चाहत थी अपनी
राग की नदी बन बहूं तुम्हारी सांसों में
यही तो रही चाह तुम्हारी भी,
पर सहेज नहीं पाए
तुम अपने मन का आवेग
स्वीकार नहीं पाए
अपने भीतर मेरा निर्बंध बहना,
जो बांधता रहा तुम्हें किनारों में,
हर बार सह-बहाव से अलग
तुम निकल जाते रहे किनारा लांघकर
खोजते तुम्हें उसी मरुस्थल में
बूंद बूंद विलुप्त होती रही मैं
साथ बहने की मेरी आकांक्षाएं
पंछी की प्यास बनकर रह गईं
राग में डूबे मन ने फिर फिर चाहा
तुम्हारी चाहत बने रहना- आजन्म
तुम हार तो सकते हो दीगर हालात से
मगर संवार नहीं सकते
अपना ये बिखरा जीवन-राग
मुझमें भी अब नहीं बची सामर्थ्य
धारा के विपरीत बहा ले जाने की
न आंख मूंदकर मानते रहना हर अनुदेश
मैं अनजान नहीं हूं अपनी आंच से
नहीं चाहती कि कोई आकर जलाए तभी जलूं
बुझाए, तब बुझ जाऊं
नहीं चाहती कि पालतू बनकर दुत्कारी जाऊं
और बैठ जाऊं किसी कोने में नि:शब्द
मुझे भी चाहिए अपनी पहचान
अपने सपने -
जो कैद है तुम्हारी कारा में
चाहिए मुझे अब अपनी पूर्णता
जो फांक न पैदा करे हमारे दिलों में ...
करो तुम्हीं फैसला आज
क्या मेरी चाहत गलत है
या तुम्हीं नहीं हो साबुत, साथ निभाने को ..?
***
वेदना का मौन निमंत्रण
आँख से चल पड़ा,
ना जाने कौनसे मन पे
देगा दस्तक
किस मन से पाएगा
अनुभूति का आधार
किस हर्प में
शब्द बन जुडेगा
ना जाने किस कथा का
होगा आधार
आबे -गंगा से भी
पूछ लेगा,
कितना मैला में,
तू कितना पावन
दर्द मैंने दिल का धोया
तुने धोया किसका अंतर्मन ?
***
यह घिनौना धुआँ
क्यों न चुभा
किसी आँख में
जली है आज फिर
कोई बेटी
ज़िन्दा आग में
यह आसमा भी
न रोया
उसकी आह पे
धरती का ना फटा कलेजा
उसकी हाहाकार से
गूँजी उसकी चीत्कारें
मूक बधिर सी थी
इंसानियत की कतारे
अंधानुगामी हुआ
अर्थ का लोभी
मनुष्यता के खोल में
पशुता भोगी
प्रपंचो के जाल में
फंस मीन हारी
हैवानियत के मछेरो ने
तोड़ दी सीमाएं सारी
तन-मन समर्पित कर
बनाना चाहा था
किसी की तक़दीर
हार कर तक़दीर से ही
बन जाती बस
धुएं की लकीर !
बेहतर कविताएं...आभार...
ReplyDeleteश्रीमती प्रवेश सोनी जी की सभी रचनाएं बहुत अच्छी हैं...
ReplyDelete”वेदना का मौन निमंत्रण” विशेष तौर पर पसंद आई.
कब तलक तृष्णा लिये जी पाओगे सोचो जरा
ReplyDeleteचाहिये पहचान तो इस मौन को त्यागो कभी।
वेदना धारे हृदय में, चुप भला ये कौन है
किसलिये क्रन्दन नहीं करता हृदय क्यूँ मौन है।
एक बिटिया खेलती थी कल तलक अंगना में जो
जल गई जिन्दा वहीं बन के बहू ससुराल में।
खूबसूरत रचनाएँ ..बधाई |
ReplyDeleteवेदना का मौन निमंत्रण
ReplyDeleteआँख से चल पड़ा,
ना जाने कौनसे मन पे
देगा दस्तक
Bahut hi sunder shabdon ki bunawat mein suljhi hui soch se sakshatkaar hua hai. Pravesh Soni ji aapko badhayi v shubhkamanyein
सभी बेहतरीन रचनाएँ हैं.
ReplyDeleteसुन्दर कविता.. अच्छा लगा प्रवेश सोनी जी को पढ़कर...
ReplyDeleteआप सभी ने मेरी रचनाओ को पढ़ कर मुक्त कंठ से सराहना दी ,इसके लिए में आप सभी की आभारी हू ,नरेन्द्र भाई का विशेष आभार प्रकट करना चाहूंगी उनकी वजह से में आप सबके बीच प्रस्तुत हो सकी .......आखर कलश के संपादक मंडल को सधन्यवाद
ReplyDeleteआपकी कविता चाहत थी मन कि पढ़ी बेहतरीन लेखन है
ReplyDeleteमन कि चाहत का अन्तर्द्वन्द परिलक्षित हो रहा है दूसरी तरफ नारी कि शक्ति को हल्का सा छुआ भर है
सुंदर लगा
कि इस तेज भाग दौड़ कि जिंदगी मैं लोग केवल पैसो के लिए चिंतनशील है ऐसे मैं प्रेम का राग छेड़ना प्रन्शानीय है बस इसमें लय और ताल का समायोजन भी हो तो कहना हीक्या
स्त्री के दर्द को बिलकुल पारदर्शी कर दिया है इन कविताओं ने...
ReplyDelete▬● प्रवेश ,,, तुम्हारी कवितायेँ बहुधा गहरे भावों से ओतप्रोत हुआ करती हैं........ इन्हें जितना पढ़ो उतना ही ये सिखाती भी हैं....... तुम्हारी कवितायेँ यहाँ छपने के लिए बधाई दोस्त.....
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