Monday, July 16, 2012

सपना टल गया- ओम पुरोहित की कविताएँ

शब्द यात्रा करते हैं और वे इस यात्रा में संवेदना अंवेरते अपना अर्थ पाते हैं । मैं तो बस उन शब्दों का पीछा करता हूँ .... अक्षरों के बीज जाने किसने बो दिए पानी देते-देते हमने जिंदगी गुजार दी । कोरा कागद है मन मेरा और ज़िंदगी तलाश है कुछ शब्दों की...
-ओम पुरोहित 'कागद'





सपनों की उधेड़बुन

एक-एक कर
उधड़ गए
वे सारे सपने
जिन्हें बुना था
अपने ही खयालों में
मान कर अपने !

सपनों के लिए
चाहिए थी रात
हम ने देख डाले
खुली आंख
दिन में सपने
किया नहीं
हम ने इंतजार
सपनों वाली रात का
इस लिए
हमारे सपनों का
एक सिरा
रह जाता था
कभी रात के
कभी दिन के हाथ में
जिस का भी
चल गया जोर
वही उधेड़ता रहा
हमारे सपने !

अब तो
कतराने लगे हैं
झपकती आंख
और
सपनों की उधेड़बुन से !
***

पेड़ खड़े रहे

धरती से थी
प्रीत अथाह
इसी लिए
पेड़ खड़े रहे ।

कितनी ही आईं
तेज आंधियां
टूटे-झुके नहीं
पेड़ अड़े रहे ।

खूब तपा सूरज
नहीं बरसा पानी
बाहर से सूखे
भीतर से हरे
पेड़ पड़े रहे !
***

आज जाना

गांव में गाय ने
खूंटे पर बंधने में
जद्दोजहद की
आखिर भाग गई
बाड़ कूद कर
घूंघट की ओट में
तब तुम
क्यों हंसीं थी
खिलखिला कर
आज जाना
जब चाह कर भी
नहीं लौट सकी
बेटी ससुराल से !
***

यादें तुम्हारी

यादें तुम्हारी
मीठी हैं बहुत
फिर क्यों टपकता है
आंखो से खारा पानी
जब-जब भी
सुनता-देखता हूं
तुम्हारी स्मृतियों की
उन्मुक्त कहानी !

दिल में
यादें थीं तुम्हारी
जिन पर
रख छोड़ा था मैंने
मौन का पत्थर
इस लिए था
दिल बहुत भारी ।

आंखों में थीं
मनमोहक छवियां
कृतियां-आकृतियां
लाजवाब तुम्हारी
जिनके पलट रखे थे
सभी पृष्ठ मैंने
अब भी चाहते हैं
वे अपनी मनमानी
इसी लिए टपकता है
रात-रात भर
लाल आंखो से
श्वेत खारा पानी ।

हर रात
ओस बूंद से
क्यों टपकते हैं
आंसू आंख से
घड़घड़ाता है
उमड़-घुमड़ दिल
जम कर कभी
क्यों नहीं होती बारिश !
***

दिन की मौत पर

न जाने किस की याद में
गुजर ही गया
एक अकेला दिन
इस रात की तन्हाई में
दिन की मौत पर
बांच रहा है मर्सिया
एक अकेला चांद
मातम पुरसी को
आए हैं तारे अनेक
आसमान रोके बैठा है
आंखो में असीम आंसू
जो झर ही जाएंगे
कभी न कभी !
***

सपना टल गया

कल तुम आईं
नींद टल गई
सपना मचल गया
लो आज फिर
नींद उचट गई
आज फिर
सपना टल गया !

दिन को
दिन के लिए
रात को
रात के लिए
नींद को
नींद के लिए
छोड़ दो अब
बहुत खलल हो गया !
***

Tuesday, July 10, 2012

हाइकू- सुशीला शिवराण (श्योराण)

जन्म : २८ नवंबर १९६५ को झुँझनू, राजस्थान में
सुशीला शिवराण (श्योराण)
शिक्षा : बी.कॉम. (दिल्ली विश्वविद्यालय), बी.एड.- (मुम्बई विश्वविद्यालय), एम.ए. (राजस्थान विश्वविद्यालय)।

कार्यक्षेत्र- अध्यापन एवं हिन्दी साहित्य, कविता पठन एवं लेखन। पिछ्ले २० वर्षों से अध्यापन के क्षेत्र में। मुंबई और कोच्ची में नेवल पब्लिक स्कूल, बिरला पब्लिक स्कूल, पिलानी, डी.ए.वी. गुड़गाँव से अपनी शिक्षण-यात्रा करते हुए आजकल सनसिटी वर्ल्ड स्कूल, गुड़गाँव में अध्यापनरत। इसके अतिरिक्त खेलों एवं भ्रमण में रुचि। कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
१)
तुंग शिखर
तिरते हैं बादल
ज्यों पाखी दल

२)
तारा-चूनर
सीली रेत बिछौना
रही सुध ना!

