Sunday, July 31, 2011

कुछ दोहे- सुभाष नीरव

(1)

राह कठिन कोई नहीं, मन में लो यदि ठान।
परबत भी करते नमन, थम जाते तूफ़ान॥

(2)

जब तक सागर ना मिले, नदी नदी कहलाय।
जिस दिन सागर से मिले, नदी कहाँ रह जाय॥

(3)

हमने तो बस प्रेम से, दी उसको आवाज़।
जग ने देखा चौंक कर, लोग हुए नाराज॥

(4)

प्रेम नहीं सौदा यहां, ना कोई अनुबंध।
प्रेम एक अनुभूति है, जैसे फूल सुगंध॥

(5)

छल, कपट और झूठ से, जो शिखरों पर जाय
जब गिरे वो धरती पे, उठ कभी नहीं पाय॥

(6)

आया कैसा ये समय, जग में देखो यार।
सच्चे को लाहनत मिले, झूठे को जयकार॥

(7)

जिनकी खातिर हम लड़े, जग से सौ-सौ बार।
वो ही करते पीठ पर, छिप कर गहरे वार॥
***


नाम : सुभाष नीरव
जन्म : 27-12-1953, मुरादनगर(उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : स्नातक।
प्रकाशित कृतियाँ : तीन कहानी संग्रह, दो कविता संग्रह, एक बाल कहानी संग्रह। पंजाबी से लगभग डेढ़ दर्जन से भी अधिक पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद।
ब्लॉग्स : साहित्य और अनुवाद से संबंधित अंतर्जाल पर ब्लॉग्स- सेतु साहित्य, कथा पंजाब, साहित्य सृजन, सृजन यात्रा, गवाक्ष और वाटिका।
सम्प्रति : भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय में अनुभाग अधिकारी।
सम्पर्क : 372, टाइप-4, लक्ष्मीबाई नगर, नई दिल्ली-110023

ई मेल : subhashneerav@gmail.com

Wednesday, July 27, 2011

चित्रा सिंह की कविताएँ

१.

मैं एक बून्द
बारिश की
तुम्हारी हथेली पर गिरी
मोती बन गई।


२.

दराज में बन्द हैं पिता
दस्तख़त के साथ
तमाम दस्तावेजों में
जिनकी उपस्थिति
दर्ज़ करा दी जायेगी
बेहद जरुरी होने पर


३.
मेरे शहर की धूप में
बिखरे हुये हैं
कुछ मोती से दिन
छत की मुंडेर पर
बैठी है एक उदास शाम
चाँदनी सी बिछी हैं रातें
आंगन में
और
बूढे दरख्त पर
अब भी लटका हुआ है
मेरा आधा-अधूरा प्यार।


४.

बंद लिफाफे
की तरह
चले आते है लोग
वक्त-वेवक्त
मौसम-बेमौसम
पूछते
मेरे घर का पता।


५.

उम्मीद के दरवाजे
बंद हो गये हैं
ताले पड गये हैं
दूरियों के
इन्तजार की एक खिडकी
खुली है अब तक
जहाँ से आती है
धूप
हवा
बारिश
और तुम्हारी याद।


६.

पक्की मिट्टी वाली औरतें
सिन्दूर,पाजेब का पर्याय बन
लांघती हैं दहलीज
गढ़ती हैं नये आकार में
रोज़ खुद को
चक्की पर पिसती
बारीक और बारीक
चुल्हे पर सिकती दोनों पहर
भरती बर्तन भर
पानी सी झरती
ढुल जाती
आखरी बून्द तक
कई कई बार
धुली चादर सी
बिछ जाया करती
बिस्तर पर।
***
संक्षिप्त परिचयः चित्रा सिंह
चित्रा सिंह समकालीन साहित्य में अपना एक विशिष्ट स्थान रखती हैं. आपकी रचनाप्रक्रिया के मर्म को आपकी कविताओं में व्यक्त वस्तु चेतना, रूप संवेदन एवं शिल्पविधान के चित्रण में स्पष्टतः समझा जा सकता है.
हंस, वागर्थ, साक्षात्कार, समकालीन कविता, वसुधा, वस्तुतः दैनिक भास्कर, नवभारत, नईदुनिया, आँचलिक जागरण, लोकमत आदि में कविताओं और लेखों का प्रकाशन।
विगत दशक से आकाशवाणी भोपाल से निरन्तर कविताओं का प्रसारण के साथ-साथ दो कहानियाँ- नीलगिरी और छूटती परछाई, भी प्रसारित।
दूरदर्शन भोपाल में काव्य पाठ और युवा काव्य संध्या में भागीदारी, दूरदर्शन के काव्याँजली कार्यक्रम में निरन्तर कविताएँ प्रसारित।
सम्प्रतिः क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान भोपाल में रसायन शास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक
पताः
एम २७, निराला नगर
दुष्यंत कुमार मार्ग
भोपाल।

