मेरे पास भरोसे की आँख थी
मैंने पाया कि चीज़ें वैसी नहीं थीं
जैसी वे मुझे नज़र आती थीं
शायद मुझे वैसी दिखाई देती थीं वे
जैसा मैं देखना चाहती थी उन्हें
फिर एक दिन
कुछ ऐसी किरकिरी
हुई महसूस
कितने ही लेंस आजमाने के बाद
मिला मुझे यह चश्मा
लेकिन नही करता यह मेरी सहायता
चीज़ों को साफ़ देखने में
वे इतनी विरूपित हैं
की छिन गया है
मन चाहा देखने का भी सुख
मैं अपना चश्मा बदलना चाहती हूँ
***
खुद मुख्तार औरत
अपने श्रम के पसीने से
रचती हूं स्वाभिमान का हर एक क्षण
रोज गढती हूं एक ख्वाब
सहेजती हूं उसे
श्रम से क्लांत हथेलियों के बीच
आपके दिए अपमान के नश्तर
अपने सीने में झेलती हूं
सह जाती हूं तिल तिल
हंसती हूं खिल खिल
क्षमा करें श्रीमान
मेरा माथा गर्व से उन्नत है
मुझ से न आवाज़ नीची रखी जाती है
न निगाहें झुकाना आता है मुझे
मैंने सिर्फ सर उठा कर जीना सीखा है
जो न देखी जाती हो आपसे यह ख़ुद मुख्तार औरत
तो निगाहें फेर लिया कीजिए
***
वह प्रेम के प्रतीक्षालय में है
उसे हर बात सिर्फ अपनी तरह से करनी है
उसका अपना झंडा है
उसके अपने रंग है
उसकी अपनी भाषा है
उसके अपने ढंग है
उसके रिश्ते सिर्फ उसकी शर्तों पर बनते हैं
उनमें अन्य की कोइ जगह नहीं
अन्य उसके हाथों के मोहरे हैं
लेकिन एक दिन मोहरे ऊब जाते हैं
चलते हुए उसके हाथों की चाल
दोस्त बिखर जाते हैं
जैसे बिखर जाती हैं कैरम की गोटियां
स्ट्राइकर के पहले ही आघात के साथ
उसे दुनिया से कोइ शिकायत नहीं
उसे पता है उसने गलत समय में
गलत देशकाल में जन्म लिया
वह प्रेम के प्रतीक्षालय में है
और वे लोग जो करते हैं उससे प्रेम
घर पर करते हैं उसकी प्रतीक्षा
***
दूर नहीं वह दिन
कितनी तो तरक्की कर गया है विज्ञान
वनस्पतियों की होने लगी हैं संकर और उन्नत किस्में
फूलों में भर दिए हैं मनचाहे रंग
देह का कोई भी अंग बदला जा सकता है
मन मुताबिक
हृदय, गुर्दा या आंख, कान
सभी का संभव है प्रत्यारोपण
मर कर भी न छूटे मोह दुनिया देखने का
तो छोड़ कर जा सकते हैं आप अपनी आंख
किसी और की निगाह बन कर
देखते रह सकते हैं इसके कारोबार
बशर्ते बचा रहा हो इस जीवन के प्रति ऐसा अनुराग
हांफने लगा न हो आपका हृदय अगर
जीने में इस जीवन को दुर्निवार
तो छोड़ जाइए अपना हृदय
किसी और सीने में फिर धड़कने के लिए एक बार
फिर शीरीं-फरहाद, और लैला-मजनूं की तरह
धड़कता रहेगा यह
अगर है कोई स्वर्ग
तो वहां से झांक कर देखा करेंगे जिसे आप
जीते जी दूसरे की देह में
लगवा सकत हैं आप अपना गुर्दा
एक से अपना जीवन चलाते हुए
दूसरे से किसी अन्य का जीवन चलता है
यह सोच थोड़ी और गर्वीली हो सकती है आपकी चाल
यह तो कुछ नैतिकता के प्रश्न आने लगे हैं आड़े
वर्ना जितने चाहें उतने अपने प्रतिरूप
बना सकता है मनुष्य
शायद दूर नहीं वह दिन भी अब
आपकी खोपड़ी का ढक्कन खोल
बदलवा सकेंगे जब आप इसमें उपजते विचार
राजनीतिकों की बात दीगर हैं
जिनके खोखल में अवसरानुकूल स्वत:
बदल जाते हैं विचार और प्रतिबद्धताएं
आप जो स्मृतियों में जीते हैं
नफा नुकसान की भाषा नहीं समझते हैं
आपके भी हाथ में होगा तब यह उपाय
जगह जगह होंगे ऐसे क्लिनिक
जिनमें जाकर आप
बारिश की स्मृतियों को बेच सकेंगे औन-पौने दाम
और बदले में रोप दी जाएंगी सफलता की कामनाएं तमाम
जिन चेहरों को भुलाना मुश्किल होगा
सिनेमा की डीवीडी की तरह बदली जा सकेंगी
उनकी छवियां तमाम
टाम क्रूज, जॉनी डेप्प और जेनिफर लोपेज
जिसकी भी चाहेंगे आप
उनकी स्मृतियों से अंटा होगा आपकी यादों का संसार
***
देवयानी भारद्वाज

जन्म 13 दिसंबर 1972 , शिक्षा एम ए हिन्दी साहित्य (राजस्थान विश्व विद्यालय) व़र्ष 1995.