३)
रोशन जहां
उम्मीदों का दीप तू
खो गया कहाँ?

४)
सर्वस्व वारे
स्व खो हमें सँवारे
माँ, और कौन?


५)
स्टापू-लंगड़ी
लुढ़के कुछ कंचे
यादों की गली !

६)
रचाते ब्याह
सजा गुड्‍डे-गुड़िया
हम बाराती !

७)
तुम्हारे बिन
कतरा कर खुशी
कहती विदा!

८)
बसा मुझ में
चाहत मिलन की
कस्तूरी प्रीत!

९)
ख्वाहिशें मेरी
भटकें दिन-रैन
तुम बेपीर !

१०)
कजरा नैन
मृगी -सी चितवन
छला है जग !
***

Sunday, July 1, 2012

प्रणय नगरी माण्डू में आपका स्वागत है- प्रताप सहगल

प्रताप सहगल
मित्रो, साहित्य के सहयात्रियों और प्रबुद्ध रचना धर्मियों को हमारा सादर नमन ! विगत कई माह से किन्ही कारणों से 'आखर कलश' आपकी सेवार्थ साहित्यिक गतिविधियों से लगभग विलग रहा. अब पुनः आप ही की प्रेरणा, मार्गदर्शन और साहचर्य से पुनः अपने पथ पर अग्रसर होने को आतुर और प्रतिबद्द है.

इसी क्रम में आज आपके समक्ष श्री प्रताप सहगल का एक यात्रा संस्मरण प्रस्तुत है.
प्रताप सहगल हिन्दी के चर्चित कवि, नाटकार, कहानीकार और आलोचक हैं। कई कविता-संग्रह, नाटक, आलोचना-पुस्तकें, एक उपन्यास और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हैं। उन्होंने बहुत सी पुस्तकों का संपादन भी किया है। प्रताप सहगल के नाटकों पर आधारित बहुत सी रेडियो धारावाहिकों का प्रसारण हुआ है। उन्होंने कविता, कहानी नाटक उन्यास आलोचना और संपादन सभी क्षेत्रों में काम किया है।
माण्डू – यह शब्द सुनते ही मन में रोमान की स्वर लहरियाँ तेज़ी से बजने लगती हैं। यह दो अक्तूबर दो हज़ार ग्यारह की सुहावनी सुबह थी और हम लोग महेश्वर से माण्डू की ओर जा रहे थे। आज शशि ने अपने जीवन के सड़सठ वसंत पार किए हैं और हम दो घंटे की यात्रा के बाद माण्डू के प्रवेश द्वार पर हैं। उस प्रवेश द्वार पर मोटे अक्षरों में प्रेम की यह इबारत चमक रही है –‘ प्रणय नगरी माण्डू में आपका स्वागत है’। मझोली पहाड़ियों के बीच बसे माण्डू के साथ जुड़ी रूपमति और बाज बहादुर की प्रेम कहानी प्रसिद्धि के चरम शिखर पर बैठी प्रेमियों और सैलानियों को आमंत्रित करती रहती है।

