Saturday, September 8, 2012

नीरज गोस्वामी की ग़ज़लें

(1)
जब कुरेदोगे उसे तुम, फिर हरा हो जाएगा
ज़ख्म अपनों का दिया,मुमकिन नहीं भर पायेगा

वक्त को पहचान कर जो शख्स चलता है नहीं
वक्त ठोकर की जुबां में ही उसे समझायेगा

शहर अंधों का अगर हो तो भला बतलाइये
चाँद की बातें करो तो, कौन सुनने आयेगा

जिस्म की पुरपेच गलियों में, भटकना छोड़ दो
प्यार की मंजिल को रस्ता, यार दिल से जायेगा

बन गया इंसान वहशी, साथ में जो भीड़ के
जब कभी होगा अकेला, देखना पछतायेगा

बैठ कर आंसू बहाने में, बड़ी क्या बात है
बात होगी तब अगर तकलीफ में मुस्कायेगा

फूल हो या खार अपने वास्ते है एक सा
जो अता कर दे खुदा हमको सदा वो भायेगा

नाखुदा ही खौफ लहरों से अगर खाने लगा
कौन तूफानों से फिर कश्ती बचा कर लायेगा

दिल से निकली है ग़ज़ल "नीरज" कभी तो देखना
झूम कर सारा ज़माना दिल से इसको गायेगा

(2)

दूर होंठों से तराने हो गये
हम भी आखिर को सयाने हो गये

जो निशाने साधते थे कल तलक
आज वो खुद ही निशाने हो गये

लूट कर जीने का आया दौर है
दान के किस्से, पुराने हो गये

भूलने की इक वजह भी ना मिली
याद के लाखों, बहाने हो गये

आइये मिलकर चरागां फिर करें
आंधियां गुजरे, ज़माने हो गये

साथ बच्चों के गुज़ारे पल थे जो
बेशकीमत वो ख़जाने हो गये

देखकर "नीरज" को वो मुस्का दिये
बात इतनी थी, फसाने हो गये

(3)

कभी वो देवता या फिर, कभी शैतान होता है
बदलता रंग गिरगट से, अज़ब इंसान होता है

भले हो शान से बिकता बड़े होटल या ढाबों में
मगर जो माँ पकाती है, वही पकवान होता है

गुजारो साथ जिसके जिंदगी,वो भी हकीकत में
हमारे वास्ते अक्सर बड़ा अनजान होता है

जहाँ दो वक्त की रोटी, बड़ी मुश्किल से मिलती है
वहां ईमान का बचना ,समझ वरदान होता है

उमंगें ही उमंगें हों, अगरचे लक्ष्य पाने की
सफर जीवन का तब यारो बड़ा आसान होता है

न सोने से न चांदी से, न हीरे से न मोती से
बुजुर्गों की दुआओं से, बशर धनवान होता है

कहीं बच्चों सी किलकारी, कहीं यादों की फुलवारी
मेरी गज़लों में बस "नीरज", यही सामान होता है

(4)




