Tuesday, April 26, 2011

ग़ज़ल - प्राण शर्मा


 संक्षिप्त परिचय- प्राण शर्मा

वजीराबाद (पाकिस्तान) में १३ जून १९३७ को जन्मे प्राण शर्मा ब्रिटेन मे बसे भारतीय मूल के हिंदी लेखक है। कॉवेन्टरी के प्राण शर्मा ब्रिटेन में हिन्दी ग़ज़ल के उस्ताद शायर हैं। प्राणजी बहुत शिद्दत के साथ ब्रिटेन के ग़ज़ल लिखने वालों की ग़ज़लों को पढ़कर उन्हें दुरुस्त करने में सहायता करते हैं। हिन्दी ग़ज़ल पर उनका एक लंबा लेख चार-पांच किश्तों में ‘पुरवाई’ में प्रकाशित हो चुका है। कुछ लोगों का कहना है कि ब्रिटेन में पहली हिन्दी कहानी शायद प्राण शर्मा ने ही लिखी थी। भारत के साहित्य से पत्रिकाओं के जरिए रिश्ता बनाए रखने वाले प्राण शर्मा अपने मित्र एवं सहयोगी श्री रामकिशन के साथ कॉवेन्टरी में कवि सम्मेलन एवं मुशायरा भी आयोजित करते हैं। उन्हें कविता, कहानी और उपन्यास की गहरी समझ है।
ग़ज़ल

हाथों से उनके कभी पानी पिया जाता नहीं
दुश्मनों से दुश्मनों के घर मिला जाता नहीं

हर किसी दूकान से क्या-क्या लिया जाता नहीं
घर सजाने के लिए क्या-क्या किया जाता नहीं

माना, पीने वाले पीते हैं उसे हँसते हुए
ज़हर का प्याला मगर सबसे पिया जाता नहीं

जब भी देखो गलियों और बाज़ारों में फिरते हो तुम
घर में टिक के तुमसे क्या पल भर रहा जाता नहीं

सोचना पड़ता है हर पहलू को सब के दोस्तो
फैसला हर एक जल्दी में किया जाता नहीं

दिल को लेने-देने की क्या बात करते हो जनाब
प्यार में अनुबंध कोई भी किया जाता नहीं

जीने वाले जी रहे हैं ज़िन्दगी को बरसों से
आप हैं कि आप से इक पल जिया जाता नहीं

वक़्त क्यों बर्बाद करते हो, चलो छोड़ो इसे
खस्ता हालत में कोई कपड़ा सिया जाता नहीं

आप कहिये तो हज़ारों चेहरे पढ़ दूँ साहिबों
आदमी का दिल मगर मुझसे पढ़ा जाता नहीं
***
-प्राण शर्मा

Saturday, April 23, 2011

भरत तिवारी की कविताएँ


एक

कोई शब्दों का जाल नहीं है
तुम्हारे लिए तो बुन भी नहीं सकता
तुम ने वो ब्रेल सीखी है
जो मेरे मन को पढ़ ले

दो

मैं तुमसे झूठ नहीं बोल सका
सच कह नहीं पाया
तुम फिर भी सब पढ़ सकी
समझ भी मुझे
सिर्फ तुम ही पायी

तीन

आखिर तुम्हारे बालों में है क्या
क्यों बंधा नहीं देख पाता
अलग हूँ शायद इसलिए
उन्हें खुला देख
अपने को पा लेता हूँ
मत बाँधा करो मुझे

चार

कुछ नोस्टाल्जिया शायद डेजा वू होते हैं
तुम्हारी याद
तुम
उन पेड़ों के साये
महक तुम्हारी , वो भी
लिस्ट काफी लंबी है

पांच

अब कैसे कहूँ
हिचकी आती है तो पानी नहीं पीता
तुम्हे याद करने का बहाना है
जब आखरी आएगी
तब गंगाजल पिला देना

छः

शहर शायद वैसा ही है
जाओ तो नए चेहरे हैं
ऐसा नहीं है ,पुराने भी हैं
हाँ
तुम और मैं
दोनों नहीं है
या एक साथ नहीं होते
मर गया वो शहर
जहाँ हम साथ थे

सात

बारिश से लगाव
नहीं गया
जायेगा भी नहीं
तुम होते हो ना उसकी हर बूँद में
मैं अपनी अंजुली में भर लेता हूँ
तुमको
हर बारिश में
भीगा देता हूँ अपनी शर्ट को तुमसे
बादलों ! तुम्हारा शुक्रिया
***
भरत

