

४. तस्वीर

अगर तू बूँद स्वाती की, तो मैं इक सीप बन जाऊँ
कहीं बन जाओ तुम बाती, तो मैं इक दीप बन जाऊँ
अंधेरे और नफरत को मिटाता प्रेम का दीपक
बनो तुम प्रेम की पाती, तो मैं इक गीत बन जाऊँ

तेरी आँखों में गर कोई, मेरी तस्वीर बन जाये
मेरी कविता भी जीने की, नयी तदबीर बन जाये
बडी मुश्किल से पाता है कोई दुनियाँ में अपनापन
बना लो तुम अगर अपना, मेरी तकदीर बन जाये

भला बेचैन क्यों होता, जो तेरे पास आता हूँ
कभी डरता हूँ मन ही मन, कभी विश्वास पाता हूँ
नहीं है होंठ के वश में जो भाषा नैन की बोले
नैन बोले जो नैना से, तरन्नुम खास गाता हूँ

कई लोगों को देखा है, जो छुपकर के गजल गाते
बहुत हैं लोग दुनियाँ में, जो गिरकर के संभल जाते
इसी सावन में अपना घर जला है क्या कहूँ यारो
नहीं रोता हूँ फिर भी आँख से, आँसू निकल आते

है प्रेमी का मिलन मुश्किल, भला कैसी रवायत है
मुझे बस याद रख लेना, यही क्या कम इनायत है
भ्रमर को कौन रोकेगा सुमन के पास जाने से
नजर से देख भर लूँ फिर, नहीं कोई शिकायत है

५. प्रेमगीत

मिलन में नैन सजल होते हैं, विरह में जलती आग।
प्रियतम! प्रेम है दीपक राग।।

आए पतंगा बिना बुलाए कैसे दीप के पास।
चिंता क्या परिणाम की उसको पिया मिलन की आस।
जिद है मिलकर मिट जाने की यह कैसा अनुराग।
प्रियतम! प्रेम है दीपक राग।।

मीठे स्वर का मोल तभी तक संग बजते हों साज।
वीणा की वाणी होती क्या तबले में आवाज।
सुर सजते जब चोट हो तन पे और ह्रदय पर दाग।
प्रियतम! प्रेम है दीपक राग।।

चाँद को देखे रोज चकोरी क्या बुझती है प्यास।
कमल खिले निकले जब सूरज होते अस्त उदास।
हँसे कुमुदिनी चंदा के संग रोये सुमन का बाग़।

६. मिलन

मिलन हुआ था जो कल सपन में, क्या तुमने देखा जो मैंने देखा
तेरे सामने दफन हुआ दिल, क्या तुमने देखा जो मैंने देखा

लटों को मुख से झटक रही हो, हवा के संग जो मटक रही है
हँसी से बिजली छिटक रही है, क्या तुमने देखा जो मैंने देखा

फ़लक को देखा पलक उठा के, तुम्हारी सूरत की वो झलक है
झुकी नजर की छुपी चमक को, क्या तुमने देखा जो मैंने देखा

निहारता हूँ मैं खुद को जब भी, तेरा ही चेहरा उभर के आता
ये आइने की खुली बग़ावत, क्या तुमने देखा जो मैंने देखा

मिलकर सागर में मिट जाना, सारी नदियों की चाहत है
मिलन सुमन का तड़प भ्रमर की, क्या तुमने देखा जो मैंने देखा
***
-श्यामल सुमन
होली: कुछ दोहे- नवनीत पांडे

इन्द्र्धनुष के सात रंग, इक मन में रच जाए
धमाल होए चंग संग, जब फ़ाल्गुन-होली आए

होली मेरी, होली है, जो तू रंग में आए
तू रंगी जिस रंग में, मेरो मन रंग जाए

होली खेलें आप से, खेलें मन के फ़ाग
रंग रचाएं हेत के, छेड़ें प्रीत के राग

सांस मेरी अबीर हो, मन रंग हो जाए
या विध होली खेलें हम, देखत सब रह जाए

होली खेलें प्रेम से, प्रेम रंग बरसाय
मन के सारे वैर भाव, होली ज्यूं जल जाय


होली: एक क्षणिका

होली तो हो ली
रंग था, मैं था
तुमने ना
खिड़की खोली
***
- नवनीत पांडे
होली- सुनील गज्जाणी की नज़र से

