राकेश श्रीमाल इस परिभाषा में व्यक्त दूसरी कोटि के लिखकों में गिने जा सकते हैं. आप उपन्यास के प्रचलित मानको को चुनौती देते हुवे एक नए अंतरिक्ष में सितारों के बिस्तर पर लेटकर धरती पर किसी तस्वीर पर लिखे शब्दों को करीने से आकार देने का प्रयास कर रहे हैं.
मैं आठ साल बाद बुआ के यहाँ पर हूँ। छत पर बने उनके एक अलग कमरे में। बुआ पलंग पर लेटी हुई है। उनकी तबियत इन दिनों ठीक नहीं रहती है। पूरे बाल सफेदी में चमक रहे हैं। कभी कभी सफेद बालों का होना भी चेहरे को कितनी खूबसूरती दे देता है। यह मैं बुआ के चेहरे पर देख रही हूँ। मैं नीचे शतरंजी पर बैठी हूँ। पलंग के नीचे लोहे के दो बडे सन्दूक रखे हुए हैं। मुझे जहाँ तक याद है, इनमें बुआ ने शादी के कपडे, कुछ धार्मिक पुस्तकें, बैंक की पास-बुक और हाथ से सिली थैली में खूब सारी रेजगारी रख रखी है। इसके अलावा इन सन्दूकों में सबसे ज्यादा ऊनी कपडे होंगे जो बुआ ने अपने जीवन के कई मौसमों में बुने होंगे।
आठ साल पहले बुआ ने ही तो मुझे सबसे पहले स्वेटर बुनना सिखाया था। दो घर आगे, दो घर पीछे, फिर एक घर छोडकर....... जैसे स्वेटर बुनना किसी का पता पाना हो।
बुआ की एकमात्र रुचि कई तरह के ऊनी वस्त्र बुनने की रही है। बुआ ने मम्मी को एक बार हल्के गुलाबी रंग की एक ऊनी शाल बनाकर दी थी। बुआ ने उस शाल के एक कोने में दीदी, मेरा और छोटी का नाम भी ऊन से काढ रखा है। बुआ छोटी को कभी असली नाम से नहीं जानती। बुआ समझती रही है कि छोटी का नाम छोटी ही है।
बुआ के पलंग के सिरहाने की तरफ बने एक आलिए में फूफाजी की तस्वीर लगी है। उस पर रंगीन रुई का हार पहनाया हुआ है। फूफाजी की इस तस्वीर को छोडकर मैंने उनकी अन्य कोई तस्वीर कभी नहीं देखी। फूफाजी कभी फोटो नहीं खिंचाते थे। वे इसे धार्मिक कार्य नहीं समझते थे। यह तस्वीर भी एक बार धोखे से अमर भाईसाहब ने निकाल ली थी। उस समय फूफाजी बुआ के कमरे की खिडकी पर खडे छत पर सूख रही मँगोडियों को देख रहे थे कि कहीं चिडयाँ आकर उन पर बीट नहीं कर दें। उसी समय अमर भाईसाहब शहर से नया नया कैमरा लेकर आये थे। उन्होंने फूफाजी का फोटो निकाल लिया और फुफाजी को चिलचिलाती धूप में कुछ पता ही नहीं चला।
किसी की मजाल नहीं थी कि फूफाजी को वह फोटो दिखा दें या उनसे कह भी दें कि आपकी तस्वीर निकाल ली गयी है। अमर भाईसाहब खुद फूफाजी से बहुत डरते थे। उन्होंने बडी मुश्किल से उसका एक प्रिण्ट बनवाया था और किसी को भी दिखाने के बाद हमेशा अपनी ताले वाली अलमारी में रखते थे। उन दिनों बुआ के यहाँ आने वाले हर रिश्तेदार के लिए अमर भाईसाहब से फूफाजी की तस्वीर देखना जैसे किसी मेले में जाने से कम नहीं होता था।
फूफाजी उस तस्वीर में खिडकी की चौखट पर दोनों हाथ टिकाये सीमेण्ट की गच्ची को देख रहे हैं। उनकी आँखें वैसी ही हैं जैसी कि अक्सर हुआ करती थीं। खिडकी पर लगा परदा उनके सिर के दायें तरफ झूल रहा है। उस परदे में भी बुआ ने ऊन के फूल काढ रखे हैं।
फूफाजी की उस तस्वीर को देखते हुए मैं सोच रही हूँ कि क्या मृत्यु के बाद उम्र सचमुच नहीं बढती। मृत्यु उम्र को बाँधने के लिए आती है। जैसे किसी तस्वीर की उम्र होती है। मेरे बचपन में खींची तस्वीर की उम्र में वही उम्र कैद है।
क्या तस्वीर भी एक तरह की मृत्यु है?