प्रेम – सुनने में एक बहुत छोटा सा शब्द, लेकिन इसके साथ जुड़ी हुई हैं अनंत कहानियाँ, इतिहास के बदलते, बनते कई मोड़। सामाजिक और व्यैक्तिक स्तर पर समय के साथ जुड़ते रूप, अर्थ और ध्वनियाँ। प्रेम जितनी आसानी से पकड़ में आता है उससे कहीं ज़्यादा वक़्त लगता है उसे समझने में, उसकी खुशबू बार-बार हाथों से छूटती है और बार-बार हम उसे पकड़ कर मन के किसी ऐसे कोने में सुरक्षित कर लेना चाहते हैं कि बस उसकी खुशबू पहुँचे तो सिर्फ़ और सिर्फ़ हम तक। प्रेम को लेकर औरों की तरह मैं भी अक्सर परेशान रहा हूँ कि प्रेम आखिर है क्या? प्रेम का माध्यम अगर देह है तो फ़िर प्रेम देह से बाहर कैसे है? क्या प्रेम सिर्फ़ कुत्ते की हड्डी है या अपने प्रिय के लिए सब कुछ छोड़ देने की शक्ति। यहाँ तक कि अपनी हड्डी भी गल जाती हैं प्रेम में। इश्क मजाज़ी से इश्क हक़ीकी की ओर जाना! कैसा अनुभव होता होगा वह, मैं नहीं जानता लेकिन यह ज़रूर जानता हूँ कि कहीं कुछ ऐसा होता है किसी ख़ास के प्रति कि उसके होने और उसके न होने से ही फ़र्क़ पड़ता है ज़िन्दगी जीने में। कि कुछ करना है उसके लिए सबसे ज़रूरी काम बन जाता है कि कहीं कुछ छूट जाता है उसके ग़ैर-हाज़िरी में। ऐसी ही एक प्रणय-गाथा तैरती हुई महसूस होती है माण्डू में। सदियों पहले हो चुकी बाज बहादुर और रूपमती की प्रेम-गाथा। माण्डू के लोक-गीतों और लोक-कथाओं में, माण्डू से गुज़रती हुई नर्मदा के पानी में, माण्डू के पेड़- पौधों में और माण्डू में कुछ खड़ी और कुछ ध्वस्त हो चुकी या हो रही इमारतों में। वस्तुत: इसी प्रणय-गाथा को उन हवाओं में महसूस करने, उन्हें पकड़ने के लिए ही हमने बनाया था माण्डू जाने का कार्यक्रम। कुछ साल पहले रेडियो के लिए एक नाटक तैयार किया था मैंने। तब तक नहीं देखा था मैंने माण्डू और नाहीं नर्मदा का दूर से दिखता वह बहाव जो रूपमती महल के पिछवाड़े से होकर निकल जाता है। बस सिर्फ़ अपनी कल्पना के सहारे भरे थे रंग मैंने उस नाटक में बहती नदी में और वहाँ घूमते हुए महसूस किया था रूपमती और बाज बहादुर को। नाटक में ही सुना था दोनों का संगीत और डूबा रहा था उस संगीत की स्वर-लहरियों में। या बहुत साल पहले 1957 में बनी देखी थी एक फ़िल्म ‘रानी रूपमती’। रूपमती थी उसमें निरूपा राय और बाज बहादुर था भारत भूषण। रूपमती का वह चेहरा जो गा रहा था यह गीत –‘आ लौट के आ जा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं। मेरा सूना पड़ा रे संगीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’। आज भी कई बार में गूँजता रहता है यह गीत लेकिन माण्डू में आकर ही इस गीत के मर्म को पकड़ पा रहा था। रूपमती की वियोग- पीड़ा बहुत घनी होकर कहीं मेरे अंदर उतर रही थी। कहाँ और कब शुरू हुई होगी यह प्रेम कहानी, इसका भी एक छोटा सा इतिहास है। इस प्रेम कहानी के घटने का समय पंद्रहवीं शताब्दी का उत्तर-काल है और यह भी लगता है कि इस प्रेम कहानी ने लोक-मानस में जल्दी ही अपनी जगह बना ली और यह समय बदलने के साथ रूप भी बदलती रही। लोक इतिहास जब शब्द, संगीत, चित्रकला और स्थापत्य में जब सुरक्षित हो जाता है तो उसकी उम्र भी दराज़ होती है। लोक में चलती इन्हीं कविताओं और कहानी को सबसे पहले 1599 में अहमद-उल-उमरी ने फ़ारसी में सुरक्षित किया। उन्होंने इस कहानी के साथ 26 कविताओं को भी शामिल किया। यही मौलिक पाण्डुलिपि उनके पोते फ़ौलाद खां को मिली और फ़ौलाद खां के मित्र मीर जाफ़र अली ने 1653 में इसकी एक प्रतिलिपि तैयार की। मीर जाफ़र की यही प्रतिलिपि दिल्ली के महबूब अली तक पहुँची। 1831 में महबूब अली के मृत्यु के बाद यही प्रतिलिपि दिल्ली की एक अनाम महिला के पास पहुँच गई। भोपाल के इनायत अली इसे दिल्ली से आगरा लाए। बाद में यह पाण्डुलिपि सी इ लौर्ड को जब मिली तो उन्होंने 1926 में एल एम करम्प से इसका अंग्रेज़ी में ‘दि लेडी आफ़ दि लोटस:रूपमती, क्वीन आफ़ माण्डू: अ स्ट्रेंज टेल आफ़ फ़ेथफ़ुलनैस’ शीर्षक से अनुवाद करवाया और इस तरह से यह प्रेम-गाथा लोक मानस के साथ-साथ शब्द में भी सुरक्षित हो गई। हमारी गाड़ी तेज़ी से भागी जा रही थी। हम माण्डू में प्रवेश कर चुके थे। माण्डू के चारों ओर का परकोटा पैंतालीस किलोमीटर लंबी दीवार से घिरा हुआ है। 

