१.
झर-झर बरसे पानी
हाथों से छुटते फव्वारों से
खुलती बन्द मुट्ठियाँ
गुलालें भरी
बनाती एक नया परिवेश
लिपे पुते आदमी
पिचरंगी सडकें
दीवारों पर
होली अपनी निशानियाँ छोडती।
२.
नौटंकी में सजे-संवरे किरदार
डांडियों की ताल पे
नाचते थिरकते पाँव
फागुनी गीत गाते
लो, होली फिर आ गई।
३.
गली-गली
चौक-मौहल्ले
भाँत-भाँत के
स्वाँग धरे
उल्टी-सीधी
हरकतें करते
खुद को होली का
पर्याय समझते
शायद, खो गया
भाईचारा
लुट गया मिनखापणो
सिर्फ होलिका की
लकडयों जैसे
धूँ-धँ कर
खिरता मिनख
नहीं कोई हश्र समझता
बिना धुएँ के
सिर्फ अब
यही होली है।
४.
लगता है
होलिका और भक्त प्रह्लाद के बीच से
निकलकर
दूर फिर कहीं
हिरण्य कश्यप् के पास
पहुंच गई
जो शायद
मानवता में
अंगारों सी सुलगती है
विचारों में उग्रवाद फैलाती है
मगर अब प्रह्लाद कौन?
अब सिर्फ लकडयाँ जलाते हैं
सब
होलिका नहीं।
५.
हर कोई आज रंगा है
उडती गुलालें
चेहरे पुते रंगों से नहीं
बल्कि अपने-अपने ही
मन में उगती
इच्छाओं
भीतर ही भीतर टूटते सपनों से
हाँ, दिखता है उनके चेहरे पे
मेरी कल कही
कडवी बात का रंग
पता नहीं मानव
’पिचरंगा’ क्यों रहता है?
होली
सिर्फ नाम लगता है
एक त्यौंहार नहीं
मनों को संवरना
मन में चुभे काँटों को निकालना
कम दिखता है
दिखता है सिर्फ
रंगों के बीच
गिरगिट सा इक रंग
- सुनील गज्जाणी
राजेन्द्र स्वर्णकार की होली
होली ऐसी खेलिए
रंगदें हरी वसुंधरा , केशरिया आकाश !
इन्द्रधनुषया मन रंगें , होंठ रंगें मृदुहास !!
होली के दिन भूलिए भेदभाव अभिमान !
रामायण से मिल गले मुस्काए कुरआन !!
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख का फर्क रहे ना आज !
मौसम की मनुहार की रखिएगा कुछ लाज !!
क्या होली क्या ईद सब पर्व दें इक सन्देश !
हृदयों से धो दीजिए बैर अहम् विद्वेष !!
होली ऐसी खेलिए , प्रेम का हो विस्तार !
मरुथल मन में बह उठे शीतल जल की धार !!
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वन्दना गुप्ता की होली की फुहार
होली हो तो ऐसी जा मे सब रंग जाये
मै भी मै ना रहू श्याम रंग होई जाऊँ
होरी के बहाने
सजनवा हमारेनयन बाण मारे
हम लजात जात
वो हँसत जात
जिया मा हिलोर उठत जात
सा रा रा रा ........
होली का हुडदंग
जागे मन मा तरंग
सजनवा को रंग डारूं
नयन कटार मारूं
पानी में डुबाय डारूं
मन की सब निकार डारूं
होरी के बहाने
सजना को रंग डारूं
सा रा रा रा ................
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दीनदयाल शर्मा की होली के रंग
होली है
रंगों का त्यौहार जब आए,
टाबर टोली के मन भाए,
काला, पीला, लाल गुलाबी,
रंग आपस में खूब रचाए.
मित्र मण्डली भर पिचकारी,
कपड़े रंग से तर कर जाए,
मिलजुल खेलें जीजा साली,
गाल मले गुलाल लगाए.
भाभी देवर हंस हंस खेले,
सारे दुःख क्षण में उड़ जाए,
शक्लें सबकी एकसी लगती,
कौनसा सा कौन पहचान न पाए,
बुरा न माने इस दिन कोई,
सारे ही रंग में रच जाए,
*** नेताजी अब ना रहे,
ना उनके वे बोल.
गाली अब पर्याय है
नेता बना है ढोल
बगुले सी पोशाक में
दिखने में बेदाग़,
मौका देख निकालते
जगत पसंदी राग.
इनके मलें गुलाल , चाहे
खूब लगाएं रंग,
इनको केवल अच्छा लगता
कुर्सी का ही संग.
- दीनदयाल शर्मा