श्री नन्दकिशोर आचार्य का जन्म 31 अगस्त, 1945 को बीकानेर में जन्मे अनेक विधाओं में सृजनशील श्री आचार्य को मीरा पुरस्कार, बिहारी पुरस्कार, भुवलेश्वर पुरस्कार, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी एवं भुवालका जनकल्याण ट्रस्ट द्वारा सम्मानित किया गया है। महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्री हिन्दी विश्वविद्याल, वर्धा के संस्कृति विद्यापीठ में अतिथि लेखक रहे हैं ।
अज्ञेय जी द्वारा सम्पादित चौथा सप्तक के कवि नन्दकिशोर आचार्य के जल है जहां, शब्द भूले हुए, वह एक समुद्र था, आती है जैसे मृत्यु, कविता में नहीं है जो, रेत राग तथा अन्य होते हुए काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं । रचना का सच, सर्जक का मन,अनुभव का भव, अज्ञेय की काव्य-तिर्तीर्ष, साहित्य का स्वभाव तथा साहित्य का अध्यात्म जैसी साहित्यालोचना की कृतियों के साथ-साथ आचार्य देहान्तर, पागलघर और गुलाम बादशाह जैस नाट्य-संग्रहों के लिये भी चर्चित रहे हैं । जापानी जेन कवि रियोकान के काव्यानुवाद सुनते हुए बारिश के अतिरिक्त आचार्य ने जोसेफ ब्रॉदस्की, ब्लादिमिर होलन, लोर्का तथा आधुनिक अरबी कविताओं का भी हिन्दी रूपान्तरण किया है । एम.एन. राय के न्यू ह्यूमनिज्म (नवमानवाद) तथा साइंस एण्ड फिलासफि (विज्ञान और दर्शन) का भी हिन्दी अनुवाद उन्होंने किया है ।
रचनात्मक लेखन के साथ-साथ्ा नन्दकिशोर आचार्य को अपने चिन्तनात्मक ग्रन्थों के लिए भी जाना जाता है । कल्चरल पॉलिटी ऑफ हिन्दूज और दि पॉलिटी इन शुक्रिनीतिसार (शोध), संस्कृति का व्याकरण, परम्परा और परिवर्तन(समाज- दर्शन), आधुनिक विचार और शिक्षा (शिक्ष-दर्शन), मानवाधिकार के तकाजे, संस्कृति की सामाजिकी तथा सत्याग्रह की संस्कृति के साथ गाँधी-चिन्तन पर केन्द्रित उन की पुस्तक सभ्यता का विकल्प ने हिन्दी बौद्धिक जगत का विशेष ध्यान आकर्षित किया है ।
कितनी सारी कलियों में खिलता है सूनापन कितनी सारी पांखों में भरता उडान कितने सारे नक्षत्रों में होता भासित कितने सारे सौर-मण्डलों में करता अपनी परिक्रमा
न होना कितने सारे होने को करता सम्भव कितने सारे जीवन में जीती है मृत्यु कितनी सारी संज्ञाओं में ज्ञापित है सर्वनाम वह । *******
नहीं हो पाया
एक कविता सुनायी पानी ने चुपके-से धरती को सूरज ने सुन लिया उस को हो गया दृश्य उस का
हवा भी कहां कम थी खुशबू हो गई छू कर
लय हो गया प्रकाश गा क उसे
एक मैं ही न दे पाया उसे खुद को नहीं हो पाया अपना आप । *******
जीवन की तस्वीर
एक तस्वीर जीवन की बनानी है- मृत्यु के अंकन बिना वह पूरी कैसे हो ?
मृत्यु और जीवन-एक साथ दोनों । कैसे बने यह तस्वीर ? बराबर जीना होगा वह या बार-बार मरना ?
आँक दूँ पुनर्जन्म क्या ? उस के लिये पर उचनी होगी आत्मा : उस का रूप और संसरण यह तो तभी होगा पर जब तुम-जो संसार हो मेरा- खोजने दो मुझको अपने में अपना आप- और उसके सब नव-रूप तुम्हारे ही कारण जो बने रहते हैं । *******
आवाज देनी है मृत्यु से की होती इतनी मैंने प्रार्थना वह भी बख्श देती मुझे
तुम्हें तो बस मुझ को आवाज देनी है मेरे जिलाने केलिये । *******
वही जल दर्पन डराता है मुझे सँवारूँ कितना भी खुद को दिख जाता है अपनी आँखों का मैल
देखता रहूंगा बस तुम्हें देख कर मुझे भर आती हैं जो तुम्हारी आँखें- वही जल धो दे शायद उसका ।
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देवी नागरानी का जन्म 11 मई 1949 को कराची (वर्तमान पाकिस्तान में) में हुआ और आप हिन्दी साहित्य जगत में एक सुपरिचित नाम हैं। आप की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में "ग़म में भीगी खुशी" (सिंधी गज़ल संग्रह 2004), "उड़ जा पँछी" (सिंधी भजन संग्रह 2007) और "चराग़े-दिल" (हिंदी गज़ल संग्रह 2007) शामिल हैं। इसके अतिरिक्त कई कहानियाँ, गज़लें, गीत आदि राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आप वर्तमान में न्यू जर्सी (यू.एस.ए.) में एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं।
अनुभा ने तन्द्रावस्थामें देखा कि माँ ने अपनीनाकमें लगी हुई नली कोखींचकर बाहर निकाल दियाहै। यह देखते ही अनुभा की तन्द्रा टूट गई। उसे तो यहभी अच्छी तरह याद नहीं थाकि वह कब से माँ के बोझ पर अपना सिर रखकर सो रही थी। रात के लगभग तीन बजे थे कि भैया ने अनुभा की पीठ पर थपथपी देते हुए उठाया और कहने लगे "अब मुझे नींद आ रही है। तुम जरा उठकर माँ को देखती रहो।"
"ठीक है भैया, आपने मुझे पहले से ही क्यों नहीं जगा दिया ?" यहकहते हुए अनुभा माँ के सिरहाने की तरफरखी हुई प्लास्टिक की कुर्सीपर बैठ गई। भाईनेआगे कहना जारी रखा "चाय पियोगी, फ्लास्क में रखी हुई है। चाय पीने से तुम्हारी नींद खुल जाएगी।
"नहीं रहने दीजिए। मेरे पर्स में बबलगम है। मैंउसे चबाती रहूँगी। आप निश्चितहोकर सो जाइए।"
कहीं नींद नआजाय , इस डर से अनुभा ने पर्समें से बबलगम निकाला तथा धीरे-धीरे उसे चबाने लगी। माँ बार-बार नाक में लगी हुई नली को बाहर खींचने का प्रयास कर रही थी। इसलिए उन्हें रात भर जगकर माँ की निगरानी करनी पड़ रही थी। लगातार विगत चार रातों से भैया जाग रहे थे। इसलिए अनुभा ने कहा, "हम एक काम करते हैं, मिलकर बारी-बारी से जागते हैं ताकि किसी को भी रात भर जागने का विशेष कष्ट न हो।"
वे लोग भोजन करने केउपरान्त दस बजे के आस-पास अस्पताल आ गए थे। पास की किसी दुकान से भैया ने अनुभा के लिए बबलगम और 'पास-पास' गुटखा रात्रि जागरण में मददगार चीज के नाम पर खरीद लिया था और वह कहने लगे, "अच्छा अब तुम सो जाओ। मैं तुम्हें रात को दो बजे नींद से जगा दूँगा।"
परन्तु भैया ने दोबजे के स्थान पर उसकोतीन बजे जगाया था। हमेशासे ही भैया उदार प्रवृत्तिके इंसान थे। उन्होंने जरुर यहसोचा होगा कि बेचारी अनुभा एक घण्टा और अधिक सो जाए। उस प्रकार अनुभा को रात्रिकालीन तीन बजे से सुबह पाँच बजे तक यानी केवल दो घण्टे का ही दायित्व निर्वहन करना था। परन्तु ये दो घण्टे भी वह ठीक से जाग नहीं सकी। वह खुद को भीतर ही भीतर बहुत दोषी अनुभव कर रही थी. वह सोच रही थी कि क्या इस समय भैया को नींद से जगाकर यह कहना उचित होगा कि माँ नेअपनीनाक में लगी हुई नली को खींच कर बाहर निकाल दिया है। भैया क्या कहेंगे ? तुम ठीक से दो घण्टे के लिए भी माँ को संभाल नहीं पाई। सुबह जब दूसरे लोगों को इस बारे में पता चलेगा तो वे लोग क्या सोचेगे ? किसी के मुँह पर पट्टी तो नहीं बाँधी जा सकती। वे कहेंगे, आप लोगों के सोने की वजह से माँ ने उस घटना को अंजाम दिया। आप लोग वास्तव में बहुत लापरवाह हैं। अनुभा ने मन ही मन सोचा चाहे कोई कुछ कहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर उसे वर्तमान हालत में क्या करना चाहिए, इस बात के लिए चिंतित थी। क्या नर्स को डयूटीरूमसे बुलाया जाय ? क्या अभी नर्स को बुलाने से वह आएगी ? इसी नली के माध्यम से सुबह छह बजे माँ को दूध पिलाया जाता है।
उन्होंने अपने मन कीशांति के लिए अस्पतालके केबिनमें भर्ती कराया था, अन्यथा वार्डराउंड में आने वाले डाक्टरको इस बातका जरा भीख्याल नहीं रहता कि उस अमुक केबिन में कोई गंभीर रोगी भर्तीभी है। वार्ड राउंड खत्म होने के बाद डॉक्टर के आगे-पीछेघूमकरअनुनय- विनयकरने पर कहींवह माँ को देखने आते थे।
प्रतिदिन डॉक्टर आते थे और दवाइयाँ बदल करचले जाते थे लेकिन उन्हें भी सही मायने में रोगी के मर्ज का पता नहीं चला था। हृदयकी धड़कन ठीक है,फेफड़े सुचारु रुप से कार्य कर रहे हैं, किडनी सही ढंग से काम कर रही है, तब ऐसा क्यों ? ढेर सारी दवाइयाँ देने तथा सुइयाँ लगाने के बावजूद भी न तो मरीज उठ पा रहा था, न ही बैठकर बातचीत कर पा रहा था। ऐसा भी नहीं कि लकवा के कोई लक्षण दिखाई पड़ रहे हों। पैर के तलवों में गुदगुदी करने से वे पैर हिला पा रही थी।
उसके शरीर की चमड़ी ढीली पड़ गई थी, वह कंकाल की भाँति दिखाईदे रही थी दुर्भिक्ष पीड़ितलोगों की भाँति। डॉक्टरोंके अनुसार उन्हें डी-हाईड्रेशनहो गया है, क्योंकि कई दिनों से उन्होंने भोजन ग्रहण नहीं किया था। उनका सारा शरीर संज्ञाशून्य हो गया था। गत तीन-चार दिनों से माँ के शरीर में केवल सलाइन चढ़ाए जा रहे थे। खास परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा था। डॉक्टर ने माँ के लिए प्रति दो दिन के अन्तराल में खून की एक बोतल चढ़ाने का सुझाव दिया। माँ के खून में हिमोग्लोबिन की मात्रा काफी कम हो गई थी। इसी वजह से डॉक्टरों ने माँ की नाक में रॉयल ट्यूब लगा दी थी ताकिउनके द्वारा हठधर्मी माँ को दूध अथवा हॉर्लिक्स की कुछ मात्राखिलाई जा सके। पता नहीं कैसे, माँ ने उस नली को खींचकर बाहर निकाल दिया। हो सकता है जैसे ही उसे जरा सी झपकीआई होगी, वैसे ही माँ ने उस घटना को अंजाम दे दिया होगा।
माँ और ठीक होगई , घर के उस कमरे से उस कमरे में घूमेगी, वह उठकर बैठसकेगी , उन बातों पर अनुभा को बिल्कुल भी विश्वास नहीं हो रहा था। उसे लग रहा था सभी लोग ठीक ही कह रहे थे कि माँ को केवल उसके आने का ही इन्तजार था। दिन-प्रति दिन माँ की अवस्था खराब होती जा रही थी। नजदीक में रहने वाले सगे सम्बन्धी माँ को देखकर चले जाते थे। अनुभा ही एक ऐसी भाग्यहीन बेटी थी जो माँ को दो साल से मिल नहीं पाई थी।
सचमुच अनुभा जैसे ही घर पहुँची वैसे ही माँ की तबीयतबिगड़नी शुरु हुई। तबियतभी बिगड़ी तो ऐसी बिगड़ी कि उन्हेंअस्पताल में भर्ती कराना पड़ा मानो और कोई उसकी इच्छा बची हुई नहीं थी।उसने अपने सारे बच्चों को आँखों के सामने देख लिया था । अब वह सांसारिक बन्धन से मुक्ति पा कर शान्ति के साथ अपने अन्तिम गंतव्य स्थान को प्रवेश कर पाएगी।
दो साल पहले जबअनुभा अपनी माँ से मिली थी, उस समय उसने माँ के व्यवहारमें हो रहे अस्वभाविकबदलाव को देखा था। तभी सेउसे उस बात का एहसास हो गया था कि माँ ज्यादा नहीं जिएगी। उस घटना के दो साल बाद वह माँ को देखने आ पाई थी। मन में कई बार माँ को देखने की तीव्रइच्छा पैदा हुई, परन्तु घर-गृहस्थी के मायाजाल में फँसकर आ नहीं पाई ।
उसे याद आयाकि जब वह पहलेआई थी, तब उस समय छोटी बहन की शादी की बातें चल रही थीं। वे सभी सगाई पक्कीकरने के लिए समधी के घर गए थे। माँ भी साथ में थी। उसी समय अनुभा ने माँ के अस्वभाविक व्यवहार को नजदीक से देखा। जब भी वह समधी के घर की किसी भी औरत को गले लगाती तो यह पूछती, "क्या आप समधिन हैं ? एक ही बात को वह रटती जाती थी। अनुभा को माँ के इस व्यवहार पर लज्जा आ रही थी। वह सोच रही थी कि रिश्तेदार लोग क्या सोचेंगे ? कहीं माँ की वजह सेबहनकी शादी न टूट जाय। इसी बात को लेकर वे सब लोग डर गए थे। जबवे लोग घरलौट रहे थे तो नीता ने माँ से पूछा "माँ आप हर किसी को गले लगाकर
समधन-समधन कह कर पुकार रही थीं। क्या आप को कुछ दिखाई नहीं देता है ?"
