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“माँ सरस्वती-शारदा”
ॐ श्री गणेशाय नमः !
या कुंदेंदु तुषार हार धवला, या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणा वरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना |
याब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवै सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निश्शेषजाढ्यापहा ||
या कुंदेंदु तुषार हार धवला, या शुभ्रवस्त्रावृता
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सा मां पातु सरस्वती भगवती निश्शेषजाढ्यापहा ||
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सम्पादक मंडल
- Narendra Vyas
- मन की उन्मुक्त उड़ान को शब्दों में बाँधने का अदना सा प्रयास भर है मेरा सृजन| हाँ, कुछ रचनाएँ कृत्या,अनुभूति, सृजनगाथा, नवभारत टाईम्स, कुछ मेग्जींस और कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई हैं. हिन्दी साहित्य, कविता, कहानी, आदि हिन्दी की समस्त विधाएँ पढने शौक है। इसीलिये मैंने आखर कलश शुरू किया जिससे मुझे और अधिक लेखकों को पढने, सीखने और उनसे संवाद कायम करने का सुअवसर मिले। दरअसल हिन्दी साहित्य की सेवा में मेरा ये एक छोटा सा प्रयास है, उम्मीद है आप सभी हिन्दी साहित्य प्रेमी मेरे इस प्रयास में मेरा मार्गदर्शन करेंगे।
दूसरी लघुकथा बहुत अच्छी तरह से समाज में व्याप्त एक मानसिकता को दर्शाती है, लेकिन पहली वाली अविश्वसनीय लगती है.
ReplyDeleteदोनों लघुकथाएं अच्छी हैं । सुनीलजी को बधाई !
ReplyDeleteभाई दीपक 'मशाल'जी ,
आपको लेकिन पहली वाली लघुकथा चप्पल अविश्वसनीय लगी ।
ऐसी बात नहीं है , मेरे और मेरे स्वर्गीय पिताजी सहित और भी कई लोगों के साथ इस तरह के वाकए पेश आने का मैं स्वय भी गवाह हूं ।
हां, महानगरों में संवेदनशीलता नाममात्र ही रह गई है, परंतु इसके पीछे के कारण तलाश किए जाने चाहिए । …अस्तु !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
चप्पल की स्थिति और करुणा की जीत मन को झकझोर गई,
ReplyDeleteवहीँ कमरे के खालीपन की व्यथा स्तब्ध कर गई.....बहुत ही
सवेदनशील कथा
बिल्कुल अविश्वसनीय नहीं पहली कथा.... ऐसे लोग हैं , हर कोई ऐसा नहीं होता इसलिए विश्वास करना मुश्किल होता है
ReplyDeleteचप्पल लघु कहानी में ख्वाहिशों को मार कर इंसानियत को बचाए रखने का एक बेहतरीन उदहारण प्रस्तुत किया गया है ,जो वक्त की अहम् जरुरत है .. इन भावनाओं की प्रस्तुती के लिए लेखक को
ReplyDeleteसाधुवाद
दोनो ही लघु कथायें झकझोरती हैं………………आज मानव कही तो इतना ह्रदयविहीन हो गया है और कहीं इतना कोमल कि फूल भी अपनी कोमलता भूल जाये।
ReplyDelete"चप्पल" लघु कथा संवेदना से ओतप्रोत और दूसरी लघु कथा "कमरा" में ख़त्म होती संवेदना पर सटीक लिखा है..लेखक को हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteकहानी में खुद को रखने की जिद से उबरेंगे तो और बेहतर रच पाएंगे भाई. मेरा तो पक्का भरोसा है, तब ही आप खुद को अभिव्यक्त कर पाएंगे. हाँ. इतना बड़ा दावा तो मैं ही कर सकता हूँ.खम्मा...
ReplyDeleteसुनील जी, लघु कथाएं शिल्प की दृष्ट से सशक्त हैं, लेकिन उनका कथानक विश्वसनीय नहीं है. किसी भी भिखारी को हम अधिकतम कितना पैसा देते हैं? दस रुपये य बीस रुपये? मेरा खयाल है कि इतना भी नहीं देते.
ReplyDeleteदूसरी कहानी में भी विश्वसनीयता कम ही है. रिश्तों में कितनी ही कड़वाहट क्यों न हो, मौत जैसे सच का सामना कर सब सहम जाते हैं. बुरी से बुरी बहू भी ऐसा नहीं करेगी, भले ही दिखाने के लिये.
...बहुत खूब ...दोनों ही लघुकथाएं लघु न होकर विस्त्रत भाव लिये हुये हैं, बेहद प्रभावशाली व प्रसंशनीय ...बहुत बहुत बधाई !!!!
ReplyDeleteDear Sunil ji..
ReplyDeleteyour story is just a mirror of social condition of daily life in society.. mostly story is giving a strong message to reader its a real culture of our story line .so please notice this point of your writting.i hope in future i will read your some very bold and storng story with big vision of yours ..
my best wishes for your writting and its must you will live continue with your vision ..ha
regards
yogndra kumar purohit
M.F.A.
BIKANER,INDIA
सुनील भैया बहुत छोटी मगर सार्थक कथाएं हैं. जल्दी भी ख़त्म हो गयी और आनंद भी आया.पहली वाली ज्यादा असर कर गयी.