Tuesday, April 19, 2011

जिंदगी एक:अनुभव अनेक- कुछ क्षणिकाएं- डॉ. मालिनी गौतम

डॉ.मालिनी गौतम अपने बारे में कहती हैं- परिचय में कुछ विशेष नहीं है।साहित्यकार पिता डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के यहाँ सन् 1972 में जन्म हुआ। वर्तमान में गुजरात में ऑर्टस एवं कॉमर्स कॉलेज में अंग्रेजी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हूँ। लिखने-पढ़्ने और कविताओं को गुनगुनानें का माहौल घर में बचपन से ही देखा।लेकिन कविता मुझसे लम्बे समय तक रूठी रही। काव्य लेखन की प्रक्रिया और मुझमें लम्बी आँख-मिचौली चली।
कविता मेरे लिये उस बारिश के समान है जो बरसने के बाद शीतलता देती है। पर बारिश के पहले की असह्य गर्मी,उमस,छटपटाहट और घुटन की वेदना को मैनें लम्बे अरसे तक महसूस किया है।पर आखिर एक दिन बादल खुल्कर बरसे और तब से आज तक बरसात का ये दौर अनवरत जारी है और कविता रूपी ये बूँदें मुझे हर मौसम में शीतलता पहुँचातीं हैं।
वीणा,अक्षरा,साक्क्षात्कार,भाषा,सार्थक,भाषा-सेतु,ताप्ती-लोक,हरिगंधा सहित लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन होता रहा है। एक अनुवादक भी हूँ। हिन्दी-गुजराती परस्पर अनुवाद भी नियमित प्रकाशित होता रहता है।
बस इतना ही चाहती हूँ कि मेरी कविताएं झरमर बरसात की तरह बरसें और अगर मेरे साथ-साथ औरों को भी शीतल करती हैं तो यही उनकी और मेरे कवि कर्म की सार्थकता है। जीवन के क्षण-प्रतिक्षण कभी महत्वहीन से लगते हैं तो कभी गुलाब जामुन की मिठास से सरोबार तो कभी किसी वृद्ध की आँख से मोतियाबिंद में ठहर जाते हैं एक फ्लश की तरह. इन्ही क्षणों को संजोये जिन्दगी के वटवृक्ष की अनछुई कोंपलों पर ठहरी अनुभवों के इन्द्रधनुषीय रंगों में भीगी डॉ. मालिनी गौतम की कुछ क्षणिकाएं.....

जिंदगी एक : अनुभव अनेक

(एक)

जिंदगी......
तवे पर
छन्न से गिरती
पानी की बूँद सी...
जो तेजी से कुछ देर
गोल-गोल घूमकर
फक्क से हो जाती है
अस्तित्वहीन !

(दो)

जिंदगी......
किसी बुढ़िया के
पोपले मुँह सी...
जो आज भी
सहेजे हुए है
बरसों पहले खाये
गुलाबजामुन की मिठास !

(तीन)

जिंदगी......
पेड़ के तने में
लगातार ठक-ठक
करते कठफोड़वा सी...
जो आखिर
बना ही लेता है सुराख
अपने रहने के लिये !

(चार)

जिंदगी......
किसी वृद्ध की आँखों के
मोतियाबिन्द सी...
जिसे समय पर ना
निकाला जाए
तो फैल कर
बन जाता है अँधेरा
हमेशा के लिये !

(पाँच)

जिंदगी......
चैत्र के महिने में
नीम पर से झरते
सफेद तूरे/कसैले फूलों सी..
जिन्हें मैं हौले से
चबा लेती हूँ
बरफी समझकर !

(छह)

जिंदगी......
माँ के बगल में
सोये नवजात शिशु सी...
जिसे नींद में हँसता देख
मिट जाते हैं
सारे अवसाद/विषाद !

(सात)


जिंदगी......
खेत में झुकी हुई
गेहूँ की सुनहली बालियों सी....
जिन्हें चूमकर
किसान सो जाता है
गहरी नींद/निश्चिंत !

(आठ)

जिंदगी......
भूकंप से बेघर हुए
उन बच्चों सी...
जो चुपचाप बैठे हुए
कर रहें हैं इंतजार
फूड पैकेट्स का !

(नौ)

जिंदगी......
कुएँ पर पानी भरती
पनिहारिन की रस्सी सी...
जो घिस-घिस कर
छोड़ देती है पत्थर पर
अमिट निशान !

