Sunday, June 26, 2011

नरेश मेहन की कविताएँ

1.  पत्ता
दूर से उडता हुआ
एक पत्ता
आ कर
मेरे कन्धे पर
बैठ गया

मैंने पूछा
कहाँ से आए हो
इस कदर
अनायास गुमसुम से।

वह सकपकाया
मायूस हुआ
फिर बोला
शहर से आया हूँ
जबरी डाल से छिटक कर
न चाहते हुए भी
उसी नन्हीं डाल से
बिछुड कर।

शहर मे
अब मेरा
दिल नहीं लगता
दम घुटता है मेरा
धुएँ में उदास
पेड कीशाख पर।

मुझे दो कंधा
मेरे भाई
मुझे अपने
साथ ले चलो
शहर से दूर
किसी नदी किनारे
किसी खेत पर
छोटे से गाँव में।

2. मेरी छत
मेरी छत
मुझ पर
गिरने को
तैयार है

मैं फिर भी
उसी छत के नीचे
सोता हूँ।

मुझे मालूम है,
मेरा देश
पडौसी देश
रखता है
परमाणु बम।

चाहता है
दफनाना मुझे
उसी छत के नीचे
खत्म करना
चाहता है
मेरा वजूद
धरती से

मैं फिर भी
सोता हूँ
उसी छत के नीचे
इस विश्वास के साथ
यह देश
गाँधी का है।
3. सिर
मैं
घर से निकलते हुए
अपना सर
धड से
अलग कर हथेलियों पर
रख लेता हूँ।

पता नहीं
कब मैं
बस, ट्रक के
या फिर
किसी अमीरजादे की
कार केनीचे कुचला जाऊँ।

पता नहीं
कब मैं किसी
आतंकवादी विस्फोट का
शिकार हो जाऊँ।

इसलिए
जब मैं
घर आता हूँ
तब अपना सर
घड पर लगाकर
शाम को गिनता हूँ
पिरवार के सर।

कहीं किसी का सर
हथेलियों पर तो
नहीं रह गया।
4. बचपन
चैनलों की भीड
मोबाईल की चीख में
खो गया
म्ेरा गुल्ली-डण्डा
और
पहल-दूज
साथ में ले गया
सतालिया
और
कुरां डंडी।

बचा है अब शेष
आँखों पर चश्मा
पीठ पर भारी बस्त। 

माँ-बाप की
अति महत्त्वाकांक्षा का सपना।

अब देखता है
बचपन
चश्में के पीछे से
कैसा होगा
भविष्य का बचपन-
कैसा होगा- हमारा पचपन?
चित्र सौजन्य गूगल

5. अकेलापन
हर रोज
हर सुबह
हर बुढी काया को
दस से पाँच बजे तक
अकेलेपन की
भोगनी पडती है- असीम यंत्रणा
करें भी तो
किस से मंत्रणा।

जब घर के जवान स्त्री-पुरुष
चले जाते हैं
दफ्तर में
खेत में
खलिहान में
मिल में
रोटी की जुगाड में
और दो अंक सीखने
बच्चे स्कूल में

घर में पसरा रहता है
काट खाने को आतुर
केवल सन्नटा।
रहता है
इन्तजार
अपने नाती-पोतों का
साँझ ढले तक
लेकिन आते हैं जब
घर के सारे लोग
और टांग देते हैं सम्बन्धों
जैसे टांगते हैं बच्चे
अपने बस्ते
खूंटियों पर।

सब बतियाते हैं
टीवियों से
बीवियों से
और बूढे जिस्म
साँसों में उलझी
अपनी बेबस जिन्दगी से।
6. आतंकवाद
आतंकियों
क्यों ओढते हो बारूद
कहाँ से लाते हो
धुएँ से घुटे
बम की घुटन।

तुम क्यों
लेकर चलते हो
आतंक का
भूकम्प?

क्या
हो सकेगा
वो तुम्हारा
जो
आज मेरा घर
जला रहा है
कल
वह तुम्हारा
घर भी
ज्लाएगा।

बम का स्वभाव
सिर्फ और सिर्फ
जलाना है
घरों को
बसाना नहीं।
चित्र सौजन्य गूगल










नाम : नरेश मेहन
जन्म : 7 जुलाई, 1959 बीकानेर
शिक्षा : एम. ए. (हिंदी) एम. कॉम. (व्यवसायिक प्रशासन), श्रम कानून,
श्रम कल्याण एवं कर्मी-प्रबंधन में डिप्लोमा, पत्रकारिता एवं
जनसंचार में स्नातक, पुस्तकालय विज्ञान एवं प्रबंध में डिप्लोमा ।
प्रकाशन: पेड़ का दुख, घर (काव्य-संग्रह), खेजड़ी बुआ (बाल कहानियां)
कई मान-सम्मान व पुरस्कार प्राप्त ।
संप्तति : भारतीय खाद्य निगम, हनुमानगढ़ में सेवारत
पता : मेहन हाऊस, वार्ड नं. 14 हनुमानगढ़ (राजस्थान) भारत
फोन- 01552-268779 मोबाईल – 094143-29505