१.
संदेशा
होली आगमन का
वे दरख्त
अपने पत्तों को
स्वयम् से जुदा कर
हर बार देते हैं।

२.
नंग-धडंग
हो जाते वे दरख्त
नागाबाबा साधू की मानिन्द
मानो, तप कर रहे हैं।
या
होलिका का ध्यान भंग
मैं बचपन से
सुनता आया हूं
पढता रहा हूं
कि होलिका शत्रु
प्रह्लाद की भक्ति और
जनता का अश्लील कटाक्ष रहे
शायद
इसी परम्परा को निभाते दरख्त
या
बाहें फैलाए रंग-उत्सव का
स्वागत करते

३.
रंग
तीनों गुणों से परे कितना
रंग
मन से मेल नहीं
चरित्र से मेल नहीं
तभी
निखरता है।

४.
भीगा रोम-रोम
बरसी कुछ
नयन बून्दों से

हुए नयन रक्तिम
मुख गुलाल वर्ण
श्याम नयन
जल में डूबे
ये भी कैसी होली है।
भीग रही
पिया याद में
उड-उड आती
अबीर-गुलाल
ज्यूं-ज्यूं मेरा
तन छुए
हंसी-ठिठोली
मसखरी बातें
त्यूं-त्यूं उनकी
याद दिलाए
नयन बांध
है लबालब

भीतर मन रहा सुलग
तन गीला बाहर
भीतर मन सूखा
मचा दुडदंग हर ओर
छैल-छबीला माहौल
गूँजे होली है, होली है
की आवाजें
पर डूबा तन-मन
श्याम वर्ण में
पडा फीका मुख का वर्ण
अधरों में दिखे
पडी बिवाईयाँ
सूखा मन
गीला हो के भी तन
ये भी कैसी होली है।
***
-सुनील गज्जाणी
प्रवेश सोनी की फागुनी उमंग

तुझ बिन केसी मेरी होली
केसे थामू आँचल
बैरी उड़ उड़ जावे
मादक पवन के मस्त झकोरे
नीले ,पीले रंग उडावे

उर उमंग फागुनी ,
मन बोराया ,तन शरमाया ..
यादों की मनुहारो ने ,
पल पल तुझे बुलाया ....

परदेशी तुझ बिन केसी मेरी होली
सतरंगी रंगों ने मेरा तन झुलसाया ...
लाल ,हरा ,न पीला ,जाफरानी
मोहे तेरी प्रीत का ही रंग भाया ....

मधुर –मधुर मधुप की गुंजन
सुन- सुन मन विषाद समाया ....
नंदन ,कानन ,उपवन –उपवन
टेसू चंपा से गरनाया...

मुझ बिरहन को भाये न कुछ
लागे ,सबने मोहे चिढाया ...

प्रीत –प्रीत में भीगे हमजोली ,
सखी लिपट कर करे ठिठोली
बेरन अंखियों ने सपनों का नीर बहाया ...

तुझ बिन साजन ना
मन कोई त्यौहार मनावे ,
तू संग हो तो
हर दिन मेरा होली हो जावे ....
***
- प्रवेश सोनी
भरत तिवाड़ी का रंगीन अल्हड़पन

अबकी होली में घर भी जाना है
जाना है उसको घर जो लाना है

गली के मोड़ पे ठहर ही जाऊँगा
रंग कैसे भी हो उसको लगाना है

उसकी आदत है छुपने की पुरानी
अबकी आदत को बदलने जाना है

उसके रंगों का चोर बन जाऊँगा
उसमें खुद को जो रंग जाना है

अबकी राधा खेलेंगी होली ‘भरत’
किशना को धरा पे ले के आना है
**
- भरत तिवारी

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डॉ. प्रभा मुजुमदार की कविताएँ

