Archive for 4/1/10 - 5/1/10

डॉ. नन्‍दकिशोर आचार्य की पाँच कविताएँ

नन्‍दकिशोर आचार्य
रचनाकार परिचय 
श्री नन्‍दकिशोर आचार्य का जन्‍म 31 अगस्‍त, 1945 को बीकानेर में जन्‍मे अनेक विधाओं में सृजनशील श्री आचार्य को मीरा पुरस्‍कार, बिहारी पुरस्‍कार, भुवलेश्‍वर पुरस्‍कार, राजस्‍थान संगीत नाटक अकादमी एवं भुवालका जनकल्‍याण ट्रस्ट द्वारा सम्‍मानित किया गया है। महात्‍मा गाँधी अंतर्राष्ट्री हिन्‍दी विश्वविद्याल, वर्धा के संस्कृति विद्यापीठ में अतिथि लेखक रहे हैं । 
       अज्ञेय जी द्वारा सम्‍पादित चौथा सप्‍तक के कवि नन्‍दकिशोर आचार्य के जल है जहां, शब्‍द भूले हुए, वह एक समुद्र था, आती है जैसे  मृत्यु, कविता में नहीं है जो, रेत राग तथा अन्‍य होते हुए काव्‍य-संग्रह प्रकाशित हैं । रचना का सच, सर्जक का मन,अनुभव का भव, अज्ञेय की काव्‍य-तिर्तीर्ष, साहित्‍य का स्‍वभाव तथा साहित्‍य का अध्‍यात्‍म जैसी साहित्‍यालोचना की कृतियों के साथ-साथ आचार्य देहान्‍तर, पागलघर और गुलाम बादशाह जैस नाट्य-संग्रहों के लिये भी चर्चित रहे हैं । जापानी जेन कवि रियोकान के काव्‍यानुवाद सुनते हुए बारिश के अतिरिक्‍त आचार्य ने जोसेफ ब्रॉदस्‍की, ब्‍लादिमिर होलन, लोर्का तथा आधुनिक अरबी कविताओं का भी हिन्‍दी रूपान्‍तरण किया है । एम.एन. राय के न्‍यू ह्यूमनिज्म (नवमानवाद) तथा साइंस एण्‍ड फिलासफि (विज्ञान और दर्शन) का भी हिन्‍दी अनुवाद उन्‍होंने किया है ।
       रचनात्‍मक लेखन के साथ-साथ्‍ा नन्‍दकिशोर आचार्य को अपने चिन्‍तनात्‍मक ग्रन्‍थों के लिए भी जाना जाता है । कल्‍चरल पॉलिटी ऑफ हिन्‍दूज और दि पॉलिटी इन शुक्रिनीतिसार (शोध), संस्कृति का व्‍याकरण, परम्‍परा और परिवर्तन(समाज- दर्शन), आधुनिक विचार और शिक्षा (शिक्ष-दर्शन), मानवाधिकार के तकाजे, संस्कृति की सामाजिकी तथा सत्‍याग्रह की संस्कृति के साथ  गाँधी-चिन्‍तन पर केन्द्रित उन की पुस्‍तक सभ्‍यता का विकल्‍प ने हिन्‍दी बौद्धिक जगत का विशेष ध्‍यान आकर्षित किया है ।
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सर्वनाम वह
कितनी सारी कलियों में
खिलता है सूनापन
कितनी सारी पांखों में
भरता उडान
कितने सारे नक्षत्रों में
होता भासित
कितने सारे सौर-मण्‍डलों में
करता अपनी परिक्रमा


न होना
कितने सारे होने को
करता सम्‍भव
कितने सारे जीवन में
जीती है मृत्यु
कितनी सारी संज्ञाओं में
ज्ञापित है सर्वनाम
वह ।
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नहीं हो पाया
एक कविता सुनायी 
पानी ने चुपके-से
धरती को 
सूरज ने सुन लिया 
उस को 
हो गया दृश्य उस का 


हवा भी कहां कम थी 
खुशबू हो गई 
छू कर 


लय हो गया प्रकाश 
गा क उसे 


एक मैं ही न दे पाया 
उसे खुद को 
नहीं हो पाया 
अपना आप ।
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जीवन की तस्‍वीर 
एक तस्‍वीर जीवन की बनानी है- 
मृत्यु के अंकन बिना 
वह पूरी कैसे हो ?


मृत्यु और जीवन-एक साथ दोनों ।
कैसे बने यह तस्‍वीर ?
बराबर जीना होगा वह 
या बार-बार मरना ?

आँक दूँ पुनर्जन्‍म क्‍या ?
उस के लिये पर 
उचनी होगी आत्‍मा : 
उस का रूप और संसरण 
यह तो तभी होगा पर 
जब तुम-जो संसार हो मेरा- 
खोजने दो मुझको 
अपने में 
अपना आप- 
और उसके सब नव-रूप 
तुम्‍हारे ही कारण जो
बने रहते हैं ।
******* 


आवाज देनी है 
मृत्यु से की होती
इतनी मैंने प्रार्थना 
वह भी बख्‍श देती मुझे


तुम्‍हें तो बस मुझ को 
आवाज देनी है 
मेरे जिलाने केलिये ।
******* 


वही जल 
दर्पन डराता है मुझे 
सँवारूँ कितना भी खुद को 
दिख जाता है 
अपनी आँखों का मैल

देखता रहूंगा बस तुम्‍हें 
देख कर मुझे 
भर आती हैं जो 
तुम्‍हारी आँखें-
वही जल धो दे शायद उसका ।
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अमित शर्मा की चार कविताएं












चरित्र चर्चा...



बडे एक शापिंग मॉल के


महंगे एक कैफे में


कर रहीं थी वो चुहल !


चर्चा बड़ी ही ख़ास थी


शर्मा जी के बेटी


जो दिखी वर्मा जी के बेटे के साथ थी !


एक ने कहा, " देखा "पर " निकल आए है !"


दूजी कहाँ चुप रहने वाली थी


अरे आप को नही होगा पता


"सुबह से शाम गुजरती साथ है "


आज कल तो बच्चो का चलन ही खराब है !


चर्चा चलती गई और कालिख पुतती गई !


घनन -घनन तभी मैडम का फ़ोन घंनाया


हंस खिलखिला कर दो बातें हुई


थोडी देर में मिलने का समय ठहराया !


किया सहेली को विदा अपनी


और घर फ़ोन लगाया


बेटा , पापा को बोलना


मम्मा को अर्जंट मीटिंग का कॉल आया,


आते घर शाम को देर होगी जरा !


थोडी देर गये पापा का भी फ़ोन आया था


फंस गये है वो मीटिंग में ये फरमाया था ,


मम्मा, बेचारी को कहाँ था पता


पापा की मीटिंग है उसी सहेली के साथ


चरित्र चर्चा चल रही थी जिसके साथ ...
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फर्क कहाँ हुआ ???


उतारे जो उसने


कपड़े अपने तन से


मिटाने को भूख


अपने पेट की और


बेचा अपना शरीर


नाम हुआ "वेश्या"...


उतार कपड़े अपने


जब चलती


वो बल खाके


आगे एक कैमरे के


मिलती ख्याति


होता नाम...


सौंपती जब खुद को


करने नया अनुभव वो


बस चंद रातो को


फिर मिलता नाम


"वेश्या" नहीं अब


सम्मानित स्त्री का स्थान ...


क्या अलग दोनों ने किया???


कमाल है


फर्क फिर भी हुआ यहाँ...


(रास्ट्रीय स्तर की एक महिला खिलाडी के धन और काम के आभाव में वेश्या वर्ती में आने पर ...)
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जुगाड़ की कहानी ...


बचपन से सुना है एक शब्द हर मोड़ पर ...


नाम है उसका "जुगाड़ "


जो भी मिलता "जुगाड़ " का चर्चा करता ...


कैसे हुआ ये पैदा


इसकी भी अपनी कहानी है ,


जो पेश अपनी जुबानी है ...


हुई जब चाह एक बच्चे की,


किया गया "जुगाड़" के बेटा हो ...


हुआ बडा जब वो बच्चा,


किया "जुगाड़" स्कूल उसका अच्छा हो ...


बच्चे मास्टर जी के भी थे,


किया "जुगाड़" के कुछ टयूशन हो...


स्कूल , कालेज हुआ अब पुरा ,


लगा "जुगाड़" की डिग्रियां जमा ...


डिग्रिया तो आ गई अपने हाथ ,


किया "जुगाड़" नौकरी बढिया हो ...


"जुगाड़" सारे काम अपना कर गये ,


पटरी पर आ गई जीवन की गाड़ी ...


अब तो बच्चा जवान हो चला ,


दोहरानी है फ़िर यही कहानी ...


"जुगाड़" भी गज़ब है ,


देता "दो बूँद जिन्दगी की "...


चाहती है दुनिया ,


हमसे मिल जाए उनको भी ये "जुगाड़"...


जानते वो नही ,


चलते हम हिन्दुस्तानी लेकर नाम "जुगाड़"...
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आई-टी २०५० में ...


दोपहर को जब साहिब-जादे उठे


कुछ उदास से लगे


यों तो दिन सूरज चढ़े ही होता है


मगर यदा कदा दोपहर को भी होता है


हाल जब पूछा, तो यों जबाब आया


डैड,


सिस्टम मेरा सारा डाउन है


बिहेव बडा इम्प्रोपर है


प्रोसेसिंग हो रही स्लो हैं


मेमोरी से सी-पी-यू को सिग्नल नही जाता है


डाऊनलोड कुछ हो नही पाता है


प्रोसेसिंग शुरू होते ही सिस्टम हंग हो जाता है


कल से हार्ड डिस्क मेरी ब्लंक है


कल गर्ल फ्रंद का ई-मेल आया था


प्रोपोसल का रिफियूज़ल उसमें पाया था


पिंग भी कर दिया उसने ब्लाक है


सी-पी-यू तब से देता बीप है


हुआ वायरस एटैक सा मेरा हाल है


साहिब-जादे की हालत हमे समझ आ गई


फॉर्मेट अपने सिस्टम को कर डालो


पढ़ई का उसमे ओ-एस डालो


फिर न हो कोई वायरस एटैक


इसलिए लगाओ स्पोर्ट्स का फायर वाल


झट सॉल्यूशन हमने दे डाला


२०५० का है अपना अंदाज़ निराला


आई-टी बनके रह गया जग सारा...
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- अमित शर्मा
मेरठ (उ.प्र.)

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देवी नागरानी की एक ग़ज़ल

रचनाकार परिचय

देवी नागरानी का जन्‍म 11 मई 1949 को कराची (वर्तमान पाकिस्तान में) में हुआ और आप हिन्दी साहित्य जगत में एक सुपरिचित नाम हैं। आप की अब तक प्रकाशित पुस्तकों में "ग़म में भीगी खुशी" (सिंधी गज़ल संग्रह 2004), "उड़ जा पँछी" (सिंधी भजन संग्रह 2007) और "चराग़े-दिल" (हिंदी गज़ल संग्रह 2007) शामिल हैं। इसके अतिरिक्त कई कहानियाँ, गज़लें, गीत आदि राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आप वर्तमान में न्यू जर्सी (यू.एस.ए.) में एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं।
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हैवानियत के सामने इन्सानियत झुके
सर शर्म से वहीं जो झुका दें तो ठीक है
है सूनी सूनी सोच, कंवारी भी है अभी
शब्दों से माँग उसकी सज़ा दें तो ठीक है
किस काम का उजाला जो बीनाई छीन ले
पलकों पे उसके परदा गिरा दें तो ठीक है
अपना ही चेहरा देख के होता है खौफ़-सा
टूटा वो आईना ही हटा दें तो ठीक है
सौदा हुआ तो क्या हुआ दो कौड़ियों के दाम
सस्ता इतना ख़ुद को बना दें तो ठीक है
नीदों के इंतज़ार में रातें गुज़र गई
आँखों में सोए ख़्वाब जगा दें तो ठीक है
क्या खुद ही ठूंस ठूंस के खाते हैं उम्र भर
भूखों को पेट भरके खिला दें तो ठीक है
वो आशना जो रहता है मुझसे ही बेख़बर
उस नामुराद को ही भुला दें तो ठीक है
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- देवी नागरानी

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सरोजिनी साहू की कहानी - असार