Sunday, July 17, 2011

एक ग़ज़ल- दिगंबर नासवा


संक्षिप्त परिचय :
नाम : दिगंबर नासवा
जन्म : २० दिसंबर १९६०
जन्म स्थान : कानपुर उत्तर प्रदेश
विदेश आगमन की तिधि और देश : जून १९९९ पहले कैनेडा फिर दुबई
शिक्षा : चार्टेड अकाउंटेंट
मातृभाषा : हिंदी
प्रकाशित कृतियाँ : अंतर्जाल और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशन
सम्मान : सर्वश्रेष्ट गज़ल लेखन पुरूस्कार २०१० परिकल्पना ब्लोगोत्सव
सम्प्रति : पिछले १० वर्षों से दुबई संयुक्त अरब अमीरात में
संपर्क : पी ओ बॉक्स : १७७७४, दुबई, यु ए ई फोन: +९७१ ५० ६३६४८६५

दिगंबर नासवा जी के शब्दों में-
बचपन आगरा और फरीदाबाद में बीता, शिक्षा भी फरीदाबाद में रह कर की, पढ़ने और लिखने का शौंक बचपन से ही रहा जो संभवतः माँ से विरासत में मिला. पिछले १२ वर्षों से पत्नी और २ बेटियों के साथ विदेश में हूँ और वर्तमान में एक अमेरिकन अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में सी एफ ओ के पद पर कार्यरत हूँ. पिछले ४ वर्षों से अंतर्जाल में सक्रीय हूँ और अपने ब्लॉग http://swapnmere.blogspot.com के अलावा विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लिखता रहता हूँ. जीवन के अनुभव को कविता या गज़ल के माध्यम से कहने भर का प्रयास करता हूँ अगर सफल रहता हूँ तो रचना नहीं तो कोरी बकवास समझ कर भूल जाता हूँ.

हवा पानी नही मिलता वो पत्ते सूख जाते हैं
लचीले हो नही सकते शजर वो टूट जाते हैं

मुझे आता नही यारों ज़माने का चलन कुछ भी
वो मेरी बात पे गुस्से में अक्सर रूठ जाते हैं

गुज़रती उम्र का होने लगा है कुछ असर मुझपे
जो अच्छे शेर होते हैं वो अक्सर छूट जाते हैं

अतिथि देव भव अच्छा बहुत सिद्धांत है लेकिन
अतिथि बन के आए जो मुसाफिर लूट जाते हैं

न खोलो तुम पुरानी याद के ताबूत को फिर से
कई लम्हे निकल के पेड़ पे फिर झूल जाते हैं

हमारे दिल के दरवाजे पे तुम दस्तक नही देना
पुराने घाव हल्की चोट से ही फूट जाते हैं
***
दिगंबर नासवा

Saturday, July 9, 2011

अंजुमन-ए-ग़ज़ल - देवी नागरानी

ग़ज़लः १

घर की चौखट पार करने की घड़ी थी आ गयी
फैसले के बीच में बापू की पगड़ी आ गयी

प्यार उनका स्वार्थ मेरा दोनों ही थे सामने
बीच में दोनों के उनकी ख़ैरख़्वाही आ गयी

प्यार और कर्त्तव्य में बटवारा जब होने लगा
सामने तब अम्मा के चेहरे की झुर्री आ गयी

