Archive for 8/1/10 - 9/1/10

डॉ. विजय कुमार सुखवानी की चार गज़लें

रचनाकार परिचय
नाम- डॉ. विजय कुमार सुखवानी
जन्म तिथि- ०१ अक्टूबर १९६९
जन्म स्थान- ग्वालियर म.प्र.
शिक्षा- आई आई टी मुम्बई से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी
भाषा ज्ञान- हिंदी अंग्रेजी उर्दू सिंधी
सम्प्रति- रीडर मैकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग शासकीय इंजीनियरिंग कालेज उज्जैन म.प्र.
रचना कार्य– प्रमुख पत्र पत्रिकाओं व सभी महत्वपूर्ण वेब पत्रिकाओं में रचनाओं का निरंतर प्रकाशन
एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशाधीन
रुचियाँ- हिंदी सिनेमा में गहरी रूचि विशेषकर हिंदी फिल्मी गीतों का गहन अध्यन
ईमेल- v_sukhwani@rediffmail.com
मोबाइल- 9424878696

१.
किस के दिल में क्या है सब जानती है
औरत हर निगाह का मतलब जानती है


कुछ राज इंसां छुपा लेता है सुबह से
हर राज इंसां का मगर शब जानती है


वक्त आने पर हर एक पर आती है
मौत न कौम न मजहब जानती है


आज कल बच्चे मुझसे कुछ नहीं मांगते
मेरी हैसियत को उनकी तलब जानती है


कुछ हुनर हर एक को हासिल नहीं होते
मां ही बच्चे के रोने का सबब जानती है


इतना तो दिया है मेरे उसूलों ने मुझे
कि ये दुनिया मुझे बाअदब जानती है
***
२.
बुरे जायेंगे और भले जायेंगे
इक रोज सब चले जायेंगे


न मिलेगी निजात फक्रेजहां से
न जंदगी से मसअले जायेंगे


जिस जिस के मुंह में जुबां है
सुना है सबके गले जायेंगे


जरा हाथ बढा कर तो देखो
पल में मिट फासले जायेंगे


न होंगे गर मयखाने तो कहां
सारे शहर के दिलजले जायेंगे


इंसां या परिंदे कितना भी उड
घर जरूर दिन ढले जायेंगे
***
३.
गर इंसां की इतनी ख्वाहिशें नहीं होतीं
इस दुनिया में इतनी साजिशें नहीं होतीं


उनके नसीब में कभी मंजिलें नहीं होतीं
जिन की फतरत में कोशिशें नहीं होतीं


कुछ सबक सिर्फ जिंदगी से मिलते हैं
किताबों में सारी समझाइशें नहीं होतीं


हर करनी का वहां देना होगा हिसाब
दरबार में उसके सिफारिशें नहीं होतीं


गर न चाहो तुम तो धूप नहीं निकलती
गर न चाहो तुम तो बारिशें नहीं होतीं


खूबसूरत ग़ज़लें और दिलकश नग्में
अब इन चीजों की फरमाइशें नहीं होतीं
***
 ४.
इस तरह से इबादत-ए-खुदा करता हूं
मैं दुश्मन के वास्ते भी दुआ करता हूं


हर रोज़ मुझे पुराना करती ह जिंदगी
हर रोज़ मैं जिंदगी को नया करता हूं


मेरे गुनाहों की सजा मुझे मिले तो कैसे
मैं ही मुज़रिम मैं ही फैसला करता हूं


जब जब मुकम्मल होती है कोई सजा मेरी
मैं हर बार कोई नई खता करता हूं


आज कल मिलते हैं हम कुछ इस तरह से
वो रस्म अदा करते हैं मैं फर्ज अदा करता हूं


इतनी मोहब्बत से बुला रही है मौत मुझे
जा जिंदगी आज मैं तुझे रिहा करता हूं
***


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शाहिद मिर्ज़ा शाहिद की ग़ज़ल

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
अजब वफ़ा के उसूलों से ये ”वफ़ाएं” हैं
तेरी जफ़ाएं, ”अदाएं”, मेरी ”ख़ताएं” हैं

महकती जाती ये जज़्बात से फ़िज़ाएं हैं
कोई कहीं मेरे अश’आर गुनगुनाएं हैं

वो दादी-नानी के किस्सों की गुम सदाएं हैं
परी कथाएं भी अब तो ”परी कथाएं” हैं

ज़ेहन में कैसा ये जंगल उगा लिया लोगो
जिधर भी देखिए, बस हर तरफ़ अनाएं हैं

बिगडते रिश्तों को तुम भी संभाल सकते थे
मैं मानता हूं मेरी भी कई ख़ताएं है

मेरे ख़्यालों में करती हैं रक़्स ये शाहिद
तुम्हारी याद की जितनी भी अप्सराएं हैं

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लोकेन्द्र सिंह कोट की पाँच कविताएँ

