वह रात ठंडी थी, लेकिन मनोज के दिल में हलचल मची हुई थी। आसमान में बादल थे, और चाँद की हल्की रोशनी छत पर बिखरी हुई थी। मनोज अकेला खड़ा था, आँखें आकाश पर टिकीं, जैसे वह किसी जवाब की तलाश कर रहा हो। आज पिताजी को गुजरे हुए एक साल हो चुका था, लेकिन लगता था जैसे उनकी मौजूदगी अब भी उसके चारों ओर फैली हुई है।
छत से उसकी
नज़र धीरे-धीरे
उस कमरे की
ओर गई जहाँ
पिताजी ने अपने
जीवन के आखिरी
दिन बिताए थे।
वह कमरा आज
भी वैसे ही
था, जैसे पिताजी
उसे छोड़कर गए
थे। कदम अनायास
ही कमरे की
ओर बढ़ने लगे।
दरवाजा खोलते ही हल्की
सी चरमराहट हुई,
और मनोज ने
कमरे में प्रवेश
किया।
कमरे में हल्का
अंधेरा था, लेकिन
चाँद की रोशनी
खिड़की से छनकर
अंदर आ रही
थी। दीवारों पर
पिताजी की छाया
अभी भी जैसे
छपी हुई थी।
मेज पर उनकी
वही किताबें पड़ी
थीं, जिनमें वह
अक्सर खोए रहते
थे। उनके चश्मे
अब भी वहीं
थे, जैसे वह
अभी भी यहीं
कहीं बैठे हों।
एक कोने में
उनका कुरता टंगा
हुआ था, जो
उन्होंने अपने आखिरी
दिन पहना था।
मनोज ने धीरे
से कुरता उठाया।
उसके हाथों में
वह कपड़ा आकर
जैसे भारी हो
गया। कुरते से
पिताजी की हल्की
सी महक आ
रही थी। उसने
कुरता अपने सीने
से लगा लिया,
आँसुओं का सैलाब
उसकी आँखों में
उमड़ पड़ा। उसकी
उँगलियाँ कपड़े को कसकर
थामे हुए थीं,
मानो पिताजी से
एक आखिरी बार
गले मिल रहा
हो।
मेज पर बिछी हुई डायरी की ओर उसकी नज़र पड़ी। पिताजी के हाथ से लिखे हुए कुछ पन्ने वहाँ रखे थे। मनोज ने धीरे से एक पन्ना उठाया, उस पर पिताजी की खुरदरी लिखावट थी, "मनोज बड़ा हो गया है, लेकिन मैं उसे कभी समझ नहीं पाया। शायद मैंने उसे ज़रूरत से ज़्यादा सख्त बना दिया। पर उसे मजबूत बनाना मेरा फर्ज़ था। मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ, भले ही कभी कह नहीं पाया।"
यह शब्द मनोज
के दिल में
जैसे चाकू की
तरह उतर गए।
उसकी आँखों से
आँसू बह निकले।
पिताजी उससे प्यार
करते थे, लेकिन
कभी ज़ाहिर नहीं
किया। उनकी सख्ती,
उनकी डांट—यह
सब उसके भले
के लिए था।
तभी पीछे से
हल्की आवाज़ आई—“मनोज?”
