नाम : सीमा गुप्ता
जन्म : अम्बाला (हरियाणा)
शिक्षा : एम.कॉम.
लेखन और प्रकाशन : मैंने अपनी पहली कविता “लहरों की भाषा” चौथी कक्षा में लिखी थी जिसे की बहुत सराहा गया। उसी ने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। मेरी कई कविताएँ और ग़ज़लें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। मेरी अधिकतर कविताओं में पीड़ा, विरह, बिछुड़ना और आँसू होते हैं; क्यों – शायद मेरे अन्तर्मन से उभरते हैं।
मेरी कविताएँ अंतरजाल पर “हिन्दी युग्म” में भी प्रकाशित हो चुकी हैं। "विरह के रंग" पहला काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है.
संप्रती : जनरल मैनेजर (नवशिखा पॉली पैक), गुड़गाँव
कभी यूँ भी हो
देखूं तुम्हे ओस में भीगे हुए
रेशमी किरणों के साए तले सारी रात
चुन लूँ तुम्हारी सिहरन को
हथेलियों में थाम तुम्हारा हाथ
महसूस कर लूँ तुम्हारे होठों पे बिखरी
मोतियों की कशमश को
अपनी पलकों के आस-पास
छू लूँ तुम्हारे साँसों की ऊष्णता
रुपहले स्वप्नों के साथ-साथ
ओढ़ लूँ एहसास की मखमली चादर
जिसमे हो तुम्हारी स्निग्धता का ताप
कभी यूँ भी हो .....
देखूं तुम्हे ओस में भीगे हुए
रेशमी किरणों के साए तले सारी रात
"नर्म लिहाफ़"
सियाह रात का एक कतरा जब
आँखों के बेचैन दरिया की
कशमश से उलझने लगा
बस वही एक शख्स अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला
मै ठिठक कर उसके एहसास को
छूती टटोलती आँचल में छुपा
रूह के तहख़ाने में सहेज लेती हूँ
कुछ हसरतें नर्म लिहाफ़ में
डूबके मचलने लगती हैं
जब वही एक शख्स अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला
कुछ मजबूरियों की पगडंडियाँ
जो मेरे शाने पे उभर आती हैं,
अपने ही यक़ीन के स्पर्श की
सुगबुगाहट से हट
चाँद के साथ मेरी हथेलियों में
चुपके-चुपके से सिमटने लगती है
सच वही बस वही एक शख्स जब अचानक
मेरे सिराहने पे मुझसे आ के मिला
शाम ढले ही
ख़ामोशी के तहखानों में
कुछ वादों के उड़ते से ग़ुबार
समेट लेते हैं मेरे अस्तित्व को
फिर अनजानी ख्वाहिशों की आँखें
क़तरा-क़तरा सिहरने लगती हैं
और रात के आँचल की उदासी
सूनेपन के कोहरे में सिमट
अपनी घायल सांसो से उलझती
ओस के सीलेपन से खीज़ कर
युगों लम्बे पहरों में ढलने लगती है
तब मीलों भर का एकांत
तेरी विमुखता की क्यारियों से
अपना बेज़ार दामन फैला
अधीरता के दायरों का स्पर्श पा
ढूंढ़ लाता है कुछ अस्फुट स्वर .....
"तुम्हे भूल पाऊं कभी,
वो पल वक़्त की कोख में नहीं..."
धडकनों के अनगिनत जुगनू
कहाँ सब्र से काम लेते हैं
चारो पहर ख़ुद से उलझते हैं
तेरे ही क़िस्से तमाम होते हैं
लम्हा-लम्हा तुझको दोहराना
यही एक काम उल्फत का
हवाओं के परो पर लिखे
इनके पैग़ाम होते हो
कभी बेदारियां खुद से
कभी शिक़वे शिक़ायत भी
तेरी यादो की शबनम में
मेरे अश्को के सब घुंघरू
तबाह सुबह शाम होते हैं
धडकनों के अनगिनत जुगनू
कहाँ सब्र से काम लेते हैं
प्रेम पराकाष्ठा की परिधि को
जिस पल ने था पार किया
वो शरमा के सिमट गया
जिस में भरा
आक्रोश था, तक़रार थी
वो पल विद्रोह कर
चला गया
जिस ने सही
क्रोध की पीड़ा
वो अश्रुओं संग
क्षितिज में विलीन हुआ
विरह अग्नि में
जो अभिशप्त हुआ
और झुलस गया
वो अभागा "पल रिसता रहा..."
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सीमा जी , वैसे तो आपकी सभी कविताएँ मर्मस्पर्शी हैं ; लेकिन' कभी यूँ भी हो'कविता बहुत गहरे तक स्पन्दित कर गई है । दिल की गहराइयों से निकली बात अपना प्रभाव ज़रूर छोड़ती है ।
ReplyDeleteरामेश्वर काम्बोज हिमांशु'
Good...
ReplyDeleteSabhi kavitayen ekse badhke ek hain!
ReplyDeletegood one..
ReplyDeleteआदरणीय रामेश्वर काम्बोज हिमांशु' जी आपके प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ
ReplyDeleteregards
आदरणीय नरेन्द्र जी आखर कलश पर मुझे स्थान देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.
ReplyDeleteregards
सीमा जी
ReplyDeleteनमस्कार
आपकी सभी कविताएँ पढ़ी लेकिन कभी यूँ भी बेहतरीन आला दर्जे की जिसमें प्रकृति और मन का अद्भुत संयोजन करते हुए प्रेम का इजहार करने का अनोखा प्रयोग है वो भी और भी सारथक होता है जब कड़ाके की सर्दी में एक प्रेमी के ह्रदय की स्पंदन को उजागर किया है ! में इतना ही कहूँगा कि ये तो प्रेम कि बात है उधो बंदगी तेरे बस कि नहीं यहाँ सर देके होते हैं सौदे
उतकृस्ट सम्बन्ध है बस ऐसे ही लिखती रहिये
धन्यवाद
कभी यूँ भी हो ..... पढ़ते हुए 'कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है' की याद आ गयी; मगर ये हो न सका, और अब ये आलम है.....।
ReplyDeleteसीमा जी आप की कवितायें पहली वार पढ़ी हैं .हृदयस्पर्शी हैं बधाई .
ReplyDeletesari rachnaaye bahut hi sunder hain.
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