लेखक का संक्षिप्त परिचयः
जन्मः १८/०२/१९७२, बडनगर (उज्जैन), मध्यप्रदेश
शिक्षाः विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से एम. एससी. (सांख्यिकी), एम. ए. (अर्थशास्त्र) तथा सागर विश्वविद्यालय, सागर से बेचलर ऑफ जर्नलिज्म एण्ड कम्यूनिकेशन (बी.जे.सी.)।

(विस्तृत परिचय के लिए पेज के अंत में 'आगे पढ़ें' विकल्प को क्लिक करें)



प्रत्युत्तर में

किसी बात पर
बहुत गुस्सा आया
जमाने पर, अपने पर,
अपनों पर
पास खडे पेड पर
उतारा गुस्सा
पहले पहल तो लात जमाई,
मुक्का मारा
खूब चिल्ला-चिल्लाकर अपशब्द कहे
पेड को.........।
पेड खडा रहा
सुनता, सहता रहा
हवा का एक तेज झौंका आया
और ढेरों फल टपका दिए
पेड ने
प्रत्युत्तर में.........।
***
खुशी

नीलामी हुई खुशी की
लगी बोली।
हर किसी को चाहिये थी
खुशियाँ
खरीदने वालों का तांता लगा था
आगे-पीछे के चक्कर में
हाथापाई भी हुई
गाली-गलौच भी।
घर-गौदाम भर लिए
खुशियों के
कहीं चोरी न हो जाए
इसलिए पहरेदार लगाए गए
चिंता में रातें गुजार दी
कुल मिलाकर वक्त के साथ
खुशियाँ दर्द बन कर रह गयीं।
जो बेघर, बेगौदाम थे
जो खुशियाँ नहीं खरीद पाए थे
वे खुश थे
क्योंकि उन्हौने
खुशियों को खरीदने का
साहस नहीं किया था।
***
ऋण

पतझड में गिरे पत्ते
जहाँ तक संभव हो
अपने मातृ पेड
के निकट ही बने रहते हैं।
यदि हवा, आंधी उन्हे उडाती भी है
तो वे खूब शोर मचाते हैं
कुछ उड भी जाते हैं
पर बहुत से वहीं रह जाते हैं।
बरसात आने पर वे
सहर्ष मिट्टी में मिल कर
उर्वरा बन जाते हैं अपने
मातृ पेड के लिए
और सारे ऋण चुका देते हैं....
उन्हे याद रहता है
अपने पालकों के प्रति कर्तव्य।
***
विश्वास

दाना चुगाते मेरे हाथ
और दाना चुगते पंछी
चुगते-चुगते कब वे
निकट आ जाते
पता भी नहीं
चलता है।
मेरे प्रति
उनमे जन्म लेते
विश्वास को
मैं देख रहा ह,
महसूस कर रहा ह।
जो हम इंसानों के बीच से
असहजता से गायब हो रहा है
उसे मैं सहजता से पा रहा ह।


नहीं, यह सिर्फ मकान नहीं है।
घर है, मेरा घर, मेरे अम्मा-बाबा का घर।
उनकी उम्मीदों का उनके स्वप्नों का घर
दो कमरे, एक चौका और एक चौखंडी......बस।
वे हमेशा चाहते थे छोटे से छोटा घर
ताकि घर के लोग रह सकें एक दूसरे के अधिकतम निकट
प्रत्येक सुन सके,
एक दूसरे के स्पंदन, धडकन, महसूस कर सके दर्द।
ये सीलन से भरी हुई दीवारें नहीं है
ये हमारे अम्मा-बाबा का पसीना है
इसी घर में जमा है .....खुशबू के मानिंद।
और ये कमरा.......छोटा सा
यहीं चारो धाम हैं।
जहाँ हमने संस्कार पाए,
बाबा हमें यहीं पढाते थे.......
यहीं हमने अपने पंखों का इस्तेमाल करना सीखा..........उडना सीखा।
......अरे........ चौखंडी तो देखिये
यहाँ तो ठंड की कुनमुनाती धूप में हम नहाते थे...
....अम्मा निहलाती थी रगड-रगड कर........
तन और मन दोनों साफ कर देती थी।
सुनों! अब मैं तो फिर से यहीं रहगा।
मैं रहना चाहता ह अपने
परिवार के अधिकतम निकट........।
***
बेकार सोचने वाला कहते हैं

मेरे शहरी और बोन्साई घर
के आगे लगे पेड पर
बैठे चहचहाते पंछी
मुझे बिलखते प्रतीत होते हैं
उनमे मुझे ’होम सिकनेस‘ से त्रस्त
होने का आभास होता है।
एक अजीव खालीपन और
शून्य महसूस करते ये पंछी
मुझे कैदी जैसे लगते हैं।
दूसरी ओर यह सब बातें कहने पर
शहर में लोग मुझे
ज्यादा और बेकार बातों पर
सोचने वाला कहते हैं......।
*******