संक्षिप्त परिचय
नाम: डॉ. प्रभा मुजुमदार
जन्म तिथि: 10.04.57, इन्दौर (म.प्र.)
शिक्षा: एम.एससी. पीएच.डी.(गणित)
सम्प्रति: तेल एवम प्राकृतिक गैस आयोग के आगार अध्ययन केन्द्र अहमदाबाद मे कार्यरत
प्रथम काव्य संग्रह: ‘अपने अपने आकाश’ अगस्त 2003 मे प्रकाशित. ‘तलाशती हूँ जमीन’ दूसरा काव्य संग्रह: 2009 मे.
विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं ‘वागर्थ’, ‘प्रगतिशील वसुधा’, ‘नवनीत’, ‘कथाक्रम’, ‘आकंठ’, ‘उन्नयन’, ‘संवेद वाराणसी’, ‘देशज’, ‘समकालीन जनमत’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘अहमदाबाद आकार’, ‘देशज’, ‘पाठ’, ‘लोकगंगा’, ‘समरलोक’, ‘समय माजरा’ अभिव्यक्ति अक्षरा उदभावना आदि में प्रकाशित.
नेट पत्रिकाओं ‘कृत्या’, ‘सृजनगाथा’, ‘साहित्यकुंज’ मे प्रकाशन
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण.
सम्पर्क: डॉ. प्रभा मुजुमदार, ए-3,अनमोल टावर्स, नारानपुरा, अहमदाबाद-380063.


आत्मकार


पीली पुरानी डायरी के
कटे-फटे पन्नों पर
इधर-उधर लिखी
फैली बिखरी पंक्तियों को देख कर
मैने अपने को जाना है
सम्पूर्ण रूप में.
एक यात्रा
जो जन्म के साथ ही
आरम्भ हुई थी
और कितने पडावों से
गुजरने के बाद
निर्धारित पल पर
यहाँ रुकी है..
अनिश्चय की पगडंडियों पर
मुडने से पहले
मै इस पल को जी तो लूँ.


अनुत्तरित

हर प्रश्न
एक तलाश में बदल गया
और तलाश
अंततः भटकन में.
अन्धेरे में टटोलने के सिवाय
कुछ भी नही किया
तमाम उम्र.
प्रश्न .......
अब भी वहीं खडे हैं
अन्धेरे और गहरे होते हुए
जीने की जिजीविषा
अब भी वैसी ही.
आँख मिचौली का यह खेल
यूँ ही चलता रहेगा
जिन्दगी की शर्तों के बावजूद.


पहचान

मै अपने वृत से निष्कासित
एक बिन्दु हूँ.
एक अलग थलग तारिका
अपनी निहारिका से दूर.
सदियों पहले
गुरुत्वाकर्षण के दबाव का
निषेध किया था मैने.
आज तक इसी अपराध की
मै कीमत चुका रही हूँ.
प्रकाश और ऊर्जा से
समय के नियत अंतराल से
जीवन और गति से
वंचित कर दी गई हूँ.
अपनी ही शर्तों पर
अपने हालात पर
छोडी हुई मै
इतने विराट अंतरिक्ष में
परिचय ढूंढ रही हूँ.


बिन्दु से परिधि तक

बदलते सन्दर्भों के साथ
अलग अलग आकार लेते हुए
परछाई की तरह
घटते बढते सम्बन्ध....
इन्द्र धनुष के
अलग अलग रंगों के साथ
मौसम की तरह
बदलते सम्बन्ध....
बिन्दु से परिधि तक
आकार और विस्तार
पाते सम्बन्ध
जिन्दगी के हर मोड पर
कुछ लेते भी हैं
कुछ देते भी हैं.


पलायन

सपना आखिर सपना ही तो है
कुछ पल बहलाने के बाद
टूट जाने के लिये
नीन्द एक भुलावा
जीते रहने के लिये.
कल्पनाओं की गलियों में
हर अन्धी उडान ने
अंततः दर दर भटकाया है
कठोर चट्टानों और मरुस्थलों में.
फिर भी थकी नही है आँखें.
आँसूओं के सूखते ही
फिर कोई नया सपना देखती है
मोह भंग के बाद
फिर कोई भ्रम जाल
आकार ले लेता है
.अपनी ही ओढी खामोशी को चीरते हुए
नये स्वर गूंजने लगते है
और इस अन्धे चक्र में
मै स्वेच्छा से शामिल हो जाती हूँ.