माँ ने अनमने भाव से कहा "ऐसा क्या कह दिया मैंने ?"
"समधन-समधन नहींबोल रही थीं ?"
अन्यमनस्क होकर माँ ने हामी भर दी, फिर एकदम चुप हो गई।
अनुभा सोचने लगीकि शायद माँ की आँखे कमजोरहो गई हैं। इसलिए या तोचश्मा बदलना होगा याफिर आपरेशन करवाना पड़ेगा। माँ की बातचीत से ऐसा प्रतीतहो रहा था कि कुछ समय पहले की गई सारी अप्रासंगिक बातों को वह पूर्णतया भूल चुकी थी। शायद यह वही घटना थी जो उसके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की ओरसंकेत कर रही थी। उस दिन घरलौटने के बाद लड़के वालोकेविषयमें बातें हुई। अनुभा ने अपने पिताजी से कहा "पापा, माँकीआँखों का आपरेशन करवाना अब अति आवश्यक है। बिना मतलबके चश्मा वहपहनेहुई हैं।जब तक वह आँखें फाड़-फाड़कर नहींदेख लेती हैं तब तक वह किसी को भी पहचान नहीं पातीहैं।"
पिताजी ने अनुभाकीइस बात को गंभीरता से नहीं लिया और कहने लगे "कितने दिनों तकवह जिएगीजो उसकी आँखों का आपरेशन करवाने की जरुरत है।"
अभी तक अनुभा ने कभी भी पिताजी के सामने मुँह खोलकर बातें नहीं की थी। लेकिन एक छोटे से आपरेशन के लिए पिताजी राजी नहीं हो रहे थे .उस बात को वह समझ नहीं पा रही थी। उसे लग रहा था शायद पिताजी डर रहे होंगे कि कहीं माँ की आँखे पूरी तरह से खराब न हो जाय या फिर माँ को शारीरिक कष्ट होते देखकर वह सहन नहीं कर पाएंगे इस डर से या फिर उन्हें आपरेशन के लिए रुपये खर्च करने पडेंगे उस डर से ?
माँ एक अलग साम्राज्य की मालकिन बन चुकी थी। वहाँ उसकी कल्पना के अनुसार लोगों का आना-जाना होता था। शाम होते ही वह दूरदर्शन के सामने ऐसे बैठ जाती थी जैसे वह कोई मन पसंद धारावाहिक देखना चाहती हो। जबकि उसे कुछ नहीं दिखाई देने के कारण मन ही मन इधर-उधर की बातें करती रहती थी। सबसे बड़ी बात थी-- माँ अपने अन्धेरे के साम्राज्य की खूब सारी मनगढ़न्त कहानियों कीरचना करती थीं। अगर उन कहानियों को वह झूठा मानती तो भी कोई बात नहीं थी, लेकिन कभी कहानियों को सत्य समझकर चिल्लाने लगती थीं। वह कहने लगती थी कि घर के सारे बर्तन व सोने के जेवरात अनुभा की चाची चोरी करके ले गई हैं। बहुत दिन पूर्व मर चुकी अपनी छोटी बहन के बारे में यह कहते हुए रो पड़ती थी कि वह उसके घर से बिना खाए-पिए रुठकर लौट गई है। ये सारी बाते काल्पनिक थीं मगर कितनी भी कोशिश के बाद कोई मां को समझा नहीं पा रहा था। माँ को इस अवस्था में छोड़कर अनुभा अपने घर मुम्बई चली गई थी। मुम्बई पहुँच कर उसने माँ के बारे में एक चिट्ठी लिखी। यह उसका पिताजी के नाम पहला पत्र था, भले ही इससे पूर्व स्कूली परीक्षा की कॉपी में उत्तर लिखने के लिए पिताजी के नाम चिट्ठी लिखी हो। किस तरह, किस आधार पर वहलिखेगी कि माँ की आँखों का आपरेशन करवाइए ताकि वह प्रकृति, पेड़-पौधों को देख सकें, गाय-मनुष्य को देख सके, देवी- देवता , बहू-बेटी, नाती-नातिन सभी को देख सकें। उनके सुख-दुख में भागीदार हो सकें। फिर एक बार परिपूर्ण हो जाय उसका जीवन और उसके अन्धकारमय राज्य की काल्पनिक नायक-नायिकाएँ दूर हो सकें। लेकिन पिताजी के पास ऐसी चिट्ठी लिखी जा सकती है ?
अनुभा ने एक-एक शब्दको सोच-सोचकर ध्यानपूर्वकलिखा "पिताजी, माँ को किसी अच्छे डॉक्टर के पास ले जाइएगा। उसका पागलपन धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। अगर समय रहते
उसका इलाज करवा दिया जाय तो निश्चित तौर पर वह ठीक हो जाएगी।"
लेकिन पिताजी ने उसके उस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने उसकी इन बातोंपर पूर्ण विराम लगा दिया। छोटी बहन की शादी में अनुभा शामिल नहीं हो पाई थी। बाद में अनुभा को इस बात का पता चला कि उसकी माँ को छोटी बेटी की शादी के बारे में विल्कुल भी जानकारी नहीं थी। शादी में वह चुप-चाप दूसरे अतिथियों की भाँति सज-सँवरकर बैठी थी। कभी किसी काम में उनकी जरुरत पड़ जाने पर उल्टा वह पूछने लगती थी "भैया किसकी शादी हो रही है ?"
बेटी कीविदाई के समय सब फूट-फूटकर रो रहे थे। परन्तु माँ भीड़ के अन्दर घुसकर बार-बार यही पूछती थी, "क्या हुआ, तुम सब लोग क्यों रो रहे हो ?"