कार्यवृतः
प्रेम भाटिया राष्ट्रीय फेलोशिप, नई दिल्ली (७५ हजार रूपए) एवं विकास संवाद फेलोशिप, मध्यप्रदेश (१लाख पंद्रह हजार रूपए) प्राप्त हो चुकी हैं।
राजभाषा प्रभाग, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा अर्थशास्त्र आधारित पुस्तक ''लघु उद्यमी बजट कैसे तैयार करें'' पर द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया है।
छत्तीसगढ पाठ्य पुस्तक निगम द्वारा कक्षा ११ एवं १२ की अर्थशास्त्र की पुस्तक लिखने का प्रस्ताव मिला है जिसे प्रस्तावक ने पूर्ण कर दिया है व प्रस्तुत पुस्तक २००८-०९ के सत्र से कक्षा ११ एवं १२ में लागू कर दी जावेगी।
भू संसाधन के संरक्षण एवं प्रबंधन के महत्व पर म.प्र. शासन द्वारा संचालित राजीव गांधी जलग्रहण क्षेत्र प्रबंधन मिशन द्वारा आयोजित राज्य स्तरीय लेख स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया तथा इसे शासन ने एक आधार (सुझाव) पुस्तक में प्रकाशित किया है।
केन्द्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) में ’रिसर्च एसोसिएट‘ की हैसियत से मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ राज्यों के विभिन्न जिलों में भ्रमण करते हुए कृषि में होने वाली दुर्घटनाऍं तथा उनका आर्थिक प्रभाव का सर्वेक्षण एवं स्थिति की गंभीरता का आंकलन किया है। इस शोध को कृषि अनुसंधान में सबसे प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय जर्नल 'अमेरिकन जर्नल ऑफ एग्रीकल्चरल सेप्टी एण्ड हेल्थ' ने प्रकाशित किया है।
संयुक्त सम्पादन में 'एक्सीडेंट्स इन इंडियन एग्रीकल्चर' (अंग्रेजी में) प्रकाशित हुई है।
सामाजिक एवं युवा विषयों पर आधारित पुस्तक 'छोटी सी आशा' का देश का एक प्रतिष्ठित प्रकाशन समूह 'उपकार प्रकाशन' (प्रतियोगिता दर्पण) प्रकाशित करने जा रहा है, जो संभवतः अगले माह तक बाजार में आ जावेगी।
उपरोक्त पुस्तक 'छोटी सी आशा' की पांडुलिपि को पचास वर्ष पुरानी संस्था कला मंदिर, भोपाल द्वारा राज्य स्तरीय 'पवैया पुरस्कार' से वर्ष २००४ में पुरस्कृत किया जा चुका है।
एक लघु शोध प्रबंध 'भारतीय अर्थव्यवस्था' (विशेषकर नई आर्थिक नीति के संदर्भ में) को न केवल रिकॉर्ड अंक प्राप्त हुए वरन् उसे विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा संदर्भ पुस्तको में रखा गया है।
राष्ट्रीय तकनीकी प्रशिक्षण एवं अनुसंधान संस्थान (टी.टी.टी.आई.) भोपाल द्वारा विभिन्न वोकेशनल कोर्स मटेरियलों के निर्माण हेतु विशेषज्ञ के रुप में मनोनयन किया गया तथा दो पुस्तकों का लेखन कार्य पूर्ण किया जा चुका है।
चार राज्य स्तरीय, चार राष्ट््रीय तथा छः अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में शोध पत्र वाचन एवं चार शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं।
कृषि विभाग मध्यप्रदेश के लिए तीन डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की स्क्रिप्ट लिख चुके हैं जिनमे से एक का विमोचन तत्कालीन मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती कर चुकी हैं और वे बहुत प्रशंषित की गई हैं।
भोपाल दूरदर्शन, मध्यप्रदेश द्वारा आयोजित राज्य स्तरीय साहित्यिक क्विज़ में द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है।
आकाशवाणी पर पर्यावरण व साहित्य पर वार्ताओं का प्रसारण किया जा चुका है।
कई बाल रंग शिविरों का आयोजन एवं नाटकों का निर्देशन किया गया है।
म. प्र. माध्यम द्वारा ’प्रदेश का प्रतिभाऍं‘ के तहत नामांकित किया गया है।
देश के विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में विभिन्न विषयों पर सौ के लगभग लेख, लघुकथाऍं, व्यंग्य, ललित निबंध, कविताऍं प्रकाशित हो चुकी है।
मानव संसाधन मंत्रालय, नई दिल्ली द्वारा संचालित वर्ल्ड बैंक तथा डी. एफ. आई. डी. द्वारा पोषित स्वशक्ति परियोजना में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हो चुका है।
अनुसूचित जाति विकास संचालनालय, म.प्र. शासन द्वारा आयोजित राज्य स्तरीय नुक्कड नाटक लेखन स्पर्धा में पुरस्कार प्राप्त किया तथा जिसे संचालनालय द्वारा पुस्तक स्वरुप में प्रकाशित किया गया है।
मध्यप्रदेश राज्य एड्स नियंत्रण समिति द्वारा आयोजित राज्य स्तरीय निबंध स्पर्धा में द्वितीय पुरस्कार प्राप्त हुआ है।
विनोद चौपडा प्रोडक्शन (विधु विनोद चौपडा) द्वारा '१९४२: ए लव स्टोरी' फिल्म की समीक्षा हेतु आयोजित राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में विशेष पुरस्कार मिल चुका है।
राजीव गांधी जलग्रहण प्रबंधन मिशन में ’परियोजना समन्वयक‘ की हैसियत से कार्य किया है।
स्कूल स्तर से ही अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्यों में सक्रीय भागीदारी दी है।
संप्रतिः स्वतंत्र पत्रकारिता।