आहट

शायद सबेरा होगा
फिर उजाला भी होगा
एक संघर्ष
जो अपने आप में चल रहा है
आखिर खत्म तो होगा.
यंत्रों की मायावी दुनिया
कितनी भी क्रूर हो
उलझन भरे प्रश्नों से तो
बचा ले जाती है
जो मुझे अकेला पाकर
निःशब्द घेर लेते हैं.
यह शोर और भगदड ही बेहतर है
जिनमे उलझी मै पूरी तरह.
हांलाकि मील का पत्थर
मंजिल नही होता
पर क्लांत पथिक को
कुछ देर विश्रांति तो देता है.
दूर कहीं रोशनी की किरणे दिखती है
अब अन्धेरे का डर नही लगता
बस थोडा इंतजार है.


विश्लेषण

पर्त दर पर्त
अपने को उधडते हुए
अपने से ही अजनबी हो जाती हूँ
धुंआ और घुटन ...
सांस गले में अटक जाती है.
मै छटपटाती हूँ
तिलमिलाती हूँ
न स्वीकार न ही नकार पाती हूँ.


निर्वासन के बाद

हमारे आपसी सम्बन्धों के बीज को
मिट्टी हवा और पानी में
उपजाने की बजाय
हमने बान्ध कर रख दिया
चहार दीवारी के भीतर
रस्मों और विधानों का
मजबूत ताला जकड दिया.
खुली जमीन
खुले आसमान का खौंफ
गिरफ्त से कुछ
छूट जाने का सन्देह
विचलित करता रहा.
एक दूसरे से अनजान
सम्वेदनहीन और असम्पृक्त
उम्र की लम्बी राह
यूँ ही चलते रहेसाथ साथ

        -प्रभा मुजुमदार

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कवि- कैलाश गौतम के दो गीत

               कैलाश गौतम
   (०८-०१-१९४४ से ०९ दिसम्बर २००६)

काव्य प्रेमियों के मानस को अपनी कलम और वाणी से झकझोरने वाले जादुई कवि का नाम है 'कैलाश गौतम'। जनवादी सोच और ग्राम्य संस्कृति का संवाहक यह कवि दुर्भाग्य से अब हमारे बीच नहीं है। आकाशवाणी इलाहाबाद से सेवानिवृत्त होने के बाद तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने कैलाश गौतम को आजादी के पूर्व स्थापित हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर मनोनीत किया। एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए इस महान कवि का ९ दिसम्बर २००६ को निधन हो गया। कैलाश गौतम को अपने जीवनकाल में पाठकों और श्रोताओं से जो प्रशंसा या खयाति मिली वह दशकों बाद किसी विरले कवि को नसीब होती है। कैलाश गौतम जिस गरिमा के साथ हिन्दी कवि सम्मेलनों का संचालन करते थे उसी गरिमा के साथ कागज पर अपनी कलम को धार देते थे। ८ जनवरी १९४४ को बनारस के डिग्घी गांव (अब चन्दौली) में जन्मे इस कवि ने अपना कर्मक्षेत्र चुना प्रयाग को। इसलिए कैलाश गौतम के स्वभाव में काशी और प्रयाग दोनों के संस्कार रचे-बसे थे। जोड़ा ताल, सिर पर आग, तीन चौथाई आन्हर, कविता लौट पड ी, बिना कान का आदमी (प्रकाशनाधीन) आदि प्रमुख काव्य कृतियां हैं जो कैलाश गौतम को कालजयी बनाती हैं। जै-जै सियाराम, और 'तम्बुओं का शहर' जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास अप्रकाशित रह गये। 'परिवार सम्मान', प्रतिष्ठित ऋतुराज सम्मान और मरणोपरान्त तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने कैलाश गौतम को 'यश भारती सम्मान' (राशि ५.०० लाख रुपये) से इस कवि को सम्मानित किया। अमौसा क मेला, कचहरी और गांव गया था गांव से भागा कैलाश गौतम की सर्वाधिक लोकप्रिय रचनाएं हैं। आज कैलाश गौतम  के दो गीत हम अपने अन्तर्राष्ट्रीय / राष्ट्रीय पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं.

हम विशेष आभारी हैं श्री जय कृष्ण राय तुषार जी के जिनकी बदौलत स्व. श्री कैलाश गौतम जी के गीत पढ़ने और प्रकाशित करने का अवसर प्राप्त हुआ. उनको आखर कलश संपादक मंडल और समस्त सुधि पाठकों की तरफ से हार्दिक आभार प्रेषित करते हैं.


