समकालीन हिन्दी कविता में एक उभरता हुआ नाम।
जन्म : 5 जुलाई 1974 को दमोह, मध्य प्रदेश में।
शिक्षा : हिन्दी अनुवाद विषय मेम एम०फ़िल० तथा एम० सी०जे० यानी जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम० ए०।
देश की छोटी-बड़ी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
नेपाली, तेलेगू, उर्दू, उड़िया और पंजाबी में कविताओं के अनुवाद।
’गुलाबी रंगोंवाली वो देह’ पहला कविता-संग्रह वर्ष 2008 में प्रकाशित।
संपर्क : 207, साबरमती हॉस्टल, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली–110067
(१)
टूटते हुए अक्सर तुम्हें पा लेने का एहसास
कभी कभी खुद से लड़ते हुए
अक्सर तुम्हें खो देंने का एहसास ,
या रिसते हुये ज़ख्मो में ,
अक्सर तुम्हे खोजने का एहसास
तुम मुझमे अक्सर जीवित हो जाती हो तस्लीमा
बचपन से तुम भी देखती रही मेरी तरह ,
अपनी ही कॉटेदार सलीबो पर चढ़ने का दुःख
बचपन से अपने ही बेहद क़रीबी लोगो के
बीच तुम गुजरती रही अनाम संघर्ष –यात्राओं से
बचपन से अब तक की उड्नो में ,
ज़ख्मो और अनगिनत काँटों से सना
खिचती रही तुम
अपना शरीर या अपनी आत्मा को
शरीर की गंद से लज्जा की सड़कों तक
कई बार मेरी तरह प्रताड़ित होती रही
तुम भी वक्त के हाथों ,लेकिन अपनी पीड़ा ,
अपनी इस यात्रा से हो बोर
नए रूप में जन्म लेती रही तुम
मेरे जख्म मेरी तरह एस्ट्रोंग नही
ना ही कद में छोटे हैं, अब सुंदर लगने लगे हैं
मुझे तुम्हारी तरह !
रिसते-रिसते इन ज़ख्मो से आकाश तक जाने
वाली एक सीढ़ी बुनी हैं मैने
तुम्हारे ही विचारों की उड़ान से
और यह देखो तस्लीमा
मैं यह उड़ी
दूर......... चली
अपने सुदर ज़ख्मो के साथ
कही दूर छितिज में
अपने होने की जिज्ञासाओं को नाम देने
या अपने सम्पूर्ण अस्तित्व की पहचान के लिए
तस्लीमा,
उड़ना नही भूली मैं .......
अभी उड़ रही हूँ मैं .....
अपने कटे पाओं और
रिसते ज़ख्मो के साथ
***
(२)
ओह जीसस....
तुम्हारा मनन करते या चर्च की रौशन इमारत
के क़रीब से गुजरते ही
सबसे पहले रेटिना पर फ्रीज होता हैं
एक क्रॉस
तुम सलीबों पर चढ़ा दिए गए थे
या उठा लिए गए थे सत्य के नाम पर
कीलें ठोक दीं गयीं थीं
इन सलीबों में
लेकिन सारी कराहों और दर्द को पी गए थे तुम
मैं अक्सर गुजरती हूँ विचारों के इस क्रॉस से
तब भी जब-जब अम्मी की उगलियां
बुन रही होती हैं एक शाल ,
बिना झोल के ,लगातार सिलाई दर सिलाई
फंदे चढ़ते और उतरते जाते ,एक दूसरे को
क्रॉस करते हुए ..........
ओह जीसस .....
यहाँ भी क्रॉस ,
माँ के बुनते हाथों या शाल की सिलाईयों के
बीच और वह भी ,
जहाँ माँ की शून्यहीन गहरी आँखें
अतीत के मज़हबी दंगों में उलझ जाती हैं
वहाँ देखतीं हैं ८४ के दंगों का सन्नाटा और क्रॉस
ओह जीसस .......
कब तुम होंगे इस सलीब से मुक्त
या कब मुक्त होगी इस सलीब से में !!