Wednesday, June 22, 2011

लघुकथा: यन्त्रवत्- कृष्ण बजगाई

यन्त्रवत्

आधुनिक शहर के एक कोने में लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। भीड़ के लोग आश्चर्यचकित होते हुए बड़े मजे से वहाँ के दृश्य का मजा ले रहे थे। वहाँ भीड़ जम गई थी। एक यन्त्रमानव के कारण। बिल्कुल मानव की तरह का वह मानव के पूरे हाव-भाव की नकल करता था। समय-समय पर विचित्र आवाज़ निकालकर आदमियों को बुलाता था। भीड़ के आदमी उसको विज्ञान का उच्चतम अविष्कार समझकर आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे।
चित्र- साभार गूगल

भीड़ के सभी आदमी उस यन्त्रमानव को बहुत करीब से देख रहे थे। कोई उससे बड़े आराम से हाथ मिला रहा था। कोई अचम्भित होकर उसको छू रहा था। कोई उसके साथ बैठकर फोटो ले रहा था। भीड़ के कुछ बुज़ुर्ग भगवान का आधुनिक अवतार मानकर उस यन्त्रमानव के चरण स्पर्श कर रहे थे।

भीड़ में काफी आदमी हो चुके थे। अचानक यन्त्रमानव ने मानव आवाज निकाली - "खाने के लिए दो-चार पैसा दे दीजिए हुज़ूर।" यन्त्रमानव ने भीड़ के सामने हाथ फैलाया। इस दृश्य को देखकर भीड़ के आदमी आश्चर्यचकित हो गए।

"कैसे यन्त्रमानव आदमी की तरह बोल सकता है? पैसा यन्त्रमानव के क्या काम आएगा …… ।" भीड़ के आदमी प्रश्न-प्रतिप्रश्न करने लगे। तब यन्त्रमानव मीठी आवाज में बोला-"आधुनिक ज़माने के इस आधुनिक शहर में सिर्फ मैंने भीख माँगने के तरीके में परिवर्तन किया है। वास्तव में मैं आप लोगों की तरह का वास्तविक आदमी हूँ।" उसकी इस तरह की बात सुनकर भीड़ के सभी आदमी यन्त्रवत् हो गए ।

संक्षिप्त परिचय:
१) नाम: कृष्ण बजगाई
२) जन्म मिति, स्थान: २३ जून, धरान, नेपाल
३) वर्तमान निवास: ब्रसेल्स, बेल्जियम
४) प्रकाशित कृतियाँ:
क)‘यन्त्रवत्’ लघुकथासंग्रह (२००७)
ख)‘हिउँको’ तन्ना हाइकुसंग्रह(२००९)
ग)‘रोडम्याप’ लघुकथासंग्रह (२०१०)
घ)‘स्रष्टा र डिजिटल वार्ता’ साहित्यिक अन्तर्वार्ता संग्रह (२०१०)
५) प्रकाशोन्मुख कृति:
ग्रेटवालदेखि इफेल टावरसम्म (नियात्रा संग्रह)
६) सम्पादन:
क) समकालीन साहित्य डोट कॉम www.samakalinsahitya.com
ख) कविहरुका आँखामा धरान कविता संग्रह (सन् १९९८)
ग) धरान इन द आईजज अफ पोयटस् (अनुवाद/सम्पादक स्वयंप्रकाश शर्मा, सन् १९९८)
घ) धरान दर्पण (वि.सं. २०५६)
ङ) प्रयास ( २०५५ )
च) भताभुङ्गे हास्यब्यङ्ग्य पत्रिका (२०५४)
छ) स्मारिका, १२ आंै राष्ट्रव्यापी खुल्ला युवा वक्तृत्वकला प्रतियोगिता (२०५३)
ज) कर्मचारी स्मारिका, सुनसरी (२०५१)
झ) ऐतिहासिक स्थलहरुको परिचय (पूर्वाञ्चल परिचय) (२०५५),
७) पुरस्कार सम्मान :
क)महाकवि देवकोटा शताब्दी सम्मान(२०१०)
ख)अनेसास लिटरेरी वेब जर्नालिज्म एवार्ड(२००९)
८) संलग्नता:
क) वरिष्ठ उपाध्यक्षः अन्तर्राष्ट्रिय नेपाली साहित्य समाज, केन्द्रीय कार्यसमिति, वासिङ्टन डी सी, अमेरिका
ख) अध्यक्षःअन्तर्राष्ट्रिय नेपाली साहित्य समाज, बेल्जियम च्याप्टर
ग) अन्तर्राष्ट्रिय संयोजक, लघुकथा समाज नेपाल