रचनाकार परिचय: सरोजिनी साहू

अनुवाद :- दिनेश कुमार माली 
अनुभा ने तन्द्रावस्था  में देखा कि माँ ने अपनी  नाक  में लगी हुई नली को  खींचकर बाहर निकाल दिया  है। यह देखते ही अनुभा की तन्द्रा टूट गई। उसे तो यह  भी अच्छी तरह याद नहीं था  कि वह कब से माँ के बोझ पर अपना सिर रखकर सो रही थी। रात के लगभग तीन बजे थे कि भैया ने अनुभा की पीठ पर थपथपी देते हुए उठाया और कहने लगे "अब मुझे नींद आ रही है। तुम जरा उठकर माँ को देखती रहो।"
"ठीक है भैया, आप  ने मुझे पहले से ही क्यों नहीं जगा दिया ?" यहकहते हुए अनुभा माँ के सिरहाने की तरफ  रखी हुई प्लास्टिक की कुर्सी  पर बैठ गई। भाई  ने  आगे कहना जारी रखा "चाय पियोगी, फ्लास्क में रखी हुई है। चाय पीने से तुम्हारी नींद खुल जाएगी।
"नहीं रहने दीजिए। मेरे पर्स में बबलगम है। मैं  उसे चबाती रहूँगी। आप निश्चित  होकर सो जाइए।"
कहीं नींद न    जाय , इस डर से अनुभा ने पर्स  में से बबलगम निकाला तथा धीरे-धीरे उसे चबाने लगी। माँ बार-बार नाक में लगी हुई नली को बाहर खींचने का प्रयास कर रही थी। इसलिए उन्हें रात भर जगकर माँ की निगरानी करनी पड़ रही थी। लगातार विगत चार रातों से भैया जाग रहे थे। इसलिए अनुभा ने कहा, "हम एक काम करते हैं, मिलकर बारी-बारी से जागते हैं ताकि किसी को भी रात भर जागने का विशेष कष्ट न हो।"
वे लोग भोजन करने के  उपरान्त दस बजे के आस-पास अस्पताल आ गए थे। पास की किसी दुकान से भैया ने अनुभा के लिए बबलगम और 'पास-पास' गुटखा रात्रि जागरण में मददगार चीज के नाम पर खरीद लिया था और वह कहने लगे, "अच्छा अब तुम सो जाओ। मैं तुम्हें रात को दो बजे नींद से जगा दूँगा।"
परन्तु भैया ने दो  बजे के स्थान पर उसको  तीन बजे जगाया था। हमेशा  से ही भैया उदार प्रवृत्ति  के इंसान थे। उन्होंने जरुर यह  सोचा होगा कि बेचारी अनुभा एक घण्टा और अधिक सो जाए। उस प्रकार अनुभा को रात्रिकालीन तीन बजे से सुबह पाँच बजे तक यानी केवल दो घण्टे का ही दायित्व निर्वहन करना था। परन्तु ये दो घण्टे भी वह ठीक से जाग नहीं सकी। वह खुद को भीतर ही भीतर बहुत दोषी अनुभव कर रही थी. वह सोच रही थी कि क्या इस समय भैया को नींद से जगाकर यह कहना उचित होगा कि माँ ने  अपनी  नाक में लगी हुई नली को खींच कर बाहर निकाल दिया है। भैया क्या कहेंगे ? तुम ठीक से दो घण्टे के लिए भी माँ को संभाल नहीं पाई। सुबह जब दूसरे लोगों को इस बारे में पता चलेगा तो वे लोग क्या सोचेगे ? किसी के मुँह पर पट्टी तो नहीं बाँधी जा सकती। वे कहेंगे, आप लोगों के सोने की वजह से माँ ने उस घटना को अंजाम दिया। आप लोग वास्तव में बहुत लापरवाह हैं। अनुभा ने मन ही मन सोचा चाहे कोई कुछ कहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर उसे वर्तमान हालत में क्या करना चाहिए, इस बात के लिए चिंतित थी। क्या नर्स को डयूटीरूम   से बुलाया जाय ? क्या अभी नर्स को बुलाने से वह आएगी ? इसी नली के माध्यम से सुबह छह बजे माँ को दूध पिलाया जाता है।
उन्होंने अपने मन की  शांति के लिए अस्पताल  के केबिन  में भर्ती कराया था, अन्यथा वार्ड  राउंड में आने वाले डाक्टर  को इस बात  का जरा भी  ख्याल नहीं रहता कि उस अमुक केबिन में कोई गंभीर रोगी भर्ती  भी है। वार्ड राउंड खत्म होने के बाद डॉक्टर के आगे-पीछे घूमकरअनुनय- विनय  करने पर कहीं  वह माँ को देखने आते थे।
प्रतिदिन डॉक्टर आते थे और दवाइयाँ बदल कर  चले जाते थे लेकिन उन्हें भी सही मायने में रोगी के मर्ज का पता नहीं चला था। हृदय  की धड़कन ठीक है,फेफड़े सुचारु रुप से कार्य कर रहे हैं, किडनी सही ढंग से काम कर रही है, तब ऐसा क्यों ? ढेर सारी दवाइयाँ देने तथा सुइयाँ लगाने के बावजूद भी न तो मरीज उठ पा रहा था, न ही बैठकर बातचीत कर पा रहा था। ऐसा भी नहीं कि लकवा के कोई लक्षण दिखाई पड़ रहे हों। पैर के तलवों में गुदगुदी करने से वे पैर हिला पा रही थी।
उसके शरीर की चमड़ी ढीली पड़ गई थी, वह कंकाल की भाँति दिखाई  दे रही थी दुर्भिक्ष पीड़ित  लोगों की भाँति। डॉक्टरों  के अनुसार उन्हें डी-हाईड्रेशन   हो गया है, क्योंकि कई दिनों से उन्होंने भोजन ग्रहण नहीं किया था। उनका सारा शरीर संज्ञाशून्य हो गया था। गत तीन-चार दिनों से माँ के शरीर में केवल सलाइन चढ़ाए जा रहे थे। खास परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा था। डॉक्टर ने माँ के लिए प्रति दो दिन के अन्तराल में खून की एक बोतल चढ़ाने का सुझाव दिया। माँ के खून में हिमोग्लोबिन की मात्रा काफी कम हो गई थी। इसी वजह से डॉक्टरों ने माँ की नाक में रॉयल ट्यूब लगा दी थी ताकि  उनके द्वारा हठधर्मी माँ को दूध अथवा हॉर्लिक्स की कुछ मात्रा  खिलाई जा सके। पता नहीं कैसे, माँ ने उस नली को खींचकर बाहर निकाल दिया। हो सकता है जैसे ही उसे जरा सी झपकी  आई होगी, वैसे ही माँ ने उस घटना को अंजाम दे दिया होगा।
माँ और ठीक हो  गई , घर के उस कमरे से उस कमरे में घूमेगी, वह उठकर बैठ  सकेगी , उन बातों पर अनुभा को बिल्कुल भी विश्वास नहीं हो रहा था। उसे लग रहा था सभी लोग ठीक ही कह रहे थे कि माँ को केवल उसके आने का ही इन्तजार था। दिन-प्रति दिन माँ की अवस्था खराब होती जा रही थी। नजदीक में रहने वाले सगे सम्बन्धी माँ को देखकर चले जाते थे। अनुभा ही एक ऐसी भाग्यहीन बेटी थी जो माँ को दो साल से मिल नहीं पाई थी।
सचमुच अनुभा जैसे ही घर पहुँची वैसे ही माँ की तबीयत  बिगड़नी शुरु हुई। तबियत  भी बिगड़ी तो ऐसी बिगड़ी कि उन्हें  अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा मानो और कोई उसकी इच्छा बची हुई नहीं थी।  उसने अपने सारे बच्चों को आँखों के सामने देख लिया था । अब वह सांसारिक बन्धन से मुक्ति पा कर शान्ति के साथ अपने अन्तिम गंतव्य स्थान को प्रवेश कर पाएगी।
दो साल पहले जब  अनुभा अपनी माँ से मिली थी, उस समय उसने माँ के व्यवहार  में हो रहे अस्वभाविक  बदलाव को देखा था। तभी से  उसे उस बात का एहसास हो गया था कि माँ ज्यादा नहीं जिएगी  । उस घटना के दो साल बाद वह माँ को देखने आ पाई थी। मन में कई बार माँ को देखने की तीव्र  इच्छा पैदा हुई, परन्तु घर-गृहस्थी के मायाजाल में फँसकर आ नहीं पाई ।
उसे याद आया  कि जब वह पहले  आई थी, तब उस समय छोटी बहन की शादी की बातें चल रही थीं। वे सभी सगाई पक्की करने के लिए समधी के घर गए थे। माँ भी साथ में थी। उसी समय अनुभा ने माँ के अस्वभाविक व्यवहार को नजदीक से देखा। जब भी वह समधी के घर की किसी भी औरत को गले लगाती तो यह पूछती, "क्या आप समधिन हैं ? एक ही बात को वह रटती जाती थी। अनुभा को माँ के इस व्यवहार पर लज्जा आ रही थी। वह सोच रही थी कि रिश्तेदार लोग क्या सोचेंगे ? कहीं माँ की वजह से  बहन  की शादी न टूट जाय। इसी बात को लेकर वे सब लोग डर गए थे। जब  वे लोग घर  लौट रहे थे तो नीता ने माँ से पूछा "माँ आप हर किसी को गले लगाकर
समधन-समधन कह कर पुकार रही थीं। क्या आप को कुछ दिखाई नहीं देता है ?"
माँ ने अनमने भाव से कहा "ऐसा क्या कह दिया मैंने ?"
"समधन-समधन नहीं  बोल रही थीं ?"
अन्यमनस्क होकर माँ ने हामी भर दी, फिर एकदम चुप हो गई।
अनुभा सोचने लगी  कि शायद माँ की आँखे कमजोर  हो गई हैं। इसलिए या तो  चश्मा बदलना होगा या  फिर आपरेशन करवाना पड़ेगा। माँ की बातचीत से ऐसा प्रतीत  हो रहा था कि कुछ समय पहले की गई सारी अप्रासंगिक बातों को वह पूर्णतया भूल चुकी थी। शायद यह वही घटना थी जो उसके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की ओर  संकेत कर रही थी। उस दिन घर  लौटने के बाद लड़के वालो  के  विषय   में बातें हुई। अनुभा ने अपने पिताजी से कहा "पापा, माँ  की  आँखों का आपरेशन करवाना अब अति आवश्यक है। बिना मतलब  के चश्मा वह  पहने  हुई हैं।जब तक वह आँखें फाड़-फाड़कर नहीं  देख लेती हैं तब तक वह किसी को भी पहचान नहीं पाती  हैं।"
 पिताजी ने अनुभा  की  इस बात को गंभीरता से नहीं लिया और कहने लगे "कितने दिनों तक  वह जिएगी  जो उसकी आँखों का आपरेशन करवाने की जरुरत है।"
अभी तक अनुभा ने कभी भी पिताजी के सामने मुँह खोलकर बातें नहीं की थी। लेकिन एक छोटे से आपरेशन के लिए पिताजी राजी नहीं हो रहे थे .उस बात को वह समझ नहीं पा रही थी। उसे लग रहा था शायद पिताजी डर रहे होंगे कि कहीं माँ की आँखे पूरी तरह से खराब न हो जाय या फिर माँ को शारीरिक कष्ट होते देखकर वह सहन नहीं कर पाएंगे इस डर से या फिर उन्हें आपरेशन के लिए रुपये खर्च करने पडेंगे उस डर से ?