 बहुत जगह से यह दीवार ध्वस्त हो चुकी है। लेकिन बारह दरवाज़े या उनके निशान आज भी माण्डू की सुरक्षा के लिए किए गए इंतज़ामों का बयान हैं। सबसे प्रमुख है दिल्ली दरवाज़ा। दिल्ली दरवाज़ा। शायद ही कोई ऐसा मुग़लकालीन शहर हो, जिसमें दिल्ली दरवाज़ा न हो। दिल्ली का महत्त्व सदियों से बना हुआ है और आज भी दिल्ली ही भारत के केन्द्र में है। हम एक दरवाज़े के सामने जा कर रुक जाते हैं, रुकना पड़ता है। सामने भेड़ों का बहुत बड़ा रेवड़ चला आ रहा है। दरवाज़े के दाएँ-बाएँ या तो पहाड़ी है या खाई। हमारा ड्राइवर विनोद बताता है कि यह भंगी दरवाज़ा है। भेड़ों का रेवड़ छोटे-बड़े झुण्डों में धीरे-धीरे निकल रहा है। मेरे मन को यह प्रश्न मथे जा रहा है कि इस दरवाज़े का नाम भंगी दरवाज़ा क्यों है? बाद में कहीं और पढ़ता हूँ कि इसका असली नाम भांगी दरवाज़ा है। क्या अर्थ है इस शब्द का। नहीं जानता। कोई बताता भी नहीं। लोक-मानस और इतिहास की किताबों में यह भंगी दरवाज़ा ही है। अपने समाज की जातिगत बुनावट को देखते हुए मुझे यही लगता है कि हज़ार साल पहले शायद यही नाम रहा होगा इस दरवाज़े का। इतनी भेड़ें? शशि बोल उठती है – “बक़रीद क़रीब है…शायद क़ुर्बानी के लिए ही कहीं ले जाई जा रही हैं” मैं अपने को उससे सहमत पाता हूँ। थोड़ी ही देर बाद हम फ़िर चल पड़ते हैं और पहुँचते हैं मालवा रिसार्ट में। इसे मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग ने ही विकसित किया है। यूँ तो होटलों में हम कमरों में ही रहते हैं लेकिन यहाँ हमने एक टैंट बुक किया हुआ है। टैंट में रहने का यह हमारा पहला अनुभव था। टैंट में प्रवेश करते ही माण्डू की रोमानी गंध तेज़ी से जकड़ लेती है। बहुत सुरुचिपूर्ण तरीक़े से पारंपरिक शैली में सजाया, सहेजा गया है टैंट को। टैंट के अंदर सारी आधुनिक सुविधाएँ मौजूद हैं। परंपरा और आधुनिकता का अदभुत संगम नज़र आता है वहाँ। 


इस रिसार्ट का पूरा परिसर ही काव्यमय है। दो छोरों से पानी से घिरा हुआ। नए पुराने पेड़, जल में उगे श्वेत और रक्ताभ वर्णी कमल। तालाब पर बने हुए लकड़ी के रास्ते और पुल। एक ओर रेस्तरां और बार। कुछ और कमरे। बाहर खुली पार्किंग यानी ऐश्वर्य की माडेस्ट व्याख्या करता हुआ लग रहा था यह रिसार्ट्। शाम ढलने को है, लेकिन हमारे मन का उत्साह नहीं। हम जल्दी से जल्दी बाजबहादुर और रूपमती की प्रेम-गाथा के बारे में जानना चाहते हैं। कुछ बातें इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं और कुछ लोगों के ज़हनों में। कुल मिला कर इस प्रेम-कहानी का स्वरूप कुछ इस तरह से बनता है। सन 1542 में शेरशाह ने मालवा पर हमला किया और अपनी जीत के बाद शुजात खाँ को वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया। शुजात खाँ ने मृत्यु पर्यंत मालवा पर एक स्वतंत्र शासक की तरह से ही राज किया। 1554 में शुजात खाँ की मृत्यु हो गई और उसके तीन पुत्रों में से ही एक पुत्र मलिक ब्याजीद ने अपने आप को बाज बहादुर के रूप में माण्डू का शासक घोषित कर दिया। शुरू में तो बाज बहादुर ने उत्साह से राज-काज संभाला लेकिन एक युद्ध में रानी दुर्गावती से मिली शिकस्त के बाद वह पूरी तरह से संगीत की ओर मुड़ गया। कहा जाता है कि एक बार नामी-गिरामी संगीतकार यदुराय के यहाँ एक संगीत-सम्मेलन में जाने का अवसर बाज बहादुर को भी मिला। वहीं उसकी मुलाक़ात रूपमती से हुई। रूपमती भी संगीत में निष्णात थी और इस तरह से दोनों के प्रेम सागर में संगीतमय हिलोरें उठने लगीं। यही रूपमती बाद में बाज बहादुर की प्रेमिका और पत्नि बनी। बाज बहादुर ने रूपमती से विवाह किया था या नहीं, इस बारे में दो तरह की राय प्रचलित है लेकिन दोनों की प्रेम-कहानी के बारे में सभी एकमत हैं कि दोनों का प्रेम आज भी प्रेम की एक अप्रतिम मिसाल है।

