Monday, November 29, 2010

गोविन्द गुलशन की ग़ज़लें

श्री गोविन्द गुलशन का पूरा नाम गोविन्द कुमार सक्सेना है. आपका जन्म 7 फ़रवरी 1957, मोहल्ला ऊँची गढ़ी, गंगा तट अनूप शहर , ज़िला- बुलन्द शहर में पिता श्री हरी शंकर मोरिया और माता श्रीमती राधेश सक्सैना के पावन घर में हुवा. आपने -स्नातक (कला) स्तर की शिक्षा प्राप्त की. आपको काव्य-दीक्षा गुरुवर कुँअर बेचैन /गुरु प्रवर कॄष्ण बिहारी नूर ( लख्ननवी ) के वृहिद सान्निध्य में प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुवा. आपने ग़ज़ल,गीत,दोहा,नज़्म आदि विधाओं में क्रमशः जलता रहा चराग़ (2001), हवा के टुकड़े, फूल शबनम के और अन्य विधाओं में पाँच भजन संग्रह (1978-1980) भी प्रकशित किये. हरभजन सिंह एन्ड सन्स हरिद्वार, रणधीर बुक सेल्स हरिद्वार सीडी -: मुरली मधुर बजाने वाले [छंदात्मक- कॄष्ण लीला एवं राम लीला ] (2005) कॄतियाँ भी शामिल हैं.
आपकी साहित्यिक उपलब्धियाँ एवम सम्मान -: युग प्रतिनिधि सम्मान,सारस्वत सम्मान,अग्निवेश सम्मान,साहित्य शिरोमणि सम्मान, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति (उपक्रम), दिल्ली (राजभाषा विभाग. गॄह मंत्रालय) द्वारा सर्वश्रेष्ठ काव्य रचना के लिये पुरस्कॄत. (2005)कायस्थ कुल भूषण सम्मान (अखिल भारतीय कायस्थ महा सभा),निर्मला देवी साहित्य स्मॄति पुरस्कार, इशरत किरत पुरी एवार्ड एवं अन्य अनेक.
सम्प्रति -: विकास अधिकारी (नेशनल इंश्योरेन्स कम्पनी-ग़ाज़िया बाद) सम्पर्क सूत्र -: `ग़ज़ल' 224,सैक्टर -1,चिरंजीव विहार.ग़ाज़िया बाद - २०१००२
ऐसे ही विलक्षण प्रतिभा के धनि श्री गोविन्द गुलशन जी की कुछ ग़ज़लें आप सबकी नज़र है...........


ग़ज़ल १.

दिल में ये एक डर है बराबर बना हुआ
मिट्टी में मिल न जाए कहीं घर बना हुआ

इक ’लफ़्ज़’ बेवफ़ा कहा उसने फिर उसके बाद
मैं उसको देखता रहा पत्थर बना हुआ

जब आँसुओं में बह गए यादों के सब नक़ूश
आँखों में कैसे रह गया मंज़र बना हुआ

लहरो ! बताओ तुमने उसे क्यूँ मिटा दिया
इक ख़्वाब का महल था यहाँ पर बना हुआ

वो क्या था और तुमने उसे क्या बना दिया
इतरा रहा है क़तरा समंदर बना हुआ


ग़ज़ल २.


इधर उधर की न बातों में तुम घुमाओ मुझे
मैं सब समझता हूँ पागल नहीं बनाओ मुझे

बिछुड़ के जीने का बस एक रास्ता ये है
मैं भूल जाऊँ तुम्हें तुम भी भूल जाओ मुझे

तुम्हारे पास वो सिक्के नहीं जो बिक जाऊँ
मेरे ख़ुलूस की क़ीमत नहीं बताओ मुझे

भटक रहा हूँ अँधेरों की भीड़ में कब से
दिया दिखाओ कि अब रौशनी में लाओ मुझे

चराग़ हूँ मैं , ज़रूरत है रौशनी की तुम्हें
बुझा दिया था तुम्ही ने तुम्ही जलाओ मुझे


ग़ज़ल ३.


रौशनी की महक जिन चराग़ों में है
उन चराग़ों की लौ मेरी आँखों में है

है दिलों में मुहब्बत जवाँ आज भी
पहले जैसी ही ख़ुशबू गुलाबों में है

प्यार बाँटोगे तो प्यार मिल जाएगा
ये ख़ज़ाना दिलों की दराज़ों में है

आने वाला है तूफ़ान फिर से कोई
ख़लबली-सी बहुत आशियानों में है

तय हुआ है न होगा कभी दोस्तो
फ़ासला वो जो दोनों किनारों में है

ठेस लगती है तो टूट जाते हैं दिल
जान ही कितनी शीशे के प्यालों में है

उसकी क़ीमत समन्दर से कुछ कम नहीं
कोई क़तरा अगर रेगज़ारों में है


ग़ज़ल ४.


लफ़्ज़ अगर कुछ ज़हरीले हो जाते हैं
होंठ न जाने क्यूँ नीले हो जाते हैं

उनके बयाँ जब बर्छीले हो जाते हैं
बस्ती में ख़ंजर गीले हो जाते हैं

चलती हैं जब सर्द हवाएँ यादों की
ज़ख़्म हमारे दर्दीले हो जाते हैं

जेब में जब गर्मी का मौसम आता है
हाथ हमारे , ख़र्चीले हो जाते हैं

आँसू की दरकार अगर हो जाए तो
याद के बादल रेतीले हो जाते हैं

रंग - बिरंगे सपने दिल में रखना
आँखों में सपने गीले हो जाते हैं

फ़स्ले-ख़िज़ाँ जब आती है तो ऐ गुलशन
फूल जुदा, पत्ते पीले हो जाते हैं

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Thursday, November 25, 2010

डॉ. वेद व्यथित की गीतिकाएं

रचनाकार परिचय

नाम: डॉ. वेद व्यथित
मूल नाम- वेद प्रकाश शर्मा
जन्म – 9 अप्रैल, 1956 ।
शिक्षा- एम. ए. (हिंदी), पी० एचडी. (नागार्जुन के साहित्य में राजनीतिक चेतना) ।
प्रकाशन- कविता कहानी उपन्यास व आलोचना पर निरंतर लेखन ।
कृतियाँ- मधुरिमा (काव्य नाटक), आख़िर वह क्या करे (उपन्यास), बीत गये वे पल, (संस्मरण), आधुनिक हिंदी साहित्य में नागार्जुन (आलोचना), भारत में जातीय साम्प्रदायिकता (उपन्यास),
अनुवाद- जापानी तथा पंजाबी भाषाओँ में रचनाओं का अनुवाद ।
सहभागिता- हिंदी जापानी कवि सम्मेलनो में ।
संबंद्धता- अध्यक्ष - भारतीय साहित्यकार संघ
संयोजक - सामाजिक न्याय मंच
शोध सहायक - अंतरराष्ट्रीय पुनर्जन्म एवं मृत्यु उपरांत जीवन शोध संस्थान भारत
सम्पादकीय सलाहकार - लोक पुकार साप्ताहिक पत्र
परामर्शदाता - समवेत सुमन ग्रन्थ माला
सलाहकार - हिमालय और हिंदुस्तान
सदस्य - सलाहकार समिति नेहरु युवा केंद्र, फरीदाबाद, हरयाणा
विशेष प्रतिनिधि - कल्पान्त मासिक पत्रिका
उपाध्यक्ष - हम कलम साहित्यिक संस्था
पूर्व प्रांतीय संगठन मंत्री -अखिल भारतीय साहित्य परिषद हरियाणा

नवगीतिका के बारे में वे कहते हैं कि ये रचनाएँ गजल नही हैं क्योंकि गजल का एक निश्चित व्याकरण है उस के बिना गजल नही हो सकती है जैसे दोहा का निश्चित व्याकरण है बल्कि भारतीय परम्परा का शाश्वत काव्य प्रवाह है नवगीतिका. इसी शाश्वत काव्य प्रवाह के क्रम में उनकी दो गीतिकाएं प्रस्तुत है...
१.

झूठ के आवरण सब बिखरते रहे
साँच की आंच से वे पिघलते रहे
खूब ऊँचे बनाये थे चाहे महल
नींव के बिन महल वे बिखरे रहे
हाथ आता कहाँ चाँद उन को यहाँ
मन ही मन में वे चाहे मचलते रहे
ओस की बूँद ज्यों २ गिरी फूल पर
फूल खिलते रहे व महकते रहे
जैसे २ बढ़ी खुद से खुद दूरियां
नैन और नक्श उन के निखरते रहे
देख लीं खूब दुनिया की रंगीनियाँ
रात ढलती रही दीप बुझते रहे
हम जहाँ से चले लौट आये वहीं
जिन्दगी भर मगर खूब चलते रहे


२. 