माँ एक अलग साम्राज्य की मालकिन बन चुकी थी। वहाँ उसकी कल्पना के अनुसार लोगों का आना-जाना होता था। शाम होते ही वह दूरदर्शन के सामने ऐसे बैठ जाती थी जैसे वह कोई मन पसंद धारावाहिक देखना चाहती हो। जबकि उसे कुछ नहीं दिखाई देने के कारण मन ही मन इधर-उधर की बातें करती रहती थी। सबसे बड़ी बात थी-- माँ अपने अन्धेरे के साम्राज्य की खूब सारी मनगढ़न्त कहानियों की  रचना करती थीं। अगर उन कहानियों को वह झूठा मानती तो भी कोई बात नहीं थी, लेकिन कभी कहानियों को सत्य समझकर चिल्लाने लगती थीं। वह कहने लगती थी कि घर के सारे बर्तन व सोने के जेवरात अनुभा की चाची चोरी करके ले गई हैं। बहुत दिन पूर्व मर चुकी अपनी छोटी बहन के बारे में यह कहते हुए रो पड़ती थी कि वह उसके घर से बिना खाए-पिए रुठकर लौट गई है। ये सारी बाते काल्पनिक थीं मगर कितनी भी कोशिश के बाद  कोई मां को समझा नहीं पा रहा था। माँ को इस अवस्था में छोड़कर अनुभा अपने घर मुम्बई चली गई थी। मुम्बई पहुँच कर उसने माँ के बारे में एक चिट्ठी लिखी। यह उसका पिताजी के नाम पहला पत्र था, भले ही इससे पूर्व स्कूली परीक्षा की कॉपी में उत्तर लिखने के लिए पिताजी के नाम चिट्ठी लिखी हो। किस तरह, किस आधार पर वह  लिखेगी कि माँ की आँखों का आपरेशन करवाइए ताकि वह प्रकृति, पेड़-पौधों को देख सकें, गाय-मनुष्य को देख सके, देवी- देवता , बहू-बेटी, नाती-नातिन सभी को देख सकें। उनके सुख-दुख में भागीदार हो सकें। फिर एक बार परिपूर्ण हो जाय उसका जीवन और उसके अन्धकारमय राज्य की काल्पनिक नायक-नायिकाएँ दूर हो सकें। लेकिन पिताजी के पास ऐसी चिट्ठी लिखी जा सकती है ?
अनुभा ने एक-एक शब्द  को सोच-सोचकर ध्यानपूर्वक  लिखा "पिताजी, माँ को किसी अच्छे डॉक्टर के पास ले जाइएगा। उसका पागलपन धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा है। अगर समय रहते
उसका इलाज करवा दिया जाय तो निश्चित तौर पर वह ठीक हो जाएगी।"
लेकिन पिताजी ने उसके उस पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया। उन्होंने उसकी इन बातों  पर पूर्ण विराम लगा दिया। छोटी बहन की शादी में अनुभा शामिल नहीं हो पाई थी। बाद में अनुभा को इस बात का पता चला कि उसकी माँ को छोटी बेटी की शादी के बारे में विल्कुल भी जानकारी नहीं थी। शादी में वह चुप-चाप दूसरे अतिथियों की भाँति सज-सँवरकर बैठी थी। कभी किसी काम में उनकी जरुरत पड़ जाने पर उल्टा वह पूछने लगती थी "भैया किसकी शादी हो रही है ?"
बेटी की  विदाई के समय सब फूट-फूटकर रो रहे थे। परन्तु माँ भीड़ के अन्दर घुसकर बार-बार यही पूछती थी, "क्या हुआ, तुम सब लोग क्यों रो रहे हो ?"
कोई-कोई बोल  भी देता था "तुम्हारे बेटी  ससुराल जा रही है। उसकी शादी हो गई है।"
जैसे कि उसके द्वारा  रची हुई दुनिया धीरे-धीरे  उससे दूर जाने लगी थी। जैसे कि  एक-एक कदम  बढ़ाकर माँ  शून्य ओर  बढ़ती जा रही हो। जहा से  पेड़-पौधे, पहाड़-पर्वत, नदी-नाले, स्नेह-वात्सल्य-प्रेम, स्वप्न-यथार्थ सभी कुछ धुंधले दिखाई दे रहे हो। धीर-धीरे सब कुछ अदृश्य हो जाएंगे और माँ ऊपर की ओर उठ जाएगी जहाँ पर  सांस लेने के लिए हवा का एक अणु भी उपलब्ध नहीं होगा। अनुभा यह सोचकर बहुत दुखी हो   रही थी। मुम्बई के फ्लैट में अकेले रहते समय उसे माँ की याद काफी सताने लगी। उसे स्मरण हो आता था माँ का वह चेहरा जिस समय वह आठ महीने के पेट को लेकर रेंगते-रेंगते आम का आचार  बनाने रसोईघर की तरफ जाती थी।
उन दो साल के दौरान  माँ की मानसिक अवस्था और ज्यादा खराब होती गई। बीच-बीच  में अपने भाई-बहन से  अनुभा माँ के बारे में  खबर ले लेती थी। छोटे बच्चों की तरह माँ जिद्दी होती जा रही थी। सप्ताह दो सप्ताह में नई साड़ी खरीदने के लिए जिद्द करने लगती। नई साड़ी लम्बी है सोचकर काटकर उसे छोटा कर देती। छोटी साड़ी शरीर के लिए छोटी पड़ रही है, यह कहकर विरक्त भाव से नई साड़ी खरीदने के लिए  फरमाइश करने लगती। अगर उसकी  फरमाइश  पूरी नहीं होती तो वह आमरण अनशन पर बैठ जाती। कभी-कभी कंघी लेकर दिन भर बालों में कंघी करने लगती। इतनी  कंघी करती कि सिर  पर घाव होकर खून निकलने लगता। उसका  सारा  सिर खून से  लथपथ  हो जाता था। कभी-कभी जब वह बाथरुम में नहाने जाती तो घंटो नहाती, शॉवर के नीचे से आने का नाम ही नहीं लेती थी। जो कुछ उसके हाथ में बर्तन, बक्सा, कपड़ा आता था उन्हें कुँए में डाल देती थी। उनसे भी बढ़कर कभी-कभी तो वह घर से भाग जाती थी, सबकी दृष्टि से बचकर। अगर कोई जान पहचान  वाला आदमी उसे देख लेता था तो बहला-फुसलाकर उनके घर लाकर छोड़ देता था। नहीं तो घर के सारे लोग अपना काम-धाम छोड़कर उसे खोजने निकल पड़ते थे। इतना होने के बाद भी कभी भी पिताजी ने माँ के लिए किसी डॉक्टर से कोई परामर्श नहीं  लिया ।
माँ देखने में बहुत  सुन्दर व बोलने में स्पष्टवादी थी, लेकिन स्वभाव से वह भोली-भाली थी। यह बात अलग थी कि पिताजी की  अभिरुचियाँ माँ के स्वभाव से मेल नहीं  खाती  थी । इस वजह से वह पिताजी के दिल पर राज न कर सकी। पिताजी अगर किसी औरत से प्रभावित थे तो वह थी उसकी काकी। दिखाई देने  में भले ही वह खास नहीं थी मगर उसकी व्यवहार कुशलता, मधुर भाषिता तथा जीवन के गहरे अनुभवों के कारण पिताजी उसे अपना दार्शनिक दोस्त और मार्गदर्शक के रूप में मानते थे। एक यह भी कारण था कि पिताजी की दादी का देहान्त पिताजी के बचपन में ही हो
गया था। और उस समय अगर उनको  किसी ने सहारा दिया था तो  वह थी उनकी भाभी। किसी भी  प्रकार की विपरीत परिस्थितियों  में अनुभा के पिताजी उनके पास  सलाह लेने के लिए जाते थे। यहाँ तक कि पूजा-पाठ, हवन या किसी भी प्रकार  के  कोई शुभ अनुष्ठान में उन्हीं की मदद ली जाती थी। पिताजी, चाहे घर बनाना हो, चाहे जमीन  खरीदनी  हो या अन्य कोई महत्वपूर्ण काम हो भाभी  के बिना साथ के कुछ भी कदम नहीं बढ़ाते थे। एक बार तो ऐसा भी हुआ । उनका एक जरुरी आपरेशन था, मगर वह इस बात पर अड़ गए थे कि जब तक भाभी  नहीं आएंगी तब तक उन्हें आपरेशन थिएटर में नहीं ले जाया जाय। उस अवस्था में उनकी भाभी को जो उस समय  अपनी बेटी के  ससुराल भवानीपटना में थीं, टेलीग्राम द्वारा बुलाया गया। ये ही सब छोटे-मोटे कारण थे जिनकी वजह से माँ पिताजी से असंतुष्ट रहती थी। पिताजी के इस दुर्गण को बच्चे लोग भी नापसन्द करते थे। जिन्दगी भर माँ पिताजी के इस रवैये  की वजह से अपमानित और आहत होती रही। आज भी अनुभा के मन मस्तिष्क पर ये सारी कड़वी अनुभूतियाँ चिपकी हुई थीं। उनमें किसी भी प्रकार का धुंधलापन नहीं आया था। मुम्बई से घर आते समय वह सोच रही थी कि इस बार पिताजी से इस बिषय पर स्पष्ट बात करेगी और पूछेगी "क्या कारण है कि आप माँ की इस तरह अवहेलना कर रहे हैं ? केवल साड़ी-गहना, खाना-पीना दे देने से नहीं होता है। जीवन में एक-दूसरे का  संपूरक बनना पड़ता है। अगर एक के घुटने  में दर्द हो तो दूसरा उसको हाथ पकड़कर कुछ कदम अपने साथ ले चले।
लेकिन जब वह घर पहुँची तो पिताजी के चेहरे को देखकर अनुभा हतप्रभ रह गई। बुढ़ापे  के  तूफान में  उनका  चेहरा लाचार व असहाय दिख रहा था। वे उद्विग्न मन से इस तरह बैठे हुए थे मानो बारिश के/दिनों में भीगी हुई दीमक की बम्बी। सिर  के ऊपर मात्र एक  मुट्ठी  घुंघराले बाल बचे हुए थे और मुँह पर कटे हुए धान के खेत की तरह दाढ़ी उग आई थी। बरामदे में दोनो घुटनो के बीच सिर  रखकर उदास मन से बैठे हुए थे। अनुभा को उनकी यह अवस्था देखकर मन में उठ रहे सवालो को पूछने की  हिम्मत  ही नहीं हुई। अपना सूटकेस बरामदे में रखकर उसने पिताजी के चरण स्पर्श किए। ठीक उसी समय ड्राइंग रूम के अन्दर से किसी के रोने तथा दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। अनुभा ने पूछा "कौन है घर के अन्दर ?"
वहाँ पहले से खड़ी भाभीजी ने उत्तर दिया "माँ को आजकल कमरे के अन्दर बन्द करके रखना पड़ता है, नहीं तो वह घर से बाहर भाग जाती हैं। उनको हर समय तो नजरबन्द करके नहीं रखा जा सकता।"
कमरे के  बाहर की तरफ से बन्द चिटकनी को  खोलते हुए अनुभा कहने लगी "इसका मतलब ये तो नहीं  है कि आप किसी को भी घर के अन्दर बन्द करके रखेंगे ? देखते नहीं , माँ किस तरह बिलख- बिलख  कर रो रही हैं ?"
जैसे ही उसने कमरे की चिटकनी खोली, वैसे ही  बिना कुछ बोले माँ झट से  उस अंधेरे कमरे से बाहर  निकल आई। घर के अन्दर कुछ भी नहीं था, केवल बिना  बिछोने  वाले लकड़ी के तख्त को छोड़कर। पहले किसी ने उसको फोन पर बताया भी था कि आजकल माँ बेडशीट को फाड़ दे रही है। इसलिए उसको कड़कड़ाती सर्दी के महीनो में भी न तो कोई कम्बल दिया गया और न ही कोई ओढ़ने के लिए चादर। यह खबर सुनकर अनुभा को उस समय भयंकर कष्ट हुआ था। अभी जब वह अपनी आँखो से देख रही थी कि माँ के तख्त के ऊपर एक फटी पुरानी गुदड़ी  भी नहीं थी।  इतना बड़ा घर, घर में इतने सारे सामान जुटाने के बाद/भी ऐसी अवस्था होती है इन्सान की ! हाय ! छोटी
काकी बताने लगी "दीदी अन्दर  मत जाइएगा। माँ की याददाश्त   खत्म हो गई है। वह किसी को भी पहचान नहीं पा रही हैं। उनके होश भी ठिकाने नहीं है, टट्टी -पेशाब करके इधर-उधर फेंक दे रही हैं।"
छोटी काकी की बात  को अनसुना कर वह माँ को  अपने हाथ से पकड़कर बाहर ले आई और पूछने लगी "देखो तो माँ, मैं कौन हूँ ?"
"कौन ?" माँ कहने  लगी।
अनुभा कहने लगी "माँ, मुझे नहीं पहचान पा रही  हो। मैं तुम्हारी बेटी अनुभा  हूँ।"
माँ ने तो कोई उत्तर नहीं दिया। कुहनी  कलाई, ऊँगलियों  की पोरो पर बँधे हुए  बेन्डेज  दिखाते हुए रोते-रोते माँ बोलने लगी "उसको खोल दो।"
अनुभा अपनी माँ को  हाथ से पकड़कर शयनकक्ष  की तरफ लेकर जा रहीथी, तभी बड़ी काकी कहने लगी "अन्नु माँ को हाथ से मत पकड़ना  उसके हाथों में सूखा मल चिपका होगा।"