संपर्क: लोकेन्द्रसिंह कोट २०८-ए, पंचवटी कॉलोनी, पार्क नं.-३, फेज-१, एयरपोर्ट रोड, भोपाल- ४६२००१ (मध्यप्रदेश)
मोबाईल- ०९४०६५४१९८०
ई-मेलः lokendrasinghkot@yahoo.com

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जया केतकी का आलेख- रक्षा बंधन सामाजिक समरसता का अटूट रिश्ता

रक्षाबंधन पर विशेष

जया केतकी
भाई-बहन के प्रगाढ स्नेह को दर्शाने वाला रक्षा-बंधन पर्व आज भी हमारे देश में धूम धाम से मनाया जाता है। रक्षाबंधन का शाब्दिक अर्थ है रक्षा बंधन अर्थात् परस्पर रक्षा हेतु बंधना, राखी बांधकर रक्षा की अपेक्षा की जाती है। पुरुष नारी की रक्षा करता है। यह हमारी भारतीय परम्परा है। इसीलिए बहनें अपने भाईयों को राखी बांधती हैं। यह राखी एक धागा न होकर प्रेम, विश्वास, आस्था तथा सुरक्षा का अभिवचन स्प्रेषित करता है। वस्तुतः इस धागे के पीछे छिपा है, नारी के सम्मान की रक्षा के लिए सर्वस्व समर्पण करने वाले वीर एवं सामर्थ्यवान पुरुषों का इतिहास।


आधुनिकता अपने पैर-पसारती जा रही है फिर भी हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को भूलेंगे नहीं। राखी का त्यौहार पूरे देश में हर जाति और धर्म के लोगों द्वारा मनाया जाता हैं। श्रावण मास की पूर्णिमा को यह पर्व मनाया जाता है। दिये की ज्योति को साक्षी मानकर बहनें अपने भाईयों को रक्षा सूत्र बांधती हैं तथा उनके दीर्घ और खुशहाल जीवन की कामना करती हैं। तभी भाई भी अपनी बहन की रक्षा का प्रण लेते हैं। व्यस्तता और महँगाई के भीषण दौर में पर्वों के साथ ही रिश्तों का मूल्य घटता जा रहा हैं राखी का त्यौहार उन बंधनों की याद दिलाता है जो पूर्णतः स्वच्छ और निःस्वार्थ हैं। बहनों को आशा है अपने भाईयों से प्रेम और स्नेह की। भाईयों को अपने कर्त्तव्य पालन में पीछे नहीं हटना चाहिए।


“येन बद्धो, बलि राजा दान विन्द्रो महाबलम।
तेन-त्वाम अनुबन्धामी, रक्षे मां चला मां चलम।।“


अर्थात मैं यह रक्षा सूत्र बांध रही हूं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार लक्ष्मी जी ने असुरराज बलि को बांधा था और अपनी रक्षा करने का वचन लिया था। इसी समय से रक्षा सूत्र बांधने का नियम बना जिसे आज भी बहन अपने भाई को कलाई पर बांधकर परंपरा को निर्वाहकर रही है। कथा इस प्रकार है कि प्रहलाद का पुत्र और हिरण्यकश्यप का पौत्र बलि महान पराक्रमी था। उसने सभी लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। इससे देवता घबरा गए और विष्णु जी की शरण में गएं विष्णु जी ने बटुक ब्राह्मण का रूप धारण किया और बलि के द्वार की ओर चले।


असुरराज बलि विष्णु जी के अनन्य भक्त थे तथा शुक्राचार्य के शिष्य थे। जब बटुक स्वरूप विष्णु वहाँ पहुँचे तो बलि एक अनुष्ठान कर रहे थे। जैसे कि हे ब्राह्मण मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। बटुक ने कहा मुझे तीन पग भूमि चाहिए।