जी रहे उनकी बदौलत ही सभी हम शान से
जो वतन के वास्ते यारों गए हैं जान से

जीतने के गुर सिखाते हैं वही इस दौर में
दूर तक जिनका नहीं रिश्ता रहा मैदान से

आग में नफरत की जलने से भला क्या फ़ायदा
शौक जलने का अगर है तो जलो लोबान से

दोस्ती हरगिज न करिये ऐसे लोगों से कभी
आंख से सुनते हैं जो और देखते हैं कान से

कृष्ण को तो व्यर्थ ही बदनाम सबने कर दिया
राधिका का प्रेम तो था बांसुरी की तान से

पूछिये मत चांद सूरज छुप गये जाकर कहां
डर गये हैं जुगनुओं के तुगलकी फरमान से

लोग वो 'नीरज' हमेशा ही पसंद आये हमें
भीड़ में जो अक्लमंदों की मिले नादान से
***
चित्र सौजन्य- गूगल
नीरज गोस्वामी
नीरज गोस्वामी के अश'आर उन्ही की नज़र से-
अपनी जिन्दगी से संतुष्ट,संवेदनशील किंतु हर स्थिति में हास्य देखने की प्रवृत्ति.जीवन के अधिकांश वर्ष जयपुर में गुजारने के बाद फिलहाल भूषण स्टील मुंबई में कार्यरत,कल का पता नहीं।लेखन स्वान्त सुखाय के लिए.
अपनी जिन्दगी से संतुष्ट,संवेदनशील किंतु हर स्थिति में हास्य देखने की प्रवृत्ति.जीवन के अधिकांश वर्ष जयपुर में गुजारने के बाद फिलहाल भूषण स्टील मुंबई में कार्यरत,कल का पता नहीं।लेखन स्वान्त सुखाय के लिए.
रुचियाँ :
साहित्य, सिनेमा, भ्रमण तथा लेखन।
पसंदीदा पुस्तकें:
राबिया, राग दरबारी, कागजी है पेराहन, अंधेरे बंद कमरे, सारा आकाश, सूरज का सातवां घोडा, साहब बीबी और गुलाम, ग़ालिब छुटी शराब, अन्या से अनन्या, नीड़ का निर्माण फिर, मधुशाला, शरद जोशी और हरिशंकर परसाई जी की लिखी प्रत्येक रचना, डा. ज्ञान चतुर्वेदी के लेख उपन्यास विशेष रूप से "बारा मासी", कृशन चंदर और मंटो की कहानियाँ, डा. वसीम बरेलवी, बेकल उत्साही, बशीर बद्र, कृशन बिहारी नूर, दुष्यंत कुमार की सभी गज़लें, ओशो साहित्य.

Friday, August 31, 2012

काश तुम्‍हारा दिल कोई अख़बार होता- शाहिद अख्तर की कविताएँ

मोहम्‍मद शाहिद अख्‍तर
 
बीआईटी, सिंदरी, धनबाद से केमिकल इं‍जीनियरिंग में बी. ई. मोहम्‍मद शाहिद अख्‍तर छात्र जीवन से ही वामपंथी राजनीति से जुड़ गए। अपने छात्र जीवन के समपनोपरांत आप इंजीनियर को बतौर कैरियर शुरू करने की जगह एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। पूर्णकालिक कार्यकर्ता की हैसियत से आपने बंबई (अब मुंबई) के शहरी गरीबों, झुग्‍गीवासियों और श्रमिकों के बीच काम किया। फिल्‍हाल आप प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) की हिंदी सेवा 'भाषा' में वरिष्‍ठ पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं।
शाहिद अख्तर साहब समकालीन जनमत, पटना में विभिन्‍न समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ अंग्रेजी में महिलाओं की स्थिति, खास कर मु‍स्लिम महिलाओं की स्थिति पर कई लेख लिख चुके हैं
अनुवाद:
1. गार्डन टी पार्टी और अन्‍य कहानियां,    कैथरीन मैन्‍सफील्‍ड, राजकमल प्रकाशन
2. प्राचीन और मध्‍यकालीन समाजिक संरचना और संस्‍कृतियां, अमर फारूकी, ग्रंथशिल्‍पी, दिल्‍ली
अभिरुचियाँ:
विविध विषयों पर पढ़ना, उनपर चर्चा करना, दूसरों के अनुभव सुनना-जानना और अपने अनुभव साझा करना, प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेना
संप्रति: 
मोहम्‍मद शाहिद अख्‍तर
फ्लैट नंबर - 4060
वसुंधरा सेक्‍टर 4बी
गाजियाबाद - 201012
उत्‍तर प्रदेश

कविताएँ                                                                                                                                     


(1)

खुश्‍क खबरों के बीच
बोसीदा अख्‍बारों के पन्‍नों से
झांकती, झलकती
ये जिंदगी हमें
क्‍या क्‍या ना कह जाती है
भूख से मरने की खबर
महज दो दाने के लिए
बेटियों के सौदे की खबर
थोड़े से दहेज की खातिर
किसी दोशीजा के जलने की खबर
किसी रईसजादे की बेशकीमती कार के नीचे
किसी फुटपथिए के कुचले जाने की खबर
और ऐसी ढेर सारी घटनाएं
लेकिन क्‍या ये सिर्फ खबर हैं
अख्‍बार के किसी कोने को
भरने के लिए?
भूख और गरीबी से
बदरंग बेहाल होती जिंदगी
चीखती चिल्‍लाती पुकारती है
लेकिन हम तो बस खबरनवीस हैं
मास्‍टर ब्‍लास्‍टर के गुनगाण
और सहस्राब्‍दी के महानायक के बखान में
कलम घसीटते रहते हैं...
***

(2)

काश तुम्‍हारा दिल कोई अखबार होता
और मैं रोज खोलता उसे
कभी सुबह, कभी शाम
हाथ की लकीरों से ले कर
माथे की शिकन तक
शुरू से आखिर तक
हर्फ-दर-हर्फ सब पढ़ जाता
और जान लेता
सारा हाल-अहवाल तुम्‍हारा
काश तुम्‍हारा दिल कोई अखबार होता
पता चल जाता मुझे
कि आज कितने खुश हो तुम
या कितने उदास हो
और कितने मायूस हो तुम
कि आज तुम्‍हारे दिल की वादियों में
खिले हैं खुशी के फूल कितने
कि आज तुमने कोई तीर मारा है
कि आज तुम कुछ बुझे-बुझे से हो
कि किसी की याद, किसी का गम
आज तुम्‍हें सालता है
कि आज अपनी पेशानी की शिकनों से
लिखी है दर्द की कौन सी दास्‍तान तुमने