(दस)

जिंदगी......
किसी परदानशीं औरत की आँखों सी...
जिनमें डूबने वाला
कभी पहुँच नहीं पाता
किनारों तक !
***

Thursday, April 14, 2011

डॉ. वंदना मुकेश की कविताएँ

डॉ. वंदना मुकेश- संक्षिप्त परिचय

जन्म- भोपाल 12 सितंबर1969
शिक्षा- विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से स्नातक, पुणे विद्यापीठ से अंग्रेज़ी व हिंदी में प्रथम श्रेणी से स्नातकोत्तर एवं हिंदी में पी.एचडी की उपाधि। इंग्लैंड से क्वालिफ़ाईड टीचर स्टेटस।
भाषा-ज्ञान-हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, उर्दू एवं पंजाबी
लेखन एवं प्रकाशन- छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत।1987 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में पहली कविता 'खामोश ज़िंदगी' प्रकाशन से अब तक विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओंऔर साहित्यिक पुस्तकों में विविध विषयों पर कविताएँ, संस्मरण, समीक्षाएँ, लेख, एवं शोध-पत्र प्रकाशित।
'नौंवे दशक का हिंदी निबंध साहित्य एक विवेचन'- 2002 में प्रकाशित शोध प्रबंध
प्रसारण- आकाशवाणी पुणे से काव्य-पाठ एवं वार्ताएँ प्रसारित
विशिष्ट उपलब्धियां-
छात्र जीवन से ही अकादमिक स्पर्धाओं में अनेक पुरस्कार, भारत एवं इंग्लैंड में अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में प्रपत्र वाचन, सहभाग और सम्मान।
इंटीग्रेटेड काउंसिल फ़ॉर सोश्यो-इकनॉमिक प्रोग्रेस दिल्ली द्वारा 'महिला राष्ट्रीय ज्योति पुरस्कार' 2002
1997 से भारत एवं ब्रिटेन में विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संयोजन-संचालन।
2005 में गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था, बर्मिंघम द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बहुभाषीय सम्मेलन की संयोजक सचिव ।
22वें अंतर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में प्रपत्र वाचन।
गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था की सदस्य। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से संबंद्ध।
संप्रति- इंग्लैंड में अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन

बरगद

पुराने बरगद में भी,
इक नई चाह पैदा हुई,
तब नई पौध,
जड़ सहित नई जगह रोपी गई।

शाखाओं का रूप बदला,
चाल बदली, रंग बदला,
और फिर,
नस्ल ही बदल गई।

अफ़सोस,
अब न वे बरगद की संतान हैं।
न उनकी अपनी कोई
पहचान है।


मीत

शाम के धुंधलके में
आकाश की छाती पर
लाल,नारंगी, नीली, हरी रेखाएँ
धरती की असह्य पीड़ा का प्रतिबिंब।


ज़िंदगी

दायरों में बंधे हम
अपने ही बनाए मकड़जालों में,
जूझते अकारण।
कसमसाते, छटपटाते
और भी बँधते जाते
मुक्ति की कामना लिए


समाधान

चालीस साल ब्रिटेन में रहने के बाद
वो पूछने लगी मुझसे-
" हिंदू हो? "

मैं अचकचा-सी गई,
"मैंने पूछा- मतलब ? "
बोलीं वे-
" परेशानियों से बचना है तो धर्म बदल लो !
क्रिस्तान बन जाओ ! यीसू की गोद में शांति मिलेगी ! "
मैं हँसी,
मैंने कहा-"यों यीसू से मुझे विरोध नहीं, उनकी पीर से वाकिफ़ हूँ मैं-
फिर भी अपने राम की गोद में भली हूँ
तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं के परिवार में पली हूँ "
प्रश्न यह है-
कि धर्म क्या बताशा या झुनझुना है कि
पकड़ा दिया रोते हुए बच्चे को
और कुछ पल शांति।



यूरोप

दबे पाँव दाखिल होते हैं
शहर में
कि खामोशी सहमा देता हमें
इंसानी हजूमों से नदारद
इस शहर में
क्या
दिल धड़कता है कहीं?