महाराज बलि ने जल लेकर संकल्प किया और ‘तीन पग‘ भूमि देने को तैयार हो गए। तभी बटुक स्वरूप विष्णु अपने असली रूप में प्रकट हुए। उन्होंने दो पग में सारा ब्रह्माण्ड नाप लिया तथा तीसरा पग रखने के लिए कुछ स्थान न बचा। तभी बलि ने अपने सिर आगे कर दिया। इस प्रकार असुर को विष्णु जी ने जीत लिया और उस पर प्रसन्न हो गये। उसे पाताल में नागलोक भेज दिया। विष्णु जी बोले मैं तुम से प्रसन्न हूँ मांगों क्या मांगते हो?े तब बलि ने कहा कि जब तक मैं नागलोक में रहूंगा आप मेरे द्वारपाल रहें। विष्णु जी मान गए और उसके द्वारपाल बन गए। कुछ दिन बीते लक्ष्मी जी ने विष्णु जी को ढूंढना आरंभ किया तो ज्ञात हुआ कि प्रभु तो बलि के द्वारपाल बने हैं। उन्हें एक युक्ति सूझी।


श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन उन्होंने बलि की कलाई पर एक पवित्र धागा बांधकर उसे भाई बना लिया। बलि ने भी उन्हें बहन मानते हुए कहा कि बहन मैं सदैव तुम्हारे भाई के लिए काम करूंगा। इस पवित्र बंधन से बहुत प्रभावित हुआ और बोला मैं तुम्हें एक वरदान देना चाहता हूं बहन! मांगो? लक्ष्मी जी को अपना उद्देश्यपूर्ण करना था, उन्होंने बताया जो तुम्हारे द्वारपाल है, वे मेरे पति हैं, उन्हें अपने घर जाने की आज्ञा दो। लक्ष्मी जी ने यह कहा कि ये ही भगवान विष्णु हैं। बलि को जब यह पता चला तो उसने तुरन्त भगवान विष्णु को उनके निवास की और रवाना किया। तभी से इस ‘रक्षा-बंधन‘ की परंपरा को पवित्र पर्व के रूप में मनाते है। राखी के बारे में एक और कथा प्रचलित है। यह महाभारत के समय की है। पांडवों और कौरवों में पारिवारिक विरोधाभास के कारण संबंधों में कटुता आ गई थी। पांडवों को नीचा दिखाने के लिए कौरवों ने उन्हें जुआ खेलने के लिए बुलाया। जुए में जब पांडव सब कुछ हार गए तो दुष्ट दुशासन ने द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित करना चाहा। उससे द्रौपदी की साडी खींचना शुरू कर दिया तो द्रौपदी ने गुहार लगाई और श्री कृष्ण प्रकट हो गए। उन्होंने चीर बढाकर द्रौपदी की रक्षा की। तभी से उन्होंने कृष्ण को भाई मान लिया। इसी दौरान एक बार पांडवों और कौरवों की सभा चल रही थी। कृष्ण को इस सभा का मुख्य अतिथि बनाया गया था।
शिशुपाल की धृष्टता दिनों दिन बढती जा रही थी। वह जब-तब कृष्ण का अपमान करता रहता। वह कृष्ण का अपमान करता रहा। वह कृष्ण का मौसेरा भाई था, सो कृष्ण ने कहा कि तेरी ९९ गलतियाँ माप है जैसे ही तू, १०० वीं गलती करेगा मैं तुझे मार दूंगा। लेकिन उस दुष्ट की बुद्धि नष्ट हो गई थी। उसने भरी सभा में कृष्ण को ग्वाला और अहीर कहकर अपमानित किया। कृष्ण ने क्रोधित होकर चक्र से उसका गला काट दिया। चक्र के चलने से कृष्ण की ऊंगली घायल हो गई। द्रौपदी ने फौरन अपनी साडी चीरकर कृष्ण की ऊंगली बांध दी। इस प्रकार भाई-बहन के स्नेह की परंपरा को बाधे रखा। भारत का इतिहास उठाकर देखें तो राखी से संबंधित अनेक कथाएं और प्रसंग मिलेंगे। इसके अनुसार जब सिकन्दर और पौरूष में युद्ध ठनी तो सिकन्दर की पत्नि पुरू के पौरूष को देख व्यथित हो गई और उसने पुरू को अपना भाई बनाया। पुरू ने अपनी कलाई पर बंधी राखी का मान रखा और सिकन्दर की सुरक्षा का वचन दिया। मुस्लिम शासन के दौरान राजपूतों और रक्षाबंधन की एक कथा बडी प्रचलित है।
चित्तौड की महारानी कर्णवती ने मुगल सम्राट हुमायूं को राखी भेजकर अपनी सुरक्षा का वचन लिया था। समय के साथ राखी के द्वारा बांधे गये बंधन की पवित्रता केवल भाई-बहन के बीच ही नहीं रही। रक्षा सूत्र को एक सुरक्षा कवच माना जाने लगा। संबंधों की मिठास बनाए रखने और कटुता को मिटाने के लिए भी राखी के पवित्र धागे का प्रयोग किया गया। जब भारत में अंग्रेजी शासन को जड से मिटाने की तैयारी चल रही थी, देश के युवाओं और संगठनों ने ‘रक्षा-बंधन‘ को अनोखा स्वरूप दिया। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने इसे एक उत्सव का रूप दिया। उन्होंने संगठन के कार्यकर्ताओं को ‘रक्षाबंधन‘ के दिन रक्षा सूत्र बांधकर देश की सुरक्षा के लिए ‘संकल्पबद्ध किया। राखी का शाब्दिक महत्व बहुत छोटा है। किन्तु उसका आंतरिक महत्व बहुत गहरा है। यह पर्व आज भी हमारे देश में भाईचारे और सद्वावना की रक्षा के उद्देश्य को चरितार्थ कर रहा है। आज भी हम इसे पूरी निष्ठा और हर्षोल्लास से मनाते हैं।
***
-जया केतकी