अनुभा ने देखा कि  माँ की ऊँगलियों पर काले-काले  दाग की तरह सूखा हुआ  मल चिपक गया था। माँ के  शरीर में अब कुछ भी जान नहीं थी। केवल बचा हुआ था अस्थियों का कंकाल एवं थोड़ी सी चमड़ी। आँखें तो ऐसी लग रही थी मानो कोटर के अन्दर बैठे चिड़ियों के दो बच्चे। आहा ! बुढ़ापा किस तरह आदमी को कांतिहीन कर देता है ! ऐसी एक जिन्दा लाश को देखकर सिद्धार्थ गौतम बुद्द बन गया। एक दिन ऐसा भी था! माँ का कद एक मॉडल की तरह पाँच फुट छः इंच था, मगर आज वह सिकुड़ कर केवल चार फीट की दिखाई पड़ रही है। गोरे रंग वाली माँ का शरीर आज जले  हुए कोयले की तरह दिखाई दे रहा था। माँ बार-बार इशारे के माध्यम से अपने हाथों पर बँधी हुई पट्टियों को खोलने के लिए गिड़गिड़ा रही थी। अनुभा ने पूछा "क्या हुआ माँ, तुम्हारे उन हाथों को ? कहीं गिर गई थी क्या ?"
अनुभा का प्रश्न सुनकर  भाभी ने उत्तर दिया "नहीं, नहीं क्यों गिरेंगी ? उन्होंने अपने नाखूनों से  चिकोटी काट-काटकर हाथों  में घाव पैदा कर लिए  हैं। इनका दिमाग तो ठीक है नहीं। कैसे पता चलेगा उनको? होश ही नहीं है। तुम्हारे भैया ने आज सुबह दवाई लगाकर  उनको  पट्टियाँ  बाँधी थी। माँ फिर से पट्टियाँ खोल देने के लिए इशारे करने लगी. अनुभा ने पूछा "माँ क्या बहुत कष्ट हो रहा है।"
जैसे ही अनुभा पट्टी ढीला करके खोलने जा रही  थी, उसी समय  भाभी  ने मना कर दिया और कहने लगी,
"पट्टी मत खोलिए नहीं तो  नाखून  से फिर हाथों पर  घाव कर देंगी।"
लोकिन माँ तो एक  जिद कर रही थी, छोटे बच्चों की तरह रोते-गिड़गिड़ाते।  हताश होकर अनुभा पलंग पर बैठ गई तभी उसी समय छोटी भाभी ने एक कप चाय सामने लाकर रख  दी। चाय पीते-पीते अनुभा सोच रही थी, यहीं पुराने  शीशम के लकड़ीवाले पलंग पर उसका बचपन गुजरा है। उसी पलंग पर माँ और पिताजी सोया करते थे। यह माँ-पिताजी का ही कमरा था। शीशम की लकड़ी से बनी आलमारी, लोहे का बड़ा  सा लाकर यह सभी इसी घर की शोभा बढ़ाया करते थे। सारा सामान पहले की तरह ही रखा हुआ था, बस कमी थी तो इस बात की कि अब उस कमरे में माँ और पिताजी नहीं रहा करते थे। माँ की हरकतों से तंग आकर पिताजी ऊपर वाले कमरे में रहने लगे थे और ड्रॉइंग रूम को खाली कराकर माँ को इसमें रखा गया था।
पलंग के ऊपर रखे  हुए सारे गद्दे पत्थर की तरह  पड़े-पड़े कठोर हो गए थे। वे सभी सात
भाई- बहन  उसी पलंग के ऊपर  सोते-सोते गप्पे मारते थे। किसी का पाँव किसी के सिर की तरफ  रहता था तो किसी की जाँघ किसी के पेट के ऊपर।
बैसाख के महीने में दोपहर के समय कभी-कभी जब आँधी आया करती थी तो माँ सभी बच्चों को नाम से पुकार कर जोर-जोर से चिल्लाने लगती थी। सभी बच्चे उस समय जहाँ भी हो, भागते हुए आ जाते थे। इसी कमरे में सभी को भरकर माँ दरवाजा बन्द कर लेती थी। उसका ऐसा मानना था कि अगर मरेंगे तो सभी एक साथ मरेंगे। उसका कोई भी बच्चा खेलते-खेलते किसी दूसरी जगह क्यों मरेगा ? माँ के इस डर तथा उससे बचाव की युक्ति को देखकर पड़ोसी लोग उपहास करने लगते थे। लेकिन हाय ! आज माँ किसी को भी पहचान नहीं पा रही है कि कौन अनुभा है तो कौन सुप्रभा ? पिताजी अनुभा के पास आकर बैठ गए।
"माँ को क्या पूछ  रही हो अनुभा ? वह क्या उत्तर देगी ? वह तो पागल है। बहुत परेशान कर चुकी है, मर जाती तो अच्छा होता।"
वाक्य के अंतिम अंश को  पिताजी ने भन्नाते हुए कहा। और  इस  अन्तिम वाक्यांश ने अनुभा के सीने को  छलनी कर दिया। क्या पिताजी को अन्त में ऐसे ही कहना था। माँ पिताजी को देखकर पट्टियाँ खोलने के लिए बाध्य करने लगी। चिड़चिड़ाकर पिताजी कहने लगे "क्या तुम मुझे शान्ति से बैठने भी नहीं दोगी ? ऐसा क्यों कर रही हो ?"
मगर  माँ को मानो  पिताजी के चिड़चिड़ेपन से कोई  लेना-देना न हो। ऐसे ही पिताजी का कंधा हिलाते हुए बोलने लगी "अजी, खोल दीजिए।"
"रुक-रुक ! मुझे तंग  मत कर।" कहते हुए पिताजी ने माँ को फिर  से डाँटा। नीचे जमीन पर बैठकर  माँ रोते-रोते कहने लगी "मैने उनको कहा तो मुझे गाली दे रहे हैं। अब मैं  इस  घर में कभी नहीं रहूँगी।"
माँ का इस तरह  रोना देखकर अनुभा के सीने पर कटार सी चलने लगी। पलंग से उठकर अनुभा ने माँ को गले लगा लिया और पुचकारते हुए कहने लगी "माँ ऐसा मत करो। अच्छा बताओ तो, मैं कौन हूँ ?"
यह सोचकर अनुभा के मन में एक आभा की किरण जागी कि जब माँ पिताजी को पहचान पा रही है तो अवश्य ही उसको भी पहचान पाएगी। माँ अनुभा के पास पिताजी के नाम से शिकायत कर रही थी। पिताजी  सिर पर हाथ रखकर किंकर्तव्यबिमूढ़  होकर बैठ गए। उनका चेहरा माँ की तुलना में और दयनीय दिख रहा था।
भाभी माँ को हाथ  से पकड़कर भीतर की तरफ ले जा रही थी। तभी पिताजी ने उससे पूछा "क्या माँ को खाना खिला दिया है ?"
 रूखी आवाज में भाभी ने उत्तर दिया "यह काम मुझसे नहीं होगा।"
"नहीं होगा मतलब  ?" पिताजी ने कहा।
माँ को उसके कमरे में  बंद करके भाभी लौट आई और कहने लगी "अन्नु तुम लोग तो  बाहर रहते हो। तुम्हें कैसे पता चलेगा कि माँ कितना परेशान कर रही है ? और क्या बताऊँ तुम्हारे भैया के अलावा कोई भी इनको नहीं खिला पाता है। पिछले आठ-दस दिनों से वह ठीक से खाना नहीं खा रही हैं। एक बार तो उन्होंने मुट्ठीभर नमक/खा लिया था उसके बाद कुछ भी खाने से पहले मुट्ठीभर चीनी खिलानी पड़ती थी, तब जाकर के खाना खाती थीं। मगर अभी तो कुछ  भी  नहीं खा रही हैं।"
"आपने डॉक्टर को  दिखाया ?"
"पिताजी चाहेंगे तभी तो  ?"
"क्या आप सभी काम  पिताजी को पूछकर ही करते  हैं ? अगर आप लोग अपनी जिम्मेवारी  खुद निभाएंगे तो पिताजी को  पूछने की बिल्कुल भी जरुरत  कहाँ है ?"
"ऐसी बात नहीं  है कि हमने अपनी जिम्मेवारी  नहीं निभाई है। बीच में तुम्हारे भैया ने डॉक्टर से परामर्श लेकर कुछ दवाइयाँ खरीदी थीं। जब वह दवाइयाँ माँ को दी जाती थी तो माँ केवल या तो सोती रहती थीं या फिर दीवार के सहारे बैठकर झपकी लेती  रहती थीं। यह देखकर पिताजी को गुस्सा आ गया और कहने लगे कि इसके शरीर में अब बच क्या गया है जो खाने के लिए इतनी तेज दवाइयाँ दी जा रही है। यह सुनकर भैया ने और दवाइयाँ देना बन्द कर दिया।"
"कटक ले जाकर  किसी मनोरोगी विशेषज्ञ  को दिखाकर इलाज करवा  सकते थे।"
"तुम तो अपनी आँखों से  देख रही हो कि माँ कैसे  कर रही है। गाड़ी में बैठकर  जा पाएगी ? जब इतना बोल  ही रही हो तो खुद ले जाकर डॉक्टर को क्यों नहीं दिखा लाती ?"
भाभी का पूँजीभूत क्रोध जैसे कि ज्वालामुखी की तरह  फट गया हो और उसकी भीषण गर्मी अनुभा को धराशायी  करने लगी हो। अनुभा और कुछ बोलती कि इतने में बीच में पिताजी आकर भाभी के पक्ष में कहने लगे "कहाँ जाएगी ? और अब  कितने दिन जिन्दा रहेगी ? क्यों इसके पीछे लगी हो ?
इस तरह पिताजी ने  माँ  के प्रसंग को बदल  दिया। अनुभा ने लम्बी साँस छोड़ी। माँ के प्रति इतनी अवहेलना का कारण क्या है, एक बात फिर से यह पूछने की इच्छा जाग गई। क्या हो सकते हैं इसके सम्भावित कारण ?  मैं इतनी मूर्ख और भोली जो ठहरी। लेकिन हमारे लिए हमारा भोलापन ही ठीक था।  अनुभा  ने पिताजी को भले ही कुछ नहीं बोला मगर भाभी से वह कहने लगी "कृपा करके माँ को घर के अंदर बंद करके तो मत रखो।, बहुत ही खराब लग रहा है। इस कमरे से उस कमरे में उसको घूमने दो, इसमें क्या परेशानी है ?"
घूमने से कोई  परेशानी नहीं है, लेकिन  वह घर से भाग जाती है। कभी- कभी पहनने के कपड़े भी  खोल देती है। पडोस के  लोग उस चीज का उपहास के  साथ-साथ तरह-तरह की बातें करते हैं।
"आप को पडोसियों  से क्या लेना-देना ? क्या वे  नहीं जानते कि माँ पागल है  ?"
"देखिए न ! कुछ दिन  पहले माँ घर से भाग  गई थी। बड़े पिताजी और दादा के घर के सामने खड़े होकर दामन फैलाकर भीख माँग रही थी। यह तो अच्छा है, चाची उनको हाथ से पकड़कर वापिस घर तो ले आयी। इस बात को लेकर सभी लोग मुझे दोषी ठहराते थे। कह रहे थे, अपनी सास को सम्भाल कर नहीं रख पाती हो क्या ? दूसरों के घर जाकर अगर भीख माँगेगी तो हमारी बची-खुची इज्जत  मटियामेट हो जाएगी। पागल तो है ही, अपने दुष्कर्मो का फल अगर इस जन्म में नहीं  भोगेगी तो और कब भोगेगी ?
"दुष्कर्मो का फल ?" अनुभा क्रोधित स्वर में  बोली "सीधी-सादी भोली  माँ को उन लोगों ने कम  परेशान नहीं किया और अभी  कह रहे हैं कि उसे अपने  किए का फल मिल रहा है। ऐसा क्या किया मेरी माँ ने  ? असल बात क्या है जानती हो ? माँ "निशा -मंगलवार" का व्रत रखा करती थी। हर मंगलवार को वह सातघर से अन्न भिक्षा के रुप में माँगकर लाती थी और बिना पीछे मुड़कर देखे सीधे जाकर नदी के पानी में डुबकी लगाकर उस भिक्षा को फेंक देती थी। शायद तुम नहीं जानती हो कि वह यह व्रत तुम सभी की भलाई के लिए रखती थी। जिन्दगी भर उसने अपने हर बच्चे के
लिए एक-एक अलग व्रत उपवास का संकल्प  लिया था। किसी के लिए वह बाँए हाथ से खाती थी तो किसी के लिए द्वितीया का व्रत। किसी के लिए वह चैत्र का मंगलवार करती थी तो किसी  के लिए मेरु उपवास (विशुभ संक्रांति) का उपवास। हो सकता है अभी भी माँ के अवचेतन मन में भिक्षा माँगने वाली वह बात कहीं न कहीं अंकित होगी अन्यथा वह उनके घर जाकर क्यों भिक्षा  मांगेगी  ? इसलिए इसमें संकुचित होने की कोई बात नहीं है।"
शायद  भाभी  के मन  में कोई पुराना क्षोभ एक लम्बे अर्से से दबा हुआ  होगा , अतः  प्रतिशोध की भावना से वह फुफकारने लगी।
"तुम भीतर जाकर  देखो, तुम्हारा ड्राइंग रुम अब क्या पहले जैसा है दीवारों  पर जो आधुनिक पेंटिंग  सजाई गई थी, किस प्रकार उन्होंने अपने मल से पोतकर एकदम माडर्न बना दिया है।"
