Thursday, May 27, 2010

गोविन्‍द गुलशन की चार ग़ज़लें


















1.
ग़म का दबाव दिल पे जो पड़ता नहीं कभी 
सैलाब आँसुओं का उमड़ता नहीं कभी

तर्के- त’अल्लुक़ात को बरसों गुज़र गए 
लेकिन ख़याल उसका बिछड़ता नहीं कभी

जिसकी जड़ें ज़मीन में गहरी उतर गईं
आँधी में ऐसा पेड़ उखड़ता नहीं कभी

मुझसा मुझे भी चाहिए सूरज ने ये कहा
साया मेरा ज़मीन पे पड़ता नहीं कभी

सूरज हूँ जल रहा हूँ बचा लीजिए मुझे
बादल मेरे क़रीब उमड़ता नहीं कभी

2 .
सम्हल के रहिएगा ग़ुस्से में चल रही है हवा
मिज़ाज गर्म है मौसम बदल रही है हवा

वो जाम बर्फ़ से लबरेज़ है मगर उससे
लिपट-लिपट के मुसलसल पिघल रही है हवा

उधर तो धूप है बंदिश में और छतों पे इधर
लिबास बर्फ़ का पहने टहल रही है हवा

बुझा रही है चराग़ों को वक़्त से पहले
न जाने किसके इशारों पे चल रही है हवा

जो दिल पे हाथ रखोगे तो जान जाओगे
मचल रही है बराबर मचल रही है हवा

3 .
इक चराग़ बुझता है इक चराग़ जलता है
रोज़ रात होती है,रोज़ दिन निकलता है

जाने कौन-सी ख़ुशबू बस गई है आँखों में
जाने कौन है वो जो ख़्वाब में टहलता है

क्या अजीब होता है इंतिज़ार का आलम
मौत आ भी जाए तो दम नहीं निकलता है

वादियों में नींदों की मुतमइन तो हूँ लेकिन
कौन मेरे बिस्तर पर करवटें बदलता है

ख़ूब काम आती है आपकी हुनरमंदी
आपका अँधेरे में तीर ख़ूब चलता है

रौशनी महकती है रात-रात भर ’गुलशन’
जब चराग़ यादों की महफ़िलों में जलता है


और अब एक ख़ास ग़ज़ल
(इस ग़ज़ल में क़ाफ़िया और रदीफ़ दुगुन में (दोहरे) इस्तेमाल किए गए हैं)
उसकी आँखों में बस जाऊँ मैं कोई काजल थोड़ी हूँ       
उसके शानों पर लहराऊँ मैं कोई आँचल थोड़ी हूँ 

ख़्वाबों से कुछ रंग चुराऊँ फिर उसकी तस्वीर बनाऊँ
तब अपना ये दिल बहलाऊँ मैं कोई पागल थोड़ी हूँ 

जिसने तोला कम ही तोला, सोना तो सोना ही ठहरा
मैं कैसे पीतल बन जाऊँ मैं कोई पीतल थोड़ी हूँ

सुख हूँ मैं फिर आ जाऊँगा मुझको जाने से मत रोको
जाऊँ, जाकर लौट न पाऊँ मैं कोई वो पल थोड़ी हूँ 

जादू की डोरी से उसने मुझको बाँध लिया है 'गुलशन'
बाँध लिया तो शोर मचाऊँ मैं कोई पायल थोड़ी हूँ
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Tuesday, May 25, 2010