कोई-कोई बोलभी देता था "तुम्हारे बेटीससुराल जा रही है। उसकी शादी हो गई है।"
जैसे कि उसके द्वारारची हुई दुनियाधीरे-धीरेउससेदूर जाने लगी थी। जैसे किएक-एक कदमबढ़ाकर माँशून्य ओरबढ़ती जा रही हो। जहा सेपेड़-पौधे, पहाड़-पर्वत, नदी-नाले, स्नेह-वात्सल्य-प्रेम, स्वप्न-यथार्थ सभी कुछ धुंधले दिखाई दे रहे हो। धीर-धीरे सब कुछ अदृश्य हो जाएंगे और माँ ऊपर की ओर उठ जाएगी जहाँ परसांस लेने के लिए हवा का एक अणु भी उपलब्ध नहीं होगा। अनुभा यह सोचकर बहुत दुखी होरही थी। मुम्बई के फ्लैट में अकेले रहते समय उसे माँ की याद काफी सताने लगी। उसे स्मरण हो आता था माँ का वह चेहरा जिस समय वह आठ महीने के पेट को लेकर रेंगते-रेंगते आम का आचारबनाने रसोईघर की तरफ जाती थी।
उन दो साल के दौरानमाँ की मानसिक अवस्था और ज्यादा खराब होती गई। बीच-बीचमें अपने भाई-बहन सेअनुभा माँ के बारे मेंखबर ले लेती थी। छोटे बच्चों की तरह माँ जिद्दी होती जा रही थी। सप्ताह दो सप्ताह में नई साड़ी खरीदने के लिए जिद्द करने लगती। नई साड़ी लम्बी है सोचकर काटकर उसे छोटा कर देती। छोटी साड़ी शरीर के लिए छोटी पड़ रही है, यह कहकर विरक्त भाव से नई साड़ी खरीदने के लिएफरमाइश करने लगती। अगर उसकीफरमाइशपूरी नहीं होती तो वह आमरण अनशन पर बैठ जाती। कभी-कभी कंघी लेकर दिन भर बालों में कंघी करने लगती। इतनीकंघी करती कि सिरपर घाव होकर खून निकलने लगता। उसकासारासिर खून सेलथपथहो जाता था। कभी-कभी जब वह बाथरुम में नहाने जाती तो घंटो नहाती, शॉवर के नीचे से आने का नाम ही नहीं लेती थी। जो कुछ उसके हाथ में बर्तन, बक्सा, कपड़ा आता था उन्हें कुँएमें डाल देती थी। उनसे भी बढ़कर कभी-कभी तो वह घर से भाग जाती थी, सबकी दृष्टि से बचकर। अगर कोई जान पहचानवाला आदमी उसे देख लेता था तो बहला-फुसलाकर उनके घर लाकर छोड़ देता था। नहीं तो घर के सारे लोग अपना काम-धाम छोड़कर उसे खोजने निकल पड़ते थे। इतना होने के बाद भी कभी भी पिताजी ने माँ के लिए किसी डॉक्टर से कोई परामर्श नहींलिया ।
माँ देखने में बहुतसुन्दर व बोलने में स्पष्टवादी थी, लेकिन स्वभाव से वह भोली-भाली थी। यह बात अलग थी कि पिताजी कीअभिरुचियाँ माँ के स्वभाव से मेल नहींखातीथी । इस वजह से वह पिताजी के दिल पर राज न कर सकी। पिताजी अगर किसी औरत से प्रभावित थे तो वह थी उसकी काकी। दिखाई देनेमें भले ही वह खास नहीं थी मगर उसकी व्यवहार कुशलता, मधुर भाषिता तथा जीवन के गहरे अनुभवों के कारण पिताजी उसे अपना दार्शनिक दोस्त और मार्गदर्शक के रूप में मानते थे। एक यह भी कारण था कि पिताजी की दादी का देहान्त पिताजी के बचपन में ही हो
गया था। और उस समय अगर उनकोकिसी ने सहारा दिया था तोवह थी उनकी भाभी। किसी भीप्रकार की विपरीत परिस्थितियोंमें अनुभा के पिताजी उनके पाससलाह लेने के लिए जाते थे। यहाँ तक कि पूजा-पाठ, हवन या किसी भी प्रकारकेकोई शुभ अनुष्ठान में उन्हीं की मदद ली जाती थी। पिताजी, चाहे घर बनाना हो, चाहे जमीनखरीदनीहो या अन्य कोई महत्वपूर्ण काम हो भाभीके बिना साथ के कुछ भी कदम नहीं बढ़ाते थे। एक बार तो ऐसा भी हुआ । उनका एक जरुरी आपरेशन था, मगर वह इस बात पर अड़ गए थे कि जब तक भाभीनहीं आएंगी तब तक उन्हें आपरेशन थिएटर में नहीं ले जाया जाय। उस अवस्था में उनकी भाभी को जो उस समयअपनी बेटी केससुराल भवानीपटना में थीं, टेलीग्राम द्वारा बुलाया गया। ये ही सब छोटे-मोटे कारण थे जिनकी वजह से माँ पिताजी से असंतुष्ट रहती थी। पिताजी के इस दुर्गण को बच्चे लोग भी नापसन्द करते थे। जिन्दगी भर माँ पिताजी के इस रवैयेकी वजह से अपमानित और आहत होती रही। आज भी अनुभा के मन मस्तिष्क पर ये सारी कड़वी अनुभूतियाँ चिपकी हुई थीं। उनमें किसी भी प्रकार का धुंधलापन नहीं आया था। मुम्बई से घर आते समय वह सोच रही थी कि इस बार पिताजी से इस बिषय पर स्पष्ट बात करेगी और पूछेगी "क्या कारण है कि आप माँ की इस तरह अवहेलना कर रहे हैं ? केवल साड़ी-गहना, खाना-पीना दे देने से नहीं होता है। जीवन में एक-दूसरे कासंपूरक बनना पड़ता है। अगर एक के घुटनेमें दर्द हो तो दूसरा उसको हाथ पकड़कर कुछ कदम अपने साथ ले चले।
लेकिन जब वह घर पहुँची तो पिताजी के चेहरे को देखकर अनुभा हतप्रभ रह गई। बुढ़ापेकेतूफान मेंउनकाचेहरा लाचार व असहाय दिख रहा था। वे उद्विग्न मन से इस तरह बैठे हुए थे मानो बारिश के/दिनों में भीगी हुई दीमक की बम्बी। सिरके ऊपर मात्र एकमुट्ठीघुंघराले बाल बचे हुए थे और मुँह पर कटे हुए धान के खेत की तरह दाढ़ी उग आई थी। बरामदे में दोनो घुटनो के बीच सिररखकर उदास मन से बैठे हुए थे। अनुभा को उनकी यह अवस्था देखकर मन में उठ रहे सवालो को पूछने कीहिम्मतही नहीं हुई। अपना सूटकेस बरामदे में रखकर उसने पिताजी के चरण स्पर्श किए। ठीक उसी समय ड्राइंग रूम के अन्दर से किसी के रोने तथा दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। अनुभा ने पूछा "कौन है घर के अन्दर ?"
वहाँ पहले से खड़ी भाभीजी ने उत्तर दिया "माँ को आजकल कमरे के अन्दर बन्द करके रखना पड़ता है, नहीं तो वह घर से बाहर भाग जाती हैं। उनको हर समय तो नजरबन्द करके नहीं रखा जा सकता।"
कमरे केबाहर की तरफ से बन्द चिटकनी कोखोलते हुए अनुभा कहने लगी "इसका मतलब ये तो नहींहै कि आप किसी को भी घर के अन्दर बन्द करके रखेंगे ? देखते नहीं, माँ किस तरह बिलख- बिलखकर रो रही हैं ?"
जैसे ही उसने कमरे की चिटकनी खोली, वैसे हीबिना कुछ बोले माँ झट सेउस अंधेरे कमरे से बाहरनिकल आई। घर के अन्दर कुछ भी नहीं था, केवल बिनाबिछोनेवाले लकड़ी के तख्त को छोड़कर। पहले किसी ने उसको फोन पर बताया भी था कि आजकल माँ बेडशीट को फाड़ दे रही है। इसलिए उसको कड़कड़ाती सर्दी के महीनो में भी न तो कोई कम्बल दिया गया और न ही कोई ओढ़ने के लिए चादर। यह खबर सुनकर अनुभा को उस समय भयंकर कष्ट हुआ था। अभी जब वह अपनी आँखो से देख रही थी कि माँ के तख्त के ऊपर एक फटी पुरानी गुदड़ीभी नहीं थी।इतना बड़ा घर, घर में इतने सारे सामान जुटाने के बाद/भी ऐसी अवस्था होती है इन्सान की ! हाय ! छोटी
काकी बताने लगी "दीदी अन्दरमत जाइएगा। माँ की याददाश्तखत्म हो गई है। वह किसी को भी पहचान नहीं पा रही हैं। उनके होश भी ठिकाने नहीं है, टट्टी -पेशाब करके इधर-उधर फेंक दे रही हैं।"
छोटी काकी की बातको अनसुना कर वह माँ कोअपने हाथ से पकड़कर बाहर ले आई और पूछने लगी "देखो तो माँ, मैं कौन हूँ ?"
"कौन ?" माँ कहनेलगी।
अनुभा कहने लगी "माँ, मुझे नहीं पहचान पा रहीहो। मैं तुम्हारी बेटी अनुभाहूँ।"
माँ ने तो कोई उत्तर नहीं दिया। कुहनीकलाई, ऊँगलियोंकी पोरो पर बँधे हुएबेन्डेजदिखाते हुए रोते-रोते माँ बोलने लगी "उसको खोल दो।"
अनुभा अपनी माँ कोहाथ से पकड़कर शयनकक्षकी तरफ लेकर जा रहीथी, तभी बड़ी काकी कहने लगी "अन्नु माँ को हाथ से मत पकड़नाउसके हाथों में सूखा मल चिपका होगा।"
अनुभा ने देखा किमाँ की ऊँगलियों पर काले-कालेदाग की तरह सूखा हुआमल चिपक गया था। माँ केशरीर में अब कुछ भी जान नहीं थी। केवल बचा हुआ था अस्थियों का कंकाल एवं थोड़ी सी चमड़ी। आँखें तो ऐसी लग रही थी मानो कोटर के अन्दर बैठे चिड़ियों के दो बच्चे। आहा ! बुढ़ापा किस तरह आदमी को कांतिहीन कर देता है ! ऐसी एक जिन्दा लाश को देखकर सिद्धार्थ गौतम बुद्द बन गया। एक दिन ऐसा भी था! माँ का कद एक मॉडल की तरह पाँच फुट छः इंच था, मगर आज वह सिकुड़ कर केवल चार फीट की दिखाई पड़ रही है। गोरे रंग वाली माँ का शरीर आज जलेहुए कोयले की तरह दिखाई दे रहा था। माँ बार-बार इशारे के माध्यम से अपने हाथों पर बँधी हुई पट्टियों को खोलने के लिए गिड़गिड़ा रही थी। अनुभा ने पूछा "क्या हुआ माँ, तुम्हारे उन हाथों को ? कहीं गिर गई थी क्या ?"
अनुभा का प्रश्न सुनकरभाभी ने उत्तर दिया "नहीं, नहीं क्यों गिरेंगी ? उन्होंने अपने नाखूनों सेचिकोटी काट-काटकर हाथोंमें घाव पैदा कर लिएहैं। इनका दिमाग तो ठीक है नहीं। कैसे पता चलेगा उनको? होश ही नहीं है।तुम्हारे भैया ने आज सुबह दवाई लगाकरउनकोपट्टियाँबाँधी थी। माँ फिर से पट्टियाँ खोल देने के लिए इशारे करने लगी. अनुभा ने पूछा "माँ क्या बहुत कष्ट हो रहा है।"
जैसे ही अनुभा पट्टी ढीला करके खोलने जा रहीथी, उसी समयभाभीने मना कर दिया और कहने लगी,
"पट्टी मत खोलिए नहीं तोनाखूनसे फिर हाथों परघाव कर देंगी।"
लोकिन माँ तो एकजिद कर रही थी, छोटे बच्चों की तरह रोते-गिड़गिड़ाते।हताश होकर अनुभा पलंग पर बैठ गई तभी उसी समय छोटी भाभी ने एक कप चाय सामने लाकर रखदी। चाय पीते-पीते अनुभा सोच रही थी, यहीं पुरानेशीशम के लकड़ीवाले पलंग पर उसका बचपन गुजरा है। उसी पलंग पर माँ और पिताजी सोया करते थे। यह माँ-पिताजी का ही कमरा था। शीशम की लकड़ी से बनी आलमारी, लोहे का बड़ासा लाकर यह सभी इसी घर की शोभा बढ़ाया करते थे। सारा सामान पहले की तरह ही रखा हुआ था, बस कमी थी तो इस बात की कि अब उस कमरे में माँ और पिताजी नहीं रहा करते थे। माँ की हरकतों से तंग आकर पिताजी ऊपर वाले कमरे में रहने लगे थे और ड्रॉइंग रूम को खाली कराकर माँ को इसमें रखा गया था।
पलंग के ऊपर रखेहुए सारे गद्दे पत्थर की तरहपड़े-पड़े कठोर हो गए थे। वे सभी सात
भाई- बहनउसी पलंग के ऊपरसोते-सोते गप्पे मारते थे। किसी का पाँव किसी के सिर की तरफरहता था तो किसी की जाँघ किसी के पेट के ऊपर।
बैसाख के महीने में दोपहर के समय कभी-कभी जब आँधी आया करती थी तो माँ सभी बच्चों को नाम से पुकार कर जोर-जोर से चिल्लाने लगती थी। सभी बच्चे उस समय जहाँ भी हो, भागते हुए आ जाते थे। इसी कमरे में सभी को भरकर माँ दरवाजा बन्द कर लेती थी। उसका ऐसा मानना था कि अगर मरेंगे तो सभी एक साथ मरेंगे। उसका कोई भी बच्चा खेलते-खेलते किसी दूसरी जगह क्यों मरेगा ? माँ के इस डर तथा उससे बचाव की युक्ति को देखकर पड़ोसी लोग उपहास करने लगते थे। लेकिन हाय ! आज माँ किसी को भी पहचान नहीं पा रही है कि कौन अनुभा है तो कौन सुप्रभा ? पिताजी अनुभा के पास आकर बैठ गए।
"माँ को क्या पूछरही हो अनुभा ? वह क्या उत्तर देगी ? वह तो पागल है। बहुत परेशान कर चुकी है, मर जाती तो अच्छा होता।"
वाक्य के अंतिम अंश कोपिताजी ने भन्नाते हुए कहा। औरइसअन्तिम वाक्यांश ने अनुभा के सीने कोछलनी कर दिया। क्या पिताजी को अन्त में ऐसे ही कहना था। माँ पिताजी को देखकर पट्टियाँ खोलने के लिए बाध्य करने लगी। चिड़चिड़ाकर पिताजी कहने लगे "क्या तुम मुझे शान्ति से बैठने भी नहीं दोगी ? ऐसा क्यों कर रही हो ?"