काश तुम्‍हारा दिल कोई अखबार होता
कि तुम्‍हारे उदास होने की
तुम्‍हारे गम की
और तुम्‍हारी परेशानियों की
खबरें झूठी निकलती
सियासी नेताओं के वादों की तरह
इंडिया शाइनिंग की खबरों की तरह... 
***

Tuesday, August 28, 2012

मिलन एक पल का- मालिनी गौतम की कविताएँ


मालिनी गौतम                                                                   

मालिनी गौतम प्रिंट मीडिया में एक सुपरिचित नाम है। देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित हिन्दी पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। डॉ. मालिनी गौतम की रचनाओं का धरातल नितांत मौलिक और नवता लिये हुए है। उनमें ज़िन्दगी की गरमाहट और संवेदना  का घनत्व पंक्ति दर पंक्ति दिखायी देता है। अपने समय और परिवेश के सच को शब्दों में उतारना उनकी रचनाधर्मिता का प्रथम लक्ष्य है। स्त्री-विमर्श के स्वर भी उनमें देखे जा सकते हैं, किन्तु वे वास्तविक हैं, किसी नारे का अनुगायन नहीं। वे चाहे गीत लिखें या ग़ज़ल अथवा छन्दमुक्त कविता, उनकी प्रतिबद्धता किसी वाद के प्रति न होकर अपने पाठकों के प्रति है और इसीलिये वे पाठकों को अपने से जुड़ी लगती हैं।



(1)

कटी पतंग

वह उड़ती रही दूर-दूर
तुम्हारी पतंग बनकर
जब कभी तुम ढ़ील देते
वह जा पहुँचती
ऊँचे खुले आसमान में
खुलकर हँसती
घूम आती
खेत-खलिहान,पर्वत,नदियाँ...
जैसे ही तुम
मंजा लपेटते
वह अनमनी सी
खिंची चली आती
धीरे-धीरे तुम्हारी ओर...
कभी-कभी
अपने शौक के लिये
तुम लगाते पेंच
और काटते रहते
दूसरों की पतंगे...
पर दूसरो की पतंग काटते-काटते
एक दिन कट गई
तुम्हारी ही पतंग...
तुम कुछ पल देखते रहे
उसे आसमान में
विलीन होते
फिर जुट गये एक और
नई पतंग को जोत बाँधने में
कटी हुई पतंग के
हश्र से बेहखबर
शायद वह गिरेगी
खेत में खड़े किसी बच्चे के
नन्हें हाथों में,
या हो जायेगी चिथड़े-चिथड़े
किसी ऊँचे दरख्त
या बिजली के तारों में फंसकर
अय खुदा.....
काश पतंग को भी
उसकी मरजी दी होती..
क्या जरूरी है
उसकी डोर
किसी और के हाथों में देना...? 
***


(2) 

मिलन एक पल का

 
 रात ने जाते-जाते
हौले से चूम लिये
सुबह के बंद नयन
धीरे से फैला दिया
मद्धिम सा प्रकाश
उसकी देह पर
सजा दी शबनम की लड़ियाँ
उसके गेसुओं में
ओस की कुछ बूँदें
आ कर ठहर गईं
सुबह के होठों पर
सूरज अपलक देखता रहा
कुछ देर इस अप्सरा को
जैसे ही सूरज की
पहली किरण ने
चूमें उसके होंठ
सुबह मचल कर छुप गई
कहीं बादलों के पीछे
इस एक पल के मिलन की
वेदना लिये
सूरज दिन भर
तपता रहा, जलता रहा,
और जलाता रहा सबको
 आखिर सांझ ने आकर
धीरे से थाम लिया उसका हाथ
लगा दिया चंदन लेप
  उसके दग्ध घावों पर
बन गई उसकी प्रियतमा
और छुपा लिया उसे
अपने सुनहरे आँचल में
पर इन सबसे बेखबर
सूरज तो नींद में भी
बदलता रहा करवटें
एक और सुबह के इंतजार में ...
***

(3)