जहाँ में ऐसी सूरत है,जिन्हें देखा, नशा टूटा
खीज खुद पर हुई ,मुझ से मुकद्दर इस तरह रूठा
मेरा बस एक सपना था मुझे जो खुद से प्यारा था
नजर ऐसी लगी उस को आईने की तरह टूटा
अकेला एक दिल था जिन्दगी की वही दौलत था
उन्होंने चुप रह रह कर उसे पूरी तरह लूटा
कहाँ जाता सफर को छोड़ मंजिल दूर थी मेरी
रुका थोडा सुकूँ पाया मगर मद की तरह झूठा
रहा है उन का मेरा साथ वर्षों दूध शक्कर सा
शिकायत दिल में क्यों आई सब्र क्यों इस तरह टूटा

Monday, November 22, 2010

रंजना श्रीवास्तव की कविताएं : एक अवलोकन - राजेश उत्‍साही

सम्मानीय समस्त हिंदी प्रेमी सुधि पाठकगण, आपको ये अवगत करवाते हुये अपार हर्ष हो रहा है कि आखर कलश में एक नया कॉलम 'समीक्षा- एक अवलोकन' आरम्भ कर रहे हैं। इसमें हर सोमवार शाम को आखर कलश पर पिछले दिनों प्रकाशित रचना या रचनाओं पर केन्द्रित समीक्षात्‍मक लेख प्रकाशित किया जाएगा।  चुनिंदा रचना पर प्राप्‍त पाठकों की  प्रतिक्रियाओं को भी सम्मिलित किया जाएगा।  हमारा और आपका उद्धेश्य है हिंदी का प्रचार-प्रसार तथा हिंदी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और अधिक परिष्कृत स्वरुप, जिनमें परंपरागत कविता से आगे नये भावबोधों की अभिव्यक्ति के साथ ही नये मूल्यों, अनुभूति की सच्चाई और बुद्धिमूलक यथार्थवादी दृष्टि के साथ-साथ नये शिल्प-विधान का अन्वेषणात्मक स्वरुप सृजन हो | इस सन्दर्भ में आप गुणीजनों के सुझाव भी अपेक्षित रहेंगे।



कॉलम की शुरूआत के लिए चयन हेतु हमने अक्‍टूबर,2010 में प्रकाशित रचनाओं को भी इसमें शामिल किया है।  तो शुभारम्भ कर रहे हैं रंजना श्रीवास्तव जी की चार कविताओं पर श्री राजेश 'उत्साही' जी के समीक्षात्मक अवलोकन से। साथ ही अन्य सुधि पाठकों द्वारा व्यक्त किये गए बहुमूल्य सूक्ष्म अन्वेषणात्मक विचार भी साथ हैं। आशा है आपको ये पहल रुचेगी।
रंजना श्रीवास्तव की कविताएं : एक अवलोकन - राजेश उत्‍साही

रंजना श्रीवास्‍तव की कविताएं पहली नजर में साधारण और शब्‍दों का संयोजन भर लगतीं हैं। पर उन्‍हें पढ़ने के लिए एक अलग दुनिया में दाखिल होना पड़ता है। उनकी कविताओं की संवेदना महसूस करने के लिए अपने अंदर की संवेदनशीलता को झझकोर जगाना पड़ता है। एक बार, दो बार,तीन बार यानी बार-बार पढ़ने पर कविता के अर्थ खुलने लगते हैं। आइए यहां आखरकलश पर प्रस्‍तुत उनकी चार कविताओं की बात करते हैं।

पहली कविता है- क्‍या कहना है कामरेड। कविता उस नारी के बारे में है जो हमारे आसपास ही रहती है। जिसे हम रोज देखते हैं जो कभी हमारी रसोई में होती है तो कभी दफ्तर में। कभी बाजार-हाट में होती है तो कभी मॉल में। जो शोषित है उपेक्षित है और कभी रण चंडी भी। जिसने अपने अंदर की आग को हमेशा जिलाए रखा है, लेकिन उसका उपयोग करने से बचती रही है। उसके लिए परिवार,समाज और दुनिया हमेशा प्राथमिकता रही है। लेकिन वह अब और नहीं सहना चाहती। वह सड़क पर उतरने को उद्धत है। यह कविता एक तरह की चेतावनी है, बल्कि कहना चाहिए कि ऐलान है। मुझे लगता है सवाल क्रांति का नारा देने वाले कामरेडों से भर से नहीं है बल्कि समाज के ठेकेदारों से भी है। आखिर कब तक औरत घरघुस्‍सू बनी रहेगी या कि तुम बनाकर रखोगे। कविता का सबसे मजबूत पक्ष यह है कि यह एक औरत ही कह रही है। इसलिए वह सीधे दिमाग से होती हुई दिल पर चोट करती है।

दूसरी कविता- यह खबर एक झुनझुना है। कविता के बहाने रंजना हमारे इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर एक कटाक्ष कर रही हैं। रेप केस केवल एक उदाहरण है। सच तो यह है कि आजकल हर खबर रेप केस के अंदाज में ही पेश की जाती है। हर खबर को झुनझुने की तरह ही इस्‍तेमाल करते हैं। जैसे रोते बच्‍चे को हम झुनझुना बजाकर थोड़ी देर के लिए बहला देते हैं, लेकिन उसके रोने के कारणों में नहीं जानते। बच्‍चा झ़ुनझुने के संगीत में थोड़ी देर के लिए खो जाता है। यह संयोग ही है कि रंजना की यह कविता पढ़ते हुए हालिया फिल्‍म ‘पीपली लाइव’ बरबस ही याद आ जाती है। सच कह रही हैं वे कि सब हर समस्‍या की फुनगी को हिलाते हैं और समझते हैं कि वे सिस्‍टम को हिला कर रख देंगे। विभिन्‍न घोटालों के संदर्भों में आजकल जो मीडिया का जो रवैया है वह कुछ ऐसा ही है।

तीसरी कविता है- विज्ञापन की रुलाई। इस कविता को वास्‍तव में समझने के लिए कई कई बार पढ़ना होता है। यह कविता इतने अलग चरित्रों की बात करती है कि तय करना मुश्किल हो जाता है कि आप किसे पकड़ें और किसे छोड़ें। जैसे यह कविता हमारे शासकों के बारे में बात करती है। जो गाहे बगाहे विज्ञापनों की तरह ही हमारे सामने आते हैं, वे अगर अभावों का रोना भी रोते हैं तो हमें हंसी आती है। उनके चेहरे पर जबरन चिपकी हंसी मुखौटे सी नजर आती है। हम विज्ञापनों को उम्‍मीद की तरह देखते हैं और हकीकतों को विज्ञापन की तरह। यह हमारे समय की एक घिनौनी हकीकत है।

हम जब अमृत उगाएंगे- उनकी चौथी कविता है। यह कविता मुझे व्‍यक्तिगत तौर पर निराश करती है। यह रंजना के तेवर से मेल नहीं खाती। बावजूद इसके कि इसमें कही गई सब बातें हकीकत हैं रंजना नारेबाजी करती हुई नजर आती हैं। जो आशावादिता इस कविता में झलकती है वह आदर्शवाद के खोखले और रसातल में ले जाने वाले धरातल पर खड़ी दिखाई देती है।

बहरहाल यह कहना समीचीन होगा कि रंजना समकालीन समय की एक महत्‍वपूर्ण कवियत्री हैं और इस मायने में उनका होना और अधिक जरूरी हो जाता है कि वे जमीन से जुड़कर बात करती हैं। उनकी कविता में बिम्‍ब हैं, प्रतीक हैं लेकिन वे अमूर्त नहीं हैं। उन्‍हें पकड़ना आसान होता है। भाषा सरल और सहज है और पाठक के परिवेश से ही आती है। और अगर कहीं उनकी कविता एक बार समझ न आए तब भी वह दुबारा पढ़ने के लिए मजबूर करती है। इसलिए क्‍योंकि उनकी कविता में विचार परिलक्षित होता है, जिससे एक गंभीर पाठक हर हाल में संवाद करना चाहता है।
- राजेश उत्‍साही
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इसके साथ ही साथ अन्य सुधि पाठक क्या सोचते हैं, आपकी नज़र है-
शेखर सुमन जी ने कहा चारो तो नहीं लेकिन २ रचनायें पढ़ीं अच्छा लगा बाकी २ फिर कभी पढूंगा... तथा यह सिलसिला जी ने पहली प्रतिक्रिया पर बधाई प्रेषित की! शाहिद मिर्ज़ा 'शाहिद' साहब ने कुछ इस अंदाज़ में अपने आशार व्यक्त किये-
खबर के चेहरे पर
चिपका रहे हैं विज्ञापन
विज्ञापन
एक नकली दुनिया का
मानचित्र है
जो कभी नहीं बदल सकता
असल की तकदीर
असल की
तकदीर बदलने के लिए
जड से सोचा जाना होगा
फुनगी पकडकर
पेड को हिलाने से
कैसे काँपेगी भला पृथ्वी।।
कमाल की लेखनी है...
कितनी गहराई में उतरकर निकाले गए हैं ये साहित्यिक मोती.
अरुण सी रॉय ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कुछ इस तरह से कहा कि पूरब से जो कविता आती है उसमे आम आदमी का स्वर मुखर होके आता है.. रंजना जी उन्ही कविताओं का प्रतिनिधित्व कर रही हैं.. पहली कविता सबसे सशक्त है... और कामरेड को अभी कई और सवालों के जवाब देने हैं.. ना जाने कभी दे भी पायेंगे की नहीं.. जितेन्द्र 'जौहर' जी ने रंजना जी को संबोधित करते हुवे कहा कि ‘मुक्तछंद’ को ‘छंदमुक्त’ बनने से रोकने के लिए जिस फड़कती हुई काव्य-भाषा, जिस तेवर और जिस प्रवहमानता की दरकार होती है, वह सब सामान आपके पास है। मैं आप जैसी सु-सज्जित कवयित्री को सुंदर कविताओं पर बधाई देते हुए ख़ुशी का अनुभव कर रहा हूँ। सुभाष नीरव जी ने अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किये- रंजना श्रीवास्तव की कविताएं महज कविताएं ही नहीं हैं, कविता से आगे भी बहुत कुछ हैं। इन कविताओं में विचार तो है ही पर वह कवि की सम्बेदना में इतना घुला-मिला है कि वह खुरदरा नहीं लगता। रंजना जी का कविता में अपनी बात कहने का एक अलग ही मुहावरा है जो उन्हें समकालीन कविता में एक भिन्न और विशिष्ट पहचान देता है। ऐसी दमदार कविताओं के लिए रंजना जी को बधाई ! आपने उनकी सशक्त कविताएं प्रकाशित की है, आप भी बधाई के पात्र हैं। सुरेन्द्र रत्ती जी को रंजना जी की चारों कविताएँ पसंद आई परन्तु पहली कविता से विशेष प्रभावित हुवे. भारतेंदु मिश्र जी ने रंजना जी को बधाई प्रेषित करते हुवे कहा कि कविताएँ अनुभूति की सच्चाई बयान करती है साथ ही ये सुझाव भीदिया कि ऐसे ही लिखती रहें और जल्दबाजी के चक्कर मे न पडे।