***
(३)
माँ
भोर होते ही
उठ जाती
शाम ढलने तक
करती रहती अनवरत कार्य
माँ
जिसके माथे पर
पड़ती नहीं शिकन
करती है अपनी अंतर्वेदना की
पुकार छिपाने का प्रयास
माँ
जिसकी थकी आँखें
निहारती हैं / बेटी की विदाई
और बेटे के
परदेस से लौट आने की बाट
भीतर के कोलाहल से जूझती
बिखरती फिर
समेट लेती अपनी सारी ऊर्जा
अपने हृदय को देकर दिलासा
माँ
तुम बहुत याद आती हो
जब पीने को दिल करता
एक कप गर्म चाय
और तवे पर जल जाता है
जब हाथ रोटी बनाते
तुम बहुत याद आती हो
माँ
तुम तब भी
मेरे साथ थी
जब छोड़ा था मैंने तुम्हारा आँगन
करने संघर्ष बाहरी दुनिया से
माँ
तुम अब भी मेरे क़रीब हो
जब मैं तन्हाँ / और जाड़े की
सर्द धूप में बुनती हूं एक स्वैटर
तुम्हारे लिए
जिसकी हर सिलाई में
बुना है मैंने
तुम्हारे अनुभव का
एक-एक फंदा
इंतज़ार है मुझे हर फंदे से
तुम्हारे अनुभवों का डिजाईन बुनने का
और उसमें तुम्हारे स्नेह के
बटन टांकने का
***
(४)
(1)
अम्मी की उंगलियां बुन रहीं हैं
एक शाल बिना झोल के
लगातार सिलाई-दर-सिलाई
फंदे चढ़ते और उतरते जाते
एक-दूसरे को क्रॉस करते
जैसे क्रॉस करती हैं दो कौमें
ओर मज़हबी फ़साद के व़क्त
लोगों के वजूद
(2)
गूंथकर आटा रस जाने को
रख देती है शबीना
जैसे रख देती थी मां
पांचवीं पढ़ते व़क्त
बालों को गूंथकर
लगा गिरि का तेल
वैसे ही गुंथ चला है
सारा संसार
धर्म, संप्रदाय
और आतंकवाद की सियासी ताक़तों की
रसदार चाशनी से
ताकि सेकते व़क्त रोटियां
गाढ़ा और कड़ा हो इसका फुलका
***
(५)
जिंदगी बेहद ख़ूबसूरत है
कभी ये टमाटरो सी फक लाल होती है ,
कभी प्याज सा रुलाती है
तो कभी मिर्च सी तीखी और नीम्बू सी
चटपटी हो जाती है
जिंदगी बेहद ख़ूबसूरत है
कभी ये बच्चों की रंगबिरंगी फिरकी सी
चलती है गोल गोल
कभी ठहर जाती है, पल भर को जैसे
बचपन में माँ ठहर जाती थी
कहानी सुनाते वक्त,
और फिर उनका ओजमय
चेहरा बुनता था एक नई कहानी
उनके अपने संघर्षो की
ज़िंदगी बेहद ख़ूबसूरत है
ये बिखेरती हैं इन्द्रधनुषी छटा से सात रंग
और कभी–कभी तो हो जाती है बेरंग,
जैसे बिना देगी मिर्च के आलू–मटर
कभी ज़िंदगी गौतम बुद्ध सी शांत सौम्य
लगती है
तो कभी आत्मतायी सी दानवीर
कभी द्रोणाचार्य सी निष्ठुर ,जो मांग बैठता है
कर्ण से उसका अंगूठा , वैसे ही जिंदगी भी
मांगती हैं बहुत कुछ
सचमुच जिंदगी बेहद ख़ूबसूरत है
***
- डॉ. अंजना बख्शी
बहुत सुंदर रचनाएँ .... बधाई
ReplyDeleteअंजना जी की रचनाओं से मिलवाने का शुक्रिया।
ReplyDelete---------
शिकार: कहानी और संभावनाएं।
ज्योतिर्विज्ञान: दिल बहलाने का विज्ञान।
सुंदर रचनाएं . भावमयी प्रस्तुति पढवाने के लिए आभार .
ReplyDeleteसभी रचनायें बहुत अच्छी लगी। डा. बख्शी जी को बधाई।
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचनायें है अंजना बख्शी जी की ....
ReplyDeleteगहन अनुभव और स्त्री प्रदत्त दर्द झलकता है नज्मों में ....
बधाई उन्हें ......
sammaniy sudhijano ko mera sadr abhivadn
ReplyDeleteaap sabka behad shukriya aapsbko kavitaye pasand aayi
anjana
"उड़ना नही भूली मैं ......./अभी उड़ रही हूँ मैं ..../अपने कटे पाओं और/रिसते ज़ख्मो के साथ"- यही वह होसला है जो जीवन को गतिमान रखता है. बधाई स्वीकारें.
ReplyDelete"उड़ना नही भूली मैं ......./अभी उड़ रही हूँ मैं ..../अपने कटे पाओं और/रिसते ज़ख्मो के साथ"- यही वह होसला है जो जीवन को गतिमान रखता है. बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteanjana bahut hi acchi hai tumahari kavita tumne jo jiya wo dard wo ahshash tumhari kavita mai jhalakta hai nit nai aasha nai safalta tumahri zindgi me naye rang bhare yahi shubkamnaye hai meri tumhe.
ReplyDeleteडॉ० अंजना बख्शी जी सादर अभिवादन |आपकी कविताएँ बेहद खूबसूरत हैं |बधाई और मेरी ओर से शुभकामनाएं |
ReplyDeleteउम्दा कविताएं. विशेषकर अंतिम दोनों प्रभावशाली हैं.
ReplyDeleteसंवेदना से भरी मार्मिक कविताएं।
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति..के लिए आपको बधाई।
प्रिय भाई नरेन्द्र जी
ReplyDeleteऔर
प्रिय भाई सुनील जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
डॉ. अंजना बख्शी जी की रचनाएं पढ़वाने के लिए आभार !
सभी कविताएं अच्छी हैं …
मुझे मां कविता अधिक पसंद आई …
आप दोनों बंधुओं की रचनाओं का बेसब्री से इंतज़ार है…
बहुत समय हो गया … :)
♥ महाशिवरात्रि की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ! ♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
apko barhta hua aur unchaiyan chhoote dekhna antarman ko harshit karta hai. ishwar kare aap itni uchaian chhuaen, ki mai fakra kar sakoon. dhanyawad. MAHESH SHARMA
ReplyDeleteअंजना दीदी की कविताये सचमुच दिल को छू लेनी वाली है .
ReplyDeleteखुदा करे वो ऐसे ही लिखती रहें ...बधाई
श्री सुरेश यादव जी अपनी टिपण्णी किसी तकनीकी समस्या के कारण पोस्ट नहीं कर पाए इसलिए उनकी प्रतिक्रिया सम्मानिया डॉ. अंजना बक्शी जी तक पहुंचा रहा हूँ..
ReplyDeleteअंजना बक्षी की कवितायेँ मन को छूती हैं,' माँ 'कविता मर्मस्पर्शी है मेरी हार्दिक बधाई आप पहुंचा दें .आप को भी धन्यवाद .'