मगरमाँ को मानोपिताजी के चिड़चिड़ेपन से कोईलेना-देना न हो। ऐसे ही पिताजी का कंधा हिलाते हुए बोलने लगी "अजी, खोल दीजिए।"
"रुक-रुक ! मुझे तंगमत कर।" कहते हुए पिताजी ने माँ को फिरसे डाँटा। नीचे जमीन पर बैठकरमाँ रोते-रोते कहने लगी "मैने उनको कहा तो मुझे गाली दे रहे हैं। अब मैंइसघर में कभी नहीं रहूँगी।"
माँ का इस तरहरोना देखकर अनुभा के सीने पर कटार सी चलने लगी। पलंग से उठकर अनुभा ने माँ को गले लगा लिया और पुचकारते हुए कहने लगी "माँ ऐसा मत करो। अच्छा बताओ तो, मैं कौन हूँ ?"
यह सोचकर अनुभा के मन में एक आभा की किरण जागी कि जब माँ पिताजी को पहचान पा रही है तो अवश्य ही उसको भी पहचान पाएगी। माँ अनुभा के पास पिताजी के नाम से शिकायत कर रही थी। पिताजीसिर पर हाथ रखकर किंकर्तव्यबिमूढ़ होकर बैठ गए। उनका चेहरा माँ की तुलना में और दयनीय दिख रहा था।
भाभी माँ को हाथसे पकड़कर भीतर की तरफ ले जा रही थी। तभी पिताजी ने उससे पूछा "क्या माँ को खाना खिला दिया है ?"
रूखी आवाज में भाभी ने उत्तर दिया "यह काम मुझसे नहीं होगा।"
"नहीं होगा मतलब?" पिताजी ने कहा।
माँ को उसके कमरे मेंबंद करके भाभी लौट आई और कहने लगी "अन्नु तुम लोग तोबाहर रहते हो। तुम्हें कैसे पता चलेगा कि माँ कितना परेशान कर रही है ? और क्या बताऊँ तुम्हारे भैया के अलावा कोई भी इनको नहीं खिला पाता है। पिछले आठ-दस दिनों से वह ठीक से खाना नहीं खा रही हैं। एक बार तो उन्होंने मुट्ठीभर नमक/खा लिया था उसके बाद कुछ भी खाने से पहले मुट्ठीभर चीनी खिलानी पड़ती थी, तब जाकर के खाना खाती थीं। मगर अभी तो कुछभीनहीं खा रही हैं।"
"आपने डॉक्टर कोदिखाया ?"
"पिताजी चाहेंगे तभी तो?"
"क्या आप सभी कामपिताजी को पूछकर ही करतेहैं ? अगर आप लोग अपनी जिम्मेवारीखुद निभाएंगे तो पिताजी कोपूछने की बिल्कुल भी जरुरतकहाँ है ?"
"ऐसी बात नहींहै कि हमने अपनी जिम्मेवारीनहीं निभाई है। बीच में तुम्हारे भैया ने डॉक्टर से परामर्श लेकर कुछ दवाइयाँ खरीदी थीं। जब वह दवाइयाँ माँ को दी जाती थी तो माँ केवल या तो सोती रहती थीं या फिर दीवार के सहारे बैठकर झपकी लेती रहती थीं। यह देखकर पिताजी को गुस्सा आ गया और कहने लगे कि इसके शरीर में अब बच क्या गया है जो खाने के लिए इतनी तेज दवाइयाँ दी जा रही है। यह सुनकर भैया ने और दवाइयाँ देना बन्द कर दिया।"
"कटक ले जाकरकिसी मनोरोगी विशेषज्ञको दिखाकर इलाज करवासकते थे।"
"तुम तो अपनी आँखों सेदेख रही हो कि माँ कैसेकर रही है। गाड़ी में बैठकरजा पाएगी ? जब इतना बोलही रही हो तो खुद ले जाकर डॉक्टर को क्यों नहीं दिखा लाती ?"
भाभी का पूँजीभूत क्रोध जैसे कि ज्वालामुखी की तरहफट गया हो और उसकी भीषण गर्मी अनुभा को धराशायी करने लगी हो। अनुभा और कुछ बोलती कि इतने में बीच में पिताजी आकर भाभी के पक्ष में कहने लगे "कहाँ जाएगी ? और अबकितने दिन जिन्दा रहेगी ? क्यों इसके पीछे लगी हो ?
इस तरह पिताजी नेमाँके प्रसंग को बदलदिया। अनुभा ने लम्बी साँस छोड़ी। माँ के प्रति इतनी अवहेलना का कारण क्या है, एक बात फिर से यह पूछने की इच्छा जाग गई। क्या हो सकते हैं इसके सम्भावित कारण ? मैं इतनी मूर्ख और भोली जो ठहरी।लेकिन हमारे लिए हमारा भोलापन ही ठीक था।अनुभाने पिताजी को भले ही कुछ नहीं बोला मगर भाभी से वह कहने लगी "कृपा करके माँ को घर के अंदर बंद करके तो मत रखो।, बहुत ही खराब लग रहा है। इस कमरे से उस कमरे में उसको घूमने दो, इसमें क्या परेशानी है ?"
घूमने से कोईपरेशानी नहीं है, लेकिन वह घर से भाग जाती है। कभी- कभी पहनने के कपड़े भीखोल देती है। पडोस केलोग उस चीज का उपहास केसाथ-साथ तरह-तरह की बातें करते हैं।
"आप को पडोसियोंसे क्या लेना-देना ? क्या वेनहीं जानते कि माँ पागल है?"
"देखिए न ! कुछ दिनपहले माँ घर से भागगई थी। बड़े पिताजी और दादा के घर के सामने खड़े होकर दामन फैलाकर भीख माँग रही थी। यह तो अच्छा है, चाची उनको हाथ से पकड़कर वापिस घर तो ले आयी। इस बात को लेकर सभी लोग मुझे दोषी ठहराते थे। कह रहे थे, अपनी सास को सम्भाल कर नहीं रख पाती हो क्या ? दूसरों के घर जाकर अगर भीख माँगेगी तो हमारी बची-खुची इज्जतमटियामेट हो जाएगी। पागल तो है ही, अपने दुष्कर्मो का फल अगर इस जन्म में नहींभोगेगी तो और कब भोगेगी ?
"दुष्कर्मो का फल ?" अनुभा क्रोधित स्वर मेंबोली "सीधी-सादी भोलीमाँ को उन लोगों ने कमपरेशान नहीं किया और अभीकह रहे हैं कि उसे अपनेकिए का फल मिल रहा है। ऐसा क्या किया मेरी माँ ने? असल बात क्या है जानती हो ? माँ "निशा -मंगलवार" का व्रत रखा करती थी। हर मंगलवार को वह सातघर से अन्न भिक्षा के रुप में माँगकर लाती थी और बिना पीछे मुड़कर देखे सीधे जाकर नदी के पानी में डुबकी लगाकर उस भिक्षा को फेंक देती थी। शायद तुम नहीं जानती हो कि वह यह व्रत तुम सभी की भलाई के लिए रखती थी। जिन्दगी भर उसने अपने हर बच्चे के
लिए एक-एक अलग व्रत उपवास का संकल्पलिया था। किसी के लिए वह बाँए हाथ से खाती थी तो किसी के लिएद्वितीयाका व्रत। किसी के लिए वह चैत्र का मंगलवार करती थी तो किसीके लिए मेरु उपवास (विशुभ संक्रांति) का उपवास। हो सकता है अभी भी माँ के अवचेतन मन में भिक्षा माँगने वाली वह बात कहीं न कहीं अंकित होगी अन्यथा वह उनके घर जाकर क्यों भिक्षामांगेगी? इसलिए इसमें संकुचित होने की कोई बात नहीं है।"
शायदभाभीके मनमें कोई पुराना क्षोभ एक लम्बे अर्से से दबा हुआहोगा , अतःप्रतिशोध की भावना से वह फुफकारने लगी।
"तुम भीतर जाकरदेखो, तुम्हारा ड्राइंग रुम अब क्या पहले जैसा है ? दीवारोंपर जो आधुनिक पेंटिंगसजाई गई थी, किस प्रकार उन्होंने अपने मल से पोतकर एकदम माडर्न बना दिया है।"
अनुभा ने भाभी के इस परिहास पर बिलकुलअपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और कहनेलगी "वह तो पागल हैउसका तो दिमाग काम नहीं कररहा है। और क्या होगा ? आप तो जानती हैंवह अपने घर को कितना साफ-सुथरा रखतीथी । जब वह ठीक थी तो दिन में दो बार घर में पोंछा लगाती थी। हर दिन कपड़ों की एक बड़ी गठरी धोई जाती थी। "
अनुभा समझ नहीं पा रही थी कि किस कारण सेभाभी माँ से असंतुष्ट है। माँ को कमरे में बन्द रखने की अमानवीय घटना को लेकर जो उनके बीच में तर्क-वितर्क हुआ, शायद उसी वजह से भाभी नाराज हो गई होगी। अनुभा को लग रहा था कि इस अवस्था में भाभी को क्रोध आना भी स्वाभाविक है। छोटा भाई अपनी पत्नी के साथ आरामसे अपनी नौकरी वाली जगह पर रह रहा था। बाकी सभी जो जहाँ थे, वे वहाँ चले गए। अकेले में ही भाभी को माँ के पागलपन को सहन करना पड़ा। बेचारी को दोष देने से क्या फायदा ? इस प्रकार अनुभा के मन में भाभी के ।प्रति कोई बुरी धारणा जड़ नहीं कर पाई । लम्बी रेल यात्रा की थकावट को दूर करने के लिए अनुभास्नान करने गई। जब वह बाथरुम से बाहर आ रही थी तो उसने बड़े भैया को घर में आते हुए देखा। वह भाभी से कह रहे थे "लंच- अवर के बाद ऑफिस में मीटिंग है, माँ की साफ-सफाई कौनकरेगा ?यही सोचकर बड़ी मुश्किल से समय निकालकर आया हूँ।"
आते ही ऑफिस के कपड़े बदलकर अपनी लुँगीपहनी और माँ के कमरे केसारे खिड़की और दरवाजे खोलदिए। कमरे के अन्दर पर्याप्त उजाला एवं साफ हवा का संचार होने लगा। माँ को पास मेंबिठाकरसारी पट्टियाँ खोल दी तथा भाभीको गरम पानी लाने के लिए कहने लगे "आज थोड़ा जल्दबाजी में हूँ इसलिए ज्यादा समय रुक नहीं पाऊँगा।"
पहले से ही भैया ने माँ के बाल अपने हाथसे काटकर छोटे-छोटे करदिए थे। छोटे बच्चे की तरह भैया ने माँ के सिरपर तेललगाकर कंघी की। फिर गरमपानी में डिटाल मिलाकरमाँ के हाथ-पैर, ऊंगलियों में चिपके हुए सूखेमल को धोकर साफ़ कर दिया। फिर हल्के गर्म पानी से माँ को स्नान कराके वस्त्र बदल दिए। जैसे कि माँ उनकी छोटी बेटी हो। घाव को धोकर फिर से भैया ने पट्टियाँ बाँध दी। अनुभा मदद करने के लिए उनके पास जा रही थी तो उन्होंने पास आने से मना कर दिया। "कुछ समय के लिए रूक जाओ, देख रही हो न चारो तरफ मल-मूत्र कैसे बिखरा हुआ पड़ा है ! पहले फिनाइल डालकर कमरे को धो लेने दो।"
माँकोबाहर छोड़करभाई ने सर्फ व डिटाल डालकरमाँकेकपड़े आदि साफ किए ।उसके बाद कमरे को डिटाल केपानी से अच्छी तरह धो दिया। यह सब काम करते-करते उनको आधे घण्टे
से ज्यादा समय लग गया। अन्त में छोटे बच्चों को जिस तरह खिलाया जाता है, उसी तरह प्यार से, तो कभी डाँट से माँ को एकाधटुकड़ा पावरोटी और आधा कप दूध पिला दिया। माँ को खाना खिलाने की कोशिश तो अनुभा ने भी की थी, किन्तु मुश्किल से आधा टुकड़ा भी नहीं खिलापाई। भैया बड़े ही असहाय दिख रहे थे। अगर माँ को थोड़ा ठीक से खिला पाते तो शायद उनकी अन्तरात्मा को अच्छा लगता। माँ के ये सब कामपूरेकरने के बाद ऑफिस वाले कपड़े पहनकर भैया बाहर निकल गए। जाते-जाते भाभी को यह कहते हुए कि आज वह घर में खाना नहीं खाएंगे। भैया बाहर निकल गए। भाभी कहने लगी "आपको तो पहले से हीमालूमथा कि दोपहर को यह सब खिन्न काम करना पड़ेगा तो दस बजे जाते समय थोड़ा-बहुत खाना खाकर चले जाते।"