नवीन सी. चतुर्वेदी जी को रंजना जी की कविताओं ने प्रभावित किया. वे लिखते हैं कि उनकी कामरेड वाली कविता सोचने पर विवश करती है तथा दूसरी कविता का यह उद्गार सहज ही सराहनीय है
"फुनगी पकडकर
पेड को हिलाने से
कैसे काँपेगी भला पृथ्वी।।"

तीसरी कविता की जेहन हिला देने वाली पंक्तियाँ:-

अभाव के चेहरे पर
हँसी का विज्ञापन है

उस सरहद के बारे में
जहाँ गोलियों की बारिश में
चलती हैं कक्षाएँ
जहाँ खतरा धूल
और पानी के जैसे
हवा में घुल-मिल गया है

और आप की चौथी कविता के ये अंश:-

जो गंगा में धुलकर
हो जाते हैं पाक

हम जब अमृत उगायेंगे
सौंपेगे उसकी कुछ बूँद
और बदल जायेगा
अमरीका का स्वभाव

इनके साथ ही संजय भास्कर, अनामिका की सदाएँ, राजभाषा हिंदी, प्रतुल वशिष्ठ, राजीव, और सभी सम्मानित पाठकों को रंजना जी की कविताओं ने बहुत प्रभावित किया और अपनी बहुमूल्य उपस्थिति से सृजनधर्मी और आखर कलश की गरिमा बधाई. आप सभी का आभार !

Saturday, November 20, 2010

सुमन 'मीत' की रचना- याद आता है..

मंडी, हिमाचल प्रदेश की गोद में बसने वाली सुमन 'मीत' अपना परिचय कुछ इस अंदाज़ में देतीं हैं-
पूछी है मुझसे मेरी पहचान; भावों से घिरी हूँ इक इंसान; चलोगे कुछ कदम तुम मेरे साथ; वादा है मेरा न छोडूगी हाथ; जुड़ते कुछ शब्द बनते कविता व गीत; इस शब्दपथ पर मैं हूँ तुम्हारी “मीत”!!
आप 'बावरा मन' और 'अर्पित सुमन' के माध्यम से अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति की खुशबुओं से सरोबार करती रही हैं...आज उन्ही सुगन्धित पुष्पों से चुनकर कुछ पुष्प आप सुधीपठकों की नज़र है.
याद आता है

याद आता है

वो माँ का लोरी सुनाना

कल्पना के घोड़े पर

परियों के लोक ले जाना

चुपके से दबे पांव

नींद का आ जाना

सपनों की दुनियाँ में

बस खो जाना ...खो जाना...खो जाना..................


याद आता है

वो दोस्तों संग खेलना

झूले पर बैठ कर

हवा से बातें करना

कोमल उन्मुक्त मन में

इच्छाओं की उड़ान भरना

बस उड़ते जाना...उड़ते जाना...उड़ते जाना.............


याद आता है

वो यौवन का अल्हड़पन

सावन की फुहारें

वो महका बसंत

समेट लेना आँचल में

कई रुमानी ख़ाब

झूमना फिज़ाओं संग

बस झूमते जाना...झूमते जाना...झूमते जाना............


याद आता है

वो हर खुशनुमा पल

बस याद आता है..............

याद आता है.............

याद आता है...........!!
***

Thursday, November 18, 2010

गौरीशंकर आचार्य 'अरुण' की ग़ज़लें

राजस्थान की छन्दबद्ध हिन्दी कविता को पिछली आधी सदी से समृद्ध करते रहने वाले सुपरिचित कवि, गीतकार और गज़लकार श्री गौरीशंकर आचार्य ‘अरुण’ का जन्म ९ जुलाई १९३७ को बीकानेर में हुआ। एम.ए. (हिन्दी) तक शिक्षित श्री अरुण ने अपना सम्पूर्ण जीवन साहित्य और शिक्षा को समर्पित किया। आपकी गद्य और पद्य की कई कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी है, जिनमें कविता संग्रह ‘आद्या’ (१९७१) काफी चर्चित रही है। श्री अरुण की रचनाएँ देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होती रही है। आपने अपनी अन्य महत्त्वपूर्ण साहित्यिक सेवाओं के क्रम में राजस्थान पत्रिका के बीकानेर संस्करण में लम्बे समय तक ‘शख्सियत’ नामक स्तम्भ का लेखन किया जिसमें उन्होंने दिवंगत साहित्यकारों व कला धर्मियों के व्यक्तित्व-कृतित्व को नई पीढी के समक्ष प्रस्तुत किया। वर्तमान में ‘अभिनव बाल निकेतन विद्यालय’ के निदेशक के रूप में पूर्ण सक्रियता से साहित्य, समाज और शिक्षा की सेवार्थ पूर्ण मनोयोग से संलग्न है।
१. अंधेरों से कब तक नहाते रहेंगे

अंधेरों से कब तक नहाते रहेंगे।
हमें ख्वाब कब तक ये आते रहेंगे।

हमें पूछना सिर्फ इतना है कब तक,
वो सहरा में दरिया बहाते रहेंगे।

खुदा न करे गिर पडे कोई कब तक,
वे गढ्ढों पे चादर बिछाते रहेंगे।

बहुत सब्र हममें अभी भी है बाकी,
हमें आप क्या आजमाते रहेंगे।

कहा पेड ने आशियानों से कब तक,
ये तूफान हमको मिटाते रहेंगे।

***

२. मलने को हवा आई

इक रोज गुलिस्तां से मिलने को हवा आईं।
इक हाथ में खंजर था इक हाथ में शहनाई।

सोचा था कि मिलने पर, दिल खोल मिलेंगे हम,
.कमबख्त जुबां उनसे कुछ भी तो न कह पाई।

कुछ सोच समझ कर यूं मजमून लिखा उसने,
लफ्जों से तो मिलना था, मानी में थी तन्हाई।

इक .कत्ल हुआ .कातिल लगता था किसी के कुछ,
मुल्जिम ने अदालत से कुछ भी न सजा पाई।

रहते थे यहाँ पर जो वे लोग फरिश्ता थे,
इस वक्त यहाँ रहने, जाने क्यों .कजा आई।

***

३. रुख हवाओं का समझना चाहिए

रुख हवाओं का समझना चाहिए।
बादलों को फिर बरसना चाहिए।

आँख ही यदि रास्ता देखे नहीं,
पाँव को खुद ही संभलना चाहिए।

क्या असर होगा फ.कत यह सोचकर,
लफ्ज को मुँह से निकलना चाहिए।

कौन कहता है नहीं रखती असर,
आह को दिल से निकलना चाहिए।

बात जीने की या मरने की नहीं,
वक्त पर कुछ कर गुजरना चाहिए।

देख कर आंसू किसी की आँख में,
दिल अगर है तो पिघलना चाहिए।

है कहाँ महफूज राहें अब ‘अरुण’,
सोचकर घर से निकलना चाहिए।

***

४. लोग ऐसे हैं, मगर कम हैं

जिन्हें अपना नहीं पर दूसरों के दर्द का गम है।
जमाने में अभी भी लोग ऐसे हैं मगर कम है।

बहुत हमराह बनकर लूटते हैं राह में अक्सर,
जो मंजिल तक निभाते साथ ऐसे हमसफर कम हैं।

बदलती जा रही है वक्त की फितरत दिनो दिन पर,
अभी रिश्तों की धडकन में बचा दम है, मगर कम है।

मुहब्बत लफ्ज का मतलब समझ लें तो जरा सा है,
हमारे दिल में वो हो और उस दिल में अगर हम हैं।

लकीरें भाग्य की जो शख्स चाहे गर बदलना तो,
बहुत मुश्किल नहीं जिसके इरादों में अगर दम है।

जुदा होते नहीं वो एक पल भर भी कभी हमसे,
समन्दर के उधर वो और साहिल पे इधर हम हैं।

***

५. हम समन्दर के तले हैं

हम समन्दर के तले हैं, दोस्तों पोखर नहीं।
हाँ नदी होकर बहे हैं, नालियां होकर नहीं।

जिन्दगी हमने सवांरी मौत को रख सामने,
आदमी होकर जिए हैं, जानवर होकर नहीं।

मानते हैं हम उसूलों को इबादत की तरह,
फर्ज से अपने रहे हम, बेखबर होकर नहीं।

हर बसर के वास्ते दिल से दुआ करते हैं हम,
दोस्त बनकर खुश हुए हैं, दोस्ती खोकर नहीं।

रास्ते हमने बुहारे आज तक सबके लिए,
प्यार बोकर खुश हुए हैं, झाडियाँ बोकर नहीं।

दायरे अपने सभी के हैं अलग तो क्या हुआ,
हमवतन होकर रहे हैं, हम अलग होकर नहीं।

***

६. और दिन आए न आए

और दिन आए न आए, एक दिन वो आएगा।
जब परिन्दा आशियाना छोडकर उड जाएगा।

मान लेगी मौत अपनी हार उसके सामने,
वक्त के माथे पे अपना नाम जो लिख जाएगा।

जख्म अपने जिस्म के ढक कर खडे हैं आप क्यों,
रहम दिल कोई तो होगा ढूंढिए मिल जाएगा।

.कत्लोगारद कर बहाया खून, उसको क्या मिला,
काश इतना सोचता वो साथ क्या ले जाएगा।

पुर सुकूं थी जिंदगी, इन्सानियत थी, प्यार था,
वक्त ऐसा इस जहां में फिर कभी क्या आएगा।

ये लुटेरों के मकां हैं, मांगने आया है तू,
भाग जा वरना जो तेरे पास है लुट जाएगा।

क्यों .कसीदे कह रहे हैं आप अपने नाम पर,
वक्त खुद अपनी जुबां से सब बयां कर जाएगा।
***
गौरीशंकर आचार्य ‘अरुण’
दूरभाष: 09413832640

Tuesday, November 16, 2010

देवोत्थानी एकादशी- जया केतकी

देवोत्थानी एकादशी

!! उत्तिष्ठ गोविन्दम् उत्तिष्ठम् गरुडध्वजः !!



