डॉ.मालिनी गौतम अपने बारे में कहती हैं- परिचय में कुछ विशेष नहीं है।साहित्यकार पिता डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के यहाँ सन् 1972 में जन्म हुआ। वर्तमान में गुजरात में ऑर्टस एवं कॉमर्स कॉलेज में अंग्रेजी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हूँ। लिखने-पढ़्ने और कविताओं को गुनगुनानें का माहौल घर में बचपन से ही देखा।लेकिन कविता मुझसे लम्बे समय तक रूठी रही। काव्य लेखन की प्रक्रिया और मुझमें लम्बी आँख-मिचौली चली।
कविता मेरे लिये उस बारिश के समान है जो बरसने के बाद शीतलता देती है। पर बारिश के पहले की असह्य गर्मी,उमस,छटपटाहट और घुटन की वेदना को मैनें लम्बे अरसे तक महसूस किया है।पर आखिर एक दिन बादल खुल्कर बरसे और तब से आज तक बरसात का ये दौर अनवरत जारी है और कविता रूपी ये बूँदें मुझे हर मौसम में शीतलता पहुँचातीं हैं।
वीणा,अक्षरा,साक्क्षात्कार,भाषा,सार्थक,भाषा-सेतु,ताप्ती-लोक,हरिगंधा सहित लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन होता रहा है। एक अनुवादक भी हूँ। हिन्दी-गुजराती परस्पर अनुवाद भी नियमित प्रकाशित होता रहता है।
बस इतना ही चाहती हूँ कि मेरी कविताएं झरमर बरसात की तरह बरसें और अगर मेरे साथ-साथ औरों को भी शीतल करती हैं तो यही उनकी और मेरे कवि कर्म की सार्थकता है।
निशान
रिश्ते जुड़ते हैं
टूट जाते हैं।
संबंध बनते हैं,
बिगड़ जाते हैं।
पर हर संबंध, हर रिश्ता,
छोड़ जाता है
एक अमिट छाप हृदय पटल पर।
रिश्ता खत्म होने के बाद भी
उस छाप को मिटा पाना
संभव नहीं होता।
टूटे हुए संबंधों की
मार्मिकता तो देखो!
आदमी ता-उम्र
पीछे मुड़-मुड़ कर देखता रहता है
यही सोचकर कि
शायद टूटे हुए संबंधों में
अब भी कुछ जान बाकी है
और जब याद आती है
तब यही संबंध
कभी पतझड़ में
बसंत की शीतलता देते हैं
तो कभी बसंत में
पतझड़ की जलन देते हैं........
***
घोंसला
काँटेदार पेड़ पर लटकता
बया का घोंसला
कारीगरी और कलात्मकता का
सबसे श्रेष्ठ नमूना है।
आदमी भी तो जिंदगी भर
ऐसे ही एक सुन्दर घोंसले/घर के लिये
ताने-बानें बुनता रहता है
“घर”, “मेरा घर”,“प्यारा घर”!
घर शब्द ही मुँह में
मिश्री घुलने का आभास देता है
दिनभर की मेहनत के बाद
घर लौटने का अहसास
कुछ ऐसा जैसे
माँ बाहें फैलाए
अपनें बच्चे को बुला रही हो।
पर हर आदमी में बसता है
एक “जिप्सी”
जो उसे बार-बार उकसाता है
भटकने के लिये
तभी तो हर आदमी घर छोड़कर बाहर
निकलना चाहता है
घूमना चाहता है
पूरी दुनियाँ देखना चाहता है
अलग-अलग रोमांचक, आल्हादक अनुभव प्राप्त करना चाहता है।
पर जब भटकते-भटकते थक जाता है
तब याद आता है “घर”
घर में बसते आत्मीय स्वजन
उनका उष्मामय प्रेम
दरवाजे पर स्वागत करती हुई
स्नेहिल मुस्कान!
और तब आदमी के भीतर की
बया फुदकनें लगती है
क्योंकि हर आदमीं में
बसती है एक “बया”!
***
बदलते मौसम
अपने चारों तरफ उफनती भीड़ में
तलाश है मुझे उस लड़की की
जो हरदम करती थी
मौसमों का इंतज़ार।
बसंत आने के पहले
उसकी आँखों में
लहरानें लगते थे
सरसों और सूरजमुखी के पीले खेत,
सुर्ख फूलों के भार से लदके हुए
गुलमोहर के पेड़,
भाते थे उसे पीले,हल्दी और चम्पई रंग के दुपट्टे, बसंत के केसरिया दिन
और मोरपंखी शामें,
नईनवेली दुल्हन की झुकी हुई आँखों सा
अस्त होता लाल सूरज का गोला,
देर तक ढ़लती सांझ
और रातों को दामन में खिलते तारे।
पूरा के पूरा बसंत टपकता था
उसके अंग-अंग से।
गर्मी के दिनों में
सड़क के किनारे
किसी ठेले पर
बर्फ का गोला खाते समय
एक बच्चे सी चमकती थी उसकी आँखें,
उसके पहने हुए हल्के गुलाबी, आसमानी और सफेद रंग
के सूती सलवार-कुर्ते
पहुँचाते थे आँखों को ठंडक,
अच्छा लगता था उसे
शाम को छत की मुँडेर पर बैठकर
खट्टे आम की चटनी, पना और
मिस्सी रोटी खाना
और रात होते-होते
वह भी घुल जाती
हवा में घुली हुई जूही,
चमेली और रातरानी की खुशबू के साथ
फिर वह करने लगती
मानसून का इंतजार,
तेज बारिश में नहाना,
सड़क के गढ़्ढ़ों में भरे पानी में
छप-छप करना,
बारिश में भीगते हुए लॉंग-ड्राइव पर जाना
छोटे-छोटे झरनों और नालों से भरे
पहाडों पर चढ़ना,
उफनती नदी के किनारे घंटों बैठे रहना
और घर लौटकर
तेज अदरक के स्वाद वाली चाय पीना
पर आज इतनें बरसों बाद
कहीं दिखाई नहीं देती वह लड़की,
गाँव की वह सूरत
खो गई है शायद
महानगर की चकाचौंध में,
गुम हो गई है इस भीड़ में,
शायद बंद है किसी
वातानुकूलित फ्लैट में,
जिसकी बड़ी-बड़ी कांच की खिड़कियों पर
डले हैं मोट-मोटे परदे,
परदों के इस पार किसी को
आने की इज़ाजत नहीं है,
और परदों के उस पार
मौसम कब आकर निकल जाते हैं
यह पता ही नहीं चलता
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डॉ. मालिनी गौतम
मंगलज्योत सोसाइटी
संतरामपुर-३८९२६०
गुजरात