जिसे हम उसी क्षण में बाँधें जाने का एक भोला और सहर्श प्रयास करते हैं। तस्वीर के जरिए हम हमारी उम्र को हमेशा के लिए बाँधकर उसे जीवन भर देखते रहते हैं।
यह मृत्यु है या मृत्यु को जीतने का भ्रम?
तब क्या अमर भाई साहब ने धोखे से फूफाजी की जो तस्वीर निकाली थी, वह उनकी मृत्यु के पहले की मृत्यु है? और क्या फूफाजी तस्वीर में मृत्यु के डर से ही कभी तस्वीर नहीं निकलवाते थे?
हो सकता है कि बुआ अपनी नींद में रोज फूफाजी की तस्वीर से बात करती हो। वे अपने मन में शाम के गहराते अँधयारे में फूफाजी को तस्वीर से बाहर निकल सामने रखी कपडों की निवार वाली पुरानी आराम कुर्सी पर बैठते देखती होंगी। जैसे फूफाजी ने अभी-अभी खिडकी पर टिके अपने दोनों हाथ हटाये हों और आराम कुर्सी पर बैठते हुए उन हाथों की धूल झाडी हो।
बुआ फूफाजी से ऐसे समय क्या बात करती होगी? उनके साथ नहीं होने के दुख की या वैसी ही जैसी साथ में रहने पर किया करती थी? अगर फूफाजी मृत्यु के बाद भी बुआ के मन में सजीव हैं तब तो बुआ एक साथ दो जीवन जी रही हैं। एक अपना, एक फूफाजी का।
मैं कितने जीवन जी रही हूँ?
क्या मैं अपनी नींद में किसी के साथ बात करती हूँ? या यह सब कुछ मैं नहीं, केवल मेरी नींद ही जानती है?
शायद बुआ को भी रोज सुबह फूफाजी की तस्वीर के सामने अगरबत्ती लगाते हुए पता नहीं होता होगा कि शाम के अँधियारे में दवाई वाली नींद की गोली खाने के बाद वे रोज पलंग पर बैठकर सामने वाली आराम कुर्सी पर बैठे फूफाजी से बात करती हैं।
बहुत पहले बुआ ने बोला था कि उनकी शादी बारह साल की उम्र में हो गयी थी। उन्नीस साल की उम्र तक उन्होंने फूफाजी से दिन में कभी बात नहीं की थी। उसी दौरान तो अमर भाई साहब हुए थे। पापा ही उन दिनों बुआ को घर लिवाने के लिए आते थे। तब फूफाजी बैलगाडी में उन्हें छोडने रेल्वे स्टेशन तक आते थे, पर रास्ते में भी बुआ उनसे कोई बात नहीं करती थी।
फूफाजी के अन्तिम समय में बुआ और फूफाजी दोनों ही इस बदलते हुए समय को कोसा करते थे, जब शादी के पहले ही औरतें अपने खसम से न केवल बात करतीं बल्कि बाजार करने और खेल देखने भी जातीं। बुआ के बोलचाल के कोश में पति के लिए खसम और सिनेमा के लिए खेल शब्द ही रहे हैं। अमर भाईसाहब की षादी में भी भाभी ने तो कम घूँघट निकाल रखा था लेकिन बुआ ने एक हाथ का घूँघट निकाल रखा था।
बुआ नींद की गोली लेने के बाद सो गयी हैं। मैं शतरंजी पर बैठे बुआ के अतीत में जाग रही हूँ। पास ही आराम कुर्सी रखी है।
क्या फुफाजी अभी उस आराम कुर्सी पर बैठे हैं, जिन्हें केवल बुआ ही देख पा रही हैं? मृत्यु के बाद, जो मृत्यु में बस जाते है, उन्हें क्या केवल कुछ ही लोग देख पाते हैं? कुछ भी नहीं, केवल एक...... । वही व्यक्ति जिसने उसकी मृत्यु के पहले उसकी देह में वास किया है।
लेकिन यह सब मैं कैसे जानती हूँ?
क्या मेरे मन में भी ऐसी ही कुछ इच्छा दबी है?