ReplyDeleteAPNI MAATI
MANIKNAAMAA
laghu katha ke shilp aadi takniki pakshon par to main kuchh nahin kahunga magar kathanak ki vishvasniyta par mera kehna hai ki han,aisa bhi hota hai.nirala ji,muktibodh,hareesh bhadani or galib ke aise hi kisse sune-padhe hain.aankhon ke samne bhi aise vakyat hue hain.mere mitra pramod sharma,mayamrig,sanjy madho or susheel gadiko aisa karte pratyaksh dekha hai.jeb ke sare ke sare paise dete huve dekha hai.sushil gadi ko to poora vetan bhikhari ko dete huve bhi dekha hai.maine yadi na dekha hota to mere liye bhi ye kathanak avishvasniy hi hota kyon ki maine aaj tak is kadar paisa nahin diya.
ReplyDeleteभाई सुनील जी, आपकी दूसरी लघुकथा "कमरा" प्रभावकारी है और उसमें एक अच्छी लघुकथा के गुण मौजूद हैं। पहली लघुकथा "चप्पल" नि:संदेह अविश्वनीयता के घेरे में आ गई है। साथ ही साथ भाषा में अभी और कसाव की जरूरत जान पड़ती है। फिर भी, आपको बधाई !
ReplyDeleteआप सभी गुणीजनों और साहित्यशिल्पियों का कोटिश: आभार कि आपने अपनी बेबाक प्रतिक्रियाओं से मेरा हौसला अफजाई किया और मेरा मान बढाया| मगर मैं यह भी निवेदनपूर्वक कहना चाहूंगा कि 'चप्पल' और 'कमरा' के पात्रों को मैंने जनदीकी से देखा है, ये सिर्फ कथा ही नहीं है बल्कि एक सच्चाई है| बेशक मेरी कुछ त्रुटियां रही है जिनको मैं भवष्यि में ध्यान रखूंगा| आपका पुन: आभार ।।
ReplyDeleteअच्छी लघु कथायें, हॉं सुभाष नीरव जी की बात का भी ध्यान रखेंगे तो बेहतर रहेगा। आपके पात्र सत्य भी हो सकते हैं लेकिन कथानक अगर व्यवहारिक प्रेरणा दे रहा हो तो सोने पर सुहागा।
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली हैं दोनों लघुकथाएं.
ReplyDeleteसुनील जी बहुत बहुत बधाई.
सुनील जी,सबसे पहले आप को दोनों लघु कथाओं के लिए बधाई ,क्योंकि आप रचनात्मक कार्य कर रहे हैं एक बात अवश्य कहना चाहूँगा की दोनों ही लघु कथाएं अतिशयता का इस सीमा तक शिकार हुई हैं कि विश्वसनीयता के दायरे से बाहर चली गई हैं.आप अच्छे रचनाकार हैं संवेदनाओं को अनुभव की ज़मीन पर विश्वास भी मिलेगा .हार्दिक शुभ कामनाएं.09818032913
ReplyDeleteकमरा- लघुकथा पढ़कर अहसास हुआ-ऐसा भी होता है और एक गहरी साँस लेकर रह गई |
ReplyDeleteसुधा भार्गव
भाई सुनील जी, आपकी दोनों लघुकथाएं बहुत ही सुन्दर हैं ! लेकिन आपकी दूसरी लघुकथा "कमरा" ने सचमुच दिल जीत लिया ! थोडे से शब्दों में बात जिस तरह से की गई है उसने अभिव्यक्ति को काफी सशक्त बना दिया है !
ReplyDeleteपहली लघुकथा "चप्पल" भी ठीक है, लेकिन इसको और काफी कसा जाना चाहिए था, घटना को यहाँ थोडा ज्यादा विस्तार देकर पेश किया गया है जिसकी वजह से रचना थोड़ी ढीली पड़ गई है ! मेरा निजी मत है कि लघुकथा में जो कहा जाता है वह तो महत्वपूर्ण होता ही है लेकिन उस से भी महत्वपूर्ण वह होता है जो कि ना कहा गया हो ! आप अगर यह बिंदु ज़ेहन में रखेंगे तो आपकी लेखनी और प्रबल होगी !
माननीय सुनील जी
ReplyDeleteआपकी दूसरी कृति में चप्पल के जरिये उदार ह्रदय को प्रस्तुत किया है वो भी एक गरीब मजदुर के माध्यम से ! वर्तमान में इनकम टेक्स वालो को बड़े आला अफसरों को बेस्किमती उपहार देने मेंयहाँ तक कि 5000 रु का मोबाईल उनके बच्चो के खेलने के लिए 600रु किलो की मिठाई अफसरों के बच्चो के खाने के लिए दे देते हैं जैसे बच्चा नहीं राक्षस हो लेकिन गरीब भूखे को देने महज एक रूपया देते नहीं और दे भी देते है तो बीस गालिया साथ में
आपकी दूसरी रचना में आज की पीढ़ी की आपने बुजुर्गो के प्रति उदासीनता को नायाबी के साथ आत्मभाव से दर्शाया है तथा अप्रत्यक्ष सन्देश दिया है भावी पीढ़ी को कि जैसा तुम कर रहे हो ठीक वैसा ही तुम्हारे साथ होना निश्चित है. बुजुर्गो के प्रति जबरदस्त आत्मीयता है आपकी इस रचना में
धन्यवाद सुनील जी
मार्कंडेय रंगा