अनुभा ने भाभी के इस परिहास पर बिलकुल  अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और कहने  लगी "वह तो पागल है  उसका तो दिमाग काम नहीं कर  रहा है। और क्या होगा ? आप तो जानती हैं वह अपने घर को कितना साफ-सुथरा रखती  थी । जब वह ठीक थी तो दिन में दो बार घर में पोंछा लगाती थी। हर दिन कपड़ों की एक बड़ी गठरी धोई जाती थी। "
अनुभा समझ नहीं पा रही थी कि किस कारण से  भाभी माँ से असंतुष्ट है। माँ को कमरे में बन्द रखने की अमानवीय घटना को लेकर जो उनके बीच में तर्क-वितर्क हुआ, शायद उसी वजह से भाभी नाराज हो गई होगी। अनुभा को लग रहा था कि इस अवस्था में भाभी को क्रोध आना भी स्वाभाविक है। छोटा भाई अपनी पत्नी के साथ आराम  से अपनी नौकरी वाली जगह पर रह रहा था। बाकी सभी जो जहाँ थे, वे वहाँ चले गए। अकेले में ही भाभी को माँ के पागलपन को सहन करना पड़ा। बेचारी को दोष देने से क्या फायदा ? इस प्रकार अनुभा के मन में भाभी के ।प्रति कोई बुरी धारणा जड़ नहीं कर पाई । लम्बी रेल यात्रा की थकावट को दूर करने के लिए अनुभा  स्नान करने गई। जब वह बाथरुम से बाहर आ रही थी तो उसने बड़े भैया को घर में आते हुए देखा। वह भाभी से कह रहे थे "लंच- अवर के बाद ऑफिस में मीटिंग है, माँ की साफ-सफाई कौन  करेगा ?यही सोचकर बड़ी मुश्किल से समय निकालकर आया हूँ।"
आते ही ऑफिस के कपड़े बदलकर अपनी लुँगी   पहनी और माँ के कमरे के  सारे खिड़की और दरवाजे खोल  दिए। कमरे के अन्दर पर्याप्त उजाला एवं साफ हवा का संचार होने लगा। माँ को पास में  बिठाकर  सारी पट्टियाँ खोल दी तथा भाभी  को गरम पानी लाने के लिए कहने लगे "आज थोड़ा जल्दबाजी में हूँ इसलिए ज्यादा समय रुक नहीं पाऊँगा।"
पहले से ही भैया ने माँ के बाल अपने हाथ  से काटकर छोटे-छोटे कर  दिए थे। छोटे बच्चे की तरह भैया ने माँ के सिर  पर तेल  लगाकर कंघी की। फिर गरम  पानी में डिटाल मिलाकर  माँ के हाथ-पैर, ऊंगलियों में चिपके हुए सूखे  मल को धोकर साफ़ कर दिया। फिर हल्के गर्म पानी से माँ को स्नान कराके वस्त्र बदल दिए। जैसे कि माँ उनकी छोटी बेटी हो। घाव को धोकर फिर से भैया ने पट्टियाँ बाँध दी। अनुभा मदद करने के लिए उनके पास जा रही थी तो उन्होंने पास आने से मना कर दिया। "कुछ समय के लिए रूक जाओ, देख रही हो न चारो तरफ मल-मूत्र कैसे बिखरा हुआ पड़ा है ! पहले फिनाइल डालकर कमरे को धो लेने दो।"
माँ  को  बाहर छोड़कर  भाई ने सर्फ व डिटाल डालकर  माँ  के  कपड़े आदि साफ किए ।उसके बाद कमरे को डिटाल के  पानी से अच्छी तरह धो दिया। यह सब काम करते-करते उनको आधे घण्टे
से ज्यादा समय लग गया। अन्त में छोटे बच्चों को जिस तरह खिलाया जाता है, उसी तरह प्यार से, तो कभी डाँट से माँ को एकाध  टुकड़ा पावरोटी और आधा कप दूध पिला दिया। माँ को खाना खिलाने की कोशिश तो अनुभा ने भी की थी, किन्तु मुश्किल से आधा टुकड़ा भी नहीं खिला  पाई। भैया बड़े ही असहाय दिख रहे थे। अगर माँ को थोड़ा ठीक से खिला पाते तो शायद उनकी अन्तरात्मा को अच्छा लगता। माँ के ये सब काम  पूरे  करने के बाद ऑफिस वाले कपड़े पहनकर भैया बाहर निकल गए। जाते-जाते भाभी को यह कहते हुए कि आज वह घर में खाना नहीं खाएंगेभैया बाहर निकल गए। भाभी कहने लगी "आपको तो पहले से ही  मालूम  था कि दोपहर को यह सब खिन्न काम करना पड़ेगा तो दस बजे जाते समय थोड़ा-बहुत खाना खाकर चले जाते।"
भाभी को शान्त करने के लहजे में भैया ने कहा "अच्छा ठीक है दे दो जल्दी से कुछ।"
हड़बड़ी में  भैया ने थोड़ा बहुत खाया और घर से बाहर हड़बड़ी में  निकल गए। उस समय माँ इधर-उधर घूम रही थी। अनुभा माँ को घूमते देख कहने लगी "माँ जाकर के सो जाइए।"
परन्तु मानो  माँ ने कुछ भी न  सुना हो। वह चुप-चाप ज्यों की त्यों खड़ी रही। यह देख भाभी कहने लगी "माँ कैसे सोएगी ? उनको तो बिल्कुल भी नींद नहीं आती है। भूत-प्रेत की भाँति इस कमरे से उस कमरे में चक्कर लगाती रहती है। देखिए न उनकी इस बीमारी की वजह से मेरे सारे बाल सफेद हो गए। अनुभा ने  भाभी  के बालों की तरफ देखा  तो वास्तव में बीच-बीच में सफेद बालों की लटें स्पष्ट दिखाई दे रही थी। अनुभा समझ नहीं पाई कि वह क्या कहे ? क्यों वह उसको देखकर बार-बार अपना मुँह बिगाड़ रही थी ? वह इतनी नाराज व दुःखी क्यों है ? कहीं भाभी ऐसा तो नहीं सोच रही है कि बेटी होने के नाते अनुभा को अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, वह नहीं निभा रही है और केवल उसे ही इन गंदे कामों में फँसे रहना पड़ता है। अगर वह ऐसा सोच रही है तो बिल्कुल गलत सोच रही है। अब कौन उसको समझाएगा कि  अनुभा उस घर की बेटी नहीं है। वह पराए घर की बेटी है। और कुछ ही दिनो में अपने घर लौट जाएगी। इससे बढ़कर भाभी को इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि जो कुछ भी वह कर रही है वह सब उसके कर्मो का भोगफल है।
अनुभा के पहले दिन की ये अनुभूतियाँ बड़ी ही कटुता  तथा माधुर्य का सम्मिश्रण थी। पहले तो वह अपने माँ-पिता और भाई की  दुरावस्था  देखकर दुःखी हुई। दूसरी तरफ माँ को जिन्दा देखकर वह मन ही मन खुश भी थी। मुम्बई में रहते समय वह सोच रही थी कि वह शायद ही माँ को देख पाएगी। परन्तु ऐसी कोई अघटनीय घटना नहीं घटी थी। घर पहुँचने पर उसने देखा कि माँ ने कोई बिस्तर नहीं पकड़ा था। केवल दिमागी हालत खराब होने से वह  उल्टी- पुल्टी  हरकते कर रही थी। उसे लग रहा था कि माँ इस अवस्था में भी आराम से कम से कम दो-तीन साल जी पाएगी।
जबकि दूसरे दिन  अचानक एक दुर्घटना घटित हुई। दोपहर के समय जब भैया ऑफिस से लौटकर घर  पहुंचे और माँ को साफ करने लगे उस समय अनुभा उनकी मदद कर रही थी। मई महीने की प्रचंड गर्मी से शायद माँ को कष्ट हो रहा होगा, सोचकर अनुभा कहने लगी "भैया माँ को थोड़ा पकड़िए तो अच्छी तरह नहला देते हैं।"
दोनो मिलकर माँ को नहला ही रहे थे  कि हठात् माँ मिट्टी के लोंदे की भाँति जमीन पर  गिर पड़ी। भले ही माँ का अस्थि पञ्जर दिखने पर भी पहले माँ सीधी होकर  खड़ी  हो पा रही थी, चल पा रही थी, अपने आपको बचाने लायक उसके पास थोड़ी-बहुत ताकत भी थी। नहलाना अगर उसकी इच्छा के विपरीत होता तो वह जरुर विरोध करती, ऐसे मिट्टी के लोंदे की भाँति जमीन पर
गिर नहीं जाती। माँ का शरीर जोर-जोर  से काँप रहा था। भैया  उनको उठाकर बाहर ले गए तथा  सूखे  वस्त्र पहना दिए। देखते-देखते शाम को माँ को बुखार  आ गया। तीन दिन तक तेज  बुखार उतरा नहीं। सारा शरीर पीला पड़ना शुरु हो गया। डॉक्टर को घर में बुलाया गया। डॉक्टर ने सारी बातें सुनी, उनको देखा तथा अस्पताल में भर्ती करवाने को कहकर चले गए। अगर उन्हें अस्पताल में रखा गया तो ठीक से देखभाल की जा सकेगी ?
अनुभा को अस्पताल का नाम सुनते ही डर लगने  लगा। माँ को अस्पताल में भर्ती कर देने के बाद पता नहीं क्यों अनुभा को असहाय और एकाकी लग रहा था। मरीज घर में होने से बात कुछ अलग होती है लेकिन अगर उसे अस्पताल में भर्ती करवा दिया जाता है तो उसकी सेवा-सुश्रुषा  करने के लिए अतिरिक्त आदमियों की आवश्यकता पड़ती है। चूँकि माँ की हालत गंभीर थी इसलिए डॉक्टर ने उसे अस्पताल में भर्ती करने के लिए कहा। उसे ऐसा लग रहा था मानो माँ को उसी का इन्तजार था। क्या अब माँ और बच नहीं पाएगी, दिल काँप उठा था अनुभा का। वह/घबराने लग गई थी। घबराकर उसने आस-पास शहरों में रहने वाले भाई-बहनों को फोन कर दिया था। जब वे सभी घर आ गए तो घर में भीड़ हो गई। पूरा दिन सभी माँ को घेरकर बैठ जाते थे  लेकिन  जैसे ही रात होती थी, उन  सभी  का  कुछ न कुछ काम निकल जाता था। भाई के अलावा कोई भी सच्चे मन से रात को अस्पताल में रहना नहीं चाहता था। यहाँ तक कि अनुभा भी नहीं। इधर डॉक्टर भी समझ नहीं पा रहे थे कि माँ की बीमारी की असली जड़ क्या है ? आठ दिन से माँ ने कुछ भी नहीं खाया, इस वजह से कहीं उसे डिहाइड्रेशन  तो नहीं हो गया। शायद यही सोचकर डॉक्टर ने यह नली लगाई थी। नली की मदद से सलाइन के अतिरिक्त तरल खाना भी दिया जाता था। इतना होने के बाद भी माँ उठकर नहीं बैठ पाई। उसके खून में हिमोग्लोबिन का प्रतिशत छह तक रह गया था। खून की कमी देखकर डॉक्टर ने तीन बोतल खून  चढ़ाने के लिए कहा। तीन बोतल खून का नाम सुनकर सभी सिहर उठे। ह्मदय ठीक काम रहा है, फेफड़े और किडनी भी ठीक है। तब खून की जरुरत क्यों ? क्या डिहाइड्रेशन रोकने के लिए जो सलाइन माँ को चढ़ाया गया था,  वह पर्याप्त नहीं है ? वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिरकर माँ को डिहाइड्रेशन क्यों हुआ। सभी एक दूसरे पर आक्षेप लगा रहे थे. हो सकता है माँ की देखभाल ठीक से नहीं हुई, हो सकता है माँ के प्रति काफी लापरवाही बरती गई। कौन सुनना चाहेगा माँ की गाली-गलौज ? कौन सहन करना चाहेगा माँ का धक्का-मुक्का और पागलपन ? लोग कह रहे थे, अगर समय रहते माँ को अस्पताल लाया जाता तो शायद यह दुर्गति नहीं होती। ऐसे ही तर्क-वितर्क, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में समय बीता जा रहा था। भैया का ब्लड ग्रुप माँ के ब्लड ग्रुप के साथ मेल खा रहा था, इसलिए पहले-पहल  खून  भैया ने दिया। माँ के हाथ की बारीक शिराओं में बार-बार सूई लगाकर नर्स ने लहलुहान कर दिया तब भी सही शिरा पकड़ में नहीं आई थी। इस काम के लिए भी मेडिकल स्टॉफ की खूब खुशामद करनी पड़ी थी। वे लोग कह रहे थे आपको मरीज को सामान्य वार्ड में रखना था। वहाँ क्यों  नहीं रखा ?केबिन में हमारी कोई  ड्यूटी  नहीं है। यहाँ नर्सिंग स्टॉफ बहुत कम हैं इसलिए केबिन में किसी को भी ड्यूटी  नहीं दी जाती है। अगर मैं अभी ब्लड की बोतल चढ़ाकर चली जाती हूँ तो दूसरी पारी में मेरी ड्यूटी नहीं है और दूसरी पारी का चार्ज  केवल एक दीदी के पास रहता है। वह अकेली दीदी वार्ड देखेगी या  केबिन  में दोड़ती रहेगी ? उस नर्स को शान्त करने के लिए भैया ने छोनापुड़ और कोल्ड-ड्रिंक  मँगवाया था. तब कहीं नर्स का पारा कुछ कम हुआ। अनुभा इच्छा नहीं होते हुए भी नर्स की ओर देखकर हँसने लगी। नर्स हँसते हुए कह रही थी " देखिए न मौसी के शरीर में केवल