सृजन

प्रत्येक पल, प्रकृति में
होता है सृजन।
सुनहरी उषा के किलकते क्षण हों
या
काल –रात्रि के निस्तब्ध पल
होता है सृजन।
कली पुष्प बन गई
या गोद एक भर गई
होता है सृजन।
ओस गिरे सीप में
या
अंतरंग प्रेम के क्षण
होता है सृजन।
चाक पर कुम्हार के
या
अग्नि पर सुनार के
होता है सृजन।
***

Monday, April 11, 2011

राकेश श्रीमाल की कविताएँ

राकेश श्रीमाल, इन्दौ्र में जन्म , दैनिक भास्कर से पत्रकारिता की शु‍रुआत। तीन वर्ष म.प्र. कला परिषद की मासिक पत्रिका ‘कलावार्ता’ का संपादन। दस वर्ष मुम्बई जनसत्ता के संपादकीय विभाग में। कला वैचारिकी ‘क’ के संस्थापक संपादक। ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के कार्यपरिषद सदस्य और प्रकाशन समिति में चार वर्ष रहे। पुस्तक वार्ता का सात वर्ष संपादन के बाद इन दिनों विश्वविद्यालय के संग्रहालय में। कला समीक्षक और भारतीय कला संस्कृति में गहन रूचि।

                                     यूं बेवजह ही
                                     नहीं हो जाती कविता
                                     जब समय ठहर जाता है
                                     धरती और आकाश के
                                     प्रणय-बिंदु के उसपार और
                                     आँखें तलाशने लगती है
                                     निहारिकाओं की रोशनी में
                                     एक मधुर सपना,
                                     जब सुनाई देता है
                                     मधुर स्वर में गाती कोयल का राग तब
                                     वहीं कहीं टिमटिमाते रंगों से
                                     अठखेलियाँ करती
                                     मिल ही जाती है- कल्पना,
                                     और वही कहीं
                                     मिल जाती है कविता को
                                     अपने होने की वजह.

इन्ही शब्दों के साथ आज आप सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है श्री राकेश श्रीमाल की चंद कविताएँ....

जब रहती है वह मेरे पास


(एक)

कोई डर नही लगता
न ही कोई होती है ऊहा-पोह
जीवन का पूरा गणित
हो जाता है विषम रहित

ठहर जाता है समय भी थोड़ी देर
अपना मनचाहा स्‍वप्‍न देखने के लिए
बादल खोजने लगते हैं अपना साथी
अपने साथ जमीन पर बरसने के लिए

पत्‍ता चुन लेता है एक और पत्‍ता
हवा के वशीभूत टहलते हुए
जलने लगती है दीपक की लौ भी
चुपचाप एक जगह स्थिर होकर

कहे गए शब्‍दों की पारदर्शी बूंदे
गिरने लगती हैं महासागर में
अपना ही प्रतिचक्र बनाते हुए

ऐसे में
नीरव क्षणों में
परस्‍पर देखने लगती है एक दूसरे की आंखे
कितना पहचान पाए
बाकी है कितना परिचय
एक दूसरे के लिए अभी भी

काल ही देख पाता है
उनके अपरिचय में दुबका प्रेम
**

(दो)

मन की समूची पृथ्‍वी पर
एकाएक आ जाता है बसंत
खिल जाते हैं पलाश

दूर कहीं
बांस की छत के नीचे
गोबर से लीपे गए पूरे घर में
ठंड से बचने के लिए
जल जाता है कोई अलाव

वहीं कहीं आंगन में बैठी मां
करती होगी याद बेटे को
उसकी पसंदीदा सब्‍जी बनाते हुए

गांव का कोई पुराना मित्र
एकाएक ही करने लगता होगा याद
बचपन के दिनों की

यही होता है हमेशा
जब भी आती है वह
हमेशा बसंत को लेकर
गड्ड-मड्ड हो जाता है बिताया हुआ जीवन

लगता है
टूट कर बिखर गई है
रेत घड़ी
सब कुछ झुठलाते हुए
**

(तीन)

तारीखें भी देखती होंगी
बीच रात में आकर
पूरे दिन की लुका-छिपी में
चुपके से सब कुछ

शायद उसे तो
समय भी पता हो पहले से
कब रहोगी तुम मेरे पास

वह सबसे सुखद समय रहता होगा
तारीख के पास भी

कोई भी हो सकता है वार
अब तो गिनती नहीं
महीनों की भी

इस बरसात में आई तारीख
याद करती होगी पिछली बरसात
नए सिरे से देखती होगी
पहले जैसा घटा सब कुछ

कितनी और गर्मिया आएंगी ऐसी ही
न मालूम कितनी यात्राओं के दरमय्यां
कोई नहीं
जो लिख पाए
इसका इतिहास