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फ़ज़ल इमाम मल्लिक की दो कविताएँ

फ़ज़ल इमाम मल्लिक

नोट: बिहार के बाल्मिकी नगर (पश्चिम चंपारण) में वत्सल निधि लेखक शिविर में हिस्सा ले रहे लेखक-कवियों को अज्ञेज जी ने दस शब्द दिए और कविता लिखने को कहा था। उन्होंने कहा था कि इन शब्दों का इस्तेमाल कर कविता लिखी जाए। यह छूट ज़रूर थी कि इन शब्दों को जितनी बार चाहे इस्तेमाल किया जा सकता है, एक बार की अनिवार्यता तो उनकी शर्त ही थी। उन्होंने जो शब्द दिए थे, वे थे: भोजन, चाय, मोटर, पंडित, साढ़े तीन, फिरौती, हमारी, रास्ते और निर्जल।



कहानी

और अचानक कहानी सुनाते-सुनाते
ख़ामोश हो गई हैं बूढ़ी नानी !
और कहानी सुनता हुआ बच्चा
टुकुड़-टुकुड़ ताक रहा है नानी को
नानी को क्या हो गया है
सोचता है बच्चा !
परेशान होता है बच्चा !
क्यों नहीं सुनाती है नानी
उस देश की कहानी
जहां की प्रजा सुखी थे
और राजा-रानी मोहब्बतवाले

जहां हर ओर सुख-शांति थी
और आदमी
आदमी से प्यार करता था
जहां मंदिर-मस्जिदों के झगड़े नहीं थे
जहां होली में दाढ़ियाँ रंगी होती थीं
और ताज़िया में हिंदुओं के कंधे लगे होते थे

उस देश की कहानी
जहां कोई राक्षस नहीं था
कोई किसी के सपने
किसी की ख़ुशियां
नहीं चुराता था
उस देश की कहानी
जहां का राजा
प्रजा के हर सुख दुख में शामिल होता
हां! उस देश की कहानी

पर नानी चुप है
खो गया है उसके कहानियों वाला देश
खो गए हैं वे राजा, वे रानी, वे लोग
और खो गई है नानी की वह कहानी
नानी को पता है
बदल गए हैं राजा-रानी
बदल गया है देश
और तब से ख़ामोश है कहानी वाली बूढ़ी नानी
बूढ़ी नानी अब किसी को कहानी नहीं सुनाती

***

मुनिया 

चौंक उठता हूं
साढ़े तीन का गजर बजते ही
हां ! यही वह वक्Þत था
जब कुछ लोग आए थे मोटर में
और हमारी आंखों के सामने
उठा कर ले गए थे मुनिया को
न तो पंडित ने मंत्र पढ़े थे
न शहनाई बजी थी
न कन्यादान हुआ था
और न ही डोली उठी थी

सब कुछ इतना जल्दी हुआ कि
बस आवाक सा देखते रह गए थे हम
मुनिया को उस अंधेरे रास्ते पर जाते
जहां फिरौती जैसे शब्द भी
बेमानी से लगते हैं

अब जबकि सारे संज्ञा-विशेषण
मुनिया के साथ चले गए हैं
और जीवन एक निर्जल नदी सी बन गई है
क्योंकि जानता हूं मैं कि
समय पर चाय-भोजन देने वाली
मुनिया
उजाले में लौट कर
अब नहीं आएगी

