तोषी अमृता का जन्म भारत के पंजाब प्रांत में हुआ. पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ से संस्कृत में प्रथम श्रेणी में एम. ए. और यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन से छात्रवृत्ति प्राप्त करके पुरातन इतिहास एवं संस्कृति पर पी.एच डी. करने में संलग्न हुई.
उच्च शिक्षा के पश्चात लगभग एक दशक दरास्सला जानिया, ईस्ट अफ्रीका में शिक्षण कार्य किया.
तोषी जी के पिता पंडित आशुराम आर्य वेदों के प्रकांड पंडित थे, जिन्होंने वेदों का उर्दू भाषा में अनुवाद किया तथा तत्कालीन भारत के राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किये गए.
अपने घर में अध्ययन चिंतन का माहौल होने के कारण तोषी अमृता की बचपन से ही साहित्य-सृजन में रूचि रही. इनकी कवितायें, कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, सरिता, सारिका, कादम्बिनी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि में छपती रही हैं. भारतीय आकाशवाणी से उनकी कवितायेँ प्रसारित होती रही हैं. पंजाब शिक्षा-विभाग के तरुण परिषद् की ओर से आयोजित कविता, निबंध तथा कहानी-लेखन की प्रतियोगिता में पुरस्कार जीते.
अब पिछले तीन दशकों से आप स्थाई रूप से लन्दन में रहकर ब्रिटेन की प्रशासकीय सेवा में रत हैं. बी.बी.सी. लन्दन की हिन्दी सर्विस के साथ भी आपका संपर्क रहा.
लन्दन में रहते हुए भी तोषी अमृता का अपनी मातृ-भाषा हिन्दी से प्रेम बना हुआ है. नए परिवेश, स्थान, व्यवधान तथा परिस्थितियों के फलस्वरूप पठन-पाठन तथा लेखन में थोड़ा विराम आ गया था परन्तु तोषी अमृता ने फिर से कलम उठा कर लिखना आरंभ किया है. आज प्रस्तुत है उनकी दो कविताएँ...
'पर एकाकीपन वैसा ही है'
झूम उठी चम्पक की शाख़ें
लहराता आया मलयानिल
सरक गया है आज भोर में
किसी यौवना का आँचल.
पर बगिया का फीकापन वैसा ही है.
चाँद सलोना उभरा नभ पर
पुलक-पुलक मुस्काये रजनी
प्रात रश्मि के छेड़ छाड़ से
लेती है अंगड़ाई अवनी.
पर अंबर का रीतापन वैसा ही है.
वर्षा की रिमझिम बूंदों ने
महासिंधु को तोय पिलाया
बल खाती सरिताओं ने आ
जाने कितना अर्ध्य चढ़ाया .
पर सागर का खारापन वीसा ही है.
मृदु मधुमास मधुप मंडराए
कोकिल मदमाती - सी डोले
थका-थका सा कहीं पपीहा
पिऊ-पीऊ रह रह कर बोले .
पर विरहणि का एकाकीपन वैसा ही है.
कुछ ऐसा ही जीवन सबका
मानस सा लहराया करता
अपना मन बहलाने को यह
जल तरंग सा गाया करता .
पर पनघट का सूनापन वैसा ही है.
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'अनबुझ प्यास'
संयम खो बैठा सागर सहसा
बलखाती सरिता को देख.
बाहों में भरने को आतुर, बोला:
सरिते! क्यों ठिठक गई, यूं मत शरमाओ,
बस नर्तन करती, इठलाती,
बढ़ती हुई आओ पास, पास और ......पास
विस्तृत है मेरा बाहु पाश.
मैं अन्तस्तल तक जल ही जल हूँ.
पल भर में बुझा दूंगा तेरी प्यास!
पर ऐसा संभव हुआ नहीं, न होगा ही.
सरिता सदियों से प्यासी थी,
और आज भी प्यासी है.
खारे पानी से किसकी प्यास बुझी है अब तक?
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दोनों ही रचनायें बहुत पसंद आईं.
ReplyDeleteभावप्रवण रचनाओं के लिए साधुवाद!
ReplyDeleteसद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
मृदु मधुमास मधुप मंडराए
ReplyDeleteकोकिल मदमाती - सी डोले
थका-थका सा कहीं पपीहा
पिऊ-पीऊ रह रह कर बोले .
पर विरहणि का एकाकीपन वैसा ही है.
प्रवाह,गति,अलंकार,सुकोमल भाव.उच्च कोटि की साहित्यिक कविता.
दोनों ही रचनायें बहुत सुन्दर हैं...
ReplyDeletebahut achhi kavitaen..badhai..
ReplyDeleteदोनों रचनाएं अच्छी लगीं....
ReplyDeletesunder rachnaye
ReplyDeletebadhai
rachana
ऐसा लगता है सृजन की गहराइयों तक उतर गयी है ये पंक्तियाँ, सागर माया का प्रतिबिम्ब और नदियाँ मनुष्य के रूप में नज़र आ रही हैं!जिस प्रकार नदियाँ अपनी प्यास बुझाने के लिए सागर के पास जा रही हैं पर सागर से उनकी प्यास नहीं बुझ पाती है ,उसी तरह मनुष्य भी सत्य की खोज इसी माया में रहकर करना चाहता है जिसमें सफलता नहीं मिलती है ! श्रेष्ठ रचना ! -
ReplyDelete!जय गणेश!