भाभी को शान्त करने के लहजे में भैया ने कहा "अच्छा ठीक है दे दो जल्दी से कुछ।"
हड़बड़ी मेंभैया ने थोड़ा बहुत खाया और घर से बाहर हड़बड़ी मेंनिकल गए। उस समय माँ इधर-उधर घूम रही थी। अनुभा माँ को घूमते देख कहने लगी "माँ जाकर के सो जाइए।"
परन्तु मानोमाँ ने कुछ भी नसुना हो। वह चुप-चाप ज्यों की त्यों खड़ी रही। यह देख भाभी कहने लगी "माँ कैसे सोएगी ? उनको तो बिल्कुल भी नींद नहीं आती है। भूत-प्रेत की भाँति इस कमरे से उस कमरे में चक्कर लगाती रहती है। देखिए न उनकी इस बीमारीकी वजह से मेरे सारे बाल सफेद हो गए। अनुभा नेभाभीके बालों की तरफ देखातो वास्तव में बीच-बीच में सफेद बालों की लटें स्पष्ट दिखाई दे रही थी। अनुभा समझ नहीं पाई कि वह क्या कहे ? क्यों वह उसको देखकर बार-बार अपना मुँह बिगाड़ रही थी ? वह इतनी नाराज व दुःखी क्यों है ? कहीं भाभी ऐसा तो नहीं सोच रही है कि बेटी होने के नाते अनुभा को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, वह नहीं निभा रही है और केवल उसे ही इन गंदे कामों में फँसे रहना पड़ता है। अगर वह ऐसा सोच रही है तो बिल्कुल गलत सोच रही है। अब कौन उसको समझाएगा किअनुभा उस घर की बेटी नहीं है। वह पराए घर की बेटी है। और कुछ ही दिनो में अपने घर लौट जाएगी। इससे बढ़कर भाभी को इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि जो कुछ भी वह कर रही है वह सब उसके कर्मो का भोगफल है।
अनुभा के पहले दिन की ये अनुभूतियाँ बड़ी ही कटुतातथा माधुर्य का सम्मिश्रण थी। पहले तो वह अपने माँ-पिता और भाई कीदुरावस्थादेखकर दुःखी हुई। दूसरी तरफ माँ को जिन्दा देखकर वह मन ही मन खुश भी थी। मुम्बई में रहते समय वह सोच रही थी कि वह शायद ही माँ को देख पाएगी। परन्तु ऐसी कोई अघटनीय घटना नहीं घटी थी। घर पहुँचने पर उसने देखा कि माँ ने कोई बिस्तर नहीं पकड़ा था। केवल दिमागी हालत खराब होने से वहउल्टी- पुल्टीहरकते कर रही थी। उसे लग रहा था कि माँ इस अवस्था में भी आराम से कम से कम दो-तीन साल जी पाएगी।
जबकि दूसरे दिनअचानक एक दुर्घटना घटित हुई। दोपहर के समय जब भैया ऑफिस से लौटकर घरपहुंचे और माँ को साफ करने लगे उस समय अनुभा उनकी मदद कर रही थी। मई महीने की प्रचंड गर्मी से शायद माँ को कष्ट हो रहा होगा, सोचकर अनुभा कहने लगी "भैया माँ को थोड़ा पकड़िए तो अच्छी तरह नहला देते हैं।"
दोनो मिलकर माँ को नहला ही रहे थेकि हठात् माँ मिट्टी के लोंदे की भाँति जमीन परगिर पड़ी। भले ही माँ का अस्थि पञ्जर दिखने पर भी पहले माँ सीधी होकरखड़ीहो पा रही थी, चल पा रही थी, अपने आपको बचाने लायक उसके पास थोड़ी-बहुत ताकत भी थी। नहलाना अगर उसकी इच्छा के विपरीत होता तो वह जरुर विरोध करती, ऐसे मिट्टी के लोंदे की भाँति जमीन पर
गिर नहीं जाती। माँ का शरीर जोर-जोरसे काँप रहा था। भैयाउनको उठाकर बाहर ले गए तथासूखेवस्त्र पहना दिए। देखते-देखते शाम को माँ को बुखारआ गया। तीन दिन तक तेजबुखार उतरा नहीं। सारा शरीर पीला पड़ना शुरु हो गया। डॉक्टर को घर में बुलाया गया। डॉक्टर ने सारी बातें सुनी, उनको देखा तथा अस्पताल में भर्ती करवाने को कहकर चले गए। अगर उन्हें अस्पताल में रखा गया तो ठीक से देखभाल की जा सकेगी ?
अनुभा को अस्पताल का नाम सुनते ही डर लगनेलगा। माँ को अस्पताल में भर्ती कर देने के बाद पता नहीं क्यों अनुभा को असहाय और एकाकी लग रहा था। मरीज घर में होने से बात कुछ अलग होती है लेकिन अगर उसे अस्पताल में भर्ती करवा दिया जाता है तो उसकी सेवा-सुश्रुषाकरने के लिए अतिरिक्त आदमियों की आवश्यकता पड़ती है। चूँकि माँ की हालत गंभीर थी इसलिए डॉक्टर ने उसे अस्पताल में भर्ती करने के लिए कहा। उसे ऐसा लग रहा था मानो माँ को उसी का इन्तजार था। क्या अब माँ और बच नहीं पाएगी, दिल काँप उठा था अनुभा का। वह/घबराने लग गई थी। घबराकर उसने आस-पास शहरों में रहने वाले भाई-बहनों को फोन कर दिया था। जब वे सभी घर आ गए तो घर में भीड़ हो गई। पूरा दिन सभी माँ को घेरकर बैठ जाते थेलेकिनजैसे ही रात होती थी, उनसभीकाकुछ न कुछ काम निकल जाता था। भाई के अलावा कोई भी सच्चे मन से रात को अस्पताल में रहना नहीं चाहता था। यहाँ तक कि अनुभा भी नहीं। इधर डॉक्टर भी समझ नहीं पा रहे थे कि माँ की बीमारीकी असली जड़ क्या है ? आठ दिन से माँ ने कुछ भी नहीं खाया, इस वजह से कहीं उसे डिहाइड्रेशनतो नहीं हो गया। शायद यही सोचकर डॉक्टर ने यह नली लगाई थी। नली की मदद से सलाइन के अतिरिक्त तरल खाना भी दिया जाता था। इतना होने के बाद भी माँ उठकर नहीं बैठ पाई। उसके खून में हिमोग्लोबिन का प्रतिशत छह तक रह गया था। खून की कमी देखकर डॉक्टर ने तीन बोतल खूनचढ़ाने के लिए कहा। तीन बोतल खून का नाम सुनकर सभी सिहर उठे। ह्मदय ठीक काम रहा है, फेफड़े और किडनी भी ठीक है। तब खून की जरुरत क्यों ? क्या डिहाइड्रेशन रोकने के लिए जो सलाइन माँ को चढ़ाया गया था, वह पर्याप्त नहीं है ? वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिरकर माँ को डिहाइड्रेशन क्यों हुआ। सभी एक दूसरे पर आक्षेप लगा रहे थे. हो सकता है माँ की देखभाल ठीक से नहीं हुई, हो सकता है माँ के प्रति काफी लापरवाही बरती गई। कौन सुनना चाहेगा माँ की गाली-गलौज ? कौन सहन करना चाहेगा माँ का धक्का-मुक्का और पागलपन ? लोग कह रहे थे, अगर समय रहते माँ को अस्पताल लाया जाता तो शायद यह दुर्गति नहीं होती। ऐसे ही तर्क-वितर्क, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में समय बीता जा रहा था। भैया का ब्लड ग्रुप माँ के ब्लड ग्रुप के साथ मेल खा रहा था, इसलिए पहले-पहलखूनभैया ने दिया। माँ के हाथ की बारीक शिराओं में बार-बार सूई लगाकर नर्स ने लहलुहान कर दिया तब भी सही शिरा पकड़ में नहीं आई थी। इस काम के लिए भी मेडिकल स्टॉफ की खूब खुशामद करनी पड़ी थी। वे लोग कह रहे थे आपको मरीज को सामान्य वार्ड में रखना था। वहाँ क्योंनहीं रखा ?केबिन में हमारी कोईड्यूटीनहीं है। यहाँ नर्सिंग स्टॉफ बहुत कम हैं इसलिए केबिन में किसी को भी ड्यूटीनहीं दी जाती है। अगर मैं अभी ब्लड की बोतल चढ़ाकर चली जाती हूँ तो दूसरी पारी में मेरी ड्यूटी नहीं है और दूसरी पारी का चार्जकेवल एक दीदी के पास रहता है। वह अकेली दीदी वार्ड देखेगी याकेबिनमें दोड़ती रहेगी ? उस नर्स को शान्त करने के लिए भैया ने छोनापुड़ और कोल्ड-ड्रिंकमँगवाया था. तब कहीं नर्स का पारा कुछ कम हुआ। अनुभा इच्छा नहीं होते हुए भी नर्स की ओर देखकर हँसने लगी। नर्स हँसते हुए कह रही थी " देखिए न मौसी के शरीर में केवल
हाड़-माँस ही बचा है। सुईलगाऊँ तो कहाँ लगाऊँ ? थोड़ा आप सभी उनकी तरफ देखिए कहीं हाथ इधर-उधर न हिलाएँ। बोतलपूरीहोने से कुछ समयपहलेड्यूटीरूम से दीदी को बुला लेना।"
ठीक उसी समय डॉक्टरसाहब ने केबिन के अन्दर प्रवेश किया। अनुभा उनके सम्मान में कुर्सी से उठकर खड़ी हो गई "खून चढ़ा दिया है ? ठीक है, ठीक है ।"
बस इतना कहते हुए डॉक्टरबाहर निकल गए। धीरे-धीरेमाँ के पास परिजनों का तांता लगने लगा था। मगर भाई-बहनो में से कोई-कोई तो अपना अत्यावश्यक काम दिखाकर उसी दिन वापस अपने घरो को लौट चले थे। भैया अभी भी माँ के ठीक होनेकी उम्मीद करने लगे थे कि खून की तीनबोतलेचढ़ने के बाद माँ अवश्य ठीक हो जाएगी, वह उठकर एक कमरे से दूसरे कमरे में घूम-पिर सकेगी। वह अपने आप फिर से बड़बड़ाने लगेगी।
खून की दूसरीबोतलके लिए अनुभा की छोटी बहन का नाम सामने आया था। दो-तीन दिनो के बाद दूसरी बोतल चढ़ाना था। सात भाई बहनो में से आधे अपने-अपने घर कौ लौट जाने के कारण अनुभा को क्रोध पैदा हो रहा था। वह सोच रही थी कि सारे के सारे स्वार्थी हैं। बिना कुछ काम-काज किए अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए। क्या मेरा कोई घरबार नहीं है ? दो साल के बाद तो घर आई थी तो इसका मतलब ये नहीं है कि सारा का सारा भार मेरे कन्धों पर लाद दिया जाए। उसका मन इस कदर खट्टा हो गया था कि रात को अस्पताल में रहने की बात उठते ही उसने साफ-साफ मना कर दिया।
लेकिन भैया बिना किसी का इन्तजार किए निर्विकार भावसे अस्पताल की ओर चल दिए। उस समय तक चार दिन हो चुके थे, भैया को बिना सोए हुए। भैया की यह हालत देखकर अनुभा के मन में दया-भाव जाग उठा। इधर भाभी भैया से कह रही थी "चलिए आज हम दोनो अस्पताल में रात गुजारेंगे। आप अकेले और कितने दिनो तक जागते रहेंगे ।आपका छोटा भाई सोनू माँ को देखने के लिए मेहमान की तरह आया और चला गया अपने बाल-बच्चों के साथ।अपनी नौकरी वाली जगह पर. हम लोग तो हैं न, चलिए। मैं जागूंगी तो आप थोड़ा विश्राम कर लीजियेगा।"
मगर भाभी की बातें सुनकर अनुभा आश्वस्तनहीं हुई। एक बार अनुभा ने दिन के समय देखा था कि अस्पताल में भाभीमाँ के दोनोहाथों को एक साड़ी से बाँधकरदीवारके सहारे सो रही थी। उस दिन से अनुभा का भाभी पर से विश्वासउठ गया था। उसे ठीक उसी तरह लगा जैसे कि वह अमानवीय ढंग से माँ को घर में बंद करके रखती थी। बहुत सारे ऐसे मरीज अस्पताल में आते हैं जिन्हें सलाइन भी चढ़ता है और खून भी। मगरकोईउन मरीजों को हाथ-पैर बाँधकर तो नहीं रखता!