साधना राय की कविता - हिमालय


नामः- श्रीमती साधना राय
पिताः- स्वर्गीय श्री हरि गोविन्द राय (अध्यापक)
माता:- श्रीमती  प्रभा राय (गृहणी)
पतिः- श्री संजय कुमार राय, माइंनिक इंजीनियर  (बिजनेस-फरीदाबाद,हरियाण)
शिक्षाः- माध्यमिक परीक्षा-1982-ज्ञान भारती बालिका विद्यालय, कलकत्ता उच्च माध्यमिक परीक्षा-1984-सेठ आनन्‍द राम जयपुरिया कालेज,कलकत्ता
बी.ए.आनर्स (हिन्दी)  -1987- सेठ आन्नद राम जयपुरिया कालेज,कलकत्ता
साहित्य रत्न-1988- प्रयाग विश्वविद्यालय,इलाहाबाद
बी.ए.स्पेशल(अंग्रेजी) -1988- कलकत्ता विश्वविद्यालय,
एम.ए. (हिन्दी) -1990 - कलकत्ता विश्वविद्यालय
बी.एड. -1991 आचार्य जगदीश चन्द्र बोस कालेज,कलकत्ता
व्यवसायः- प्रध्यापक,हिन्दी शिक्षण योजना,सिलीगुडी़-1993-(तदर्थ नियुक्ति)
कनिष्ठ हिन्दी अनुवादक,धातु एवं इस्पात निर्माणी,ईशापुर,रक्षा मंत्रालय अक्टूबर,1994
कनिष्ठ हिन्दी अनुवादक,तोप एवं गोला निर्माणी,काशीपुर, रक्षा मंत्रालय कलकत्ता-फरवरी,2003
वरिष्ठ हिन्दी अनुवादक,आयुध निर्माणी बोर्ड,कलकत्ता, रक्षा मंत्रालय  - फरवरी,2006
पताः-    यमुना अपार्टमेन्ट,10/1,यादव चन्द्र घोष लेन,कोलकाता,बरानगर, कोलकाता-36
रूचिः-    साहित्यिक उपन्यास,कहानी,काव्य, संगीत-(मुकेश, मुहम्मद रफी़यशुदास, कुमार शानु , लता, आशा, कविता कृष्णमूर्ति यागनिक) संगीत वाद्य यंत्र(गिटार), हस्त कल 
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हिमालय
, पर्वतराज हिमालय,
कितना अद्भुत,कितना मनोरम।
दूर-दूर फैली तेरी बाहें,
विस्मित कर देती है मुझकों।
प्रथम किरणों से स्पर्शित हो,
स्वर्णमय हो जाता है तू।
तेरे क्रोड़ में फैली सुरम्य वन-खण्डी,
मानों कलाकार की स्वप्निल चित्रकारी हो जैसे।
, पर्वतराज हिमालय,
कितना अद्भुत,कितना मनोरम।
तेरे वक्षस्थल से निकले सर-सरिताएँ,
अपने नव जीवन पर हैं इतराती।
ऋषि-मुनि,विद्वजन की उत्कंठित,
जिज्ञासा की भूख मिटाता है तू।
पर्वतारोही को जिन्दगी एक समर है,
सबक सिखलाता है तू।
, पर्वतराज हिमालय,
कितना अद्भुत,कितना मनोरम।
अनंत काल से मौन खड़ा,
किस तपस्या में लीन है तू।
, महायोगी तेरी लीला देख-देख,
नतमस्तक हो उठती हूँ मैं।
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Monday, May 24, 2010