कैसे दर्ज होगा वह सब कुछ
जब रहती है वह मेरे पास
**

(चार)

कितने पल घटने हैं अभी और
होना है
कितनी और बातें
चुप्‍पी का भी खाता होगा कहीं तो

कितनी हड़बड़ाहट
कितनी धैर्यता
कितना बेसुध हो जाना
घटना है अभी

कितनी मुस्‍कुराहटें
आंखों का कितना गुस्‍सा
कितना उदास होना है अभी

कितना उत्‍साह
कितनी बैचारगी
कितनी निराशा घिरना है अभी

और यह सब
होना है केवल उन्‍हीं पलों में
जब रहती है वह मेरे पास
**

(पांच)

ईश्‍वर भी अपने अदृश्‍य और अभेद्य किले से
आ जाता होगा बाहर
देखता होगा फिर
अपने चमत्‍कार से बड़ा सहज विस्‍मय

जब रहती है वह मेरे पास
ईश्‍वर भी रहता है इर्द-गिर्द
न मालूम किसकी पूजा करता हुआ
**

(छह)

पता नहीं कितनी सदियों से
गर्भ में रह रहें शब्‍द
खुद अपने को प्रस्‍फुटित होते देखते हैं
फिर बस जाते हैं स्‍मृतियों में
**

(सात)

होता है कभी यूं भी
सूझता ही नहीं वह सब उन क्षणों में
जो सोचा गया था उन्‍हीं क्षणों के लिए

शायद अच्‍छा लगता होगा
सोचे हुए को
विस्‍मृति में जाकर बस जाना
खोजा जा सके ताकि फिर उसे
**

Thursday, April 7, 2011

उत्सवी मौसम- तीन कविताएँ : पूर्णिमा वर्मन

पूर्णिमा वर्मन

जन्म: २७ जून १९५५ को पीलीभीत में.
शिक्षा: संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा।
पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) की सुंदर घाटियों जन्मी पूर्णिमा वर्मन को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। मिर्ज़ापुर और इलाहाबाद में निवास के दौरान इसमें साहित्य और संस्कृति का रंग आ मिला। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आजतक साथ है। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती, 1995 से यू ए ई में।
कार्यक्षेत्र :
पिछले पचीस सालों में लेखन, संपादन, फ्रीलांसर, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कला कर्म में व्यस्त। इसके अतिरिक्त वे हिंदी विकिपीडिया की प्रबंधक भी हैं।
दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण "प्रवासी मीडिया सम्मान", जयजयवंती द्वारा जयजयवंती सम्मान तथा रायपुर में सृजन गाथा के "हिंदी गौरव सम्मान" से विभूषित।
प्रकाशित कृतियाँ :
कविता संग्रह : 'वक्त के साथ'
वैसे तो सम्मानिया पूर्णिमा जी किसी परिचय की मोहताज़ नहीं पर उनके बारे में दो शब्द भी लिखना कलम का सौभाग्य होगा. आज उन्ही की दो कविताएँ आपके समक्ष रखकर आखर कलश गौरवान्वित हो रहा है.

१- राग देश

हवाओं में
फिर गुनगुनाया है मौसम
बहका है वसंत की खुशबू से
हौले हौले बिखरा है शहर में
फूलों की क्यारी में
सागर में
नहर में।

रगों में हलचल सी है
आरतियाँ गुजर रही हैं नसों से
धमनियों में बज रहे हैं मजीरे
साँसों से गुजर रहे हैं ढोल
सड़कों पर उफन रही है भीड़
घरों में बस गया है चैत्र
मन में रच रहा है उत्सव कोई
जन्म ले रही है
राग देश की नई गत
तुम प्रवासी नहीं हो मन


२- मधुमास

गुलमोहर में
अभी अभी फूटी हैं कोपलें
बोगनविला झूमकर
मिल रही गले
सफेद पंखुरियो से सजी
दीवार दिखती है- रूपमती
कार पर झूलते हैं गुच्छे

धूप में
आकार लेने लगे है
वासंती सपने
मधुमक्खियाँ गढ़ने लगी हैं
शहद के आगार
कुहुकती है कोयल
बार बार
दिन में- भरने लगा है मधु मास
उत्सव उत्सव रचा है हर ओर