रात दस बजे के आस-पास खाना खा लेने के बाद अनुभा अपने भाई के साथ अस्पताल की ओर निकल पड़ी। उसके जाते समय भाभी ने ऊपरीमन से एकाध बार जरुर मना किया था। दोनो के अस्पताल पहुँचने के बाद वहाँ पहले से मौजूद छोटी बहन और अन्य परिजन घर लौट गए। भैया बाहर जाकर एक सादा गुट्खा और तीन-चार बबलगम खरीदकर ले आए और कहने लगे "पहले तुम सो जाओ रात को एक बजे के आस-पास मैं तुमको जगा दूँगा। तब उठकर तुम माँ की देख-भाल करना।"
मगर भैया ने उसे एकबजे नहीं उठाया बल्कि तीन बजे के आस-पास जगाया। हो सकता है अनुभा को गहरी नींद में सोता देख उन्हे दया आ गई हो। नींदसे जागने के बाद अनुभा माँ के हाथ के ऊपर अपना हाथ रखकर प्लास्टिक कुर्सी में बैठ गई और अपने दोनो पैर माँ की खटिया के ऊपर
रख दिए ताकिउसेअपनीकमर दर्द में कुछ राहत मह्सूस हो। बैठे-बैठे पता नहीं कब उसे नींद लग गई। उसी दौरान माँ ने उसके नाक में लगी हुई नली को खींचकर बाहर निकाल दिया। यह देखकर वह चिन्ता में पड़गई। अभी सवेरा होने वाला है, घर से कोई न कोई यहाँ आएगाऔर माँ की खुली नली को देखकर दोषारोप सीधा उसी के ऊपर करेगा। वह कहेगा "माँ की सहीदेख -भाल के लिए आप लोग अस्पताल में आए थे कि सोने के लिए?"
अनुभा ने देखा, भैया आँखो के ऊपर हाथ रखकर गहरी नींद में सो गए थे। भैया कोक्या कहेगी अनुभा ? भैया उसको क्या सुनाएंगे ? कहेंगे अगर नींद लग रही थी तो उन्हें जगा देना चाहिए था। इधर नर्स भी व्यर्थ में आकर इस पर चिल्लाने लगेगी। यही सोचकर अनुभा ने भैया को नहीं उठाया। अगर वह भैया को उठाती तो वह क्या कर लेते। जो कुछ भी होगा डॉक्टर के आने के बाद ही तोहोगा ।सवेरे- सवेरेअस्पताल के आस-पास गाड़ी, मोटर, लोगों की आवाज से भैया की नींद खुली। जैसे ही वह नींद से उठे अनुभा कहने लगी "ये देखिए तो भैया माँ ने नाक की नली खींचकर बाहर निकाल दी।"
अनुभा सोच रहीथी कि भैया उसे गाली देंगेऔर गुस्सा होकर कहनेलगेंगे कि एक अकेला आदमीकितना कर सकता है। मगरभैया हँस कर कहने लगे "क्या झपकी लग गई थी ? ठीक है घबराने की कोई बात नहीं। डॉक्टर का इन्तजारकरतेहैं और आने के बाद फिर एक बार लगवा देंगे।"
उस दिन अनुभा अपनेनित्य कर्म से निवृत होने के लिए घर नहीं गई। वह वहीं बैठकर डॉक्टर का इन्तजार करने लगी। मगर दुर्भाग्य से वहीडॉक्टर न आकर कोई दूसरेनएडॉक्टर आए थे। यह डॉक्टर जब से माँ को भर्ती करवाया गया था तब से छुट्टी पर थे. सवेरे से ही भैया माँकीनली लगवा देने के लिए नर्स और डॉक्टर के आगे-पीछे घूम रहे थे। बार-बार उनके सामने अनुनय- विनय कर रहे थे पर किसी के पास समय नहीं था।
चिड़चिड़ाकर नर्स कहने लगी "धीरज रखिए, जो भी होगा वार्ड का राउंड खत्म होने के बाद होगा।"
वार्ड में सौ से ज्यादा मरीजभर्ती थे। इतनेरोगियों को देखने से डॉक्टर को कब फुर्सत मिलेगी।
सुबह माँ को नली द्वारा खाना नहीं दिया जा सका। लगभग साढ़े ग्यारह बजे के आस-पास डॉक्टर केबिन में आए। पुरानी कहावत है कि बृषभ का क्रोध महादेव से ज्यादा होता है, ठीक उसी प्रकार नर्स नागिन की तरहफुंफकाररही थी। यद्यपि यह जान-पहचानवालीनर्स थी। फिर भी उसका व्यवहार पूरी तरह से रुक्ष था। विगत चार दिनो में भैया ने उसको आठ-दस कोल्ड-ड्रिंक पिला दिए थे, उसके बावजूद भी उसका मिजाज ठंडा नहीं हुआ।यह नया डॉक्टर भी अच्छे स्वभाव का नहीं था। वह संवेदनहीन था। पहले वाले डॉक्टर की तुलना में वह सीनियर था तथा उसकी खूब प्रैक्टिस चलती थी। छह महीने पहले यही डॉक्टर उनकेघर भी आए थे माँ को देखने के लिए।
उस डॉक्टर के आने से पहले अस्पताल में माँ के कई स्वास्थ्य सम्बंधीपरीक्षण हो रहा था। यह नया डॉक्टर भी अच्छे स्वभाव का नहीं था। वह संवेदनहीन था। पहले वाले डॉक्टर की तुलना में वह सीनियर था तथा उसकी खूब प्रैक्टिस चलती थी। छह महीने पहले यही डॉक्टर उनकेघर भी आए थे माँ को देखने के लिए।
इस डॉक्टर साहब ने सारी रिपोर्टों को नीचे फेंक दिया और कहने लगे " बताएँ क्या बीमारी है ?"
भैया बतलाने लगे "दो साल से माँ की दिमागी हालत ठीक नहीं है। वह किसी को भीपहचान नहीं पा रही है। कभी दिन भर खाती रहती है तो कभी आठ-दस दिन तक मुँह में एक दाना भी नहीं डालती है। चार दिन पहले माँ को बुखार आ गया और वह धड़ाम से नीचेगिर पड़ी। उसके बाद वह खड़ी नहीं हो पाई।"
भैया विस्तार पूर्वक डॉक्टर को माँ के बारे में बताते जा रहे थे तभी डॉक्टर ने बीच में उनको रोका और पूछने लगे "स्मृति विभ्रमके लिए क्या-क्या दवाई दी जा रही है ?"