(1) फूला है गलियारे

फूला है गलियारे का
कचनार पिया
तुम हो जैसे
सात समन्दर पार पिया |

हरे- भरे रंगों का मौसम
भूल गये
खुले -खुले अंगों का मौसम
भूल गये
भूल गये क्या
फागुन के दिन चार पिया |

जलते जंगल कि हिरनी
प्यास हमारी
ओझल झरने की कलकल
याद तुम्हारी
कहाँ लगी है आग
कहाँ है धार पिया |

दुनियां
भूली है अबीर में
रोली में
हरे पेड़ की
खैर नहीं है
होली में
सहन नहीं होती
शब्दों की मार पिया |
***

(2)बिना तुम्हारे

बिना तुम्हारे सूना लगता
फागुन कसम गुलाल की
हंसकर देने लगी चुनौती
हवा गुलाबी ताल की |

सरसों का आंचल लहराया
पानी चढा टिकोरों में
महुआ जैसे सांप लोटता
रस से भरे कटोरों में
नींद नहीं आँखों में कोई
बदली है बंगाल की |

देह टूटती ,गीत टूटता
छंद टूटते फागुन में
बैरी हुए हमारे
बाजूबंद टूटते फागुन में
रोज दिनों दिन छोटी होती
अंगिया पिछले साल की |

जाने कैसे -कैसे सपने
देखा करती रातों में
आग लगी आंचल में जैसे
दरपन टूटा हाथों में
डर है कोई सौत न छीने
बिंदिया मेरे भाल की |
***

कवि -कैलाश गौतम [जोड़ा ताल गीत संग्रह ]

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नीलेश माथुर की लघु कविताएँ

संक्षिप्त परिचय
नाम- नीलेश माथुर
पिता का नाम- श्री शंकर लाल माथुर
माता का नाम- वीणा माथुर
जन्म स्थान- बीकानेर
आप फिलहाल गुवाहाटी में रहकर व्यापार कर रहे हैं साथ ही आपकी रचनाएं यहाँ की स्‍तरीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होती रहती है!
पता- नीलेश माथुर,
देवमती भवन,
ए.के.आजाद रोड, रेहाबारी,
गुवाहाटी-८


(1) मेरा जूता

मेरे पैर का अंगूठा
अक्सर मेरे
फटे हुए जूते में से
मुह निकाल कर झांकता है
और कहता है...
कम से कम अब तो
रहम करो
इस जूते पर और मुझ पर
जब भी कोई पत्थर देखता हूँ
तो सहम उठता हूँ ,
इतने भी बेरहम मत बनो
किसी से कर्ज ले कर ही
नया जूता तो खरीद लो !

(२) मेरी कमीज

मेरी कमीज
जिसकी जेब
अक्सर खाली रहती है
और मेरी कंगाली पर
हंसती है,
मैं रोज सुबह
उसे पहनता हूँ
रात को पीट पीट कर
धोता हूँ
और निचोड़कर सुखा देता हूँ
शायद उसे
हंसने की सजा देता हूँ !

(3)मेरी पतलून

मेरी पतलून
जो कई जगह से फट चुकी है
उसकी उम्र भी
कब की खत्म हो चुकी है,
फिर भी वो बेचारी
दम तोड़ते हुए भी
मेरी नग्नता को
यथासंभव ढक लेती है,

परन्तु फिर भी
मैं
नयी पतलून खरीदने को आतुर हूँ !

(4) मेरा ट्रांजिस्टर

आज फिर से
मेरा ट्रांजिस्टर
याचना सी कर रहा है मुझसे
अपनी मरम्मत के लिए,

एक समय था
जब बहुत ही सुरीली तान में
वो बजता था
और मैं भी
उसके साथ गुनगुनाता था,

पर आज
मरघट सा सन्नाटा है
मेरे घर में
बिना ट्रांजिस्टर के !

(5) मेरा फूलदान

मेरे घर का फूलदान
जिसे मैंने
नकली फूलों से सजाया है,

अक्सर मुझे
तिरछी नज़रों से देखता है,

मानो कह रहा हो....
कि तुम भी
इन्ही फूलों जैसे हो
जो ना तो खुश्बू देते है
और ना ही
जिनकी जड़ें होती है !