ओट में जिसके थी मैं बारिश से बचने के लिए
बनके मेरी मौत वो दीवार गीली आ गयी

बेज़मीरी के जो नक़्श- ए- पा थे मेरे सामने
कुछ विवशता उनपे चलने की मेरी भी आ गयी

झुक गया क्यों अक्ल और ईमान का पलड़ा वहाँ
सामने मुफ़लिस के जब भी भूख तगड़ी आ गयी

ज़िन्दगी की आपाधापी में झुलसते दिन रहे
ख़्वाबों को महकाने लेकिन रातरानी आ गयी
**

ग़ज़लः २

मिलके बहतीं है यहाँ गंगो- जमन
हामिए -अम्नो-अमाँ मेरा वतन

वो चमन देता नहीं अपनी महक
एक भी गद्दार जिसमें हो सुमन

अब तो बंदूकें खिलौना बन गईं
हो गया वीरान बचपन का चमन

दहशतें रक्साँ है रोज़ो-शब यहाँ
कब सुकूँ पाएंगे मेरे हमवतन

जान देते जो तिरंगे के लिये
उन शहीदों का तिरंगा है कफ़न

देश की ख़ातिर जो हो जाएं शहीद
ऐसे जाँ-बाज़ों को 'देवी' का नमन
**

ग़ज़लः  ३

इस देश से ग़रीबी हट कर न हट सकेगी
मज़बूत उसकी जड़ है, हिल कर न वो हिलेगी

धनवान और भी कुछ धनवान हो रहा है
मुफ़लिस की ज़िंदगानी, ग़ुरबत में ही कटेगी

चारों तरफ़ से शोले नफ़रत के उठ रहे हैं
इस आग में यक़ीनन, इन्सानियत जलेगी

नारों का देश है ये, इक शोर- सा मचा है
फ़रियाद जो भी होगी, वो अनसुनी रहेगी

सावन का लेना देना 'देवी' नहीं हैं इससे
सहरा की प्यास हैं ये, बुझकर न बुझ सकेगी
**
-देवी नागरानी


संक्षिप्त परिचय- देवी नागरानी
जन्म- 11 मई 1949 को कराची में
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ: ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)
प्रकाशन- प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।

"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।

Saturday, July 2, 2011

गीता पंडित की कविताएँ

1. स्त्री

Painting by Picasso
सिक्त
नयन हैं
फिर भी मन में
मृदुता
रखकर मुस्काती,

अपने
नयनों की
बना अल्पना
नभ को
रंगकर सुख पाती|
**

2. पीर ना अपनी दे पाऊँगी

संचय

मेरे तुम्हें समर्पित
पीर ना
अपनी दे पाऊँगी ।

मेरे अश्रु
हैं मेरी थाती
जीवन भर
की रही कमाई,
नयनों की
है तृषा बुझानी
अंतर्मन
Painting by Picasso
पलकों पर लायी,

अंतर का
ये नीर मेरे मीते!
तुमको
ना दे पाऊँगी|

विष या अमृत
अंतर क्या अब
श्वासें
जैसे मोल चुकायें.
पंछी बनकर

प्रीत उड़ गयी
सुर धड़कन
में कौन सजाए,

नीरव क्षण
का गीत मेरे मीते !
तुमको
ना दे पाऊँगी

संचय
मेरे तुम्हें समर्पित
पीर ना
अपनी दे पाऊँगी।
**

3. कौन जो गाथा प्रणय की

कौन जो
गाथा प्रणय की
कहके
सुनके जायेगा,

कौन जो
मन की व्यथाएँ
आके
अब सहलायेगा,

प्रेम वंदन,
प्रेम चंदन,
प्रेम जीवन गान है,
बिन तुम्हारे

सुर सजीला
एक ना हो पायेगा |

है विकट
ये साधना पर
प्रेम
सहज अनुभूति है ,
Painting by Picasso
प्रेम ही से
हो रही इस
जगती
की अभिव्यक्ति है,

प्रेम ही
जब मूक बोलो
कौन
किसको गायेगा,

एक है
जो हममें तुममें
एक ना हो पायेगा |

है इती
और अथ में जो भी
प्रेम का
बस खेल है,

कितनी
अनगिन हैं भुजाएं
प्रेम का
बस मेल है,

प्रेम बिन
कैसा जगत ये
काठ
बन रह जायेगा,

होगा
अभिशापित ये जीवन
जीव
ना गा पायेगा|
***

परिचय: गीता पंडित
जन्म स्थानः हापुड़ उ.प्र.
शिक्षा: एम. ए. (अंग्रेज़ी साहित्य), एम. बी. ए. (मार्केटिंग)
ई.मेल: gieetika1@gmail.com
ब्लोग: http//bhaavkalash.blogspot.com

अंतस में क्रंदन नहीं होता तो लेखनी में स्पंदन भी नहीं होता।
परिचय क्या?
बूंद सीपी में गिरी, तो मोती-और रेत में गिरी तो?
श्रद्धेय जनक, गीतकार श्री "मदन शलभ" का वरद-हस्त इस विधा में रत रहने की प्रेरणा रहा है। किसी गीत के पहले दो बोल पिता ने घुट्टी में दे दिये होंगे...
उसी गीत को पूर्ण करने के प्रयास मे।
“मन तुम हरी दूब रहना” मेरे प्रथम काव्य संग्रह से कुछ कवितायेँ
**
गीता पंडित
वैशाली (एन सी आर )
इंडिया