वह माँ की
आवाज़ थी। वह
दरवाजे पर खड़ी
थीं, उनकी आँखों
में वही करुणा
और ममता थी,
जो हमेशा से
थी।
“अभी तक जाग
रहे हो?” उन्होंने
धीमे स्वर में
पूछा, जैसे मनोज
के भीतर का
दर्द पढ़ लिया
हो।
मनोज ने पिताजी
का कुरता कसकर
पकड़ते हुए कहा,
“माँ, मुझे नहीं
पता था कि
पिताजी मुझसे इतना प्यार
करते थे।” उसकी
आवाज़ काँप रही
थी।
माँ अंदर आईं
और धीरे से
बिस्तर के पास
बैठ गईं। उन्होंने
एक गहरी सांस
ली और पिताजी
की तस्वीर की
ओर देखते हुए
बोलीं, “तुम्हारे पिताजी ने
कभी अपनी भावनाएँ
खुलकर व्यक्त नहीं
कीं, पर उनका
प्यार कभी कम
नहीं था। वह
हमेशा तुम्हारे बारे
में सोचते रहते
थे। हर रात
जब तुम सोते
थे, वह चुपचाप
तुम्हें देखने आते थे।
कहते थे, ‘मनोज
को दुनिया का
सामना करने के
लिए मजबूत बनाना
है।’”
मनोज की आँखों
में आँसू थे,
लेकिन वह अपनी
भावनाओं को दबाने
की कोशिश कर
रहा था। माँ
ने उसकी आँखों
में देखा, और
वे सबकुछ समझ
गईं। उसने अपनी
भावनाओं को छिपाने
की बहुत कोशिश
की, लेकिन उसकी
आँखें सब कुछ
बयाँ कर रही
थीं।
माँ ने प्यार
से उसके सिर
पर हाथ फेरा
और कहा, “तुम्हारे
पिताजी ने तुम्हें
सख्त ज़रूर बनाया,
पर उन्होंने कभी
तुम्हें अकेला महसूस नहीं
होने दिया। उन्हें
विश्वास था कि
तुम उनसे बेहतर
बनोगे। वह तुम्हें
तैयार कर रहे
थे, इस कठिन
दुनिया के लिए।”
मनोज ने खुद
को संभालने की
कोशिश की, लेकिन
उसकी आवाज़ थरथरा
रही थी। “माँ,
मुझे उनसे आखिरी
बार बात करनी
चाहिए थी। बहुत
कुछ कहने से
रह गया।”
माँ ने उसकी
आँखों से आँसू
पोंछते हुए कहा,
“तुम्हारे पिताजी अब भी
तुम्हें देख रहे
हैं, बेटा। उनकी
आत्मा तुम्हारे साथ
है। वो हमेशा
तुम्हारे साथ रहेंगे,
हर कदम पर।”
माँ की बात
सुनकर मनोज का
दिल थोड़ा हल्का
हुआ, लेकिन अंदर
की पीड़ा अब
भी गहरी थी।
उसने पिताजी का
कुरता अपने सीने
से और कस
लिया, मानो वह
उनसे आखिरी बार
विदा ले रहा
हो।
माँ ने धीरे
से उसका हाथ
थामा और कहा,
“तुम्हारे पिताजी ने तुम्हें
कभी महसूस नहीं
होने दिया, पर
वह तुम्हें प्यार
करते थे, और
उन्हें तुम पर
गर्व था। अब
तुम उस प्यार
को अपने भीतर
जिंदा रखना, बेटा।
और अपनी भावनाएँ,
उन्हें मुझसे मत छिपाओ।
अगर तुम मुझसे
कुछ नहीं कहोगे,
तो तुम्हारी आँखें
सब कुछ बता
देंगी।”
मनोज की आँखों
से आँसू फिर
बह निकले। माँ
के इस वाक्य
ने उसकी आत्मा
को जैसे छू
लिया हो। उसने
माँ को गले
लगा लिया, और
दोनों ने एक
साथ अपने आँसुओं
को बहने दिया।
यह वह क्षण
था, जब मनोज
ने अपने पिता
का प्यार और
उनकी विरासत अपने
अंदर समाहित कर
लिया था।
कमरे में अब
भी पिताजी की
यादें थीं, उनकी
किताबें, उनके चश्मे,
उनका कुरता—सबकुछ
जैसे उनके होने
का प्रमाण था।
मनोज ने एक
आखिरी बार कमरे
की ओर देखा,
और महसूस किया
कि अब वह
पिताजी के साए
से निकलकर उनके
प्यार को हमेशा
अपने साथ लेकर
चलेगा।
"मैं वादा करता
हूँ, माँ," मनोज
ने रुंधे गले
से कहा। "अब
मैं पिताजी की
उस उम्मीद को
कभी टूटने नहीं
दूंगा।"
माँ ने उसके
माथे पर चूमा,
"मैं जानती हूँ, बेटा।
तुम वह सबकुछ
करोगे, जो तुम्हारे
पिताजी ने सोचा
था।"
कमरे में गहराती
शांति में मनोज
ने अपने पिता
की मौजूदगी को
एक बार फिर
महसूस किया—जैसे
वह हमेशा उसके
साथ थे, उसकी
हर जीत और
संघर्ष में।
***
-नरेन्द्र व्यास