यह सुर-संगीत भरा प्रेम अपने यौवन पर ही था कि 1561 में आदम खाँ ने मालवा पर हमला कर दिया और बाज बहादुर तथा रूपमती को सारंगपुर के पास जा कर पकड़ लिया। बाज बहादुर जैसे तैसे भाग निकला लेकिन रूपमती दुश्मन के कब्ज़े में आ गई। वस्तुत: आदम खाँ उस अप्रतिम सुंदरी को हासिल करना चाहता था और उसने अपने प्रेम का प्रस्ताव भी रूपमती के सामने रखा। लेकिन रूपमती ने आदम खाँ के पास जाने के बजाय आत्महत्या करना बेहतर समझा। वहीं सारंगपुर में ही रूपमती को दफ़ना दिया गया और अन्त में बाज बहादुर ने भी रूपमती की क़ब्र पर ही दम तोड़ा। इस कहानी में संभवत: इतिहास कम और कल्पना ज़्यादा है लेकिन प्रेम कथाओं का संसार भी इतिहास से कम और कल्पना से ज़्यादा चलता है। हम आज कथा के क़रीब तो थे ही, रूपमती और बाज बहादुर के महल के भी बहुत करीब थे। सो हम जल्दी ही रूपमती के महल पहुँचते हैं। एक ढलवाँ पहाड़ी पर बना हुआ यह वही महल है जहाँ से रूपमती एक ओर तो नर्मदा के और दूसरी ओर अपने प्रिय बाज बहादुर के दर्शन कर सकती थी। हम महल के सबसे ऊपरी हिस्से पर बनी छतरी के अंदर दाखिल हो जाते हैं। हवा की एक हिलोर इधर से आए, उधर को जाए और एक हिलोर उधर से आए, इधर को जाए। प्रदूषण के हिसाब से ज़ीरो टालरेन्स ज़ोन। इस हवा को ज़रा ध्यान से महसूस कीजिए, जैसे संगीत की स्वर-लहरियाँ आपके मन में घुले-मिले प्रेम के भरोसे ही आपके अंदर प्रवेश कर रही हैं। वहाँ थोड़ी देर खड़े रह कर उन हवाओं को छूना और उस परिवेश को जीना उस दुनिया में प्रवेश करना है, जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम है। यहाँ कुछ देर खड़े होना अपने से साक्षात्कार करना है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर एक साथ जीना है। वहाँ से हम नर्मदा देखने की कोशिश करते हैं, लेकिन हलकी-झीनीं धुंध के चलते कुछ भी साफ से दिखाई नहीं देता। वैसे भी समय के साथ नर्मदा का पाट कुछ छोटा होकर महल से दूर हट गया दिखता है।

