ग़ज़लः १
घर की चौखट पार करने की घड़ी थी आ गयी
फैसले के बीच में बापू की पगड़ी आ गयी
प्यार उनका स्वार्थ मेरा दोनों ही थे सामने
बीच में दोनों के उनकी ख़ैरख़्वाही आ गयी
प्यार और कर्त्तव्य में बटवारा जब होने लगा
सामने तब अम्मा के चेहरे की झुर्री आ गयी
ओट में जिसके थी मैं बारिश से बचने के लिए
बनके मेरी मौत वो दीवार गीली आ गयी
बेज़मीरी के जो नक़्श- ए- पा थे मेरे सामने
कुछ विवशता उनपे चलने की मेरी भी आ गयी
झुक गया क्यों अक्ल और ईमान का पलड़ा वहाँ
सामने मुफ़लिस के जब भी भूख तगड़ी आ गयी
ज़िन्दगी की आपाधापी में झुलसते दिन रहे
ख़्वाबों को महकाने लेकिन रातरानी आ गयी
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ग़ज़लः २
मिलके बहतीं है यहाँ गंगो- जमन
हामिए -अम्नो-अमाँ मेरा वतन
वो चमन देता नहीं अपनी महक
एक भी गद्दार जिसमें हो सुमन
अब तो बंदूकें खिलौना बन गईं
हो गया वीरान बचपन का चमन
दहशतें रक्साँ है रोज़ो-शब यहाँ
कब सुकूँ पाएंगे मेरे हमवतन
जान देते जो तिरंगे के लिये
उन शहीदों का तिरंगा है कफ़न
देश की ख़ातिर जो हो जाएं शहीद
ऐसे जाँ-बाज़ों को 'देवी' का नमन
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ग़ज़लः ३
इस देश से ग़रीबी हट कर न हट सकेगी
मज़बूत उसकी जड़ है, हिल कर न वो हिलेगी
धनवान और भी कुछ धनवान हो रहा है
मुफ़लिस की ज़िंदगानी, ग़ुरबत में ही कटेगी
चारों तरफ़ से शोले नफ़रत के उठ रहे हैं
इस आग में यक़ीनन, इन्सानियत जलेगी
नारों का देश है ये, इक शोर- सा मचा है
फ़रियाद जो भी होगी, वो अनसुनी रहेगी
सावन का लेना देना 'देवी' नहीं हैं इससे
सहरा की प्यास हैं ये, बुझकर न बुझ सकेगी
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-देवी नागरानी
संक्षिप्त परिचय- देवी नागरानी
जन्म- 11 मई 1949 को कराची में
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ: ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)
प्रकाशन- प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।
"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।