आषाढ शुक्ल से कार्तिक शुक्ल तक ठाकुर जी क्षीरसागर में शेषशैया पर शयन करते हैं। भक्त उनके शयन और प्रबोध के यथोचित कृत्य करते हैं। तुलसी का वृक्ष हिन्दू धर्म में पूजनीय है। यह धर्म और आस्था के साथ ही औषधि जगत में भी महत्व रखता है। हिन्दू धर्म के अनुसार प्रतिदिन प्रातः स्नान के बाद तुलसी में जल चढाना शुभ माना जाता है। ठाकुर जी की पूजा बिना तुलसी दल के पूरी ही नहीं होती।
भगवान् क्षणभर भी सोते नहीं हैं, उपासकों को शास्त्रीय विधान अवश्य करना चाहिये। यह कृत्य कार्तिक शुक्ल एकादशी को रात्रि के समय किया जाता है। इस व्रत के दिन स्नानादि से निवृत्त होकर आँगन में चौक पूरकर विष्णु भगवान् के चरणों को अंकित करते हैं। रात्रि में विधिवत पूजन किया जाता है। आँगन या ओखली में एक बडा-सा चित्र बनाते हैं। इसके पश्चात् फल, सिंघाडा, गन्ना तथा पकवान आदि समर्पित करते हैं। एक अखण्ड दीपक रात भर जलता है। रात को व्रत की कथा सुनी जाती है। इसके बाद ही मांगलिक कार्य आरम्भ होते हैं। इस दिन उपवास करने का विशेष महत्त्व है। उपवास न कर सके तो एक समय फलाहार करना चाहिये और नियमपूर्वक रहना चाहिये। रात्रि-जागरण का भी विशेष महत्त्व है।
हरि को जगाने के लिये कीर्तन, वाद्य, नृत्य और पुराणों का पाठ करते हैं। धूप, दीप, नैवेद्य, फल और अर्ध्य से पूजा करके घंटा, शंख, मृदंग वाद्यों की मांगलिक ध्वनि द्वारा भगवान् को जागने की प्रार्थना करें।
प्रार्थना:-
उदितष्ठोतिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते,
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदमघ्।
उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।।
दीपावली से ग्यारहवीं तिथि में देवत्व प्रबोधन एकादशी मनाई जाती है। मान्यता है कि देव प्रबोधन मंत्रों से दिव्य तत्वों की जागृति होती है।
मंत्र-
ब्रह्मेन्द्ररुदाग्नि कुबेर सूर्यसोमादिभिर्वन्दित वंदनीय,
बुध्यस्य देवेश जगन्निवास मंत्र प्रभावेण सुखेन देव।
इसका अर्थ है- ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, अग्नि, कुबेर, सूर्य, सोम आदि से वंदनीय, हे जगन्निवास, देवताओं के स्वामी आप मंत्र के प्रभाव से सुखपूर्वक उठें।
यह एकादशी भगवान विष्णु की आराधना का अवसर है। ब्रह्ममुहूर्त में नगर में भगवान नाम कीर्तन गाजे-बाजे के साथ बालक, युवा, नर-नारि मिलकर नगर परिक्रमा करते हैं। आतिशबाजी के साथ देवोत्थान उत्सव मनाते हैं। गृहलक्ष्मी कलश के ऊपर दीप प्रज्वलित कर चलती हैं। पुराणों में इस तिथि में पूजन कार्य को फलदायी माना जाता है। इस दिन व्रत करने, भगवत भजन करने से अभीष्ट फल प्राप्त होता है । संध्या के समय गन्ने का मंडप बनाकर मध्य में चौकी पर भगवान विष्णु को प्रतिष्ठित करने एवं दीप प्रज्वलित करके अक्षत, पुष्प, नैवेद्य आदि के साथ पूजा श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।
भारतीय संस्कृति के अनुसार हमारे देश में सदा दिव्य शक्ति को जाग्रत किया जाता है। संपूर्ण विश्व में शांति, समृद्धि, मानवीय मूल्य, धर्म, सत्य, न्याय, सत्कर्म, अच्छाई व सच का दीपक जलता रहे ऐसा विश्वास किया जाता है। विश्व में हिंसा, अनाचार, अराजकता, अव्यवस्था व अशांति का बोलबाला है। ऐसे समय में ईश्वर आराधना का महत्व बढ जाता है।

देवोत्थान एकादशी को डिठवन भी कहा जाता है। चार माह के शयनोपरांत भगवान विष्णु क्षीरसागर में जागते हैं। हरि-जागरण के उपरांत ही शुभ-मांगलिक कार्य प्रारंभ होते हैं। क्योंकि शयनकाल में मांगलिक कार्य नहीं किए जाते। कार्तिक शुक्ल पक्ष की देवउठनी एकादशी और तुलसी विवाह के साथ ही परिणय-मंगल आदि के सभी मांगलिक कार्य पुनः प्रारंभ होते हैं। देवोत्थान एकादशी को दीपपर्व का समापन दिवस भी माना जाता है। इसीलिए इस दिन लक्ष्मी का पुण्य स्मरण करना चाहिए।


देवउठनी एकादशी के बाद गूँजेगी शहनाई
वर्ष २०१० में विवाह करने के इच्छुक जोडों की राह फिर साफ हो गई हैं। कुछ शुभ मुहूर्त छोडकर नवंबर व दिसंबर में विवाह होने से विवाह समारोहों की भरमार होगी। १८नवंबर २०१० से अनेक जोडे वैवाहिक बंधन में बंध सकेंगे। नवंबर से जनवरी तक वैवाहिक मौसम माना जाता है।
एक ही तारीखों पर काफी विवाह मुहूर्त होने से एक ही दिन में बैंड व घोडे वालों को काफी बारातों के ऑर्डर होंगे। उन्हें जल्दी एक बारात निपटाकर दूसरी पार्टी की बारात में जाना होगा। विवाह कार्यक्रम के लिए शादीहाल, गार्डन व धर्मशालाएँ महीनों पहले बुक होती हैं। फरवरी के मुहूर्त तक अभी से बुकिंग आरंभ कर दी गई है।
देवउठनी एकादशी सामाजिक चैतन्यता की प्रतीक मानी जाती है। तुलसी के पौधे ने घर के आँगन को तपोभूमि सा स्वरूप दिया है। आध्यात्मिक पर्यावरण को मनोरम बनाने में तुलसी की निर्णायक उपस्थिति रही है। कार्तिक मास तुलसी पूजन के लिए विशेष रूप से पवित्र माना गया है। नियमित रूप से स्नान के पश्चात् ताम्रपात्र से तुलसी को प्रातःकाल जल दिया जाता है। संध्याकाल में तुलसी के चरणों में घी का दीपक जलाते हैं। कार्तिक पूर्णिमा को इस मासिक दीपदान की पूर्णाहुति होती है।
कार्तिक मास की अमावस्या को तुलसी की जन्मतिथि मानी गई है, इसलिए संपूर्ण कार्तिक मास तुलसीमय होता है। कोई कार्तिक मास की एकादशी को तुलसी विवाह रचाते हैं। इस दिन तुलसी विवाह करना ज्यादा श्रेयस्कर माना जाता है। तुलसी विवाह की चिरायु परंपरा अनुपमदृश्य उपस्थित करती है। सामाजिक तौर पर देवउठनी ग्यारस या एकादशी से ही परिणय-मंगल व अन्य मांगलिक कार्य शुरू किए जाते हैं, इसलिए वैज्ञानिक विवेचन के अनुसार देवउठनी ग्यारस ही तुलसी विवाह की तर्कसंगत तिथि है।

तुलसी के संबंध में अनेक पौराणिक गाथाएँ विद्यमान हैं। विशिष्ट स्त्री जो अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी हो, उसे तुलसी कहा जाता है। तुलसी के अन्य नामों में वृन्दा और विष्णुप्रिया खास माने जाते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार जालंधर असुर की पत्नी का नाम वृन्दा था, जो बाद में लक्ष्मी के श्राप से तुलसी में परिवर्तित हो गई थी। मान्यता है कि राक्षसों के गुरु, शुक्र ने जालंधर दानव को संजीवनी विद्या में पारंगत किया था। जालंधर की पत्नी वृन्दा पतिव्रता नारी थी और पत्नी की इस पतिव्रता शक्ति के कारण वह अमरत्व के नशे में चूर होकर देवताओं को सताता था। नारद मुनि ने जालंधर के समक्ष पार्वती के सौंदर्य का वर्णन कर दिया, जिसे सुनकर दानव मुग्ध हो गया। फिर पार्वतीजी को पाने की इच्छा से जालंधर ने छद्म रूप से शिव का रूप धारण किया और कैलाश पर्वत जा पहुँचा। पार्वतीजी ने सहायता के लिए भगवान विष्णु का स्मरण किया। तब अपनी माया से भगवान विष्णु ने वृन्दा का सतीत्व भंग किया और जालंधर का वध किया।
वृन्दा के नाम पर ही श्रीकृष्ण की लीलाभूमि का नाम वृन्दावन पडा। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि आदिकाल में वृन्दावन में वृन्दा यानी तुलसी के वन थे।

तुलसी प्रत्येक आँगन में होती है और इसकी उपस्थिति से हर आँगन वृन्दावन हो उठता है। तुलसी के वृक्ष को अर्ध्य धूप, दीप, नैवेद्य आदि से प्रतिष्ठित किया जाता है। आयुर्वेदिक संहिताओं में उल्लेखित तुलसी की औषधि-क्षमताओं से धरती अभिभूत है। तुलसी पर्यावरण को स्वास्थ्यवर्धक बनाती है।
***