भैया कहने लगे "आप को पूछकर माँ को एक बार नींद कीकुछ दवाइयाँ दीथी। उसके बाद और उनको कहीं नहीं दिखाया।"
"अच्छा।"
"सर, माँ ने नाक वाली नली बाहर निकाल दी है। कृपया उसको लगवा देते।"
"सर्जरी डॉक्टर को कहिए।" कहकर डॉक्टर वहाँ से बाहर निकल गए। सुबह से ही डाक्टरों के पीछे भागते-भागते भैया थक चुके थे और काम नहीं होने की वजह से वे दुःखी हो गए थे। बारह बज चुके थे मगर माँ के पेट में हॉरलिक्स मिले दूध की दो बूँदे भी नहीं जा पाई थीं। अनुभा अपने आप को दोषी मान रही थी। भैया से आखिरकर रहा नहीं गया, वे अपने पुराने डॉक्टर के घरजाकर किसी तरह मनाकरकेबिन में ले आए थे। डॉक्टर ने नली को लगा दिया और कहने लगे कल एक और बोतल खूनचढ़वा दीजिए। डॉक्टर अनुभा की तरफ देखकर पूछने लगे "मुझे लगता है आपकी माँ का चेहरापहले से थोड़ाअच्छा लग रहा है।"
यही देखने के लिए मैंने बहुत देर तक मेडिकल किताबों का अध्ययन किया।"
कोल्डड्रिंकपीते हुए डॉक्टर ने कहा ।शायद आज उनका मूड ठीक लग रहा था। मेडिकल रिपोर्टोंको अपने हाथ से पलटते हुए कहना जारी रखा "ट्रीटमेंट चलते हुए एक सप्ताह हो गया हैइसलिए इसइंजेक्शनको और देने की जरुरत नहीं है। अच्छा एक काम कर लीजिए। खून की एक बोतल और चढ़वा दीजि॥ फिर देखते हैं आगे क्या करना है।"
माँ की दिमागी हालत के बारे में उन्होंने कुछभी नहीं बताया और भैया की तरफ देखकर केबिन से बाहर चले गए।
आठ दिन हो गए थे भैया को ऑफिस से छुट्टी लिए हुए। अकेले सारी दौड़-धूप कर रहे थे। उनकीछुट्टी का समय भी बीता जा रहा था। माँ की तबियत में कोई सुधार परिलक्षित न होता देख ऐसा लग रहा था मानो समय भी वहाँ आकर रुक गया हो। अच्छे-अच्छे डॉक्टर भी किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँच पा रहे थे। इधर अनुभा का मुम्बई लौट जाने का समय नजदीक आ गया था। बच्चों का स्कूल खुलने वाला था और वहाँ रुकना उसके लिए सम्भव नही था। तीन टिकट पहले सेबने हुएथा। अब वह और इन्तजार नहीं कर सकती थी मगर फिर भी उसके मन में एक जिज्ञासा इस बात को लेकर बनी हुई थी कि ऐसे क्या कारण हो सकते हैं कि डॉक्टर ने खून की एक और बोतल चढ़ाने का परामर्श दिया। अब यह खून और कौन देगा. क्या दीदी को फिर बुलाया जाए। उसका ब्लडग्रुप माँ के ग्रुप से मेल खाता था । अनुभा के शरीर में तो पिताजी के ग्रुप का खून था। पहली दो बोतलबोतले तो भैया और छोटी बहन नेदे दीथी इसलिए इस तरफ सोचने की कोई जरुरत ही नहीं पड़ी मगर तीसरी बोतल ? इसके लिए भैया अस्पताल के रक्त बैंक में भीगए थे मगर उन्हें निराशा हाथ लगी। तभी अनुभा को चार दिन पूर्व मनु भाई के साथ हुई बातचीत यादआ गई। वह कह रह थे कि खून की व्यवस्था आराम से हो जाएगी क्योंकि वह रोटरी क्लबकेएक वरिष्ठ सदस्य है। कहीं न कहीं से व्यवस्था हो ही जाएगी. अनुभा छोटी बहन को साथ लेकर उनके घर गई तथा सारी बातें बता आई। सब बातेंसुनने के बाद मनु भाई अपने वचन से पलट गए और कहने लगे "अरे !इतनी जल्दी ब्लड कैसे मिल पाएगा ? मैं दे देता लेकिन अभी-अभी अट्ठारह बार दे चुका हूँ। ठीक है, देखते हैं। अब घर आई हो तो कुछ व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी।"
"मैंने तो आप को चार दिन पहले से बोल कररखा था।कल तो जरुरत है। और अब कब मिलेगा ?"
"नहीं, नहीं जुगाड़ नहीं हो पाया था।" मनुभाई ने टी.वी. देखते-देखते उत्तर दिया। अनुभा की समझ में आ गया कि मनु भाई और कुछ भी नहीं करने वाले हैं। जब वह लौटकर आ रही थी तभी उसकी मुलाकात मनु भाई के बड़े भाई बुनु से हो गई। अनुभा ने उनको भी ब्लड की जरुरत के बारे में बताया तथा उनके ब्लड ग्रुप के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। बुनु भाई कहने लगे "मेरा ब्लड ग्रुप ए पोजिटिव
है।"
यह सुनकर अनुभा के मन में आशा की एक नई किरण जागी और कहने लगी माँ का भी ए पोजिटिव है। डॉक्टर चाह रहे हैं कि एक और बोलत खून दे दिया जाय। क्या आप..... ?"
घबराकर बुनु भाई तोतले स्वर मे बोले "मैं दे देता, मगर मेरा खून किसी काम का नहीं है। मेरीउम्र पचास से ज्यादा हो गई है। और इस उम्र में सारा खून तो पानी हो जाता है।"
बुनु भाई की बातों कोअनसुनाकरअनुभा अस्पताल लौट आई। छोटा भाई तो पहले से ही अपनी नौकरी पेशे वाली जगह पर चला गया था इसलिए उसके ब्लडग्रुपके बारे में तो कोई जानकारी ही नहीं रही. अनुभा को अपने अन्य भाई-बहनो के ब्लडग्रुप के बारे में पता नहीं था। अगर पता होता भी तो वह क्या कर लेती ? पास में तो कोई भी नथा । आखिर थक हारकर अनुभा ने घर में जाकर दोनो भाभियों को कहा "चलिएआप लोग भी अपना ब्लड ग्रुप चेककरवा लेते ?"
दोनों में से किसी ने भी अनुभा की बात पर ध्यान नहीं दिया. पास में अनुभा का भतीजा भी खड़ा था वह अपनी माँ से कहने लगा "माँ आप लोग दादी को खून क्यों नहीं दे रहे हैं ?"
उसकी माँ सीधे रसोई-घर में चली गई और वहाँ से कहने लगी "ऐ बेटा मेरा खून तो पानी हो गया।"
"मतलब ?"
अनुभा अपनी हँसी को रोक नहीं पाई। "अगर खून पानी हो जाता तो आप ऐसे घूम फिर पाते ?"
उससे पहले कि अनुभा छोटी भाभी को कुछ कहे, पहले वही कहने लगी "मेरे शरीर में तो खून की कमी है। डॉक्टर ने खून बढ़ाने के लिए
आयरन टॉनिक भी लिखे हैं।"
उस दिन अनुभा ने उस बात का अनुभव किया कि लोगों में रक्त दान के बारे में कितनी गलत धारणा है और डर ब्याप्त है। वह सोचने लगी शायद इंसान से ज्यादा और कोई स्वार्थी और संकीर्ण दिमाग वाला प्राणी इस धरती पर नहीं होगा। उसने तय किया कि वह अपने खून का विनिमय करके माँ के ग्रुप का खून अवश्य जुगाड़ करेगी। ब्लड बैंक में जाकर उसबाबतअपने पूर्व परिचित डॉक्टर औरफार्मासिस्टसे सलाह लेने लगी। "ठीक है कोई आएगा तो हम आपको बता देंगे। फिर भी आप अपने स्तर पर प्रयास जारी रखिए। अगर कोई आपसे बी लेकर ए देना चाहे तो हमें बताइएगा।"
अनुभा निरुत्साहित होकर कहने लगी "इतने बड़े हास्पीटल में किस-किस से पूछूँगी, किसको जाकर बोलूँगी, बी पोजिटिवका खून लीजिए और ए पोजिटिवका खून दीजिए।"
"अरे ! आप अस्पताल में क्यों खोजेंगे। जाइए सामने वाली दो-चार दवाइयों की दुकान में खबर कर दीजिए। देखते-देखते एक घण्टे के भीतरखूनकी व्यवस्था हो जाएगी।"
भैयाजाकर सामने की दो-चार दवाइयों कीदुकानोंमें रक्त विनिमय के बारे में बताकर आ गए। वास्तव में आधा घण्टा भी नहीं बीता होगा कि एक आदमी केबिन में पहुँच गया और कहने लगा "सर, कौन बी पोजिटिवखून देंगे ?"
"मैं" अनुभा चहककर कहने लगी "आपके पास ए पोजिटिववालाखून है ?"
पूछने के बाद अनुभा बड़ा संकुचितअनुभवकर रही थी कि यह कैसा व्यापार ?
इस आदमी के माँ-बाप , बेटा या पत्नी किसी के जिन्दा रहने के लिए खून की जरुरत होगी ऐसे में सीधा बोलना शायद उचित नहीं था। व्यस्तता में आदमी ने उत्तरदिया "हाँ, ए पोजिटिवमिल जाएगा। हमारे पास एक आदमी है उसको लाने के लिए मैने अपनी जान-पहचान वाले को भेज दिया है।"
"वह आदमी खून देने के लिए राजी होगा ?"
"हाँ मैडम। वह रिश्ते में मेरा साला लगता है। मेरी खातिर इतना नहीं करेगा।"
अनुभा मन ही मन हँस रही थी कि एक बोतल खून के लिए कहाँ-कहाँ खाक नही छानी। मगर अब आशा की इस नव किरण को देखकर वह आश्वस्त हो गई थी और बेचैनी से उस आदमी के आने काइन्तजार करने लगी, इसलिए दोपहर को वह खाना खाने के लिए अपने घर भी नहीं जा पाई। इधर बीपोजिटिवखून चाहने वाला आदमी बार-बार केबिन में आकर अनुभा को देखने लगता "मैडम, आप हैं न ?"
"मैं तो हूँ पर आप का आदमी ?"अनुभाकहने लगती।
"देख रहाहूँ मैडम अभी तक तो उसको आ जाना चाहिए था।"
अब तक भैया ब्लड-बैंक के दो-चार चक्कर काट चुके थे परन्तु वहाँ न ता कोई खून विनिमय करने के लिए आया था और न ही देने के लिए। लगभग तीन बजे अनुभा अपने घर जाकर कुछ खाना खाकर आ गई। मानो अन्तहीन हो गया था वह इन्तजार, दिन ढलकर शाम होने जा रही थी, फिर भी वह आदमी कहीं दिखाई नहीं दिया। अनुभा ने सोचा और ज्यादा इन्तजार करने में कोई लाभ नहीं है। अगर माँ के लिए खून नहीं भी मिलता है तो भी वह अपना खून उस आदमी को दे देगी। बेचारा कितनी आशाएँ लिए उसके पास दौड़ा आया था। अनुभा भैया से कहने लगी "माँ के लिए खून की व्यवस्था नही होने पर भी मैं उस आदमी के लिए अपना खून देना चाहती हूँ। आप की क्या राय है ?"
भैया शान्त लहजे में बोले "देगी ?" शायद ऊपरवाले को अनुभा के उस त्याग प्रवृत्ति का ही इन्तजार था। जैसै ही उसने मन में स्वेच्छा से खून देने का निर्णय किया वैसे ही वहआदमी अपने साथ खून देने के लिए अपनेसाले को लेकर पहुँच गया था। अनुभा खुश हो गई थी। जो भी हो, सारी समस्याओं का निदान हो गया। छोटी बहन को माँ के पास छोड़कर अनुभा भैया को साथ ब्लड-बैंक चली गई वहाँ उन दोनो के ब्लडपरीक्षण किया गया। दोनो का वजन भी चेक किया गया। उसके बाद औपचारिक लिखा-पढ़ी व अन्य काम समाप्त होने के बाद कहीं अनुभा नर्वस न हो जाए इसलिए उसको खाने के लिए मिठाई और पीने के लिए दूध दिया गया। अनुभा हँस रही थी। वह मन ही मन सोच रही थी क्या उसको सूली पर चढ़ाया जा रहा है। भैया ने उसको बात मान लेने के लिए कहा, तभी छोटी बहन ने एक अन्जाने लड़के के हाथ में जल्दी आने के लिए यह खबर भेजी कि माँ की तबियत बहुत बिगड़ती जा रही है। भैया ने कहा ठीक है हम लोग पहुँच रहे है "पहले ब्लड वाला काम पूरा हो जाय।"
जैसे हीअनुभा के खून देने का काम पूरा हुआ वैसे ही दोनो बिना एक पल रुके दौड़ते हुए माँ के पास पहुँच गए। प्रतीक्षा करती निराश छोटी बहन उनको देखते ही कहने लगी "देखिए तो भैया, माँअपनी कमर किस तरह से बार-बार ऊपर उठा रही है पता नहीं उसको क्या हो गया।"
"शायद पाखाना हुआ होगा।"
"नहीं, पाखाना नहीं हुआ है।"
"अच्छा ठीक है, डॉक्टर को बुलाते हैं।"
भैया ने धीरे से माँ को उठाकर बैठा दिया। उन्होंने देखा कि माँकी कमर के दोनो तरफ चमड़ी निकलकर लाल घाव हो गए। छोटी बहन डरते हुए कहने लगी "बेडसोर। यह तो उनकी पूरी पीठ में फैल जाएँगे। मेरी सास को भी बेडसोर हुएथे । मैं एक महीने तक खूब परेशान हुई थी।"
अनुभा को उस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। वह घबराकर धम से कुर्सी पर बठ गई।
"तो फिर क्या किया जा सकता है ? घाव देखने से ही डर लग रहा है। कैसे ठीक होंगे ?"