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दो ग़ज़लें- राजेश चड्ढा

संक्षिप्त परिचय
नाम- राजेश चड्ढा
पिता- स्व. श्री ओमप्रकाश चड्ढा। माता- श्रीमती सरला देवी।
जन्म- 18 जनवरी, 1963 को हनुमानगढ़ में।
शिक्षा- एम.कॉम. एमजेएमसी।
लोकप्रिय उद्घोषक व शायर। सन 1990 से नियमितरक्तदान । अध्यक्ष , सिटिज़न एकलव्य आश्रम । पंजाबी, हिन्दी व राजस्थानी
तीनों भाषाओं में कार्यक्रमों की प्रस्तुति में विशेष महारत। पंजाबी कार्यक्रम 'मिट्टी दी खुश्बू' पड़ोसी देशों में भी बेहद लोकप्रिय। इस
कार्यक्रम पर कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से लघुशोध भी हुआ। प्रथम नियुक्ति सितंबर 1986 में उदयपुर आकाशवाणी में हुई। जनवरी 1991 से
सूरतगढ़ आकाशवाणी में सेवारत। इस दौरान देश की नामचीन हस्तियों, पूर्व राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरमन, मशहूर शायर निदा फाजली, जन कवि गोपाल दास 'नीरज' , अर्जुन पुरस्कार विजेता तथा विश्व कप बैडमिंटन चैंपियन प्रकाश पादुकोण तथा सुप्रसिद्ध कॉमेंटेटर मुरली मनोहर मंजुल से रेडियो के लिए साक्षात्कार।

1980 से निरंतर सृजनरत । उन्हीं दिनों से हनुमानगढ़ की साहित्यिक गतिविधियों के संयोजन में प्रमुख भूमिका । अखिल भारतीय साहित्य-विविधा 'मरुधरा' के चार सम्पादकों में से एक। इस विविधा का लोकार्पण मशहूर साहित्यकार अमृता प्रीतम ने किया। उल्लेखनीय है कि आपकी
कहानियां हिन्दी की नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं तथा कहानी लेखन के क्षेत्र में भी आप पुरस्कृत हो चुके हैं। वर्तमान में आकाशवाणी
सूरतगढ़ (राजस्थान) में वरिष्ठ उद्घोषक।


1- बेवक़्त चेहरा झुर्रियों से भरने लगी है ग़रीबी तूं


बेवक़्त चेहरा झुर्रियों से भरने लगी है ग़रीबी तूं
है पौध नाम फ़सल में, धरने लगी है ग़रीबी तूं ।

तू पेट के आईनें में शक़्ल कुचलती है कई दफ़ा
परछाई पर भी ज़ुल्म , करने लगी है गरीबी तूं ।

चाँद को भी आकाश में, रोटी समझ के तकती है
अब रूख़ी-सूख़ी चाँदनी, निगलने लगी है गरीबी तूं ।

प्यास लगे तो आंसू हैं, ये दरिया तेरा ज़रिया है
अपने पेट की आग़ में, जलने लगी है गरीबी तूं ।

ख़ामोश है और ख़ौफ़ से सहमी हुई सी लगती है
शायद तन्हा लम्हा-लम्हा, मरने लगी है ग़रीबी तूं
***


2- मत मांग गरीब रात से, तू गोरे चांद सी रोटी


मत मांग गरीब रात से, तू गोरे चांद सी रोटी ,
तोड़ देगी भूख़ तेरी, ये लोहारी हाथ सी रोटी ।

नहीं करेगा कोई तमन्ना, पूरी ख़ाली पेट की,
अरे नहीं मिलेगी तुझे कभी, सौग़ात सी रोटी।

सोचता है मिलेगी, औरत जैसी कठपुतली सी,
अरे ! पीस देगी बेदर्द ये मर्द ज़ात सी रोटी ।

तेरा जीवन कब तेरा है, मरना तेरा अपना है,
बात-बात में सब देंगे, बस कोरी बात सी रोटी

हवा ओढ़ ले ढ़ांचे पर, सो जा ये मिट्टी तेरी है,
शायद नींद में ही मिल जाए, ख़्वाब सी रोटी ।
***
-राजेश चड्ढा

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पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र" की ग़ज़लें