जया शर्मा केतकी

Sunday, November 14, 2010

अपर्णा मनोज भटनागर की कविताएँ

अपर्णा मनोज भटनागर एक ऐसी रचनाधर्मी हैं जिनके काव्य में भावुकता शब्दों का जामा पहन अपने स्वाभाविक रूप में प्रस्तुत होती है. शब्दरथि भाव, दर्द की की गहराई तक जाकर जब आकार पाते हैं तो पाठकमन स्वतः ही उन भावों के साथ बहता चला जाता है. आपके काव्य में परिष्कृत शब्दावली से युक्त शिल्प के साथ-साथ चिंतन और बोद्धिकता की प्रधानता भी रहती है जो कि चेतना को झकझोरने की क्षमता रखती हैं. आपका काव्य जब नव बिम्बों और उपमानो का जामा पहन पाठकों के समक्ष उपस्थित होता है तो पाठक सहज रूप से आबद्ध होता चला जाता है. ऐसी ही विलक्षण शब्दों और तीक्ष्ण भावों से सजी उनकी कुछ कविताएँ, जो अपने साथ ऐसे ही भावों, अनुभवों और नवीन प्रतीकों को सजाये हुए है, आपके समक्ष प्रस्तुत है..
राम से पूछना होगा

वह दीप चाक पर चढ़ा था
बरसों से ..
किसी के खुरदरे स्पर्श से
स्पंदित मिट्टी
जी रही थी
धुरी पर घूर्णन करते हुए
सूरज को समेटे
अपनी कोख में ..


वह रौंदता रहा
घड़ी-घड़ियों तक ...
विगलित हुई
देह पसीने से
और फिर न जाने कितने अग्नि बीज
दमक उठे अँधेरे की कोख में .


तूने जन्म दिया
उस वर्तिका को
जो उर्ध्वगामी हो काटती रही
जड़ अन्धकार के जाले
और अमावस की देहर
जगमगा उठी
पूरी दीपावली बन.


मिट्टी, हर साल तेरा राम
भूमिजा के गर्भ से
तेरी तप्त देह का
करता है दोहन
और रख देता है चाक पर
अग्नि परीक्षा लेता
तू जलती है नेह के दीवट में
अब्दों से दीपशिखा बन .
दीप ये जलन क्या सीता रख गयी ओठों पर ?
राम से पूछना होगा !
***

भूख

भूख का दमन चक्र
अपने पहिये के नीचे
...कुचलता है
औरों की भूख ..
तब भूख सत्ता का
प्रहसन भर होती है
जिसमें अमरत्व के लिए
रक्ष हारते हैं
देव जीतते हैं
और क्षुधा में बँट जाता है संसार
विष-अमृत
स्वर्ग-नरक
जाति-धर्म
संग-असंग
रंग-ढंग
बड़े बेढब ढंग से
हम पृथ्वी पर
कटे नक़्शे देखते हैं ..
भूख अकसर ऐसे ही काटती है
आदमी का पेट -
देशांतर रेखाओं की तरह
या शून्य डिग्री से ध्रुवों की ओर कटते अक्षांश ?
जिनके बीच समय का दबाब
तापमान और भूख का भूगोल
नयी परिरेखाएं खींचता है
पर इसका स्खलन नहीं होता
इतिहास के खंडहर की तरह ..
इसे समय की छाती पर
काही , ईवी , कुकुरमुत्ते की तरह
रोज़ उगता देखती हूँ !
***

सलीब

जब भी सलीब देखती हूँ
पूछती हूँ
कुछ दुखता है क्या ?
वह चुप रहती है
ओठ काटकर
बस अपनी पीठ पर देखने देती है
मसीहा ...
तब जी करता है
उसे झिंझोड़कर पूछूं
क्यों तेरी औरत
हर बार चुप रह जाती है सलीब ?
तब मूक वह
मेरी निगाहें पकड़ घुमा देती है
और कीलों का स्पर्श
दहला देता है मेरा वजूद
कुछ ठुक जाता है भीतर .
मेरी आँखें सहसा मिल जाती हैं
मसीहा से ..
वह मेरे गर्भ में रिसता है
और पूरी सलीब जन्म लेती है
मैं उसका बदन टटोलती हूँ
हाथ पैर
मुंह - माथा ..
अभी चूमना शेष है
कि ममता पर रख देता है कोई
कंटीला ताज
और मसीहा मुसकराता है ..
सलीब की बाहें
मेरा स्पर्श करती हैं
मैं सिहरकर ठोस हो गयी हूँ -
एक सूली
जिस पर छह बार अभियोग चलता है
और एक शरीर सौंप दिया जाता है
जिसने थक्का जमे खून के
बैंगनी कपड़े पहने हैं
कुछ मुझमें भी जम जाता है
ठंडा , बरफ , निस्पंद
फिर मैं सुनती हूँ
प्रेक्षागृह में
नेपथ्य से
वह चीखता है - "पिता मेरी आत्मा स्वीकार कर "
आकाश तीन घंटे तक मौन है
अँधेरी गुफा में कैद
दिशाएँ निस्तब्ध
कोई मुझे कुचल रहा है ..
कुचल रहा है
क्षरण... क्षरण ..
आह ! मेरे प्रेम का मसीहा
सलीब पर टंगा है .
और मेरी कातरता चुप !
***

( सलीब नारी है, मसीहा प्रेम - यहाँ मसीहा का trial दिखाया गया है. छह बार trial किया गया - तीन बार यहूदियों के सरदार ने और तीन बार romans ने. अंत में मसीहा के चीखने का स्वर है और सूली के बिम्ब से कातरता को दर्शाया है. कविता कीलों पर चल रही है, सलीब पर टंगी है और सूली पर झूल रही है- आशा है मर्म समझना कठिन न होगा.)
-अपर्णा भटनागर

Friday, November 12, 2010

प्रभा मुजुमदार की कविताएँ

रचनाकार परिचय
नाम: डॉ. प्रभा मुजुमदार
जन्म तिथि: 10.04.57, इन्दौर (म.प्र.)
शिक्षा: एम.एससी. पीएच.डी.(गणित)
सम्प्रति: तेल एवम प्राकृतिक गैस आयोग के आगार अध्ययन केन्द्र अहमदाबाद मे कार्यरत
प्रथम काव्य संग्रह: ‘अपने अपने आकाश’ अगस्त 2003 मे प्रकाशित. ‘तलाशती हूँ जमीन’ दूसरा काव्य संग्रह: 2009 मे.
विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं ‘वागर्थ’, ‘प्रगतिशील वसुधा’, ‘नवनीत’, ‘कथाक्रम’, ‘आकंठ’, ‘उन्नयन’, ‘संवेद वाराणसी’, ‘देशज’, ‘समकालीन जनमत’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘अहमदाबाद आकार’, ‘देशज’, ‘पाठ’, ‘लोकगंगा’, ‘समरलोक’, ‘समय माजरा’ अभिव्यक्ति अक्षरा उदभावना आदि में प्रकाशित.
नेट पत्रिकाओं ‘कृत्या’, ‘सृजनगाथा’, ‘साहित्यकुंज’ मे प्रकाशन
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण.
सम्पर्क: डॉ. प्रभा मुजुमदार, ए-3,अनमोल टावर्स, नारानपुरा, अहमदाबाद-380063.
दूरभाष: 079/27432654 मो. 09426614714

एहसास

एक पहचान थी

जो धीरे धीरे

मगर लगातार

मिटती जा रही है.

काफिले के भीतर

मै समाती जा रही हूँ.

मेरे शब्द

भीड के नारों में

खोते जा रहे हैं.

सोच.....

अब उसका महत्व नही

शायद जरुरत भी नही.

क्या है खोने के लिये अब

फिर भी अपने से इतना मोह.

मुठ्ठी में समा गये हों

जैसे सम्पूर्ण प्राण

मै कस कर

अपनी ही हथेलियां

भींचती जा रही हूँ.
***

मूल्यबोध

संशय के कोहरे में

डूबा हुआ सच

रिश्तों की गर्माहट

नकारता हुआ स्वार्थ

लोह दुर्ग के भीतर

गरजता फुफकारता अहम...

अपने ही अवमूल्यन को

समय के सापेक्ष देखते हुए

आत्म तुष्टि का अहसास

क्या एक विवशता भर है

सुनियोजित चुनाव नही?
***

सम्पूर्ण

दर्पण में उभरा एक अक्स

कभी धुन्धलाता

तो कभी चमकता हुआ

सूरज की प्रखरता के साथ

घटती बढती परछाई.

खंडहर में

शब्दों की गूँजती हुई

प्रतिध्वनियां....

अलग अलग ये हिस्से

मेरे ही हैं न?
***

सम्भावना

फिर खत्म हो गई एक कहानी.

चिन्दियाँ हवा में उड गईं.

शब्द पैराग्राफ और पन्नें

धूल, मिट्टी और पानी में गल गये.

जलते जख्म रिस कर गिरे थे

तब पूरी हुई थी शब्दों की यात्रा

कितने कितने अंतरविरोधों को पार कर.

फिर चुक गई मैं हमेशा की तरह

समय से बहुत पहले.

बटोरती हूँ शक्ति

आँसूओं की हर बून्द के साथ

अभिव्यक्त होती रहेगी अनुभूति.

फिर कोई नई कहानी आकार लेगी

इसी मलबे में से

बीते समय की पगध्वनियों से

आगत की सम्भावनाओं से.
***

आत्मबोध

एक नियत आकार

ले चुकने के बाद

बेमानी हो जाता है

अपने साँचे को लेकर

चिंतन और मंथन करना.

धुरी के साथ साथ

लगातार घूमते रहना एक सच है.

विपरीत दिशा या

मनचाही रफ्तार की

गुंजाइश नही है.