"छोटी बहन कहने लगी, ये घाव कहाँ ठीक होते हैं ? जब एक घाव सूखेगा तब दूसरा घाव तैयार हो जाता है।"
उसकी बातें सुनकर भैया का चेहरा पीला पड़ गया और वे कहने लगे "गीता तू सच बोल रही है ?"
माँ को दाई करवटे सुलाकर कुछ समय तक वे तीनो चुपचाप बैठे रहे। कुछ देर बाद छोटी बहन फिर से अपनी सास केबेडसोरके बारे में जितनी उसको जानकारी थी, वह बताने लगी। अनुभा उसकी बातें सुनकर भयभीत होने लगी। छोटी बहन उसको डरते देख कहने लगी "डरने की कुछ भी बात नहीं है। घाव को हमेशा हवा की दिशा में रखनापड़ेगा ।पाउडर लगा कर रखने से और नहीं फैलपायेंगे ।"
वार्तालाप के बीच में से भैया उठकर कहीं बाहर चले गए और दस मिनट के बाद एक आदमी को लेकर साथ लौट आए। वह आदमी उनका पुराना दोस्त था। उनकी एक दवाई की दुकान भी थी। वह कहने लगा "दिखाइए, कहाँ बेडसोर हुआ है ?"
माँकीकमर पर से कपडेहटाकर भैया उसको दिखाने लगे।
"ओह ! यह तो शुरुआत है। मल्हम लगाकर खुला करके रखेंगे। मेरी दादी को जब बेडसोरहुएथे तोखूब पैसे खर्च हुए थे। छह महीने तक पचास रुपए का एक कैप्सूल दिन में तीन बार। हर दिन 150रु. खर्चा आता था।
"डेढ सौ रुपया, भैया ने आश्चर्य चकित होकर पूछा।"
"मेरी दादी भी इसी तरफ कोमा में पड़ी हुई थी।"
अनुभा ने पूछा "कोमा में आदमी कितने दिनों तकपड़ारहता है ?"
"साल दो साल भी हो सकता है।"
उस आदमी की बातें सुनकर तीनों स्तब्ध रह गए मानो अब माँ के इस बोझ को सम्भालते-सम्भालते वे लोग थक चुके थे। एक-एक कर माँ को देखने के लिए घरवाले और रिश्तेदार आना शुरु हुए परन्तु उन तीनो ने एकदम मौन व्रत धारण कर लिया, किसी से कुछ भी बातचीत नहींकी । लगभग आठ बजे रात को भैया ने कुर्सी में बैठकर जम्हाई लेते हुए कहा "अन्नु आज रात को और मैरुक नहीं पाऊँगा। बहुत कष्ट हो रहा है।" "भैया, अगर आप इस तरह टूट जाएँगे तो फिर हम लोग क्या करेंगे ?"
छोटी बहन ने कहा "अस्पताल में माँ की देखभाल करते हुए बड़े भैया को बहुत दिन हो गए हैं। अब वे बुरी तरह थक भी चुके हैं। आज छोटा भाई भुवनेश्वर से घर आता ही होगा। छोटे भाई और छोटी भाभी को आज रात में यहाँ रहने के लिए कह देते हैं।"
अनुभा सोच रही थी, माँ छोटे बेटे को बहुत ज्यादा प्यार करती थी लेकिन क्या वह माँ को देखने के लिए रात में अस्पताल में जाग पाएगा ? बचपन से ही वह बड़े लाड़-प्यार में पला है। वह कभी भी रात में यहाँ रहने के लिए तैयार नहीं होगा। लग रहा है भैया को ही ये सब कष्ट सहन करने पड़ेंगे । क्योंकि वे अपनी तकदीर में लिखवाकर लाए हैं । घर में सबसे ज्यादा धैर्यवान बड़े भैया थे। वह भी बेडसोर का नाम सुनते ही ऐसे टूटे कि वहाँ रहने का उनका मन ही नहीं हो रहा था। नाक में फिट की हुई रायल ट्यूबके सहारे सिरिन्ज के द्वारा खाना खिलाना, पानी जैसे बहने वाले पतले मल कोसाफ़ करना और ऊपर से बचा था तो यह 'बेडसोर' भी। अनुभा भैया की मानसिक स्थिति का आकलनकरते हुए कहने लगी "कल हम माँ कोखून की बोतलचढानेके बाद घर ले जाएँगे। डॉक्टर भी तो अभी तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहे हैं। पहले तो वे कह रहे थे कि माँ केब्रेन में खून कासंचरण रुक गया है। अभी तक उनको किसी सही बीमारी का पता भी नहीं चला है। अभी कह रहे हैं 'ओल्ड एज सिम्पटम' है।
माँ की उम्र ज्यादा होने के कारण यह सब हो रहा है ? उसको अस्पताल में रखकर गिनी पिग की तरह इधर से उधर....... क्या रखा है माँ के शरीर में , जो उसको सुई से छेद -छेद करके इतना कष्ट दिया जाय। चार दिन बाद मुझेभीमुंबईजाना होगा। गीता को आए बहुत दिन हो गए हैं। उनके पति भले ही कितने अच्छे आदमी हो मगर अकेले रहने में उनको भी तो परेशानियां हो रही होगी। बेचारे खुद खाना बनाकर ऑफिस जाते होंगे। गीता भी कितने दिन तक यहाँ बैठी रहेगी ? आपकी भी छुट्टी पूरी होने वाली होगी, और कितनी रातें आप जाग पाएँगे ? माँ को घर ले जानेसे सब थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर देखभाल कर पाएँगे।"
एकलम्बेभाषण को समाप्त करने के बाद अनुभा एक दम मौन हो गई मानो माँ उसके लिए भी अब एक अनसुलझी पहेली बन गई हो। अनुभा स्वयं हीमाँ को अस्पताल में भर्ती करवाने के लिए आगे आई थी और अब वह खुद ही घर ले जाने की बात कर रही थी। पहली बार उसने थोड़ा-बहुत समय माँ को दिया था। पर न माँ ठीक हो पाई और न ही मुक्त। केवल एक लम्बी प्रतीक्षा।इसका मतलब क्या माँ उसी के आने का ही इन्तजार कर रही थी ? अस्पताल के बरामदेमें बैठे पिताजी शायद उसकी बात को सुन रहे थे, केबिन के भीतर आकर उदास स्वर में पूछनेलगे "माँ को क्या घर ले जाओगे ? क्या उसकी अवस्था में कोई सुधार नहीं आ रहा है ?"
पिताजी के चेहरे और आवाज में एक दुखी आदमी का दर्द स्पष्ट झलक रहा था। अभी तक अनुभा अपने पिताजीको समझ नहीं पाई ? माँ के लिए उनके ह्मदय के किसी कोने में छुपा हुआ यह थोड़ा साप्यार , जिसको आज तक अनुभा ने नहीं देखा था। एक पुरुष व्यक्तित्व के अन्दर छुपा हुआ यह निर्मल प्रेम चारो ओरबिखेरने का वह प्रयास कर रहे थे जिसे अनुभा देख न सकी। शायद माँ को कष्ट होगा, यही सोचकर उसकी आँखो का ऑपरेशन करवाने के लिए उन्होंने मना कर दिया। शायद इलेक्ट्रिक शॉककेडर से किसी मनोवैज्ञानिक डॉक्टर के पास वह लेकर नहींगए।
लेकिन अनुभा ने क्या किया ? सारे माहौल को बदलकर माँ को अस्पताल में भर्ती करवा दिया। चलती-फिरती माँ को कुछ ही दिनो में एक सरीसृप बना दिया। सभीभाई-बहन यही कह रहे थे कि माँ तो केवल उसका ही इन्तजार कर रही थी और अनुभा खुद भी यह सोच रही थी कि माँ उसको देखकर अपनीआँखेंसदा-सदा के लिए मूँद लेगी जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता है। अब माँ को किसका इन्तजार है ? अगर वह ठीक भी हो जाएगी, उठकर खड़ी होने लगेगी, चलने-फिरने लगेगी तो भी क्या लाभ मिलेगा। ऐसे ही जंगलियों की भाँति इधर-उधर घूमेगी और लाशबनकर बिना कुछ खाए अपना जीवन विताएगी। अगर माँ जिन्दा भी रह गई तो उसमें से वह पुरानी माँ तो लौट कर नहीं आ पाएगी। माँ तो उनके जीवन से बहुत दिन पहले ही चली गई थी। बहुत दिन बीत गए माँ को सबके लिए अर्थहीन हुए। माँ को तो इस बात का भी एह्सास नहीं कि उसके चारो तरफ हो-हल्ला करते हुए चक्कर काटने वाले सब उसके बेटा-बेटी, बहु, पोता-पोती हैं। बहुत दिन हो गए अनुभा ने अपनी माँ को खो दिया उसके जीवन में कहीं और माँ का नामो निशान न था। वह तो कब से मर चुकी है ! सोचते-सोचते अनुभा फफक कर रो पडी। उसको रोते देख छोटी बहन भी विलाप करने लगी। भैया थककर पता नहीं कब से कुर्सी पर बैठे-बैठे सो गए थे। अनुभा ने अपने आँसुओं को पोछते हुए देखा कि पिताजी के गाल के ऊपर बहते हुए आँसुओं कीधारा । ये आँसू हैं या प्रेम ? अनुभा ने माँ के शरीर के ऊपर से अपना हाथ घुमाया, मन ही मन वह कहने लगी "तू जा माँ, तू इस संसार को छोड़कर उड़ जा। अब यह संसार तुम्हारा नहीं है। तू भी अब किसी की नहीं रही। जा तू किसी दूसरे संसार के लिए उड़ जा।"
परन्तु माँ बहुत हठधर्मी होकर अनुभा की बातों को अनसुनी कर ऐसी ही पड़ी रही। अभी भी माँ के गले के पास एक नाड़ी धड़क रही थी।
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ॐ श्री गणेशाय नमः ! या कुंदेंदु तुषार हार धवला, या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणा वरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना | याब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवै सदा वन्दिता सा मां पातु सरस्वती भगवती निश्शेषजाढ्यापहा ||
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मन की उन्मुक्त उड़ान को शब्दों में बाँधने का अदना सा प्रयास भर है मेरा सृजन| हाँ, कुछ रचनाएँ कृत्या,अनुभूति, सृजनगाथा, नवभारत टाईम्स, कुछ मेग्जींस और कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई हैं. हिन्दी साहित्य, कविता, कहानी, आदि हिन्दी की समस्त विधाएँ पढने शौक है। इसीलिये मैंने आखर कलश शुरू किया जिससे मुझे और अधिक लेखकों को पढने, सीखने और उनसे संवाद कायम करने का सुअवसर मिले। दरअसल हिन्दी साहित्य की सेवा में मेरा ये एक छोटा सा प्रयास है, उम्मीद है आप सभी हिन्दी साहित्य प्रेमी मेरे इस प्रयास में मेरा मार्गदर्शन करेंगे।