Sunday, June 19, 2011

समीर लाल 'समीर' की लघुकथा- फादर्स डे

पितृ दिवस पर विशेष- फादर्स-डे


वो सुबह से ही परेशान था कि भारत में अकेले रह रहे अपने पिता को इस बार फादर्स-डे पर क्या गिफ्ट दे?
दोस्तों से बातचीत की और फिर पत्नी से गहन विमर्श किया.
यूरेका! ब्रिलियेन्ट गिफ्ट आईडिया! चेहरे पर मुस्कान फैल गई.
तुरंत ऑन लाईन सर्च किया और शहर के सबसे मंहगे एवं सर्वसुविधायुक्त ‘ओल्ड-एज-होम’ की ऑनलाइन बुकिंग करते हुए पिता जी को शिफ़्ट करा दिया.
‘ओल्ड-एज-होम’ के कमरे में ऑन लाईन आर्डर किया गया एक फूलों का गुलदस्ता एवं कार्ड पिता जी का पहले से इन्तजार कर रहे थे और कार्ड पर लिखा था-
’हैप्पी फादर्स डे"
बुढ़े बाप का वज़न

दिन-ब-दिन

जितना गिरता जाता है....

बेटे को

वो उतना भारी

बोझ नज़र आता है.


पेशे से चार्टर्ड अकाऊंटेंट और अप्रवासी भारतीय लेखक समीर लाल समीर जी हिंदी ब्लॉगिंग के बेहद लोकप्रिय ब्लॉगर होने के साथ ही शब्दों के एक कुशल चितेरे हैं । किसी भी बात को सहजता से अपनी एक विशिष्ट शैली में चुटीले शब्दों के सहारे वे एक ऐसा कथानक बुनते हैं कि पाठक उनके साथ साथ उनकी अंतिम पंक्ति तक बेरोकटोक और एक ही खटके में पहुंचना चाहता है । हाल ही में उनकी एक उपन्यासिका ” देख लूं तो चलूं ” शिवना प्रकाशन , सीहोर मध्यप्रदेश से प्रकाशित होकर आई है । आज पितृ दिवस पर उनकी एक समसामयिक एवम सारगर्भित एक लघुकथा आपके समक्ष प्रस्तुत है..


***
- समीर लाल ’समीर’

Sunday, June 12, 2011

कुछ कविताएं : नवनीत पाण्डे

.
जीवन भर
जीवन की किताब के
अपरिचित पाठ्यक्रम के
अपठित अध्याय
बार-बार पढने के बावजूद
बीत जाते हैं हम
उन अध्यायों के
अनुत्तरित प्रश्नों के
उत्तर ढूंढते-ढूंढते

.
सूरज के आने भर से
नहीं होता
सुबह का होना
ही नींद से उठ बैठना
सुबह होना है
उठता हूं नींद से
देखने के लिए एक सुबह
एक सुबह देखना चाहती है
मुझे नींद से उठते हुए
.
हर नदी की किस्मत में
नहीं समंदर
परंतु हर नदी में भरे हैं
अथाह समंदर
सूख जाएं भले ही
रास्ते धार के
पर बहती है
एक अविरल धार
.
झर झर
झर गयी
कुछ भी रहा शेष
सिवा एक स्मृति के
झरने के
.
उसके आने में कुछ था
ही उसके जाने में
लेकिन
इस आने-जाने के बीच
जो था
वह कभी
किसी
शब्द में नहीं समा पाया
.
कितने अच्छे दिन थे
जब अच्छे हम थे
अच्छा अच्छा लगता था
सब कुछ
लोग भी थे
अच्छे अच्छे
कितने बदल गए दिन अब
बदल गए हम
बदल गया सब कुछ
बदल गए सब



