जन्म- ७ सितम्बर १९५९ जालंधर, पंजाब।
शिक्षा- बी.ए.आनर्ज़,एम.ए. ,पीएच.डी. (हिंदी), पत्रकारिता में डिप्लोमा।
विधाएँ- कविता, कहानी, उपन्यास, इंटरव्यू, लेख एवं रिपोतार्ज।
तलाश पहचान की (काव्य संग्रह), वसूली (कहानी संग्रह ), सफ़र यादों का (काव्य संग्रह ),
माँ ने कहा था (काव्य सी.डी.), १२ प्रवासी संग्रहों में कविताएँ, कहानियाँ प्रकाशित।
संदली बूआ (पंजाबी में संस्मरण)। कई कृतियाँ पंजाबी में अनुदित| टारनेडो (कहानी संग्रह पंजाबी में अनुदित ) प्रकाशनाधीन |
संपादन- हिन्दी चेतना (उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका) की संपादक हैं। मेरा दावा है (काव्य संग्रह-अमेरिका के कवियों का संपादन )|
अनुवाद - परिक्रमा (पंजाबी से अनुवादित हिन्दी उपन्यास)|
विशेष- हिन्दी विकास मंडल (नार्थ कैरोलाइना) की सचिव । अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमेरिका) के कवि सम्मेलनों की राष्ट्रीय संयोजक |
उत्पीड़ित नारियों की सहायक संस्था 'विभूति' की सलाहकार | इंडिया आर्ट्स ग्रुप की स्थापना कर हिन्दी के बहुत से नाटकों का मंचन किया है |
अनगिनत कवि सम्मेलनों का सफल संयोजन एवं संचालन किया है | रेडियो सबरंग ( डेनमार्क ) की संयोजक | टी.वी., रेडियो एवं रंगमंच की प्रतिष्ठित कलाकार |
सम्मान- १) अमेरिका में हिन्दी के प्रचार -प्रसार एवं सामाजिक कार्यों के लिए वाशिंगटन डी.सी. में तत्कालीन राजदूत श्री नरेश चंदर द्वारा सम्मानित।
२) चतुर्थ प्रवासी हिन्दी उत्सव २००६ में ''अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान। '' ३) हैरिटेज सोसाइटी नार्थ कैरोलाईना (अमेरिका ) द्वारा ''सर्वोतम कवियत्री २००६'' से सम्मानित,
४) ट्राईएंगल इंडियन कम्युनिटी, नार्थ-कैरोलाईना (अमेरिका) द्वारा ''२००३ नागरिक अभिनन्दन''। हिन्दी विकास मंडल, नार्थ-कैरोलाईना( अमेरिका), हिंदू-सोसईटी, नार्थ कैरोलाईना( अमेरिका),
अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति (अमेरिका) द्वारा हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं सामाजिक कार्यों के लिए कई बार सम्मानित।
सुधा ओम ढींगरा (यू. एस. ए )
उफ़!निशब्द!
ReplyDelete"मॉम, डैड कई बार आधी रात को उठ कर ये साईट्स देखते हैं तो मैं दिन में क्यों नहीं देख सकता?"
ReplyDeleteसुधा जी,
नमस्कारम्!
यह लघुकथा माता-पिता/अभिभावकों को आँखें खोलने के लिए प्रेरित कर रही है। बच्चे तो बच्चे हैं...वे जो कुछ भी ग्रहण करते हैं, वह सब आता तो इसी समाज से है जिसकी हम-सब इकाइयाँ हैं।
कहते हैं कि- हम सुधरें, तो जग सुधरे! है न सुधा जी?????????????
आपको इस सार्थक सृजन पर हार्दिक बधाई!
आप अपनी रचनाएँ हमारी त्रैमासिक पत्रिका के लिए भेजिए...स्वागत है!
माफ करें,नरेन्द्र जी और सुधा जी भी कि यह लघुकथा नहीं है। यह एक घटना मात्र है।
ReplyDeleteaj ke ghinaune sach ke prati aagah karti laghukatha !
ReplyDeleteगज़ब!!!!!!!!!
ReplyDeleteऊफ्फ!! क्या कहें.....
ReplyDeleteसुधा जी, बच्चे अपने अभिभावकों से ही सीखते हैं सब, सिद्ध कर दिया आपकी कहानी ने. सुन्दर है.
ReplyDeleteLAGHU KATHAA MEIN SUDHA DHINGRA NE BADEE
ReplyDeleteKHOOBSURTEE SE SACHCHAAEE KO UJAAGAR KIYAA
HAI .
सुधा जी का कृतित्व सचमुच प्रशंसनीय है।
ReplyDeleteमेल द्वारा सूचना के लिए आभार।
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सचमुच मुकर्रर है कयामत?
कमेंट करें, आशातीत लाभ पाएं।
आदरणीया पंकज भाई साब
ReplyDeleteप्रणाम !
प्रिय नरेन्द्र जी
नमस्कार !