रूपमती महल
सांझ उतर आई है। हम छतरी से उतर कर महल की छत पर आ जाते हैं। और थोड़ी ही देर बाद महल से बाहर। रात खाना खाने के बाद रेस्तरां से बाहर निकले तो संगीत की कुछ ध्वनियाँ सुनाई दीं। आती हुई ध्वनियों की दिशा में देखा, रौशनी भी दिखी। पाँव उसी ओर बढ़ा दिए। वहाँ कुछ बच्चे नवरात्र का उत्सव मना रहे थे। सन्नाटे में यह आवाज़ काफ़ी गूँज रही थी। हम लोग आसपास घूमते रहे। आसमान साफ था। तारों से भरा हुआ। चाँद नदारद था।
रूपमती महल
यह तीन अक्तूबर का दिन था। सुबह सवेरे ही हम लोग सबसे पहले जहाज़ महल की ओर रवाना हुए। जहाज़ महल के बाहर सन्नाटा था। अभी पर्यटक आने शुरू नहीं हुए थे। टिकिट खिड़की के साथ ही बने हुए जहाज़ महल के नक़्शे से गाइड ने हमें समझाना शुरू किया। सभी की तरह से मेरे मन में भी यह जिज्ञासा थी कि इस इमारत का नाम जहाज़ महल क्यों है। जहाज़ की आकृति की बनी यह इमारत 120 मीटर लंबी है। और यह दो कृत्रिम तालाबों- मुंज तालाब और कपूर तालाब से घिरी हुई है। दो मंज़िलों में तामीर किया गया यह महल संभवत: गयासुद्दीन ख़िलजी ने बनवाया था। कहते हैं कि सुल्तान गयासुद्दीन ख़िलजी ने इस महल का निर्माण अपने विशाल हरम के लिए करवाया था। कहते हैं कि गयासुद्दीन के इस हरम में 1600 रानियाँ थीं। इनमें से देश-विदेश की कुछ विदुषियाँ भी शामिल थीं। इस तथ्य में कितनी सच्चाई है और कितनी कल्पना, यह कहना मुश्किल है। महल के अंदर ही स्थित है दिलावर खाँ की मस्जिद। अफ़गानी और भारतीय स्थापत्य का मिला-जुला रूप यहाँ मौजूद है। भारत की यह ऐसी पहली मस्जिद मानी जाती है जहाँ औरतें भी नमाज़ अदा कर सकती थीं। 
जहाज़ महल
जहाज़ महल का पूरा परिसर बहुत विशाल है। इसमें पानी की व्यवस्था उजली बावड़ी और अंधेरी बावड़ी के माध्यम से की गई है। नहाने के लिए आधुनिक जकूज़ी जैसी व्यवस्था, लंबी (अब बंद) सुरंगे जहाज़ महल के महत्त्व का बखान करती हैं। जहाज़ महल के ऊपर पहुँचकर हम चारों ओर पानी से घिरे जहाज़ महल का पूरा नज़ारा लेते हैं और मुक्त हवाओं में सांस लेते हुए आगे बढ़ते हैं। एक ओर बना हुआ है हिंडोला महल। झूले की आकृति के कारण ही इसे हिंडोला महल की संज्ञा दी गई लगती है। यह गयासुद्दीन ख़िलजी के शासन का एक सभा भवन है। अपनी ढलानदार दीवारों के कारण यह झूलता हुआ दिखता है और शायद हिड़ोला प्रतीक है इस बात का भी कि शासन कोई भी हो और चाहे किसी का भी हो, वह हिंडोले की तरह से ही इधर से उधर और उधर से इधर झूलता ही रहता है। हिंडोला महल के पश्चिम की ओर अनेक ऐसी इमारतें हैं जो अपने पुरातन वैभव, भव्यता और ऐश्वर्य का बयान दर्ज कर रही हैं। इन्हीं इमारतों के बीचों-बीच है खूबसूरत चंपा बावड़ी जहाँ कुछ पर्यटक परिंदे अपने पंख फटकारते नज़र आते हैं। 
जहाज़ महल
हाथी पोल यानी जहाँ हाथियों को बाँधा जाता था और तवेली महल यानी अस्तबल या तबेला देखने के बाद हम पारंपरिक रूप से दसवीं शताब्दी में बनवाई हुई एक नाट्यशाला में प्रवेश करते हैं। इस नाट्यशाला की कल्पना अवश्य ही नाट्यशास्त्र के अनुसार की गई लगती है। इसमें आधुनिक तरीके का रंगमंच न होकर रंगभूमि की तर्ज़ पर बना हुआ मंच है। हालाँकि दर्शकों के बैठने की व्यवस्था मंच के इर्द-गिर्द न हो कर मंच के सामने है लेकिन मंच और दर्शकों के बैठने के स्थान की ऊँचाई लगभग एक समान है। मंच को दो प्रस्तर शिलाओं को खड़ा करके इस तरह से बाँटा गया है कि वहाँ संगीत सभाएँ और शायरी-कविता के दौर भी एक साथ चलते होंगे और शायद नाटक के दृश्यों का संयोजन अलग-अलग हिस्सों में किया जाता होगा। जहाज़ महल की भव्यता का वर्णन जहाँगीर ने अपने संस्मरणों में भी किया है। इससे यह प्रमाणित होता है कि जहाँगीर ने भी अपने प्रेयसी पत्नि नूरजहाँ के साथ कुछ समय यहाँ राजसी वैभव में बिताया है।