*******


रचनाकार परिचय
नाम- फ़ज़ल इमाम मल्लिक
जन्म- 19 जून, 1964 को बिहार के शेखपुरा जिला के चेवारा में।
पिता/माता- जनाब हसन इमाम और माँ सईदा खातून।
शिक्षा- स्कूली शिक्षा श्री कृष्ण उच्च विद्यालय, चेवारा (शेखपुरा)। इंटर रांची युनिवसिर्टी के तहत रांची कालेज से । ग्रेजुएशन भागलपुर युनिवसिर्टी के रमाधीन कालेज (शेखपुरा)। व्यवसायिक शिक्षा पटना के आईआईबीएम से होटल प्रबंधन में पोस्ट ग्रेजुएशन।
लेखन- उर्दू और हिंदी में समान रूप से लेखन। लघुकथाएँ, कविता, कहानी, समीक्षा और सम-सामयिक लेखन। साहित्य-संस्कृति पर नियमित लेखन।
पत्रकारिता- लंबे समय से पत्रकारिता। 1981 से जनसत्ता में बतौर खेल पत्रकार करियर की शुरुआत। इससे पहले सेंटिनल (गुवाहाटी), अमृत वर्षा (पटना), दैनिक हदिुंस्तान (पटना) और उर्दू ब्लिट्ज (मुंबई) से जुड़ाव। बतौर खेल पत्रकार विश्व कप क्रिकेट, विश्व कप हाकी, एकदिवसीय व टैस्ट क्रिकेट मैचों, राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय फुटबाल मैचों, राष्ट्रीय टेनिस, एथलेट्किस वालीबाल, बास्केटबाल सहित दूसरे खेलों की रिपोर्टिंग।
इलेक्ट्रानिकमीडिया- एटीपी चैलेंजर टेनिस, राष्ट्रीय बास्केटबाल, कोलकाता फुटबाल लीग, राष्ट्रीय एथलेटिक्स का दूरदर्शन के नेशनल नेटवर्क पर लाइव कमेंटरी। कविताएँ-इंटरव्यू दूरदर्शन पर प्रसारित। आकाशवाणी के लिए लंबे समय तक सहायक प्रोड्यूसर (अंशकालिक) के तौर पर काम किया। कविताएँ-कहानियाँ कोलकाता व पटना, गुवाहाटी के आकाशवाणी केंद्र से प्रसारित।
प्रकाशन- लधुकथा संग्रह मुखौटों से परे और कविता संग्रह नवपल्लव का संपादन।
संपादन- साहित्यक पत्रिका श्रृंखला व सनद का संपादन।
सम्मान- साहित्य व पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए कवि रमण सम्मान, रणधीर वर्मा स्मृति सम्मान, सृजन सम्मान और रामोदित साहु सम्मान।
संप्रति- जनसत्ता में वरिष्ठ उपसंपादक।

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मकेश कुमार सिन्हा की कविता- वो बचपन !

रचनाकार परिचय:
नाम: मुकेश कुमार सिन्हा
जन्म स्थान : बेगुसराई (बिहार)
शैक्षणिक  योग्यता: स्नातक (विज्ञानं), PGD ग्रामीण विकास
जनम तिथि: ०४.०९.१९७१
मुकेश कुमार जी अपने बारे में कहते हैं कि "मैं मुकेश कुमार सिन्हा झारखंड के धार्मिक राजधानी यानि देवघर (बैद्यनाथ धाम) का रहने वाला हूँ! वैसे तो देवघर का नाम बहुतो ने सुना भी न होगा, पर यह शहर मेरे दिल मैं एक अजब से कसक पैदा करता है, ग्यारह ज्योतिर्लिंग और १०८ शक्ति पीठ में से एक है, पर मेरे लिए मेरा शहर मुझे अपने जवानी की याद दिलाता है, मुझे अपने कॉलेज की याद दिलाता है और कभी कभी मंदिर परिसर तथा शिव गंगा का तट याद दिलाता है.......तो कभी दोस्तों के संग की गयी मस्तियाँ याद दिलाता है.......काश वो शुकून इस मेट्रो यानि आदमियों के जंगल यानि दिल्ली मैं भी मिल पाता ....पर सब कुछ सोचने से नहीं मिलता......और जो मिला है उससे मैं खुश हूँ........ क्योंकि इस बड़े से शहर मैं मेरी दुनिया अब सिमट कर मेरी पत्नी और अपने दोनों शैतानों (यशु-रिशु)के इर्द-गिर्द रह गयी है.........और अपने इस दुनिया में ही अब मस्त हूँ.........खुश हूँ !" आज प्रस्तुत है मुकेश कुमार जी का एक और रूप उनकी कविता के रूप में......
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जाड़े की शाम
धुल धूसरित मैदान
बगल की खेत से
गेहूं के बालियों की सुगंध
और मेरे शरीर से निकलता दुर्गन्ध !
तीन दिनों से
मैंने नहीं किया था स्नान
ऐसा था बचपन महान !
.
दादी की लाड़
दादा का प्यार
माँ से जरुरत के लिए तकरार
पढाई के लिए पापा-चाचा की मार
खेलने के दौरान दोस्तों का झापड़
सर "जी" की छड़ी की बौछाड़
क्यूं नहीं भूल पाता वो बचपन!!
.
घर से स्कूल जाना
बस्ता संभालना
दूसरे हाथों से
निक्कर को ऊपर खींचे रहना
नाक कभी कभी रहती बहती
जैसे कहती, जाओ, मैं नहीं चुप रहती
फिर भी मैया कहती थी
मेरा राजा बेटा सबसे प्यारा ..
प्यारा था वो बचपन सलोना !
.
स्कूल का क्लास
मैडम के आने से पहले
मैं मस्ती में कर रह था अट्टहास
मैडम ने जैसे ही मुझसे कुछ पूछा
रुक गयी सांस
फिर भी उन दिनों की रुकी साँसें ,
देती हैं आज भी खुबसूरत अहसास !
वो बचपन!
.
स्कूल की छुट्टी के समय की घंटी की टन टन
बस्ते के साथ
दौड़ना , उछलना ...
याद है, कैसे कैसे चंचल छिछोड़े
हरकत करता था बाल मन
सबके मन में
एक खास जगह बनाने की आस लिए
दावं, पेंच खेलता था बचपन
हाय वो बचपन!
.
वो चंचल शरारतें
चंदामामा की लोरी
दूध की कटोरी
मिश्री की चोरी !
आज भी बहुत सुकून देता है
वो बचपन की यादें
वो यादगार बचपन!