परिचय
नाम: पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
जन्म :3 मार्च 1956 बिजनौर :उ०प्र०
पिता :स्व कस्तूरी लाल जी अब्बी
माता :स्व कृष्णा जी अब्बी
भू्तपूर्व : चेयरमैन कंसैन्ट कैमिकल्स (रजि०) बिजनौर उ०प्र०
भू्तपूर्व : मैनेजिगं डारेक्टर जय भारत गुडस ट्रांसपोर्ट क०
1538-39 एस.पी.मुखर्जी मार्ग निकट नावलटी सिनीमा दिल्ली-6
विधा : ग़ज़ल ,दोहा ,रूबाई!
लगभग बयालिस(42)बह्रों में ग़ज़लें कहने की महारत हासिल !
ग़ज़ल यात्रा-२ संग्रह में पांच ग़ज़लें प्रकाशित !
काव्य गंगा त्रैमासिक पत्रिका में ग़ज़लें प्रकाशित
काव्य गंगा त्रैमासिक पत्रिका में सह संम्पादक !
पत्र-पत्रिकाओं में अनेको बार रचनाएं प्रकाशित
महकते उजाले हिन्दी-उर्दू काव्य संग्रह में पांच ग़ज़लें प्रकाशित !
अक्षरम संगोष्ठी त्रैमासिक पत्रिका में अनेको बार ग़ज़लें प्रकाशित !
नजीबाबाद साहित्य एकड्मी द्वारा समान्नित !
आकाशवाणी नजीबाबाद से अनेको बार रचनाएं प्रसारित !
ग़ज़ल और उसका व्याकरण संग्रह में, परिचय व चंद शेर तथा एक रचना प्रकाशित !
एकडमी ओफ़ फ़ाइन आर्ट एण्ड लिट्रेचर (सार्क) दिल्ली मंन्च से ग़ज़लों का पाठन !
पंजाबी भवन दिल्ली (आई .टी .ओ) द्वारा अदबी शाम में पंजाबी की ग़ज़लों का पाठन !
मंचो से काव्या पाठ तथा अनेको बार कवि गोष्ठियों में शिरक्त करने का सौभाग्य प्राप्त !
दोहा :समय की शिला पर, दोहा संग्रह में दोहे प्रकाशित !
ब्रम्हाशक्ति आर-१८ बुद्ध विहार दिल्ली द्वारा सम्मानित अभिनन्दन !
दिल्ली दूरदर्शन उर्दू चैनल से ग़ालिब अपार्टमेन्ट द्वारा प्रोग्राम प्रसारित में शिरक्त करना !
गत चार वर्षों हल्का-ए-तशनगाने-अदब संस्था द्वारा संचालित हर महा गोष्ठियों में शिरक्त करना !
ग़ालिब एकड्मी निजामुद्दीन दिल्ली द्रारा प्रोग्राम प्रसारित में शिरक्त करना !
अशोक विहार राम लीला कमेटी के लीला अध्यक्ष श्री कुलदीप राज जोशी द्वारा
राम लीला मंच से कवि अभिन्नदन !
अखण्ड हिन्दु मोर्चा दिल्ली द्वारा शहीद भगत सिहं के जन्म दिवस पर कवि सम्मानित अभिनन्दन !
सफ़र जारी है, सावनियर में हल्का-ए-तशनगाने-अदब द्वारा 6 ग़ज़लें प्रकाशित !
भारत-एशियाई साहित्य अकादमी में ग़ज़लें प्रकाशित !
(आज़र) यह खिताब हल्का-ए-तशनगाने-अदब दिल्ली द्वारा चार सौ वीं अदबी
शाम सफ़र जारी है, सावनियर के इजरा के समय प्रदान किया गया !
प्रकाशन हेतु : दो उर्दू-हिन्दी की ग़ज़लों के संग्रह (दीवान- ए -आज़र)एक पंजाबी की ग़ज़लों का संग्रह !
प्रकाशन हेतु : कविता संग्रह: (आओ बच्चो कदम बढ़ायें)
प्रकाशन हेतु : ज्ञानवर्धक पहेलियां (नाम बताओ इसका क्या)
अन्य उपलब्धियां :-
जिला बिजनौर लायंस कल्ब द्वारा आयोजित (ornamental plants ) की प्रदर्शनी में
अलग-अलग किस्म के पौधों के लिए नौ (9) -प्रथम पुरस्कार विजेता !
श्री राम रिसर्च इन्सिट्यूट दिल्ली द्वारा (स्काई फ़ोम) नामक अति उत्त्तम लिक्विड डिटर्जेंट
शोध O C H 2 C H 2 , O H conforms to Is : 4956 -1977 हेतु दिनाक 23 -12- 1992 को परमाणित किया गया !
(योग साधना) के माध्यम से जीवन कला (Art of living) का ज्ञान अवगत करवाने में दक्षता हासिल !
ग़ज़ल व दोहा की विधा का ज्ञान अवगत करवाने में दक्षता हासिल !
दिनाक: 27-28 जनवरी 2011 को मैनेजमेंट एजुकेशन एण्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट- 53-54 ,इंस्टीट्यूशनल एरिया जनकपुरी नई दिल्ली में
आई.पी,यूनिवर्सिटी दिल्ली द्वारा कल्चरल प्रोग्राम आयोजित करवाया गया तथा इसके अंतर्गत आने वाले लगभग आठ कॉलिजों
ने भाग लिया ! कल्चरल प्रोग्राम हेतु आई.पी,यूनिवर्सिटी द्वारा माननीय जज नियुक्त किए जाने का गौरव हासिल !