वर्ष 1994 से 2004 तक पत्रकारिता के दौरान नियमित फिल्म समीक्षा तथा फीचर लेखन। वर्ष 2001 में प्रेम भाटिया फैलोशिप के तहत 'विकास की असमानता और विस्थापित होते लोग' विषय पर अध्ययन (अब तक अप्रकाशित)। भोजन के अधिकार आंदोलन के साथ एक नियमित बुलेटिन 'हक' का संपादन। व़र्तमान में शिक्षा में सक्रिय स्वयं सेवी संस्था 'दिगंतर' के साथ असोसिएट फैलो के रूप में कार्यरत।
कथन, शिक्षा विमर्श, जनसत्ता, आउटलुक आदि पत्रिकाओं तथा प्रतिलिपि, समालोचन, असुविधा, आपका साथ साथ फूलों का, परिकथा ब्लोगोत्सव आदि ब्लोग्स पर कविताएं प्रकाशित। अखबारों के लिए छिट-पुट लेखन कार्य जारी। अंग्रेजी एवं हिन्दी में शिक्षा से संबंधित अनेक अनुवाद प्रकाशित।
DEVYANI BHARDWAJ JI KEE KAVITAAYEN ACHCHHEE KAVITAAYEN
ReplyDeletePADHWAANE KE LIYE AABHAAR .
खुद मुख़्तार औरत ....जो न देखी जाती हो आपसे यह ख़ुद मुख्तार औरत
ReplyDeleteतो निगाहें फेर लिया कीजिए
गज़ब का लेखन है देवयानी जी का ..अच्छा लगा पढ़ कर ,बधाई
"वह प्रेम के प्रतीक्षालय में है
ReplyDeleteऔर वे लोग जो करते हैं उससे प्रेम
घर पर करते हैं उसकी प्रतीक्षा ..."
यहाँ दिन के उजाले जैसा सत्य है इन पंक्तियों में ...!
देवयानी भारद्वाज जी, संभावनाएं क्षितिज के उजाले सी है
आप में, आपके लेखन में ...! ...!
दूर नहीं वह दिन ... उस पर कुछ कहें तो :फिर तो ये सारी
उधार की चीज़ों की अदलाबदली पाने वाले भी तो
नकली निकम्मे ही होंगे ...रात को ड्रग्स लेकर जो स्वर्ग में
खो जाने का आभाष पाते हैं वे तो सिर्फ सुबह होने पर दोज़ख़
ही पाते हैं ...
सुंदर सहज जीवन के वास्तव से इनकार कभी भी नहीं
किया जाए ...और कवि की आस्था तो हर किसी से कुछ
ऊपर उठ कर ही हो ...
हम समझे हैं आपके निहितार्थ को ...
क्षमा करें श्रीमान
ReplyDeleteमेरा माथा गर्व से उन्नत है
मुझ से न आवाज़ नीची रखी जाती है
न निगाहें झुकाना आता है मुझे
मैंने सिर्फ सर उठा कर जीना सीखा है
खुद मुख़्तार औरत ....जो न देखी जाती हो आपसे यह ख़ुद मुख्तार औरत
तो निगाहें फेर लिया कीजिए
आपके इस ज़ज़्बे को सलाम देवयानी! आपकी लेखनी बहुत ही भावपूर्ण, संवेदनशील, और सशक्त है....एक तड़प है, छटपटाहट है जो मन को सहज बाँधती है।
शुभकामनाएँ ।
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(29-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
khud mukhtaar aurat lakshman rekha ko najaayaz bataane vaali stree kee kvita hai jo roodhiyon ko dhwst karke apne aatmsamman aur garv se jeene kee aakanksha aur hausla rakhti hai.. badhai devyani
ReplyDeleteआपकी कविताए न केवल व्यावहारिकता की ज़मीन पर है बल्कि अभूत आत्मीय भी है .... इनमें विनम्रता के साथ बात रखने का ढंग है ....... बधाई देवयानी जी ............( आप पापा का नाम राइशन कर रही हैं )
ReplyDeleteरोज गढती हूं एक ख्वाब
ReplyDeleteसहेजती हूं उसे
श्रम से क्लांत हथेलियों के बीच
आपके दिए अपमान के नश्तर
अपने सीने में झेलती हूं
सह जाती हूं तिल तिल
हंसती हूं खिल खिल
आपने महिलाओं के अन्तर्तम की व्यथा को बडे ही सहज, सरल तरीके से अभिव्यक्त किया है। मेरे अनुभव मे दिनभर कडी मेंहनत,घर के प्रत्येक सदस्य के नाज नखरो को सहते हुए भी वह नाच लेती गा लेती है। अन्त मे सबको खाना खिलानें के बाद बिना सब्जी मिर्च और प्याज से खाना खा लेती है ।पति के लिये व्रत करती है और पति महोदय खा पी कर सोते है और वह चांद निकलने का इन्तजार करती है। आपकी कविता पढ़कर मेरी आंखो मे मेरे अनुभव बिम्ब के रूप मे सामनें आ गये।
आपकी दूसरी कविता -मैं अपना चश्मा बदलना चाहती हूँ- पढ़कर गहरे मे समझ तो पा रहा हूं किन्तु समझने सेअधिक कठिन इस पर कुछ कहना लग रहा है ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुतीकरण ..
ReplyDeletebahut gehre bhav liye huee in kavitaon ko padna achchha laga.
ReplyDeletesundar.
स्वाभिमान में पगी श्रमजीवी स्त्री की बेधक वाणी
ReplyDeleteस्वाभिमान में पगी श्रमजीवी स्त्री की बेधक वाणी
ReplyDeleteaap bhut achha likhte hai, as a publishing company khna chahta hu ki aap is story ko book me convert krne ka bichar kre, aur hme apna bichar btaye?: editor.onlinegatha@gmail.com
ReplyDeletesadar: Varun Mishra