हाड़-माँस ही बचा है। सुई  लगाऊँ तो कहाँ लगाऊँ ? थोड़ा आप सभी उनकी तरफ देखिए कहीं हाथ इधर-उधर न हिलाएँ। बोतल  पूरी  होने से कुछ समयपहले  ड्यूटी  रूम से दीदी को बुला लेना।"
ठीक उसी समय डॉक्टर  साहब ने केबिन के अन्दर प्रवेश किया। अनुभा उनके सम्मान में कुर्सी से उठकर खड़ी हो गई "खून चढ़ा दिया है ? ठीक है, ठीक है ।"
बस इतना कहते हुए डॉक्टर  बाहर निकल गए। धीरे-धीरे  माँ के पास परिजनों का तांता लगने लगा था। मगर भाई-बहनो में से कोई-कोई तो अपना अत्यावश्यक काम दिखाकर उसी दिन वापस अपने घरो को लौट चले थे। भैया अभी भी माँ के ठीक होने  की उम्मीद करने लगे थे कि खून की तीन  बोतले  चढ़ने के बाद माँ अवश्य ठीक हो जाएगी, वह उठकर एक कमरे से दूसरे कमरे में घूम-पिर सकेगी। वह अपने आप फिर से बड़बड़ाने लगेगी।
खून की दूसरी  बोतल  के लिए अनुभा की छोटी बहन का नाम सामने आया था। दो-तीन दिनो के बाद दूसरी बोतल चढ़ाना था। सात भाई बहनो में से आधे अपने-अपने घर कौ लौट जाने के कारण अनुभा को क्रोध पैदा हो रहा था। वह सोच रही थी कि सारे के सारे स्वार्थी हैं। बिना कुछ काम-काज किए अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए। क्या मेरा कोई घरबार नहीं है ? दो साल के बाद तो घर आई थी तो इसका मतलब ये नहीं है कि सारा का सारा भार मेरे कन्धों पर लाद दिया जाए। उसका मन इस कदर खट्टा हो गया था कि रात को अस्पताल में रहने की बात उठते ही उसने साफ-साफ मना कर दिया।
लेकिन भैया बिना किसी का इन्तजार किए निर्विकार भाव  से अस्पताल की ओर चल दिए। उस समय तक चार दिन हो चुके थे, भैया को बिना सोए हुए। भैया की यह हालत देखकर अनुभा के मन में दया-भाव जाग उठा। इधर भाभी भैया से कह रही थी "चलिए आज हम दोनो अस्पताल में रात गुजारेंगे। आप अकेले और कितने दिनो तक जागते रहेंगे ।  आपका छोटा भाई सोनू माँ को देखने के लिए मेहमान की तरह आया और चला गया अपने बाल-बच्चों के साथ।  अपनी नौकरी वाली जगह पर. हम लोग तो हैं न, चलिए। मैं जागूंगी तो आप थोड़ा विश्राम कर लीजियेगा।"
मगर भाभी की बातें सुनकर अनुभा आश्वस्त  नहीं हुई। एक बार अनुभा ने दिन के समय देखा था कि अस्पताल में भाभी  माँ के दोनो  हाथों को एक साड़ी से बाँधकर  दीवार  के सहारे सो रही थी। उस दिन से अनुभा का भाभी पर से विश्वास  उठ गया था। उसे ठीक उसी तरह लगा जैसे कि वह अमानवीय ढंग से माँ को घर में बंद करके रखती थी। बहुत सारे ऐसे मरीज अस्पताल में आते हैं जिन्हें सलाइन भी चढ़ता है और खून भी। मगर  कोई उन मरीजों को हाथ-पैर बाँधकर तो नहीं रखता!
रात दस बजे के आस-पास खाना खा लेने के बाद अनुभा अपने भाई के साथ अस्पताल की ओर निकल पड़ी। उसके जाते समय भाभी ने ऊपरी  मन से एकाध बार जरुर मना किया था। दोनो के अस्पताल पहुँचने के बाद वहाँ पहले से मौजूद छोटी बहन और अन्य परिजन घर लौट गए। भैया बाहर जाकर एक सादा गुट्खा और तीन-चार बबलगम खरीदकर ले आए और कहने लगे "पहले तुम सो जाओ रात को एक बजे के आस-पास मैं तुमको जगा दूँगा। तब उठकर तुम माँ की देख-भाल करना।"
मगर भैया ने उसे एक  बजे नहीं उठाया बल्कि तीन बजे के आस-पास जगाया। हो सकता है अनुभा को गहरी नींद में सोता देख उन्हे दया आ गई हो। नींद  से जागने के बाद अनुभा माँ के हाथ के ऊपर अपना हाथ रखकर प्लास्टिक कुर्सी में बैठ गई और अपने दोनो पैर माँ की खटिया के ऊपर
रख दिए ताकि   उसे  अपनी  कमर दर्द में कुछ राहत मह्सूस हो। बैठे-बैठे पता नहीं कब उसे नींद लग गई। उसी दौरान माँ ने उसके नाक में लगी हुई नली को खींचकर बाहर निकाल दिया। यह देखकर वह चिन्ता में पड़  गई। अभी सवेरा होने वाला है, घर से कोई न कोई यहाँ आएगा  और माँ की खुली नली को देखकर दोषारोप सीधा उसी के ऊपर करेगा। वह कहेगा "माँ की सही  देख -भाल के लिए आप लोग अस्पताल में आए थे कि सोने के लिए?"
अनुभा ने देखा, भैया आँखो के ऊपर हाथ रखकर गहरी नींद में सो गए थे। भैया को  क्या कहेगी अनुभा ? भैया उसको क्या सुनाएंगे ? कहेंगे अगर नींद लग रही थी तो उन्हें जगा देना चाहिए था। इधर नर्स भी व्यर्थ में आकर इस पर चिल्लाने लगेगी। यही सोचकर अनुभा ने भैया को नहीं उठाया। अगर वह भैया को उठाती तो वह क्या कर लेते। जो कुछ भी होगा डॉक्टर के आने के बाद ही तो  होगा ।  सवेरे- सवेरे  अस्पताल के आस-पास गाड़ी, मोटर, लोगों की आवाज से भैया की नींद खुली। जैसे ही वह नींद से उठे अनुभा कहने लगी "ये देखिए तो भैया माँ ने नाक की नली खींचकर बाहर निकाल दी।"
अनुभा सोच रही  थी कि भैया उसे गाली देंगे और गुस्सा होकर कहने  लगेंगे कि एक अकेला आदमी  कितना कर सकता है। मगर  भैया हँस कर कहने लगे "क्या झपकी लग गई थी ? ठीक है घबराने की कोई बात नहीं। डॉक्टर का इन्तजार  करते  हैं और आने के बाद फिर एक बार लगवा देंगे।"
उस दिन अनुभा अपने  नित्य कर्म से निवृत होने के लिए घर नहीं गई। वह वहीं बैठकर डॉक्टर का इन्तजार करने लगी। मगर दुर्भाग्य से वही  डॉक्टर न आकर कोई दूसरे   नए  डॉक्टर आए थे। यह डॉक्टर जब से माँ को भर्ती करवाया गया था तब से छुट्टी पर थे. सवेरे से ही भैया माँ   की  नली लगवा देने के लिए नर्स और डॉक्टर के आगे-पीछे घूम रहे थे। बार-बार उनके सामने अनुनय- विनय कर रहे थे पर किसी के पास समय नहीं था।
चिड़चिड़ाकर नर्स कहने लगी "धीरज रखिए, जो भी होगा वार्ड का राउंड खत्म होने के बाद होगा।"
वार्ड में सौ से ज्यादा मरीज  भर्ती थे। इतने  रोगियों को देखने से डॉक्टर को कब फुर्सत मिलेगी।
सुबह माँ को नली द्वारा खाना नहीं दिया जा सका। लगभग साढ़े ग्यारह बजे के आस-पास डॉक्टर केबिन में आए। पुरानी कहावत है कि बृषभ का क्रोध महादेव से ज्यादा होता है, ठीक उसी प्रकार नर्स नागिन की तरह  फुंफकार  रही थी। यद्यपि यह जान-पहचान  वाली  नर्स थी। फिर भी उसका व्यवहार पूरी तरह से रुक्ष था। विगत चार दिनो में भैया ने उसको आठ-दस कोल्ड-ड्रिंक पिला दिए थे, उसके बावजूद भी उसका मिजाज ठंडा नहीं हुआ।  यह नया डॉक्टर भी अच्छे स्वभाव का नहीं था। वह संवेदनहीन था। पहले वाले डॉक्टर की तुलना में वह सीनियर था तथा उसकी खूब प्रैक्टिस चलती थी। छह महीने पहले यही डॉक्टर उनके  घर भी आए थे माँ को देखने के लिए।
              उस डॉक्टर के आने से पहले अस्पताल में माँ के कई स्वास्थ्य सम्बंधी   परीक्षण हो रहा था। यह नया डॉक्टर भी अच्छे स्वभाव का नहीं था। वह संवेदनहीन था। पहले वाले डॉक्टर की तुलना में वह सीनियर था तथा उसकी खूब प्रैक्टिस चलती थी। छह महीने पहले यही डॉक्टर उनके  घर भी आए थे माँ को देखने के लिए।
              इस डॉक्टर साहब ने सारी रिपोर्टों को नीचे फेंक दिया और कहने लगे " बताएँ क्या बीमारी है ?"
              भैया बतलाने लगे "दो साल से माँ की दिमागी हालत ठीक नहीं है। वह किसी को भी पहचान नहीं पा रही है। कभी दिन भर खाती रहती है तो कभी आठ-दस दिन तक मुँह में एक दाना भी नहीं डालती है। चार दिन पहले माँ को बुखार आ गया और वह धड़ाम से नीचे  गिर पड़ी। उसके बाद वह खड़ी नहीं हो पाई।"
              भैया विस्तार पूर्वक डॉक्टर को माँ के बारे में बताते जा रहे थे तभी डॉक्टर ने बीच में उनको रोका और पूछने लगे "स्मृति विभ्रम  के लिए क्या-क्या दवाई दी जा रही है ?"
              भैया कहने लगे "आप को पूछकर माँ को एक बार नींद की  कुछ दवाइयाँ दी   थी। उसके बाद और उनको कहीं नहीं दिखाया।"
             "अच्छा।"
              "सर, माँ ने नाक वाली नली बाहर निकाल दी है। कृपया उसको लगवा देते।"
              "सर्जरी डॉक्टर को कहिए।"    कहकर डॉक्टर वहाँ से बाहर निकल गए। सुबह से ही डाक्टरों के पीछे भागते-भागते भैया थक चुके थे और काम नहीं होने की वजह से वे दुःखी हो गए थे। बारह बज चुके थे मगर माँ के पेट में हॉरलिक्स मिले दूध की दो बूँदे भी नहीं जा पाई थीं। अनुभा अपने आप को दोषी मान रही थी। भैया से आखिरकर रहा नहीं गया, वे अपने पुराने डॉक्टर के घर  जाकर किसी तरह मनाकर  केबिन में ले आए थे। डॉक्टर ने नली को लगा दिया और कहने लगे कल एक और बोतल खून  चढ़वा दीजिए। डॉक्टर अनुभा की तरफ देखकर पूछने लगे "मुझे लगता है आपकी माँ का चेहरा पहले से थोड़ा अच्छा लग रहा है।"
यही देखने के लिए मैंने बहुत देर तक मेडिकल किताबों का अध्ययन किया।"