ग़ज़ल एक

समझेगा कौन हमको इतना जरा बता दो
किस बात पे हैरां हो इतना ज़रा बता दो

देखा है जब से तुमको दिल तुम पे आ गया है
जाएं तो किस जहां को इतना ज़रा बता दो

हमसे ख़फ़ा न होंगे वादा किया था तुमने
ख़ामोश क्यूं हुए हो इतना ज़रा बता दो

कहना है जितना आसां मुश्किल है क्य़ूं निभाना
हम पूछते हैं तुमको इतना ज़रा बता दो

ख़ामोश हैं निगाहें गुमसुम सी क्यूं तुम्हारी
"आज़र" ज़रा सा ठहरो, इतना ज़रा बता दो
                       ***

ग़ज़ल दो

ज़रा सा पास आओ तो , नज़र को भी नज़र आए
है कितनी रात यह काली, कहीं बिजली चमक जाए

मुहब्बत है अगर सच्ची, तो उसको नाम क्या देना
जिधर भी सांस लोगे तुम, हवा ख़ुशबू सी महकाए

लिखेगें नाम अपना हम, समुंदर की यूं लहरो पे
न आँधी ही, तूफाँ कोई, न बारिश ही मिटा पाए

किसी शायर के अच्छे शेर पे, जब दाद मिलती है
कली सिमटी हुई जैसे, चमन में फ़ूल बन जाए

मना लेंगे तुम्हे"आज़र",ख़फ़ा किस बात से हो तुम
सुना है जब तलक है जाँ, न होते हैं जुदा साए
                       ***

ग़ज़ल तीन

फ़ुर्सत के पल निकाल कर, मिलता ही कौन है
अपनो में अपना दोस्तों, अपना ही कौन है

अरसा गुज़र गया , हमे ख़ुद से मिले हुए
इक हमख़याल आज-कल, मिलता ही कौन है

दिन भर रहे वो साथ यह कोशिश तमाम की
सूरज के जैसा ,शाम तक ,ढलता ही कौन है

नंगे बदन को ढांप दे ,ग़ुरबत की जात को
चादर भी इस मिज़ाज़ से , बुनता ही कौन है

जो भी मिला है हमसफ़र, राहों में रह गया
धूमिल पथों पे साथ अब ,चलता ही कौन है
                       ***

ग़ज़ल चार

मेरा ज़नूने-शौक है, या हद है प्यार की
तेरे बिना सूनी लगे , रौनक बहार की

आते नही हैं वो कभी, महफ़िल में वक़्त से
आदत सी हमको पड़ गई है इंतज़ार की

सूरज ढला, तो आसमाँ की ,रुत बदल गई
पक्षी कहानी लिख गए,अपनी कतार की

माना कि शोभा रखता है,कैक्टस का फ़ूल भी
लेकिन चुभन, महसूस की है, मैने ख़ार की

कुछ भी कहूं या चुप रहूं आफ़त में जान है
रस्सी भी "आज़र"बट चुकी गर्देन पे दार की
                        ***
-पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"                     

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