३- चैत्र की पहली रात

मखमली रजाई तहाकर
अभी अभी बाहर आई है
मौसम की पहली रात
करती हुई
चैत्र का पहला स्नान
ओस की बूँदों से

झरते है धीमे
खजूर के पेड़ों से
सफ़ेद बारीक फूल
सर् सर् सर्
पृथ्वी की श्यामलता पर
रचते रंगोली

आसमान डूबा है
घनी सुनहरी रोशनी में
तारे दिखाई नहीं देते
गाड़ियाँ लिपटी हैं सड़कों से
आया
घर लौटने का समय
रात गहराने लगी है।
***


Monday, April 4, 2011

समीर लाल समीर की कविता

समीर लाल समीर का जन्म २९ जुलाई, १९६३ को रतलाम म.प्र. में हुआ. विश्व विद्यालय तक की शिक्षा जबलपुर म.प्र से प्राप्त कर आप ४ साल बम्बई में रहे और चार्टड एकाउन्टेन्ट बन कर पुनः जबलपुर में १९९९ तक प्रेक्टिस की. सन १९९९ में आप कनाडा आ गये और अब वहीं टोरंटो नामक शहर में निवास करते है. आप कनाडा की सबसे बड़ी बैक के लिए तकनिकी सलाहकार हैं एवं पेशे के अतिरिक्त साहित्य के पठन और लेखन की ओर रुझान है. सन २००५ से नियमित लिख रहे हैं. आप कविता, गज़ल, व्यंग्य, कहानी, लघु कथा आदि अनेकों विधाओं में दखल रखते हैं एवं कवि सम्मेलनों के मंच का एक जाना पहचाना नाम हैं. भारत के अलावा कनाडा में टोरंटो, मांट्रियल, ऑटवा और अमेरीका में बफेलो, वाशिंग्टन और आस्टीन शहरों में मंच से कई बार अपनी प्रस्तुति देख चुके हैं.
आपका ब्लॉग “उड़नतश्तरी” हिन्दी ब्लॉगजगत का विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय नाम है एवं आपके प्रशंसकों की संख्या का अनुमान मात्र उनके ब्लॉग पर आई टिप्पणियों को देखकर लगाया जा सकता है.
आपका लोकप्रिय काव्य संग्रह ‘बिखरे मोती’‘ वर्ष २००९ में शिवना प्रकाशन, सिहोर के द्वारा प्रकाशित किया गया. अगला कथा संग्रह ‘द साईड मिरर’ (हिन्दी कथाओं का संग्रह) प्रकाशन में है और शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है.
सम्मान: आपको सन २००६ में तरकश सम्मान, सर्वश्रेष्ट उदीयमान ब्लॉगर, इन्डी ब्लॉगर सम्मान, विश्व का सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दी ब्लॉग, वाशिंगटन हिन्दी समिती द्वारा साहित्य गौरव सम्मान सन २००९ एवं अनेकों सम्मानों से नवाजा जा चुका है.
इंटरनेट तथा ब्लाअग जगत में उड़नतश्तरी के नाम से अपना बहुचर्चित ब्लॉग चलाने वाले श्री समीर लाल समीर की लघु उपन्याटसिका ’देख लूँ तो चलूँ’ का हाल ही में विमोचन जबलुपर में देश के शीर्ष कहानीकार श्री ज्ञानरंजन द्वारा किया गया। यात्रा वृतांत की शैली में लिखी गई इस उपन्यारसिका में कई रोचक संस्मारण श्री समीर ने जोड़े हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन शिवना प्रकाशन द्वारा किया गया है।

टूटी ऐनक से झांकती
धब्बेदार, धुँधलाई और
घबराई हुई
दो बुढ़ी आँखें...
उम्र की मार खाये
लड़खड़ाते दरख्त को
छड़ी के सहारे टिकाये
जीवन के अंतिम छोर पर
बरगद हो जाने की चाह..
अपने ही खून पसीने से सींच
बनाये आशियां में
अपनी खातिर
एक कोने की तलाश
और
एक तिनके भर आसरे
को बचाये रहने की मजबूरी
डूबती इच्छाएँ--
इस आस और मजबूरी के
तलघर में..
अपना सिर छुपाये
दम तोड़ती
न जाने कितनी बार देखी हैं..

कल
पात्र बदलेंगे...
तारीखें बदलेंगी
लेकिन
हालात!!!!
कौन जाने!!!!

-पहाड़ों का स्वरुप यूँ ही नहीं बदल जाता!!
***
-समीर लाल समीर