 कोल्डड्रिंक  पीते हुए डॉक्टर ने कहा ।शायद आज उनका मूड ठीक लग रहा था। मेडिकल रिपोर्टों   को अपने हाथ से पलटते हुए कहना जारी रखा "ट्रीटमेंट चलते हुए एक सप्ताह हो गया है  इसलिए इस  इंजेक्शन   को और देने की जरुरत नहीं है। अच्छा एक काम कर लीजिए। खून की एक बोतल और चढ़वा दीजि॥ फिर देखते हैं आगे क्या करना है।"
 माँ की दिमागी हालत के बारे में उन्होंने कुछ  भी नहीं बताया और भैया की तरफ देखकर केबिन से बाहर चले गए।
 आठ दिन हो गए थे भैया को ऑफिस से छुट्टी लिए हुए। अकेले सारी दौड़-धूप कर रहे थे। उनकी  छुट्टी का समय भी बीता जा रहा था। माँ की तबियत में कोई सुधार परिलक्षित न होता देख ऐसा लग रहा था मानो समय भी वहाँ आकर रुक गया हो। अच्छे-अच्छे डॉक्टर भी किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँच पा रहे थे। इधर अनुभा का मुम्बई लौट जाने का समय नजदीक आ गया था। बच्चों का स्कूल खुलने वाला था और वहाँ रुकना उसके लिए सम्भव नही था। तीन टिकट पहले से  बने हुए  था। अब वह और इन्तजार नहीं कर सकती थी मगर फिर भी उसके मन में एक जिज्ञासा इस बात को लेकर बनी हुई थी कि ऐसे क्या कारण हो सकते हैं कि डॉक्टर ने खून की एक और बोतल चढ़ाने का परामर्श दिया। अब यह खून और कौन देगा. क्या दीदी को फिर बुलाया जाए। उसका ब्लडग्रुप माँ के ग्रुप से मेल खाता था । अनुभा के शरीर में तो पिताजी के ग्रुप का खून था। पहली दो बोतल  बोतले तो भैया और छोटी बहन ने  दे दी  थी इसलिए इस तरफ सोचने की कोई जरुरत ही नहीं पड़ी मगर तीसरी बोतल ? इसके लिए भैया अस्पताल के रक्त बैंक में भी  गए थे मगर उन्हें निराशा हाथ लगी। तभी अनुभा को चार दिन पूर्व मनु भाई के साथ हुई बातचीत याद  आ गई। वह कह रह थे कि खून की व्यवस्था आराम से हो जाएगी क्योंकि वह रोटरी क्लब  के  एक वरिष्ठ सदस्य है। कहीं न कहीं से व्यवस्था हो ही जाएगी. अनुभा छोटी बहन को साथ लेकर उनके घर गई तथा सारी बातें बता आई  । सब बातें  सुनने के बाद मनु भाई अपने वचन से पलट गए और कहने लगे "अरे !इतनी जल्दी ब्लड कैसे मिल पाएगा ? मैं दे देता लेकिन अभी-अभी अट्ठारह बार दे चुका हूँ। ठीक है, देखते हैं। अब घर आई हो तो कुछ व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी।"
 "मैंने तो आप को चार दिन पहले से बोल कर  रखा था। कल तो जरुरत है। और अब कब मिलेगा ?"
 "नहीं, नहीं जुगाड़ नहीं हो पाया था।" मनुभाई ने टी.वी. देखते-देखते उत्तर दिया। अनुभा की समझ में आ गया कि मनु भाई और कुछ भी नहीं करने वाले हैं। जब वह लौटकर आ रही थी तभी उसकी मुलाकात मनु भाई के बड़े भाई बुनु से हो गई। अनुभा ने उनको भी ब्लड की जरुरत के बारे में बताया तथा उनके ब्लड ग्रुप के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। बुनु भाई कहने लगे "मेरा ब्लड ग्रुप ए पोजिटिव
 है।"
 यह सुनकर अनुभा के मन में आशा की एक नई किरण जागी और कहने लगी माँ का भी ए पोजिटिव है। डॉक्टर चाह रहे हैं कि एक और बोलत खून दे दिया जाय। क्या आप..... ?"
 घबराकर बुनु भाई तोतले स्वर मे बोले "मैं दे देता, मगर मेरा खून किसी काम का नहीं है। मेरी  उम्र पचास से ज्यादा हो गई है। और इस उम्र में सारा खून तो पानी हो जाता है।"
 बुनु भाई की बातों को  अनसुना  कर  अनुभा अस्पताल लौट आई। छोटा भाई तो पहले से ही अपनी नौकरी पेशे वाली जगह पर चला गया था इसलिए उसके ब्लडग्रुप  के बारे में तो कोई जानकारी ही नहीं रही. अनुभा को अपने अन्य भाई-बहनो के ब्लडग्रुप के बारे में पता नहीं था। अगर पता होता भी तो वह क्या कर लेती ? पास में तो कोई भी न  था । आखिर थक हारकर अनुभा ने घर में जाकर दोनो भाभियों को कहा "चलिए  आप लोग भी अपना ब्लड ग्रुप चेक  करवा लेते ?"
 दोनों में से किसी ने भी अनुभा की बात पर ध्यान नहीं दिया. पास में अनुभा का भतीजा भी खड़ा था वह अपनी माँ से कहने लगा "माँ आप लोग दादी को खून क्यों नहीं दे रहे हैं ?"
 उसकी माँ सीधे रसोई-घर में चली गई और वहाँ से कहने लगी "ऐ बेटा मेरा खून तो पानी हो गया।"
 "मतलब ?"
 अनुभा अपनी हँसी को रोक नहीं पाई। "अगर खून पानी हो जाता तो आप ऐसे घूम फिर पाते ?"
 उससे पहले कि अनुभा छोटी भाभी को कुछ कहे, पहले वही कहने लगी "मेरे शरीर में तो खून की कमी है। डॉक्टर ने खून बढ़ाने के लिए
आयरन टॉनिक भी लिखे हैं।"
 उस दिन अनुभा ने उस बात का अनुभव किया कि लोगों में रक्त दान के बारे में कितनी गलत धारणा है और डर ब्याप्त है। वह सोचने लगी शायद इंसान से ज्यादा और कोई स्वार्थी और संकीर्ण दिमाग वाला प्राणी इस धरती पर नहीं होगा। उसने तय किया कि वह अपने खून का विनिमय करके माँ के ग्रुप का खून अवश्य जुगाड़ करेगी। ब्लड बैंक में जाकर उस  बाबत  अपने पूर्व परिचित डॉक्टर और  फार्मासिस्ट  से सलाह लेने लगी। "ठीक है कोई आएगा तो हम आपको बता देंगे। फिर भी आप अपने स्तर पर प्रयास जारी रखिए। अगर कोई आपसे बी लेकर देना चाहे तो हमें बताइएगा।"
 अनुभा निरुत्साहित होकर कहने लगी "इतने बड़े हास्पीटल में किस-किस से पूछूँगी, किसको जाकर बोलूँगी, बी पोजिटिव  का खून लीजिए और ए पोजिटिव  का खून दीजिए।"
 "अरे ! आप अस्पताल में क्यों खोजेंगे। जाइए सामने वाली दो-चार दवाइयों की दुकान में खबर कर दीजिए। देखते-देखते एक घण्टे के भीतर  खून  की व्यवस्था हो जाएगी।"
 भैया  जाकर सामने की दो-चार दवाइयों की  दुकानों  में रक्त विनिमय के बारे में बताकर आ गए। वास्तव में आधा घण्टा भी नहीं बीता होगा कि एक आदमी केबिन में पहुँच गया और कहने लगा "सर, कौन बी पोजिटिव   खून देंगे ?"
 "मैं" अनुभा चहककर कहने लगी "आपके पास ए पोजिटिव  वाला  खून है ?"
 पूछने के बाद अनुभा बड़ा संकुचित  अनुभव  कर रही थी कि यह कैसा व्यापार ?
 इस आदमी के माँ-बाप , बेटा या पत्नी किसी के जिन्दा रहने के लिए खून की जरुरत होगी ऐसे में सीधा बोलना शायद उचित नहीं था। व्यस्तता में आदमी ने उत्तर  दिया "हाँ, ए पोजिटिव  मिल जाएगा। हमारे पास एक आदमी है उसको लाने के लिए मैने अपनी जान-पहचान वाले को भेज दिया है।"
 "वह आदमी खून देने के लिए राजी होगा ?"
 "हाँ मैडम। वह रिश्ते में मेरा साला लगता है। मेरी खातिर इतना नहीं करेगा।"
 अनुभा मन ही मन हँस रही थी कि एक बोतल खून के लिए कहाँ-कहाँ खाक नही छानी। मगर अब आशा की इस नव किरण को देखकर वह आश्वस्त हो गई थी और बेचैनी से उस आदमी के आने का  इन्तजार करने लगी, इसलिए दोपहर को वह खाना खाने के लिए अपने घर भी नहीं जा पाई। इधर बी  पोजिटिव  खून चाहने वाला आदमी बार-बार केबिन में आकर अनुभा को देखने लगता "मैडम, आप हैं न ?"
 "मैं तो हूँ पर आप का आदमी ?"अनुभा  कहने लगती।
 "देख रहा  हूँ मैडम अभी तक तो उसको आ जाना चाहिए था।"
 अब तक भैया ब्लड-बैंक के दो-चार चक्कर काट चुके थे परन्तु वहाँ न ता कोई खून विनिमय करने के लिए आया था और न ही देने के लिए। लगभग तीन बजे अनुभा अपने घर जाकर कुछ खाना खाकर आ गई। मानो अन्तहीन हो गया था वह इन्तजार, दिन ढलकर शाम होने जा रही थी, फिर भी वह आदमी कहीं दिखाई नहीं दिया। अनुभा ने सोचा और ज्यादा इन्तजार करने में कोई लाभ नहीं है। अगर माँ के लिए खून नहीं भी मिलता है तो भी वह अपना खून उस आदमी को दे देगी। बेचारा कितनी आशाएँ लिए उसके पास दौड़ा आया था। अनुभा भैया से कहने लगी "माँ के लिए खून की व्यवस्था नही होने पर भी मैं उस आदमी के लिए अपना खून देना चाहती हूँ। आप की क्या राय है ?"