नौकर कमरे के बाहर गच्ची पर हम सबके लिए बिस्तर बिछा रहा है। वह गद्दियों पर सफेद चादर डाल रहा है जिस पर सफेद लिहाफ वाले तकिये रखे जाएँगे। यह फूफाजी की पसन्द हुआ करती थी। वे कहा करते थे कि छत पर सोना हो तो चाँदनी की तरह सफेद बिस्तर पर सोना चाहिए।
माँ, अमर भाईसाहब और भाभी नीचे के कमरे में बातें कर रहे हैं। मैं सोयी हुई बुआ की शाल ठीक करके कमरे से बाहर निकल रही हूँ। मुझे लग रहा है कि आराम कुर्सी पर कोई बैठा हुआ मुझे देख रहा है। मैं दरवाजे तक पहुँचते हुए डर जाती हूँ।
अब मैं कमरे के बाहर हूँ। मैंने दरवाजा धीरे से अटका दिया है। नौकर बिस्तर बिछाने के बाद ऊपर आती सीढयों पर नीचे चौक से ठण्डे पानी की सुराही लेकर आ रहा है।
मैं रबर की चप्पलें पहलें छत पर टहल रही हूँ। घर के पिछवाडे मिट्टी की कच्ची सडक पर मटकी की कुल्फी का ठेले वाला घर जा रहा है।
मैं सफेद चादर ओढकर बिस्तर पर लेट गयी हूँ। मुझे दूर आसमान में टिमटिमाते सफेद तारे दिख रहे हैं। क्या इन सारे सफेद तारों ने भी सफेद बिस्तर की तरह अपनी-अपनी गोद में किसी को सुला रखा होगा?
पूरे आकाश में बिछे इन टिमटिमाते तारों के बिस्तर पर कौन सो रहे होंगे? क्या वे लोग जो इस पृथ्वी से चले गये हैं? क्या तारों के चमकीले बिस्तर पर नींद नहीं आने के पहले उन पर लेटे लोग पृथ्वी पर अपने प्रियजनों को खोज रहें होंगे? अगर ऐसे में, जब कोई किसी अपने व्यक्ति को देख लेता होगा, तब उसे कैसा लगता होगा?
अगर फूफाजी इस समय मुझे छत पर लेटे देख रहें होंगे, तब क्या सोच रहे होंगे? यही कि कितनी बडी हो गयी हूँ मैं...... लेकिन फूफाजी तो अभी बुआ के कमरे में आराम कुर्सी पर बैठे होंगे।
मैं लेटे हुए सो गई हूँ मेरे सफेद बिस्तर ने एक टिमटिमाते तारे का रूप धर लिया है। आसमान में दूर-दूर तक बिखरे तारों ने मुझसे दोस्ती कर ली है। मैं अपने तारे के लिए आकाश में कोई अच्छी जगह खोज रही हूँ।
नीचे पृथ्वी पर कोई मुझे पत्र लिख रहा है। उस पत्र के अक्षर उडते हुए मेरे पास आने का प्रयत्न कर रहे हैं। पर हवा में ही विलीन होते जा रहे हैं। मैं दूर से उन अक्षरों को पढने की कोशिश कर रही हूँ। मुझे मेरे नाम को छोड शेष कोई भी अक्षर पढने में नहीं आ रहे हैं।
मेरे तारे का बिस्तर आकाश में घूमते हुए उसका नाम रच रहा है।
क्या वह इसे पढ पा रहा है?
***
राकेश श्रीमाल: कवि,कथाकार,संपादक
इस उपन्यास के अंश पढ़वाने का शुक्रिया।
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पुत्र प्राप्ति के उपय।
क्या आप मॉं बनने वाली हैं ?
आखर कलश बड़ी संजीदगी और लगन से शानदार और साहित्यिक ब्लोगिंग कर रहा है |लेखक का उपन्यास अंश अच्छा लगा |आखर कलश के सभी संपादकों लेखकों को मेरी शुभकामनायें और बधाई |
ReplyDeleteYah dekh kar man khush hotaa hai ki Akhar kalash
ReplyDeletesahitya kee har vidha se labalab hai . shri
Rakesh shrimaal kaa upnyaas ansh padh kar bahut
achchha lagaa . Sajeev lekhan ke liye unhen meri
badhaaee .
"क्या मृत्यु के बाद उम्र सचमुच नहीं बढती। मृत्यु उम्र को बाँधने के लिए आती है। जैसे किसी तस्वीर की उम्र होती है। मेरे बचपन में खींची तस्वीर की उम्र में वही उम्र कैद है।
ReplyDeleteक्या तस्वीर भी एक तरह की मृत्यु है?"
राकेश सर ! बहुत बहुत उम्दा है ... कृपया जल्द से जल्द प्रकाशित करें
सादर भरत
... व्यास जी आभार