आकांक्षा यादव की कविताएँ


नामः  आकांक्षा यादव
जन्मः ३० जुलाई १९८२, सैदपुर, गाजीपुर (उ० प्र०)          
शिक्षाः एम० ए० (संस्कृत)
विधाः कविता, लेख, बाल कविताएंँ व लघु कथा।
प्रकाशनः   
देश की लब्ध-प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं- साहित्य अमृत, कादम्बिनी, इण्डिया टुडे, स्त्री, युगतेवर, आजकल, इण्डिया न्यूज, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, स्वतंत्र भारत, राजस्थान पत्रिका, आज, युद्धरत आम आदमी, दलित टुडे, प्रगतिशील आकल्प, कुरूक्षेत्र संदेश, साहित्य क्रांति, साहित्य परिवार, साहित्य परिक्रमा, साहित्य जनमंच, साहित्यांचल, राष्ट्रधर्म, सेवा चेतना, तुलसी प्रभा, प्रतिश्रुति, झंकृति, अपरिहार्य, सरस्वती सुमन, लोक गंगा, रचना कर्म, नवोदित स्वर, आकंठ, प्रयास, गृहलक्ष्मी, गृहशोभा, मेरी संगिनी, वुमेन ऑन टॉप, अनंता, बाल साहित्य समीक्षा, वात्सल्य जगत, जगमग दीप ज्योति, प्रज्ञा, पंखुडी, लोकयज्ञ, समाज प्रवाह, कथाचक्र, नारायणीयम्, मयूराक्षी, गुफ्तगू, मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद पत्रिका, हिन्दी प्रचार वाणी, हिन्दी ज्योति बिंब, भारतवाणी, सांस्कृतिक टाइम्स, हिंद क्रान्ति, इत्यादि में रचनाओं का प्रकाशन।
एक दर्जन से अधिक स्तरीय काव्य संकलनों में कविताएं संकलित। अंतर्जाल पर सृजनगाथा, अनुभूति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, हिन्दी युग्म, इत्यादि वेब-पत्रिकाओं पर रचनाओं का प्रकाशन। शब्द शिखरउत्सव के रंगब्लॉग का संचालन।
सम्पादनः ‘‘क्रान्ति यज्ञः १८५७-१९४७ की गाथा’’ पुस्तक में सम्पादन सहयोग।
सम्मानः साहित्य गौरव, काव्य मर्मज्ञ, साहित्य श्री, साहित्य मनीषी, शब्द माधुरी, भारत गौरव, साहित्य सेवा सम्मान, महिमा साहित्य भूषण, देवभूमि साहित्य रत्न, ब्रज-शिरोमणि, उजास सम्मान, काव्य कुमुद, सरस्वती रत्न इत्यादि सम्मानों से अलंकृत।
राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा भारती ज्योतिएवं भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान
विशेषः बाल साहित्य समीक्षा’ (सं०-डॉ० राष्ट्रबन्धु, कानपुर नवम्बर २००९) द्वारा बाल-साहित्य पर विशेषांक प्रकाशन।
रुचियाँ: रचनात्मक अध्ययन व लेखन। नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक समस्याओं सम्बन्धी विषय में विशेष रुचि।
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एस० एम० एस०
 
अब नहीं लिखते वो खत
करने लगे हैं एस० एम० एस०
तोड मरोड कर लिखे शब्दों के साथ
करते हैं खुशी का इजहार
मिटा देता है हर नया एस० एम० एस०
पिछले एस० एम० एस० का वजूद

एस० एम० एस० के साथ ही
शब्द छोटे होते गए
भावनाएँ सिमटती गईं
खो गयी सहेज कर रखने की परम्परा
लघु होता गया सब कुछ
रिश्तों की कद्र का अहसास भी।
*********
सिमटता आदमी 
 
सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
देखता है दुनिया को
टी० वी० चैनल की निगाहों से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागजी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पडोस का समाज
कैद कर दिया है
बेटे को भी
चहरदीवारियों में
भागने लगा है समाज से
चौंक उठता है
कॉलबेल की हर आवाज पर
मानो
खडी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
दरवाजे पर आकर।
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सम्‍पर्क: आकांक्षा यादव c/o श्री कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवा, अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-७४४१०१
ई-मेलः kk_akanksha@yahoo.com     

Saturday, May 22, 2010

अरुण चन्द्र रॉय की तीन कविताएँ

रचनाकार परिचय :
नाम: अरुण चन्द्र रॉय
शिक्षा: एम.ए , एम.बी ए. 
व्‍यवसाय: पेशे से कॉपीरायटर तथा विज्ञापन व ब्रांड सलाहकार. 
दिल्ली और एन सी आर की कई विज्ञापन एजेंसियों के लिए और कई नामी गिरामी ब्रांडो के साथ काम करने के बाद स्वयं की विज्ञापन एजेंसी तथा डिजाईन स्टूडियो का सञ्चालन. अपने देश, समाज, अपने लोगों से सरोकार को बनाये रखने के लिए कविता को माध्यम बनाया है.
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बेजान शहर में प्रेम
१.
आसमान
में भरे हैं
धूल के बादल
नीला लगने की बजाय
मटमैला लग रहा है
यह
पानी वाले बादल
नहीं आये
महीनो से
लेकिन
तुम्हारी स्मृतियों के
आने भर से
उमड़ आता है
ए़क सैलाब
मेरे भीतर.
 