कुछ वक़्त नाट्यशाला में विभिन्न कार्यक्रमों की कल्पना करते हुए हम जहाज़ महल के परिसर में थोड़ा हट कर बने हुए गदाशाह के महल की ओर चलते हैं। गदाशाह का यह महल दो हिस्सों में बना हुआ है और दोनों ही भवन हिन्दू वास्तुशिल्प के भव्य नमूने हैं। कहा जाता है कि सुल्तान महमूद द्वितीय के एक कर्मचारी मेदिनी राय का नाम ही गदाशाह था जो कुछ समय तक राज्य का स्वामी भी बना। यह युग ऐसा रहा है जब सुल्तान और बादशाह अपना राजकाज चलाने के लिए कई बार बड़े बड़े शाहों से पैसा कर्ज़ पर लिया करते थे। इससे उन शाहों का शाही परिवार और राज्य पर प्रभाव तो रहता ही था। दुकान रूपी भवन दीवाने-आम का काम भी करता था, क्योंकि हिंडोला महल दीवाने-ख़ास ही था। गदाशाह की इस सुपर बाज़ार नुमाँ दुकान पर देशी विदेशी सामान आसानी से मिल जाता था। गदाशाह का महल एक दो मंज़िला भवन है। भूतल पर मेहराबदार द्वार और पार्श्व में दो कमरे हैं तथा प्रथम तल पर एक बड़ा हाल और वहाँ भी दो पार्श्व कमरे हैं। गदाशाह का यह महल अब भग्नावस्था में खड़ा हुआ अपने अतीत के झरोखों से वर्तमान को झाँकता हुआ नज़र आता है। गदाशाह के महल तथा जहाज़ महल में प्राप्त बहुत सी सामग्री अब थोड़ी ही दूर हटकर बने हुए एक अजायबघर में रखी हुई है। लेकिन वहाँ बैठे सभी कर्मचारी बहुत ही निस्पृह तरीके से आने-जाने वालों को देखते रहते हैं। उन्हें भी उस सामग्री के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं है, सो हम भी घूम-फ़िर कर लौट आते हैं। अभी हमें और स्मारक भी तो देखने हैं।

हम जामी मस्जिद की ओर रूख़ करते हैं। जामी मस्जिद की भव्यता बाहर से ही नज़र आने लगती है। मस्जिद के सामने कुछ रेहड़ी वाले और कुछ खोखा लगा कर ज़रूरत का सामान बेच रहे हैं। सबसे ज़्यादा भरमार नज़र आती है शरीफ़ों और ख़ुरासानी इमली की। शशि को शरीफ़ा बहुत पसंद है। दिल्ली में अच्छा शरीफ़ा दौ से अढ़ाई सौ रूपए किलो मिलता है। हम शरीफ़े का भाव पूछते हैं, वह उसे सीताफल कहता है। यही नाम है माण्डू में शरीफ़े का। भाव सुनकर हम परेशान हो जाते हैं। बढ़िया शरीफ़ा (सीताफल) तीस रूपए किलो। वहीं तुलवा कर खाने लगते हैं। एकदम मीठा। बिना मसाले के पका हुआ। पेट में जितना समा सकता है, हम खा लेते हैं और फ़िर खुरासानी इमली का स्वाद लेते हैं। खुरासानी इमली, सीताफ़ल और खिरनी की वजह से भी माण्डू जाना जाता है। खिरनी तो वहाँ नज़र नहीं आती। शायद उसका मौसम जा चुका है। कहते हैं कि खुरासानी इमली का बीज ईरान के नगर खुरासान का बादशाह माण्डू लाया था और उसे माण्डू की आबो-हवा इतनी मुफ़ीद साबित हुई कि वह वहाँ खूब फलने-फूलने लगा। हम दोनों ने खुरासानी इमली को अपने मुँह में डाला। खट्टा-मीठा स्वाद लगा, लेकिन हमें वह पसंद नहीं आई। हम लोग तो शरबत से मीठे शरीफ़ों पर टूटे-पड़े थे।

शरीफ़ों के स्वाद से तृप्त होकर हमने जामी मस्जिद की ऊँची-ऊँची सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊँचे प्रवेश-द्वार से प्रवेश किया। जामी मस्जिद की गणना देश की अन्य बड़ी मस्जिदों में होती है। कहा जाता है कि इसका निर्माण दमिश्क में बनी मस्जिद की ही शैली में किया गया है, लेकिन इसमें कुछ हिन्दू स्थापत्य का भी मिश्रण हो गया है। इसे बनवाना शुरू तो होशंगशाह ने किया था लेकिन इसका निर्माण 1454 ईस्वी में महमूद ख़िलजी ने पूरा किया। मस्जिद के अंदर बना हुआ विशाल आसन और कुछ अन्य तत्त्व भी कई लोगों को इस भ्रम में डाल देते हैं कि वस्तुत: इसका रूप इस तरह क्यों बनाया गया है। यह कहीं कोई पुराना मंदिर तो नहीं, जिसका परिसंस्कार करके इसे मस्जिद का रूप दिया गया है। इसके स्थापत्य की अफ़गान और भारतीय, दोनों व्याख्याएँ संभव हैं। सत्य क्या है, यह तो इतिहासकार ही जानें, हम लोग तो उस भवन की भव्यता का आनंद ही ले रहे थे। जामी मस्जिद के अंदर ही बना होशंगशाह का मक़बरा भारत की सबसे पहली संगमरमर की इमारत मानी जाती है और इसी की तर्ज़ पर बाद में ताज महल का निर्माण करवाया गया है। जामी मस्जिद के सामने ही है अशरफ़ी महल। अशरफ़ी महल की सीढ़ियों पर खड़े हो कर जामी मस्जिद की भव्यता का पूरा जायज़ा लिया जा सकता है। अशरफ़ी महल कभी मदरसा हुआ करता था और कभी शायद वहाँ संस्कृत विद्यापीठ थी। यह भी इतिहासकारों के लिए गवेषणा का विषय है। अशरफ़ी महल से हम अपने रिसार्ट की ओर लौटते हैं। अपराह्न दो बज चुके हैं और खूब भूख लगी हुई। अपनी आदत के मुताबिक़ हम खाना खाकर अपने टैंट में थोड़ा विश्राम करते हैं।