अपने अपने अधूरेपन को

सम्पूर्णता के साथ जी पाना

काश सम्भव हो पाता

तुलनाओं से होती निराशा

और पिछड जाने के दन्श से

छुटकारा तो मिलता.

क्यों अपने पर इतने प्रहार

नई शाखाओं मे पनपने के लिये

यथार्थ का बोध

हाथ पैर टूट जाने के बाद ही

क्यों होता है ?
***

समाधान

प्रश्न ...

जो खत्म नही होते

और उत्तर

तलाशे नही जा सकते

मकडी के जाले में

फँसे होने का

अहसास दिलाते हुए

चट्टानों से टकराकर

लौटती गरजती लहरों के साथ

तो कभी इन्द्रधनुष के रंगों में

तलाशती हूँ

शायद छिपा हो

कोई जवाब.
***

अभिनय

मेरे चारों ओर

मुखौटों के जंगल है.

मुखौटें...

जिन्हें सुविधानुसार पहनने

उतारने और

बदलने की आजादी होती है.

गांव की चौपाल से लेकर

वैश्विक मंचों तक

सब कुछ कैमरों में कैद है.

प्रशिक्षण शालाओं में

सिखाया जा रहा है

बोलने, हंसने, रोने

और खडे होने के ढंग.

मुझे अपनी उपस्थिति दर्ज करानी है

हर जूलुस में

हर जलसे में.
***

Thursday, November 11, 2010

मीना पाण्डे की तीन कविताएँ

मीना पाण्डे हिंदी साहित्यिक क्षितिज में एक चमकता हुवा सितारा है. साहित्य के प्रति समर्पित आप 'सृजन से' त्रैमासिक पत्रिका का संपादन करने के साथ ही 'लोक रंग' पत्रिका के माध्यम से समकालीन साहित्य के साथ-साथ रचनात्मक कला के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट योगदान कर रही हैं, जो कि सराहनीय है और स्तुत्य है. आपके कविता संग्रह- 'संभावना' 'मुक्ति' और 'मेरी आवाज़ सुनो' भी प्रकाशित हो चुके हैं. आपकी रचनाएँ समय-समय पर विभिन्न स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रही हैं. आप 'मोहन उप्रेती लोक संस्कृति कला एवम विज्ञान शोध समिति' की फाउंडर सदस्या भी हैं. आज के अंक में रचनाधर्मी मीना पाण्डे की लेखनी से निकली की कुछ कविताएँ पेशेनज़र है..

ग्रामीण युवक

वो पगदण्डी पर
शहर को निहारता युवक
"या" डाकिये के थैले में पडा
एक पुराना खत।

उसका जीवन
खेतों पर हल चलाने जैसा है
वो बैल बनकर भी
नही उगा पाता
इन खेतों पर अपने हिस्से का भविष्य।

उसकी रातें लम्बे पहाडों पर
कोहरे सी छट जाती है
जब वो बूढी ख्वाहिश "औ"
नन्हे सपने
शराब समझकर पी जाता है।

वो शहर की चिमनियों से निकलता
पहाड के पलायन का दर्द
"या" महानगर की धमनियों से बहता
गावों की उम्मीदों का खून।

बचपन मे वो
पाठी जैसा दिखता था
बडा हुआ तो
हर महिने के खत मे तबदील हुआ
"औ" जब चल बसा था
वो अचानक टेलिग्राम हो गया।
***

बचपन के जमाने

पतंग की डोर-सी, सपनों की उडाने दे दो,
दो घडी के लिए, बचपन के जमाने दे दो।

जहां ये मतलबी है, दिल यहां नहीं लगता,
मुझपे एहसान कर, दोस्त पुराने दे दो।

गांव की हाट को बेमोल है रूपया-पैसा,
बूढे दादा की चवन्नी के जमाने दे दो।

थके-थके से हैं, दिन रात, मुझे ठहरने को,
मां के घुटनों के, वो गर्म सिरहाने दे दो।

निगाहें ढूढंती हैं, उन सर्द रातों में, मुझे
फ़िर ख्वाब में, परियों के ठिकाने दे दो।

ये तरसी हैं, बहुत, ला अब तो, मेरी
इस भूख को, दो-चार निवाले दे दो।
***

समाज....

मैं बहस हूं
इस सभा की
इसी जगह मेरे लिए
कई वाद तलाशे जायेंगे।
जब पुंजीवाद
मेरे बदुवे मे खसोटा गया होगा
समाजवाद केबल पर
प्रसारित हो रहा होगा
"औ" घर की खिडकी में
पसरे पडे खेतों पर
दूर तक उग आया होगा
मार्क्सवाद ही मार्क्सवाद।
***
Meena Pandey
Address- M-3 MIG Flat, C-61 Vaishav Apartment
Shalimar Garden-2, Sahibabad, Gaziabad
Uttar Pradesh, Pin-201005

Tuesday, November 9, 2010

बलराम अग्रवाल की दो लघुकथाएँ

बलराम अग्रवाल का नाम हिंदी साहित्य जगत में किसी पहचान का मोहताज़ नहीं. उनकी लेखनी साहित्य की हर विधा में अपने स्याही बिखेरने में सक्षम है, खास कर आपकी लघुकथाएं और उनका विषय चयन समकालीन होने के साथ-साथ सोचने पर भी मजबूर कर देने की क्षमता रखती हैं. आप निरंतर 'जनगाथा', 'कथायात्रा' एवं 'लघुकथा-वार्ता' के माध्यम से लघुकथा-साहित्य सुधि पाठकों तक पहुंचाते रहे हैं साथ ही 'अपना दौर' कथा-साहित्य से इतर चिन्तन व अनुभवों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास भी करते रहे है। आज उनकी दो लघु कथाएं- 'भरोसा' और 'अथ ध्यानम' कथाओं के माध्यम से उनका सन्देश आप सबकी नज़र है. आशा है उक्त कथाओं में निहित सन्देश बलराम जी की अभिव्यक्ति को सार्थक कर आपको प्रभावित भी करेगा...

भरोसा

झगड़ा करना हो तो किसी को बात का बतंगड़ बनाने की जरूरत नहीं होती, वह बेबात भी किया जा सकता है। और झगड़े को अगर दंगे का रूप देना हो तो…इस देश में तो यह बहुत ही आसान है। बेशक, यही हुआ भी होगा। शाम होते-होते इलाके में कर्फ्यू लागू कर दिया गया था।

रात होते-होते बाप-बेटे के दिमाग में पड़ोसी को फँसा देने की योजना कौंधी।

“इस साले का घर फूँक डालने का यह बेहतरीन मौका है पापा।” बेटा बोला,“ना रहेगा बाँस और ना…”

“उल्लू का पट्ठा है तू।” बाप ने उसे झिड़का,“घर को आग लगाने से बाँस खत्म नहीं होगा…मजबूत हो जाएगा और ज्यादा।”

“कैसे?”

“मुआवजा!” बाप बोला,“इन्हें तो सरकार वैसे भी दुगुना देती है।”

“फिर?”

“फिर क्या, कोई दूसरा तरीका सोच।”

दोनों पुन: विचार-मुद्रा में बैठ गए।

“आ गया।” एकाएक बेटा उछलकर बोला। बाप सवालिया नजरों से उसकी ओर देखने लगा।

“उसके नहीं, हम अपने घर को आग लगाते हैं।” बेटे ने बताया,“स्साला ऐसा फँसेगा कि मत पूछो। साँप भी मर जाएगा और…”

“बात तो तेरी ठीक है…” बाप कुछ सोचता-सा बोला,“लेकिन बहुत होशियारी से करना होगा यह काम। ऐसा न हो कि उधर की बजाय इधर के साँप मर जायँ और बराबर वाले की बिना कुछ करे-धरे ही पौ-बारह हो जाय।”

“उसकी फिकर तुम मत करो।” वह इत्मीनान के साथ बोला,“आग कुछ इस तरह लगाऊँगा कि शक उस के सिवा किसी और पर जा ही ना सके।”

यह कहते हुए वह उठा और बाहर का जायजा लेने के लिए दरवाजे तक जा पहुँचा। बड़ी सावधानी के साथ बे-आवाज रखते हुए उसने कुंडे को खोला और एक किवाड़ को थोड़ा-सा इधर करके पड़ोसी के दरवाजे की ओर बाहर गली में झाँका। उसकी साँस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई जब अपने मकान के सामने गश्त लगा रहे पड़ोसी चाचा ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया।

“ओए, घबराओ नहीं मेरे बच्चे!” उसे देखते ही वे हाथ के लट्ठ से जमीन को ठोंकते हुए बोले,“जब तक दम में दम है, परिंदा भी पर नहीं मर सकता है गली में। अपने इस चाचा के भरोसे तू चैन से सो…जा।”
***

अथ ध्यानम्

आलीशान बंगला। गाड़ी। नौकर-चाकर। ऐशो-आराम। एअरकंडीशंड कमरा। ऊँची, अलमारीनुमा तिजौरी। करीने से सजा रखी करेंसी नोटों की गड्डियाँ। माँ लक्ष्मी की हीरे-जटित स्वर्ण-प्रतिमा।

दायें हाथ में सुगन्धित धूप। बायें में घंटिका। चेहरे पर अभिमान। नेत्रों में कुटिलता। होंठ शान्त लेकिन मन में भयमिश्रित बुदबुदाहट।
“नौकरों-चाकरों के आगे महनत को ही सब-कुछ कह-बताकर अपनी शेखी आप बघारने की मेरी बदतमीजी का बुरा न मानना माँ, जुबान पर मत जाना। दिल से तो मैं आपकी कृपा को ही आदमी की उन्नति का आधार मानता हूँ, महनत को नहीं। आपकी कृपा न होती तो मुझ-जैसे कंगले और कामचोर आदमी को ये ऐशो-आराम कहाँ नसीब था माँ। आपकी जय हो…आपकी जय हो।”
***
-बलराम अग्रवाल
संपर्क: एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32