२.
आसमान में
परिंदों से उड़ते
नजर आते हैं
शोर मचाते
हवाई जहाज
बौना कर
हो जाते हैं
ओझल
और
भर जाते हैं
कई अरमान
मन में
और
तुम्हारे साथ
कई समंदर पार
हो आता हूँ
मैं
 
३.
होर्डिंग पर लगे
मॉडल
तुम्हारे भीतर
जीवंत हो उठती  हैं
और
इन्द्रधनुष
चस्पा हो जाते हैं
शीशे लगी
मेरी खिडकियों पर
जब तुम
साथ होती हो 
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Thursday, May 20, 2010

नीलेश माथुर की तीन कविताएँ


रचनाकार परिचय
नाम- नीलेश माथुर 
पिता का नाम- श्री शंकर लाल माथुर
माता का नाम- वीणा माथुर
जन्म स्थान- बीकानेर
आप फिलहाल गुवाहाटी में रहकर व्यापार कर रहे हैं साथ ही आपकी रचनाएं  यहाँ की स्‍तरीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होती रहती है!
पता- नीलेश माथुर,
देवमती भवन,
ए.के.आजाद रोड, रेहाबारी,
गुवाहाटी-८
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(1) जिंदगी !

जिंदगी यूँ ही गुज़र जाती है 
बातों ही बातों में 
फिर क्यों न हम 
हर पल को जी भर के जियें,

खुशबू को 
घर के इक कोने में कैद करें 
और रंगों को बिखेर दें 
बदरंग सी राहों पर

अपने चेहरे से 
विषाद कि लकीरों को मिटा कर मुस्कुराएँ 
और गमगीन चेहरों को भी 
थोड़ी सी मुस्कुराहट बाँटें,

किसी के आंसुओं को 
चुरा कर उसकी पलकों से 
सरोबार कर दें उन्हें 
स्नेह कि वर्षा में,

अपने अरमानों की पतंग को 
सपनो कि डोर में पिरोकर
 मुक्त आकाश में उडाएं 
या फिर सपनों को 
पलकों में सजा लें,

रात में छत पर लेटकर 
तारों को देखें 
या फिर चांदनी में नहा कर 
अपने ह्रदय के वस्त्र बदलें 
और उत्सव मनाएँ

आओ हम खुशियों को 
जीवन में आमंत्रित करें 
और ज़िन्दगी को जी भर के जियें! 
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(2) धुंधला चुके चित्र !

माना कि तुम 
मेरे पुराने मित्र हो 
पर मेरे अन्तःस्थल के 
धुंधला चुके चित्र हो,

अब मैं तुम्हारा 
वो मित्र नहीं रहा 
जिसे तुम जानते थे
पहचानते थे,

अब तो मैं
महानगर में रेंगता 
वो कीड़ा हूँ 
जो भावनाओं में नहीं बहता !
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(3) विभाजन की त्रासदी !

एक मुल्क के सीने पर
जब तलवार चल रही थी
तब आसमाँ रो रहा था
और ज़मी चीख रही थी,

चीर कर सीने को
खून की एक लकीर उभर आई थी
उसे ही कुछ लोगों ने
सरहद मान लिया था,

उस लकीर के एक तरफ
जिस्म
और दूसरी तरफ
रूह थी,

पर कुछ इंसान
जिन्होंने जिस्म से रूह को
जुदा किया था
वो होठो में सिगार
और विलायती वस्त्र पहन
कहकहे लगा रहे थे,

और कई तो
फिरंगी औरतों संग
तस्वीर खिचवा रहे थे,
और भगत सिंह को
डाकू कहने वाले
मौन धारण किये
अनशन पर बैठे थे,

शायद वो इंसान नहीं थे
क्योंकि विभाजन की त्रासदी से
वो अनजान नहीं थे!
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