शाम की चाय के बाद हमारी यात्रा फ़िर शुरू होती है और हम अपने रिसार्ट के बहुत क़रीब ईको पाइंट की ओर चलते हैं। ईको पाइंट पर ही दाई का वह महल स्थित है, जिसे रूपमती की सेवा में रत दाई के लिए बनवाया गया था, लेकिन यह सिर्फ़ दाई का महल नहीं है, यह उस समय की संचार व्यवस्था का अदभुत नमूना है, जब न टेलीफ़ोन की सुविधा थी और नाही मोबाइल की। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चैक पोस्ट बनी हुई हैं और एक चैक पोस्ट से दूसरी चैक पोस्ट तक व्यक्ति की ताली की आवाज़ आसानी से पहुँच जाती है और यही ताली की संख्या ही संदेश का कोड होती थीं। यह सिलसिला दाई महल से शुरू होकर बाज बहादुर के महल से होता हुआ रूपमती के महल तक पहुँचता है। इस तरह के या इससे मिलते-जुलते ईको पाइंट लगभग हर पहाड़ी इलाके में मिल जाते हैं और ऐसे कई ईको पाइंट हमने देखे भी हैं। संचार की यह ध्वनि-व्यवस्था पुराने किलों में भी होती थी, लेकिन यहाँ की संचार व्यवस्था का दायरा थोड़ा बड़ा था। हमने कई ध्वनियाँ हवा में फ़ैंकी और वे ईको करती हुई हम तक लौट आईं, आगे तो पहुँची ही होगी। दाई के महल के पास ही छोटी दाई का महल देखने के बाद हम एक बार फ़िर रूपमती के महल की ओर चलते हैं और एक बार फ़िर वहाँ के वातावरण को जी भर कर जीते हैं। हम वहाँ इतने मस्त हो जाते हैं कि लौटते हुए बाज बहादुर का महल बंद हो जाता है। अगली सुबह। आज हमें माण्डू से उज्जैन की ओर रवाना होना है। लेकिन बाज बहादुर का महल देखे बिना कैसे लौटें? तो सबसे पहले हम वहीं जाते हैं और सुबह के अल-मस्त माहौल में बाज बहादुर के संगीत को सुनते हुए थोड़ा वक़्त वहीं गुज़ारते हैं। वक़्त फ़िसलता हुआ महसूस होता है। 
कुदरत का नज़ारा
 महल के सामने रेवा कुंड का पानी महल की जल-व्यवस्था का प्रमाण देता हुआ आज भी अपनी सत्ता का अहसास दिलाता है। बाज बहादुर के महल से हम रूपमती के महल की ओर देख कर कल्पना करने लगते हैं कि कैसे रूपमती और बाज बहादुर अपने-अपने महल की छतरियों में खड़े हुए एक-दूसरे को निहारते होंगे! कैसे रूपमती के महल से संगीत की स्वर-लहरियाँ बाज बहादुर के महल तक पहुँचती होंगी! और कैसे उन दोनों के बीच प्रणय का संसार अपनी खुशबू बिखेरता होगा। उन दोनों के प्रेम के कारण ही आज माण्डू गयासुद्दीन ख़िलजी, महमूद ख़िलजी या और किसी सुलतान, राजा, नवाब या दरवेश की वजह से याद नहीं किया जाता, बल्कि माण्डू याद किया जाता है रूपमती और बाज बहादुर के प्रेम के कारण। इससे यह तो साबित हो ही जाता है कि सभी भावों, रूपों और सत्ताओं से सबसे बड़ी सत्ता प्रेम की है। इसलिए माण्डू आज तक प्रेम का पर्याय बना हुआ है। हम इसी पर्याय को लिए वहाँ से लौट रहे हैं।
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