उधार की ज़िंदगी




साँसों को जिन्दा रखने के लिये
वह हर रोज भरती है तेल
 मिट्टी के दीये में
पर अफसोस
कभी बाती जल कर
हो जाती है खाक
तो कभी दीया ही
चूस लेता है तेल को,
कभी हवा के थपेड़ो में
फक्क से बुझ जाती है लौ
और फैल जाता है
कसैला सा धुँआ चारो,
हर दिन आधी जली बाती फेंक कर
फिर से बनाती है
एक नई बाती
फिर से भरती है तेल
मिट्टी के दिये में
एक बार फिर कोशिश करती है
उखड़ती साँसों को बाँधने की
जैसे ही टिमटिमाती है लौ
हर रोज की तरह
आकर्षण में बँधे
खिंचे चले आते हैं
ढ़ेरो पतंगिये
कुछ देर मंडरा कर
कर देते हैं खुद को भस्म
 मिट्टी की तपिश में
और दे जाते हैं उसे
चंद साँसें उधार की
अगले दिन फिर से जलने के लिये….
***



Thursday, August 23, 2012

निकालता हूं तलवार और खुद का गला काटता हूं- हेमंत शेष की कविताएँ

हेमंत शेष
गद्य और पद्य में समानरूप से अपनी खास पहचान रखने वाले, बिहारी पुरस्कार से सम्मानित, ख्यात कवि, कथाकार, संपादक, आलोचक और कला-समीक्षक हेमंत शेष समकालीन हिंदी साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं. उनकी कविताएँ सिर्फ कविताएँ नहीं बल्कि एक चिलचिलाता यथार्थ है जिसकी चमक हर वर्ग के पाठक को चौंधिया सकने की क्षमता रखती है.
28 दिसम्बर, 1952 को जयपुर (राजस्थान, भारत) में जन्म हेमंत शेष ने एम.ए.(समाजशास्त्र) राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से 1976 में किया और तुरंत बाद ही वह प्रशासनिक सेवा में चयनित कर लिए गए. प्रतापगढ़, राजस्थान में कलेक्टर पद पर कार्य कर चुके हेमन्त शेष वर्तमान में राजस्थान राजस्व मंडल, अजमेर में प्रशासनिक पद पर कार्यरत हैं.
लीजिये प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएँ-

(1)

निकालता हूं तलवार और खुद का गला काटता हूं

खोजता हूं अपना धड़ आंखों के बगैर
किसी दूसरे के घर में शराब या प्यार

समुद्र के पानी में बजती हैं टेलीफोन की घंटियाँ
हो यही शायद किसी लेखक की मौत की खबर

नहीं, नहीं मैं नहीं हूं इस कहानी में
वह तो कोई और होगा
मैं तो कब का मर चुका आत्महत्या के बाद
तब निकाली किसने
काटने को मेरा गला दूसरी बार यह तलवार?

(2)

वह रात मेरे जीवन की आखिरी रात नहीं होगी जब मैं मरूंगा

जीते हुए लगातार मरता रहा हूं
हर पल रोज़ टुकड़ों में मर रहा हूँ
पैदा होते ही मरना सीख गया था
और यही अभ्यास आजीवन मेरे काम आएगा

अपनी हर मृत्यु में अंशतः जीवित रह जाता हूं
हर बार यह सोच कर कि समूचा जब तक मर नहीं जाता
पूरा-पूरा जीवित हूं और मरने तक रहूँगा

(3)

कई बार कितने छोटे सुखों से सुखी हो जाता हूं

कितने छोटे दुखों से दुखी
'अनुभव' क्या चीज है क्या चीज़ है 'अनुभूति'

मैं था
कह सकता हूं मैं हूं
मैं यह भी कह सकता हूं
मैं रहूंगा
नहीं बांध पाता ये कहने की हिम्मत
कि भविष्य में होना मुझ से बाहर की सत्ता है
तब क्यों हुआ खुश क्यों खिन्न
बस यही एक बात नहीं जान पाता हर भविष्य में

(4)

कोयला नहीं कहूँगा मैं

तब भी वह काठ ही तो होगा काला स्याह
सदियों से भूगर्भ में दबा हुआ
जानता हूं
नाम या सिर्फ शब्द
जो काठ की कालिमा और पीड़ा के लिए अंतिम नहीं हो सकता
तब जानूं कैसे
जो हो पर्याय भी और अनुभव भी : अन्तःपरिवर्तनीय

सोचता हूं यही
और चुप रहता हूं देख कर
तथाकथित कोयला इन दिनों

(5)

टपकती पेड़ से कांव-कांव छापती है

आकृति कौवे की
दिमाग के खाली कागज पर
मुझे किस तरह जानता होगा कौआ
नहीं जानता मैं
उस बिचारे का दोष नहीं, मेरी भाषा का है