Sunday, November 7, 2010

श्यामल सुमन की पाँच रचनाएँ

परिचय
नाम : श्यामल किशोर झा
लेखकीय नाम : श्यामल सुमन
जन्म तिथि: 10.01.1960
जन्म स्थान : चैनपुर, जिला सहरसा, बिहार
शिक्षा : स्नातक, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र एवं अँग्रेज़ी
तकनीकी शिक्षा : विद्युत अभियंत्रण में डिप्लोमा
वर्तमान पेशा : प्रशासनिक पदाधिकारी टाटा स्टील, जमशेदपुर
साहित्यिक कार्यक्षेत्र : छात्र जीवन से ही लिखने की ललक, स्थानीय समाचार पत्रों सहित देश के कई पत्रिकाओं में अनेक समसामयिक आलेख समेत कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, हास्य-व्यंग्य आदि प्रकाशित
स्थानीय टी.वी. चैनल एवं रेडियो स्टेशन में गीत, ग़ज़ल का प्रसारण, कई कवि-सम्मेलनों में शिरकत और मंच संचालन।
अंतरजाल पत्रिका "अनुभूति, हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुञ्ज, साहित्य शिल्पी आदि में सैकड़ों रचनाएँ प्रकाशित।
गीत ग़ज़ल संकलन "रेत में जगती नदी" कला मंदिर प्रकाशन में शीघ्र प्रकाशनार्थ
रुचि के विषय : नैतिक मानवीय मूल्य एवं सम्वेदना

यह जीवन श्रृंगार प्रभु

सबकी है सरकार प्रभु
क्या सबको अधिकार प्रभु

आमलोग जीते मुश्कल से
इतना अत्याचार प्रभु

साफ छवि लाजिम है जिनकी
करते भ्रष्टाचार प्रभु

मँहगाई, आतंकी डर से
दिल्ली है लाचार प्रभु

रिश्ते-नाते आज बने क्यों
कच्चा-सा व्यापार प्रभु

अवसर सबको मिले बराबर
यह जीवन श्रृंगार प्रभु

लोग खोजते अब जीवन में
जीने का आधार प्रभु
देव-भूमि भारत में अब तो
लगता सब बेकार प्रभु

सुना युगों से करते आये
जुल्मों का संहार प्रभु

सुमन आस है, नहीं डरोगे
क्या लोगे अवतार प्रभु
***
क्या बात है

अपनों के आस पास है तो क्या बात है
यदि कोई उसमें खास है तो क्या बात है
मजबूरियों से जिन्दगी का वास्ता बहुत,
दिल में अगर विश्वास है तो क्या बात है

आँखों से आँसू बह गए तो क्या बात है
बिन बोले बात कह गए तो क्या बात है
मुमकिन नहीं है बात हरेक बोल के कहना,
भावों के साथ रह गए तो क्या बात है

इन्सान बन के जी सके तो क्या बात है
मेहमान बन के पी सके तो क्या बात है
कपड़े की तरह जिन्दगी में आसमां फटे,
गर आसमान सी सके तो क्या बात है

जो जीतते हैं वोट से तो क्या बात है
जो चीखते हैं नोट से तो क्या बात है
जो राजनीति चल रही कि लुट गया सुमन,
जो सीखते हैं चोट से तो क्या बात है
***
मुस्कान ढ़ूढ़ता हूँ

तेरे प्यार में अभी तक मैं जहान ढ़ूढ़ता हूँ
दीदार हो सका न क्यूँ निशान ढ़ूढ़ता हूँ

जब मतलबी ये दुनिया रिश्तों से क्या है मतलब
इन मतलबों से हटकर इन्सान ढ़ूढ़ता हूँ

खोया है इश्क में सब आगे है और खोना
खुद को मिटाने वाला नादान ढ़ूढ़ता हूँ

एहसास उनका सच्चा गिरकर जो सम्भलते जो
अनुभूति ऐसी अपनी पहचान ढ़ूढ़ता हूँ

कभी घर था एक अपना जो मकान बन गया है
फिर से सुमन के घर में मुस्कान ढ़ूढ़ता हूँ
***

दूजा नया सफर है

निकला हूँ मैं अकेला अनजान सी डगर है
कोई साथ आये, छूटे मंजिल पे बस नजर है

महफिल में मुस्कुराना मुश्किल नहीं है यारो
जो घर में मुस्कुराये समझो उसे जिगर है

पी करके लड़खड़ाना और गिर के सम्भल जाना
इक मौत जिन्दगी की दूजा नया सफर है

जब सोचने की ताकत और हाथ भी सलामत
फिर बन गए क्यों बेबस किस बात की कसर है

हम जानवर से आदम कैसे बने ये सोचो
क्यों चल पड़े उधर हम पशुता सुमन जहर है
***
दिल्ली से गाँव तक

अंदाज उनका कैसे बिन्दास हो गया
महफिल में आम कलतक वो खास हो गया
जिसे कैद में होना था संसद चले गए,
क्या चाल सियासत की आभास हो गया

रुकते ही कदम जिन्दगी मौत हो गयी
प्रतिभा जो होश में थी क्यों आज सो गयी
कल पीढ़ियाँ करेंगी इतिहास से सवाल,
क्यों मुल्क बचाने की नीयत ही खो गयी

मरते हैं लोग भूखे बिल्कुल अजीब है
सड़ते हैं वो अनाज जो बिल्कुल सजीव है
जल्दी से लूट बन्द हो दिल्ली से गाँव तक,
फिर कोई कैसे कह सके भारत गरीब है

आतंकियों का मतलब विस्तार से यारो
शासन की कोशिशे भी संहार से यारो
फिर भी हैं लोग खौफ में तो सोचता सुमन,
नक्सल से अधिक डर है सरकार से यारो
*******

Thursday, November 4, 2010

दीपोत्सव आखर कलश के संग- दीपावली विशेषांक

 दीपोत्सव महोत्सव
आज के दौर में समाज में हमें निराशा, भय-आतंक और दगाबाज़ीने घेरा है | ऐसे मैं "आखर कलश" परिवार आपके लिएँ साहित्य-संस्कृति और आध्यात्मिकता से जुड़े विचारों का छोटा सा दीप लेकर खडा है | चारों तरफ भले ही अंधकार का साम्राज्य हो, मगर जहां अपने शुद्ध विचार और शुद्ध आत्मा का दीप जलता हो वहां दुःख-दर्द, निराशा या भय की कालिमा दूर हो जायेगी | मैं आप सबको आहवान करता हूँ कि इस छोटे से दीप को बुझाने न दें|आप भी हमारे साथ इसमें श्रद्धा और भक्ति से इसे बचाए रखेंगे तो छोटा सा दीप एक-न-एक दिन सूर्य बन जाएगा |आप सभी को दीपावली के इस पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ! महालक्ष्मी आप पर सदा मेहरबान रहे. आप और आपका परिवार सुखी हो, मंगलमय हों, ऐसी  श्रीगणेश जी, प्रभु श्री हरि और माँ लक्ष्मी से प्रार्थना करते हैं. दीपावली महोत्सव को धूमधाम से मनाने के प्रयोजनार्थ आप सभी के लिए प्रस्तुत है रश्मि प्रभा, सुधा ओम धींगरा, संगीता सेठी, जया केतकी, राजेश उत्साही, अरुण रॉय और सुनील गज्जाणी के साथ मिलकर आस्था और विश्वास के दीपक जलाएँ और अपने सुखों की रंग-बिरंगी फुलझडियाँ मिलजुलकर बाँटें और दुखों को प्रेम की चिंगारी से पटाखों के धुएं में उड़ा दें...
-संपादक मंडल

लक्ष्मी का तांडव

साप्ताहिक योजना में
घर की सफाई हो रही है
हर कोने की गन्दगी हटाई जा रही है
छोटी-बड़ी हर दुकानें
सज गई हैं
एक साल की धूल हटाकर
लक्ष्मी की प्रतीक्षा है सबको !
........................
पर जो गंदगियाँ पोखर,तालाबों,
नदियों,पहाड़ों, सड़कों के किनारे हैं
उनका क्या होगा?
जो ईर्ष्या,द्वेष,घृणा,उपेक्षा की परतें
हमारे अन्दर हैं
उनका क्या होगा?
इन गंदगियों को पारकर
लक्ष्मी कैसे आएँगी?
क्यूँ आएँगी?
.........................
साप्ताहिक सफाई का
सारा नज़ारा लक्ष्मी ने भी देखा है
मंद मुस्कान लिए
मन की परतों को भी जाना है
दीये की लौ
कितनी ईमानदार है
और कितनी भ्रष्ट....
सबकुछ पहचाना है !
.........जहाँ ईमानदारी है
वहां लक्ष्मी वैभव बनकर आएँगी
भ्रष्टाचार की दुनिया में
जहाँ उनको उछाला जाता है
वहां तांडव ही करके जाएँगी !
पटाखों की शोर में
स्व की मद में
शायद तुम्हें अभी पता न चले
पर सारा हिसाब लक्ष्मी करके जाएँगी
चुटकी बजाते
दीवालेपन की घंटी बजाकर जाएँगी !
***
-रश्मि प्रभा

रावण दहन का उत्साह
दीपावली की जगमगाहट
पटाकों की खड़खड़ाहट
हमें
उस सन्देश से दूर ले जाते हैं
जो
हर वर्ष ये त्यौहार ले कर आते हैं |

राम के आदर्शों को
छोड़ते जा रहे हैं हम
और रावण की सोच
बढ़ती है जा रही |

काश!
हम जला पाते
भीतर के रावण को,
मिटा पाते
उस मानसिकता को,
जो उत्साहित करती है
रावणी प्रवृति को |