आप को अक्सर पढ़ा है , ये सौभाग्य है मेरा , बेहद चिंतन है आप कि रचनाओं में . एक गंभीर भाव लिए होती है आप कि कविताए , बेहद सधी हुई ! आप कि प्रकृति के प्रति अनुराग झलकता है जो एक दृश्य पढ़ते समय हमारे समक्ष उत्पन हो जाता है , इसके लिए बधाई !
साधुवाद !
रचना के साहित्यिक पक्ष पर तो मैं कुछ कहने में अक्षम हूँ लेकिन इसमें व्यक्त घटना को देखें तो मूल प्रश्न आता है दृष्टिकोण का। एक सामान्य आदमी का दृष्टिकोण बँधा होता है पूर्वाग्रहों से और इसी दृष्टिकोण से वह अपेक्षाओं को बॉंधने के प्रयास में भूल जाता हैं कि मनोविज्ञान जटिल विषय है और हर व्यक्ति का मनोवैजानिक विकास अलग होने से उसका असामान्य सा लगने वाला व्यवहार भी परिस्थिति विशेष में सामान्य ही होता है।
ReplyDeleteअगर इसे एक घटना की अभिव्यक्ति भी मानें तो इसमें असहज कुछ नहीं है। यह घटना ना तो सामाजिक विद्रूपता की स्थिति है और न ही वय:सन्धि काल की। एक सामान्य स्थिति का संक्षिप्त वर्णन भर है जो सोचने के लिये एक विषय तो दे ही रही है।
"Charity begins at Home" ye ek mana hua saty hai. par zamane ki teevr raftaar aur vatavaran ka asar is disha mein bachon ko dhalelne mein sashakt hai...aisi kathayein samaj mein jagarookta zaroor layegi.
ReplyDeleteजहाँ तक मैं समझता हूँ कि चाहे कोई लघुकथा हो, कहानी या फिर कविता.. ये अधिकाँश रचनाएं किसी ना किसी घटना या दुर्घटना से ही प्रेरित होती हैं. बेहतर होता राजेश जी विस्तृत रूप में समीक्षा करके 'घटना' को लघुकथा बनाने में मदद करते अथवा सिर्फ कलापक्ष को प्रधान मानने के अलावा भावपक्ष पर भी ध्यान देते.
ReplyDeleteवैसे हर दूसरे घर में ये लघुकथा घटते दिख जायेगी.
रचनाजी श्रीवास्तव जी ने अपनी प्रतिक्रिया मेल द्वारा प्रेषित की...
ReplyDeletesudha ji kahani chhoti hai par baat bahut ganbhir hai .aur shayad sabhi ko kuchh na kuchh sochne pr majboor karti hai .
kahani kala me aap bahut nipun hai .
saader
rachana
बच्चे अपने अभिभावकों से ही सीखते हैं,आपकी कहानी ने सिद्ध कर दिया है| आभार।
ReplyDeleteSudha jee ne bade sleeke se ek sachchai ko prastut kiya hai vh apne aap me kabile tareeph hai, badhai
ReplyDeleteआप सभी ने लघु कथा को पसंद किया, आभारी हूँ | नरेंद्र जी ने इसे आखर कलश में स्थान दिया, बहुत -बहुत धन्यवाद |
ReplyDeleteरचना को पढने के साथ साथ मैंने तमाम पाठकों की प्रतिक्रियायें भी बडे चाव से पढी हैं, सबसे सशक्त व्यक्तव्य तिलक राज जी का है और इशारों में अपनी बात कह गये, रचना में मात्र पाखण्डी समाज के धूर्त आडम्बरों को ही पुनर्स्थापित किया गया है, प्रवासी भारतीयों की कई पीढियां पश्चिम में रहने के बाद भी उनके आचार विचार वही पौराणिक प्रवृतियों के दायरे में घूमते हैं, सब घटनाक्रम वह उसी दृष्टिकोण से देखते हैं जिसका चश्मा उन्हे धर्म और संस्कृति के नाम पर बिना उनकी सहमति के बाल अवस्था में ही चढा दिया जाता है या घुट्टी में पिला दिया जाता है, तब इनका हाल वह होता है जो इस रचना के किरदारों का है. याद रहे, पश्चिमी समाज में अगर कोई युवा अथवा युवती १४ बरस की उम्र में गर्ल फ़्रेण्ड/बाय फ़्रेण्ड नहीं रखता तब उसके माता पिता उसे मनोचिकित्सक के पास इसलिये लेकर जाते हैं कि यह एक असमान्य घटना है. सही कहा किसी ने, बच्चे अपने बडों से ही सीखते है..बच्चा इसलिये विकृत हुआ क्योकि उसका पिता भी अतृप्त, अप्राकृतिक और असमान्य मनोवृति का शिकार है, सैक्स को लेकर कथित भारतीय संस्कृति से मिली वर्जनाओं को लेकर बाप बीमार है और यह बीमारी पीढी दर पीढी कालांतर से चलते हुई अब इस बालक में भी पहुँच गयी..बेहतर होता किसी और तरीके से इस समस्या पर टीका की गयी होती तब नयापन प्रतीत होता और बस यहीं चूक हो गयी..किसी संकीर्णता के चलते..
ReplyDeleteसादर