नवनीत पाण्डे
जन्म: 26 दिसंबर 1962
हिंदी और राजस्थानी में समान गति से लेखन ।
'सच के आस-पास' हिंदी कविता-संग्रह (राजस्थान साहित्य अकादमी से सुमनेश जोशी पुरस्कार से सम्मानित)
'माटी जूण' (राजस्थानी उपन्यास)
बाल साहित्य की कई पुस्तकें प्रकाशित ।
हिन्दी कविता-संग्रह ’छूटे हुए संदर्भ’ और राजस्थानी कहानी-संग्रह प्रकाशनाधीन ।
सम्पर्क : "प्रतीक्षा" २ डी २, पटेल नगर, बीकानेर(राज) मोबाइल : 0919413265800
email : poet_india@yahoo.co.in और poet.india@gmail.com
blogs : www.poetofindia.blogspot.com और www.hindi-k-sms.blogspot.com

Tuesday, June 7, 2011

यू.के से तोषी अमृता की कविताएँ

तोषी अमृता : संक्षिप्त परिचय
तोषी अमृता का जन्म भारत के पंजाब प्रांत में हुआ. पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ से संस्कृत में प्रथम श्रेणी में एम. ए. और यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन से छात्रवृत्ति प्राप्त करके पुरातन इतिहास एवं संस्कृति पर पी.एच डी. करने में संलग्न हुई.
उच्च शिक्षा के पश्चात लगभग एक दशक दरास्सला जानिया, ईस्ट अफ्रीका में शिक्षण कार्य किया.
तोषी जी के पिता पंडित आशुराम आर्य वेदों के प्रकांड पंडित थे, जिन्होंने वेदों का उर्दू भाषा में अनुवाद किया तथा तत्कालीन भारत के राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किये गए.
अपने घर में अध्ययन चिंतन का माहौल होने के कारण तोषी अमृता की बचपन से ही साहित्य-सृजन में रूचि रही. इनकी कवितायें, कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, सरिता, सारिका, कादम्बिनी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि में छपती रही हैं. भारतीय आकाशवाणी से उनकी कवितायेँ प्रसारित होती रही हैं. पंजाब शिक्षा-विभाग के तरुण परिषद् की ओर से आयोजित कविता, निबंध तथा कहानी-लेखन की प्रतियोगिता में पुरस्कार जीते.
अब पिछले तीन दशकों से आप स्थाई रूप से लन्दन में रहकर ब्रिटेन की प्रशासकीय सेवा में रत हैं. बी.बी.सी. लन्दन की हिन्दी सर्विस के साथ भी आपका संपर्क रहा.
लन्दन में रहते हुए भी तोषी अमृता का अपनी मातृ-भाषा हिन्दी से प्रेम बना हुआ है. नए परिवेश, स्थान, व्यवधान तथा परिस्थितियों के फलस्वरूप पठन-पाठन तथा लेखन में थोड़ा विराम आ गया था परन्तु तोषी अमृता ने फिर से कलम उठा कर लिखना आरंभ किया है. आज प्रस्तुत है उनकी दो कविताएँ...

'पर एकाकीपन वैसा ही है'


झूम उठी चम्पक की शाख़ें
लहराता आया मलयानिल
सरक गया है आज भोर में
किसी यौवना का आँचल.
पर बगिया का फीकापन वैसा ही है.
चाँद सलोना उभरा नभ पर
पुलक-पुलक मुस्काये रजनी
प्रात रश्मि के छेड़ छाड़ से
लेती है अंगड़ाई अवनी.
पर अंबर का रीतापन वैसा ही है.
वर्षा की रिमझिम बूंदों ने
महासिंधु को तोय पिलाया
बल खाती सरिताओं ने आ
जाने कितना अर्ध्य चढ़ाया .
पर सागर का खारापन वीसा ही है.
मृदु मधुमास मधुप मंडराए
कोकिल मदमाती - सी डोले
थका-थका सा कहीं पपीहा
पिऊ-पीऊ रह रह कर बोले .
पर विरहणि का एकाकीपन वैसा ही है.
कुछ ऐसा ही जीवन सबका
मानस सा लहराया करता
अपना मन बहलाने को यह
जल तरंग सा गाया करता .
पर पनघट का सूनापन वैसा ही है.
**

'अनबुझ प्यास'

संयम खो बैठा सागर सहसा
बलखाती सरिता को देख.
बाहों में भरने को आतुर, बोला:
सरिते! क्यों ठिठक गई, यूं मत शरमाओ,
बस नर्तन करती, इठलाती,
बढ़ती हुई आओ पास, पास और ......पास
विस्तृत है मेरा बाहु पाश.
मैं अन्तस्तल तक जल ही जल हूँ.
पल भर में बुझा दूंगा तेरी प्यास!
पर ऐसा संभव हुआ नहीं, न होगा ही.
सरिता सदियों से प्यासी थी,
और आज भी प्यासी है.
खारे पानी से किसकी प्यास बुझी है अब तक?
**