काश!
हम राम की मर्यादा का
तेल डाल
उनके आदर्शों की बाती बना
दीपावली के दिये जला
रावणी प्रवृति वाले
हृदय रौशन कर सकें |
इस पर्व को मनाने के
अर्थ सार्थक कर सकें |
***
-सुधा ओम ढींगरा
नार्थ कैरोलाईना ( यू. एस. ए )

दीप माला

रिश्ते
जो बुने
हमने
विश्वास की सड़क पर
चलते हुए
पकड़े हुए
स्नेह के
मजबूत हाथ
एक दूसरे से
मिलकर
श्रद्धा की श्रंखला
बनाते हुए
जैसे आज दीवाली का
हर दीप
मिलकर
दूसरे दीप से
बनाता हैं माला
और करता है रौशन
अमावस की रात

आओ!
हम
तुम
सब
मिलकर बनाएँ
विचारों की
दीपमाला
और करें
एक दूजे के लिए
दुआ
शुभ हो जीवन
शुभ दीपावली
***

लम्हों का हिसाब: दीप

दीपावली का हर दीप
तुम्हारे साथ बिताए
लम्हों का
देता है हिसाब

दीप में दिपदिपाती लौ
तुम्हारे साथ लिए
हर फैसले को
रौशन करती हुई
दीप में पिघली वसा
तुम्हारे स्नेह की
आँच मे सराबोर
पिघलती हुई मैं
दीप का रौशन वलय
तुम्हारे इर्द-गिर्द
होने का अह्सास
मेरे साथ
दीपों के किनारे
वसा की सुरक्षा
कहीं निकल ना जाएँ
दीप के प्राण

हर दीपावली पर
एक दीप का इज़ाफा
मेरी ज़िन्दगी को
रौशन सा करता

आज पीछे मुड़कर देखूँ
तो लम्बी दीपमाला
नज़र आती है
आकाश-गंगा की तरह
***
-संगीता सेठी

दीप सजा करते थे कतार बद्ध होकर

दीप सजा करते थे कतारबद्ध होकर
उन पर भी था एक अनुशासन
एक अनुशासन हुआ करता था कभी,
दीप जलाने वालों पर भी,
मेहनत की माटी से गढ़े जाते थे,
मन के रंगों से रंगे जाते,
कहाँ गुम हो रही है सभ्यता?
बदलती जा रही है संस्कृति धीरे-धीरे।
क्या यही विकास है?
या फिर व्यापार की प्रगति का नतीजा,
सब निरुत्तर हैं, मौन हो निहारते,
मूक भाषा में व्यक्त होती है सहमति।
इसमें शामिल है भागते समय की,
कभी न थमने वाली अबाध गति।

मुझे आज भी याद है, वह पंक्ति,
जिससे घर की मुंडेर जगमगाती थी घण्टों,
आतिशबाजियों की आहटों से बेखबर,
बचाया करते थे दीपों को बुझने से,
थक कर हार जाता था, अमावस का अंधेरा,
आँख लगने तक जगमगाती थी मुंडेर।
थाम लेती थी आकर सूरज की किरणें,
न अब वह क्रम रहा, न ही वह अनुशासन!
एक खटका दबाते ही रोशन हो जाती है, पूरी इमारत,
मिटा देती है पल भर में अंधेरा,
बस नहीं मिटा पाती तो वह है,
हर मन में भरता जाता तमस,
आशा है, ऐसी किरण की जो रोशन करे,
हर घर का मन आँगन, हर मन का आँगन!
***
-जया केतकी

गठरी

एक गठरी मिली
धूल से भरी
फटे-पुराने कपड़ों से बंधी
पछेती पे
मन-मस्तिष्क पे
यादें उभरने लगी
खादी का कुरता
बाबू जी का पर्याय !
बेल-बूटे की साड़ी
जो माँ को
शादी की सालगिरह पे
बाबू जी ने
सौगात दी थी !
चंद इंच के
जन्म के कपडे
माँ के हाथों बने !
गुड्डू की गुडिया
धरोहर सी बनी ये वस्तुएं
अटाले में पडी
यादें फिर उभार दी
दीपावली ने
मान-मस्तिष्क पे
झाड-पूंछ
रंग-रोगन के बीच
***
-सुनील गज्जाणी

जलेंगे
फिर इस दिवाली पर
आशा का तेल भरे दिए
कपास की झक्‍क सफेद बाती
होकर काली फैलाएगी प्रकाश

छूटेंगी
फुलझडि़यां,खिलेंगे अनार
हवा में बिखरेगी रंग-बिरंगी छटा

गूंजेगा
असहनीय शोर
बन जाएगा युद्ध का मैदान
शांत-सा यह आकाश

हवा में
होगी बारूद की गंध
सांस लेने में निकलेगी जान
और न लें तो भी निकलने को होंगे प्राण

सड़क पर
चलना होगा दूभर
अघोषित कर्फ्यू की गिरफ्त में होंगी गलियां
बहरहाल......

जो जलाएंगे
दिया,
मन का
आत्‍मा की कालिख करके साफ

जो फैलाएंगे
उल्‍लास,
रचनात्‍मक सोच का

जो बांटेगें
मिष्‍ठान,
अपने सुविचारों का

दिवाली
हो उनको मुबारक।
***
-राजेश उत्साही

दिए को अफ़सोस है

मिटटी से
गढ़ कर
बनाया गया है मुझे
रोशन करने को
घर आँगन

वर्षो से
जलता आ रहा हूँ मैं
घर घर
आँगन आँगन
ओसारे ओसारे
दालान दालान
देहरी देहरी
हर दिन
हर वर्ष
लेकिन अफ़सोस ही रहा
मुझे सदियों से

ख़ुशी नहीं होती मुझे
जल कर भी जो
मिटा नहीं पाता मैं
किसी के
भीतर का अन्धकार
***
-अरुण सी. रॉय

Tuesday, November 2, 2010

सुमन सारस्वत की दो कविताएँ

लेखिका सुमन सारस्वत ने पत्रकारिता के क्षेत्र में लंबी पारी पूरी की. मुंबई से दैनिक जनसत्ता का संस्करण बंद हुआ तो सुमन ने भी अखबारी नौकरी छोडकर घर की जिम्मेदारी संभाल ली. मगर एक रचनाकार कभी खाली नहीं बैठता. अखबारी लेखन के बजाय सुमन कहानी में कलम चलाने लगी. पत्रकार के भीतर छुपी कथाकार अखबारी फीचर्स में भी झलकता था. बहुत कम लिखने वाली सुमन सारस्वत की ‘बालू घडी’ कहानी बहुत चर्चित रही. उनकी नई कहानी ‘मादा’ बहुत पसंद की गई . एक आम औरत के खास जजबात को स्वर देने वाली इस कथा को मूलतः विद्रोह की कहानी कहा जा सकता है. यह कथा ‘आधी दुनिया’ के पीडाभोग को रेखांकित ही नहीं करती बल्कि उसे ऐसे मुकाम तक ले जाती है जहां अनिर्णय से जुझती महिलाओं को एकाएक निर्णय लेने की ताकत मिल जाती है . लंबी कहानी ‘मादा’ वर्तमान दौर की बेहद महत्वपूर्ण गाथा है . सुमन सारस्वत की कहानियों में स्त्री विमर्श के साथ साथ एक औरत के पल-पल बदलते मनोभाव का सूक्ष्म विवेचन मिलता है.
email : sumansaraswat@gmail.com

जिंदगी कितनी मुश्किल हो जाती है

जिंदगी
कितनी मुश्किल हो जाती है
जिंदगी
कितनी भारी हो जाती है
जब तुम सब कुछ हाथों में
पकड कर रखो...
जकड कर रखो...
इसलिए ,
खोल दो मुट्ठियों को
खोल दो ग्रंथियों को
सब कुछ निकल जाने दो
सब कुछ बिछल जाने दो
फूंक-फूंक कर उडा दो
थूक-थूक कर बहा दो
कूडा-करकट ,
गर्दा-वर्दा
फिर
मैल न जमने पाए
फिर
हाथ न फैलने पाए
कि तुम
लौट आओ अपने में
कि तुम
सिमट जाओ सपने में
अब तुम कसो मुट्ठियों को
सिर्फ कर्म करने के लिए
क्योंकि
सिर्फ करने पर
होगा तुम्हारा अख्तियार
....और
वही होगा
तुम्हारा पुरस्कार.......
***

मैं अपने आंसू नहीं गिराना चाहूंगी

मैं अपने आंसू नहीं गिराना चाहूंगी
दहकते कोयलों पर
मैं अपने आंसू नहीं चुआना चाहूंगी
बुझी राख पर
तुम अपनी हथेलियां सरका देना
मैं अपने आंसू ढरका दूंगी
फिर तुम अहसास करना
अपनी हथेलियों पर एक बूंद का
जिसमें समाया है खारा पानी
जो वेगवान है महासमुद्र से भी ज्यादा
तुम अपनी हथेलियों पर सहेजना
इस बूंद को...
जिसमें समाया है एक पिंड
जिसमें समा जाना है एक दिन
इस ब्रह्मांड को
इस कायनात को...
इस अहसास को तुम महसूस करो
इस पिंड में समाए हो तुम
और मैं भी....
फिर यह पिंड समा जाएगा
उस पिंड में जहा....
न यह ब्रह्मांड बचेगा
न यह कायनात रहेगी कायम
जहां खो जाएंगे अर्थ....
‘मैं’ और ‘तुम’ के
...तो पिंड होने से पहले
अहसास कर लो अपने होने का
अहसास कर लो मुझे जीने का
इसीलिए यह जो बूंद है तुह्मारी हथेली पर
इसे तुम छुओं अपनी ऊंगली से
तुम्हारी आंच से कहीं
उड न जाए भाप बनकर
उससे पहले इसे लगा लो
अपनी आंखों में
गंगाजल की बूंद की तरह
जहां सद्गति पा जाएं
मेरे सारे भाव...
तर जाएं मेरी शापित इच्छाएं
फिर मैं कहलाऊं मोक्षदा
***