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देवमणि पांडेय के दो गीत

परिचय : देवमणि पाण्डेय
4 जून 1958 को सुलतानपुर (उ.प्र.) में जन्मे देवमणि पांडेय हिन्दी और संस्कृत में प्रथम श्रेणी एम.ए. हैं । अखिल भारतीय स्तर पर लोकप्रिय कवि और मंच संचालक के रूप में सक्रिय हैं । अब तक दो काव्यसंग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- "दिल की बातें" और "खुशबू की लकीरें"। मुम्बई में एक केंद्रीय सरकारी कार्यालय में कार्यरत पांडेय जी ने फ़िल्म 'पिंजर', 'हासिल' और 'कहां हो तुम' के अलावा कुछ सीरियलों में भी गीत लिखे हैं । फ़िल्म ' पिंजर ' के गीत '' चरखा चलाती माँ '' को वर्ष 2003 के लिए 'बेस्ट लिरिक आफ दि इयर' पुरस्कार से सम्मानित किया गया । आपके द्वारा संपादित सांस्कृतिक निर्देशिका 'संस्कृति संगम' ने मुम्बई के रचनाकारों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई है।लोकप्रिय वेबसाइट kavitakosh.org में गीत-ग़ज़ल शामिल  हैं तथा radiosabrang.com के सुर संगीत में गीत-ग़ज़लों की ऑडियो प्रस्तुति उपलब्ध है ।
सम्पर्क : ए-2, हैदराबाद एस्टेट,नेपियन सी रोड,मालाबार हिल, मुम्बई - 400 036
M: 98210-82126 / R : 022-23632727,   devmanipandey@gmail.com
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(1)

सफ़र पे जो निकलते हैं किसे मुश्किल नहीं मिलती
मगर जो हार जाते हैं उन्हें मंज़िल नहीं मिलती
कहीं कुछ रोशनी है
यही तो ज़िंदगी है

चले जब वक़्त की आँधी घरौंदे टूट जाते हैं
जो रिश्ते हैं बहुत नाज़ुक वो पीछे छूट जाते हैं
निगाहों में नमी है

यही तो ज़िंदगी है


हो सहरा दूर तक लेकिन रहे कुछ आस तो बाक़ी

बरसते अश्क हों फिर भी रहे कुछ प्यास तो बाक़ी

दिलों में तिश्नगी है
यही तो ज़िंदगी है

सुहाने ख़्वाब तो अक्सर सभी पलकों पे खिलते हैं
जो चाहा था वही मंज़र कहाँ आखों को मिलतते हैं
कहीं कोई कमी है
यही तो ज़िंदगी है
***




(2)
इस दुनिया का रंग देखके सबने बदली
चाल मियां

तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है क्या
बतलाएं हाल मिया


देखके टीवी पर विज्ञापन

रुठ गई बिटिया बबली

चेहरा अपना चमकाने को

मांगे फेयर एन लवली


नया दौर मां - बाप की ख़ातिर है जी का
जंजाल मियां


फर्स्ट क्लास ग्रेजुएट है राजू

मगर नौकरी नहीं मिली

मजबूरी में पेट की ख़ातिर

बेच रहा है मूंगफली


कमोबेश सब पढ़े लिखों का इक जैसा
अहवाल मियां


जिसमें झांको उसी आंख में
तैर रहा दुख का बादल
फिर भी यूँ हँसते हैं नेता

जैसे हँसते हैं पागल


ऊपर से ये ख़ुश लगते हैं अंदर हैं
बेहाल मियां

***

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