Sunday, June 5, 2011

डॉ. वेद व्यथित की कुछ त्रिपदी रचनाएँ

अप्रैल १९५६ में जन्मे डॉ. वेद व्यथित ने हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर पूरा करने के बाद नागार्जुन के साहित्य में राजनीतिक चेतना पर अपना शोध किया| कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना के क्षेत्र में निरंतर सक्रियता| मधुरिमा [काव्य नाटक], आखिर वह क्या करे [उपन्यास], बीत गये वे पल [संस्मरण], आधुनिक हिंदी साहित्य में नागार्जुन [आलोचना], भारत में जातीय साम्प्रदायिकता [उपन्यास] और अंतर्मन [ काव्य - संकलन] कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं| वे सम्प्रति भारतीय साहित्यकार संघ के अध्यक्ष, सामाजिक न्याय मंच के संयोजक और अंतर्राष्ट्रीय पुनर्जन्म एवं मृत्यु उपरांत जीवन शोध परियोजना में शोध सहायक हैं| इसके अलावा केंद्र तथा हरियाणा राज्य के अनेक संगठनों में विभिन्न पदों पर विराजमान हैं| उनकी रचनाओं का जापानी तथा पंजाबी भाषाओँ में अनुवाद हो चुका है|
त्रिपदी हिंदी काव्य की नई विधा है. यह हाइकू नही है वरन तीन पंक्तियों की ऐसी रचना है जिसमे रिदम भी है जहां थोड़े से शब्दों में काव्य का चमत्कार व रस दोनों की अनुभूति होती है. ये प्रचलित क्षणिका नही हैं पर निश्चित ही क्षणिका से भी छोटी विधा है जो क्षणिका नही तो और क्या है.
वेद जी की ऐसी त्रिपदी देश-विदेश में प्रकाशित हो चुकी है, हो सकता है आप को भी पसंद आए.
आपके समक्ष प्रस्तुत है वेदजी की कुछ त्रिपदी रचनाएँ. आशा है आपको रुचेंगी.

दिल खोल के मत रखना
वो राज चुरा लेंगे
कुछ पास नही बचना
       **

जब हाथ ठिठुरते हैं
तब मन के अलावों में
दिल भी तो जलते हैं
       **

ये आग ही धीमी है
दिल और जलाओ तो
ये आग ही सीली है
       **

चूल्हे की सिकी रोटी
अब मिलती कहाँ है माँ
तेरे हाथों की रोटी
       **

सरसों अब फूली है
देखो तो जरा इस को
किन बाहों में झूली है
       **

रिश्ते न जम जाएँ
दिल को कुछ जनले दो
वे गर्माहट पायें
       **

नदियों के किनारे हैं
हम मिल तो नही सकते
पर साथी प्यारे हैं
       **

ये प्यार की क़ीमत है
सब कुछ सह कर के भी
मुंह बंद किये रहना
       **

फूलों ने बताया था
नाज़ुक हैं बहुत ही वे
कुछ झूठ बताया था
**

दो राहें जाती हैं
मैं किस पर पैर रखूं
वे दोनों बुलातीं हैं
       **

ज्वाला भड़काती है
आँखों की चिंगारी
दिल खूब जलाती है
       **

ये आग न खो जाये
दिल में ही इसे रखना
ये राख न हो जये
       **

यह आग है खेल नही
दिल इस से जलता है
इसे सहना खेल नही
      **

आँखों ही आँखों में
जो बात कही उन से
वो बात है चर्चों में
       **

एक दिया जलता है
सो जाते हैं सब पंछी
दिल उस का जलता है
       **

आँखों में समाई है
कोई और नही देखे
तस्वीर पराई है
       **

यादों का सहारा है
यह उम्र की नदिया का
एक अहं किनारा है
       **

यह धूप है जड़ों की
इसे ज्यादा नही रुकना
लाली है गालों की
       **

आँखों में समाई है
क्यों फिर भी नही आती
ये नींद पराई है
       **

एक सुंदर गहना है
इसे मौत कहा जाता
ये सब ने पहना है
       **

यह जन्म का नाता है
इसे मौत कहा जाता
यह लिख कर आता है
**
डॉ. वेद व्यथित