जो उसे 'कौआ' जान कर सन्तुष्ट है
वहीं से शुरू होता है मेरा असंतोष
जहां लगता है - मुझे क्या पता सामान्य कौए की आकृति में
वह क्या है कठिनतम
सरलतम शब्द में भाषा कह देती है जिसे 'कौआ'!
***

Tuesday, August 21, 2012

यूके से प्राण शर्मा की ग़ज़लें

प्राण शर्मा
जन्म : १३ जून १९३७ को वजीराबाद (अब पाकिस्तान) में।
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए बी एड
कार्यक्षेत्र :
प्राण शर्मा जी १९६५ से लंदन-प्रवास कर रहे हैं। वे यू.के. के लोकप्रिय शायर और लेखक है। यू.के. से निकलने वाली हिन्दी की एकमात्र पत्रिका 'पुरवाई' में गज़ल के विषय में आपने महत्वपूर्ण लेख लिखे हैं। आपने लंदन में पनपे नए शायरों को कलम माजने की कला सिखाई है। आपकी रचनाएँ युवा अवस्था से ही पंजाब के दैनिक पत्र, 'वीर अर्जुन' एवं 'हिन्दी मिलाप' में प्रकाशित होती रही हैं। वे देश-विदेश के कवि सम्मेलनों, मुशायरों तथा आकाशवाणी कार्यक्रमों में भी भाग ले चुके हैं। वे अपने लेखन के लिये अनेक पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं तथा उनकी लेखनी आज भी निरंतर चल रही है।
प्रकाशित रचनाएँ :'सुराही' (कविता संग्रह)

(1)
सोच की भट्टी में सौ-सौ बार दहता है
तब कहीं जाकर कोई इक शेर कहता है
हर किसी में होता है नफ़रत का पागलपन
कौन है जो इस बला से दूर रहता है
बात का तेरी करे विश्वास क्यों कोई
तू कभी कुछ और कभी कुछ और कहता है
टूट जाता है किसी बच्चे का दिल अक्सर
ताश के पत्तों का घर जिस पल भी ढहता है
यूँ तो सुनता है सभी की बातें वो लेकिन
अच्छा करता है जो अक्सर मौन रहता है
हाय री मजबूरियाँ उसकी गरीबी की
वो अमीरों की जली हर बात सहता है
धूप से तपते हुए ए `प्राण`मौसम में
सूख जाता है समंदर कौन कहता है

(2)
हर चलन तेरा कि जैसे राज़ ही है
ज़िन्दगी तू ज़िन्दगी या अजनबी है
कुछ न कुछ तो हाथ है तकदीर का भी
आदमी की कब सदा अपनी चली है
टूटते रिश्ते, बदलती फ़ितरतें हैं
क्या करे कोई, हवा ऐसी चली है
क्यों न हो अलगाव अब हमसे तुम्हारा
दुश्मनों की चाल तुम पर चल गयी है
आदमी दुश्मन है माना आदमी का
आदमी का दोस्त फिर भी आदमी है
कुछ तो अच्छा भी दिखे उसको किसीमें
आँख वो क्या जो बुरा ही देखती है
`प्राण` औरों की कभी सुनता नहीं वो
सिर्फ़ अपनी कहता है मुश्किल यही है

(3)
मेरे दुखों में मुझ पे ये एहसान कर गये
कुछ लोग मशवरों से मेरी झोली भर गये
पुरवाइयों में कुछ इधर और कुछ उधर गये
पेड़ों से टूट कर कई पत्ते बिखर गये
वो प्यार के ए दोस्त उजाले किधर गये
हर ओर नफरतों के अँधेरे पसर गये
अपनों घरों को जाने के काबिल नहीं थे जो
मैं सोचता हूँ कैसे वो औरों के घर गये
हर बार उनका शक़ की निगाहों से देखना
इक ये भी वज़ह थी कि वो दिलसे उतर गये
तारीफ़ उनकी कीजिये औरों के वास्ते
जो लोग चुपके - चुपके सभी काम कर गये
यूँ तो किसी भी बात का डर था नहीं हमें
डरने लगे तो अपने ही साये से डर गये

(4)
तुझसे दिल में रोशनी है
ए खुशी तू शमा सी है
आपकी संगत है प्यारी
गोया गुड़ की चाशनी है
बारिशों की नेमतें हैं
सूखी नदिया भी बही है
मिट्टी के घर हों सलामत
कब से बारिश हो रही है
नाज़ क्योंकर हो किसीको
कुछ न कुछ सबमें कमी है
कौन अब ढूँढे किसी को
गुमशुदा हर आदमी है
बाँट दे खुशियाँ खुदाया
तुझको कोई क्या कमी है
***