 भैया शान्त लहजे में बोले "देगी ?" शायद ऊपरवाले को अनुभा के उस त्याग प्रवृत्ति का ही इन्तजार था। जैसै ही उसने मन में स्वेच्छा से खून देने का निर्णय किया वैसे ही वह  आदमी अपने साथ खून देने के लिए अपने  साले को लेकर पहुँच गया था। अनुभा खुश हो गई थी। जो भी हो, सारी समस्याओं का निदान हो गया। छोटी बहन को माँ के पास छोड़कर अनुभा भैया को साथ ब्लड-बैंक चली गई वहाँ उन दोनो के ब्लड  परीक्षण किया गया। दोनो का वजन भी चेक किया गया। उसके बाद औपचारिक लिखा-पढ़ी व अन्य काम समाप्त होने के बाद कहीं अनुभा नर्वस न हो जाए इसलिए उसको खाने के लिए मिठाई और पीने के लिए दूध दिया गया। अनुभा हँस रही थी। वह मन ही मन सोच रही थी क्या उसको सूली पर चढ़ाया जा रहा है। भैया ने उसको बात मान लेने के लिए कहा, तभी छोटी बहन ने एक अन्जाने लड़के के हाथ में जल्दी आने के लिए यह खबर भेजी कि माँ की तबियत बहुत बिगड़ती जा रही है। भैया ने कहा ठीक है हम लोग पहुँच रहे है "पहले ब्लड वाला काम पूरा हो जाय।"
 जैसे ही  अनुभा के खून देने का काम पूरा हुआ वैसे ही दोनो बिना एक पल रुके दौड़ते हुए माँ के पास पहुँच गए। प्रतीक्षा करती निराश छोटी बहन उनको देखते ही कहने लगी "देखिए तो भैया, माँ  अपनी कमर किस तरह से बार-बार ऊपर उठा रही है पता नहीं उसको क्या हो गया।"
 "शायद पाखाना हुआ होगा।"
 "नहीं, पाखाना नहीं हुआ है।"
 "अच्छा ठीक है, डॉक्टर को बुलाते हैं।"
 भैया ने धीरे से माँ को उठाकर बैठा दिया। उन्होंने देखा कि माँ  की कमर के दोनो तरफ चमड़ी निकलकर लाल घाव हो गए। छोटी बहन डरते हुए कहने लगी "बेडसोर। यह तो उनकी पूरी पीठ में फैल जाएँगे। मेरी सास को भी बेडसोर हुए  थे । मैं एक महीने तक खूब परेशान हुई थी।"
 अनुभा को उस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। वह घबराकर धम से कुर्सी पर बठ गई।
 "तो फिर क्या किया जा सकता है ? घाव देखने से ही डर लग रहा है। कैसे ठीक होंगे ?"
 "छोटी बहन कहने लगी, ये घाव कहाँ ठीक होते हैं ? जब एक घाव सूखेगा तब दूसरा घाव तैयार हो जाता है।"
 उसकी बातें सुनकर भैया का चेहरा पीला पड़ गया और वे कहने लगे "गीता तू सच बोल रही है ?"
 माँ को दाई करवटे सुलाकर कुछ समय तक वे तीनो चुपचाप बैठे रहे। कुछ देर बाद छोटी बहन फिर से अपनी सास के  बेडसोर   के बारे में जितनी उसको जानकारी थी, वह बताने लगी। अनुभा उसकी बातें सुनकर भयभीत होने लगी। छोटी बहन उसको डरते देख कहने लगी "डरने की कुछ भी बात नहीं है। घाव को हमेशा हवा की दिशा में रखना  पड़ेगा ।  पाउडर लगा कर रखने से और नहीं फैल  पायेंगे ।"
 वार्तालाप के बीच में से भैया उठकर कहीं बाहर चले गए और दस मिनट के बाद एक आदमी को लेकर साथ लौट आए। वह आदमी उनका पुराना दोस्त था। उनकी एक दवाई की दुकान भी थी। वह कहने लगा "दिखाइए, कहाँ बेडसोर हुआ है ?"
 माँ  की  कमर पर से कपडे  हटाकर भैया उसको दिखाने लगे।
 "ओह ! यह तो शुरुआत है। मल्हम लगाकर खुला करके रखेंगे। मेरी दादी को जब  बेडसोर  हुए   थे तो  खूब पैसे खर्च हुए थे। छह महीने तक पचास रुपए का एक कैप्सूल दिन में तीन बार। हर दिन 150 रु. खर्चा आता था।
 "डेढ सौ रुपया, भैया ने आश्चर्य चकित होकर पूछा।"
 "मेरी दादी भी इसी तरफ कोमा में पड़ी हुई थी।"
 अनुभा ने पूछा "कोमा में आदमी कितने दिनों तक पड़ा रहता है ?"
 "साल दो साल भी हो सकता है।"
 उस आदमी की बातें सुनकर तीनों स्तब्ध रह गए मानो अब माँ के इस बोझ को सम्भालते-सम्भालते वे लोग थक चुके थे। एक-एक कर माँ को देखने के लिए घरवाले और रिश्तेदार आना शुरु हुए परन्तु उन तीनो ने एकदम मौन व्रत धारण कर लिया, किसी से कुछ भी बातचीत नहीं  की । लगभग आठ बजे रात को भैया ने कुर्सी में बैठकर जम्हाई लेते हुए कहा "अन्नु आज रात को और मै  रुक नहीं पाऊँगा। बहुत कष्ट हो रहा है।" "भैया, अगर आप इस तरह टूट जाएँगे तो फिर हम लोग क्या करेंगे ?"
 छोटी बहन ने कहा "अस्पताल में माँ की देखभाल करते हुए बड़े भैया को बहुत दिन हो गए हैं। अब वे बुरी तरह थक भी चुके हैं। आज छोटा भाई भुवनेश्वर से घर आता ही होगा। छोटे भाई और छोटी भाभी को आज रात में यहाँ रहने के लिए कह देते हैं।"
 अनुभा सोच रही थी, माँ छोटे बेटे को बहुत ज्यादा प्यार करती थी लेकिन क्या वह माँ को देखने के लिए रात में अस्पताल में जाग पाएगा ? बचपन से ही वह बड़े लाड़-प्यार में पला है। वह कभी भी रात में यहाँ रहने के लिए तैयार नहीं होगा। लग रहा है भैया को ही ये सब कष्ट सहन करने पड़ेंगे । क्योंकि वे अपनी तकदीर में लिखवाकर लाए हैं । घर में सबसे ज्यादा धैर्यवान बड़े भैया थे। वह भी बेडसोर का नाम सुनते ही ऐसे टूटे कि वहाँ रहने का उनका मन ही नहीं हो रहा था। नाक में फिट की हुई रायल ट्यूब  के सहारे सिरिन्ज के द्वारा खाना खिलाना, पानी जैसे बहने वाले पतले मल को  साफ़ करना और ऊपर से बचा था तो यह 'बेडसोर' भी। अनुभा भैया की मानसिक स्थिति का आकलन   करते हुए कहने लगी "कल हम माँ को  खून की बोतल   चढाने   के बाद घर ले जाएँगे। डॉक्टर भी तो अभी तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहे हैं। पहले तो वे कह रहे थे कि माँ के  ब्रेन में खून का  संचरण रुक गया है। अभी तक उनको किसी सही बीमारी का पता भी नहीं चला है। अभी कह रहे हैं 'ओल्ड एज सिम्पटम' है।
 माँ की उम्र ज्यादा होने के कारण यह सब हो रहा है ? उसको अस्पताल में रखकर गिनी पिग की तरह इधर से उधर....... क्या रखा है माँ के शरीर में , जो उसको सुई से छेद -छेद करके इतना कष्ट दिया जाय। चार दिन बाद मुझे  भी  मुंबई  जाना होगा। गीता को आए बहुत दिन हो गए हैं। उनके पति भले ही कितने अच्छे आदमी हो मगर अकेले रहने में उनको भी तो परेशानियां हो रही होगी। बेचारे खुद खाना बनाकर ऑफिस जाते होंगे। गीता भी कितने दिन तक यहाँ बैठी रहेगी ? आपकी भी छुट्टी पूरी होने वाली होगी, और कितनी रातें आप जाग पाएँगे ? माँ को घर ले जाने  से सब थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर देखभाल कर पाएँगे।"
 एक  लम्बे  भाषण को समाप्त करने के बाद अनुभा एक दम मौन हो गई मानो माँ उसके लिए भी अब एक अनसुलझी पहेली बन गई हो। अनुभा स्वयं ही  माँ को अस्पताल में भर्ती करवाने के लिए आगे आई थी और अब वह खुद ही घर ले जाने की बात कर रही थी। पहली बार उसने थोड़ा-बहुत समय माँ को दिया था। पर न माँ ठीक हो पाई और न ही मुक्त। केवल एक लम्बी प्रतीक्षा।  इसका मतलब क्या माँ उसी के आने का ही इन्तजार कर रही थी ? अस्पताल के बरामदे  में बैठे पिताजी शायद उसकी बात को सुन रहे थे, केबिन के भीतर आकर उदास स्वर में पूछने  लगे "माँ को क्या घर ले जाओगे ? क्या उसकी अवस्था में कोई सुधार नहीं आ रहा है ?"
 पिताजी के चेहरे और आवाज में एक दुखी आदमी का दर्द स्पष्ट झलक रहा था। अभी तक अनुभा अपने पिताजी  को समझ नहीं पाई ? माँ के लिए उनके ह्मदय के किसी कोने में छुपा हुआ यह थोड़ा सा  प्यार , जिसको आज तक अनुभा ने नहीं देखा था। एक पुरुष व्यक्तित्व के अन्दर छुपा हुआ यह निर्मल प्रेम चारो ओर  बिखेरने का वह प्रयास कर रहे थे जिसे अनुभा देख न सकी। शायद माँ को कष्ट होगा, यही सोचकर उसकी आँखो का ऑपरेशन करवाने के लिए उन्होंने मना कर दिया। शायद इलेक्ट्रिक शॉक  के  डर से किसी मनोवैज्ञानिक डॉक्टर के पास वह लेकर नहीं  गए।
 लेकिन अनुभा ने क्या किया ? सारे माहौल को बदलकर माँ को अस्पताल में भर्ती करवा दिया। चलती-फिरती माँ को कुछ ही दिनो में एक सरीसृप बना दिया। सभी  भाई-बहन यही कह रहे थे कि माँ तो केवल उसका ही इन्तजार कर रही थी और अनुभा खुद भी यह सोच रही थी कि माँ उसको देखकर अपनी  आँखें  सदा-सदा के लिए मूँद लेगी जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता है। अब माँ को किसका इन्तजार है ? अगर वह ठीक भी हो जाएगी, उठकर खड़ी होने लगेगी, चलने-फिरने लगेगी तो भी क्या लाभ मिलेगा। ऐसे ही जंगलियों की भाँति इधर-उधर घूमेगी और लाश  बनकर बिना कुछ खाए अपना जीवन विताएगी। अगर माँ जिन्दा भी रह गई तो उसमें से वह पुरानी माँ तो लौट कर नहीं आ पाएगी। माँ तो उनके जीवन से बहुत दिन पहले ही चली गई थी। बहुत दिन बीत गए माँ को सबके लिए अर्थहीन हुए। माँ को तो इस बात का भी एह्सास नहीं कि उसके चारो तरफ हो-हल्ला करते हुए चक्कर काटने वाले सब उसके बेटा-बेटी, बहु, पोता-पोती हैं। बहुत दिन हो गए अनुभा ने अपनी माँ को खो दिया उसके जीवन में कहीं और माँ का नामो निशान न था। वह तो कब से मर चुकी है ! सोचते-सोचते अनुभा फफक कर रो पडी। उसको रोते देख छोटी बहन भी विलाप करने लगी। भैया थककर पता नहीं कब से कुर्सी पर बैठे-बैठे सो गए थे। अनुभा ने अपने आँसुओं को पोछते हुए देखा कि पिताजी के गाल के ऊपर बहते हुए आँसुओं की  धारा । ये आँसू हैं या प्रेम ? अनुभा ने माँ के शरीर के ऊपर से अपना हाथ घुमाया, मन ही मन वह कहने लगी "तू जा माँ, तू इस संसार को छोड़कर उड़ जा। अब यह संसार तुम्हारा नहीं है। तू भी अब किसी की नहीं रही। जा तू किसी दूसरे संसार के लिए उड़ जा।"
 परन्तु माँ बहुत हठधर्मी होकर अनुभा की बातों को अनसुनी कर ऐसी ही पड़ी रही। अभी भी माँ के गले के पास एक नाड़ी धड़क रही थी।
***समाप्‍त***
 

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