Saturday, February 27, 2010

होली की ठिठोली













सुनील गज्जाणी की नजर से - होली

 १.
झर-झर बरसे पानी
हाथों से छुटते फव्वारों से
खुलती बन्द मुट्ठियाँ
गुलालें भरी
बनाती एक नया परिवेश
लिपे पुते आदमी
पिचरंगी सडकें
दीवारों पर
होली अपनी निशानियाँ छोडती।
२.
नौटंकी में सजे-संवरे किरदार
डांडियों की ताल पे
नाचते थिरकते पाँव
फागुनी गीत गाते
लो, होली फिर आ गई।
३.
गली-गली
चौक-मौहल्ले
भाँत-भाँत के
स्वाँग धरे
उल्टी-सीधी
हरकतें करते
खुद को होली का
पर्याय समझते
शायद, खो गया
भाईचारा
लुट गया मिनखापणो
सिर्फ होलिका की
लकडयों जैसे
धूँ-धँ कर
खिरता मिनख
नहीं कोई हश्र समझता
बिना धुएँ के
सिर्फ अब
यही होली है।
४.
लगता है
होलिका और भक्त प्रह्लाद के बीच से
निकलकर
दूर फिर कहीं
हिरण्य कश्यप् के पास
पहुंच गई
जो शायद
मानवता में
अंगारों सी सुलगती है
विचारों में उग्रवाद फैलाती है
मगर अब प्रह्लाद कौन?
अब सिर्फ लकडयाँ जलाते हैं
सब
होलिका नहीं।
५.
हर कोई आज रंगा है
उडती गुलालें
चेहरे पुते रंगों से नहीं
बल्कि अपने-अपने ही
मन में उगती
इच्छाओं
भीतर ही भीतर टूटते सपनों से
हाँ, दिखता है उनके चेहरे पे
मेरी कल कही
कडवी बात का रंग
पता नहीं मानव
’पिचरंगा’ क्यों रहता है?
होली
सिर्फ नाम लगता है
एक त्यौंहार नहीं
मनों को संवरना
मन में चुभे काँटों को निकालना
कम दिखता है
दिखता है सिर्फ
रंगों के बीच
गिरगिट सा इक रंग
- सुनील गज्जाणी
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राजेन्द्र स्वर्णकार की होली

होली ऐसी खेलिए 

रंगदें हरी वसुंधरा , केशरिया आकाश ! 
इन्द्रधनुषया मन रंगें , होंठ रंगें मृदुहास !! 
होली के दिन भूलिए भेदभाव अभिमान ! 
रामायण से मिल गले मुस्काए कुरआन !!
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख का फर्क रहे ना आज ! 
मौसम की मनुहार की रखिएगा कुछ लाज !! 
क्या होली क्या ईद सब पर्व दें इक सन्देश ! 
हृदयों से धो दीजिए बैर अहम् विद्वेष !! 
होली ऐसी खेलिए , प्रेम का हो विस्तार ! 
मरुथल मन में बह उठे शीतल जल की धार !! 
- राजेन्द्र स्वर्णकार 
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वन्दना गुप्ता की होली की फुहार
होली हो तो ऐसी जा मे सब रंग जाये
मै भी मै ना रहू श्याम रंग होई जाऊँ


होरी के बहाने
सजनवा हमारे
नयन बाण मारे
हम लजात जात
वो हँसत जात
जिया मा हिलोर उठत जात
सा रा रा रा ........
होली का हुडदंग
जागे मन मा तरंग
सजनवा को रंग डारूं
नयन कटार मारूं
पानी में डुबाय  डारूं
मन की सब निकार डारूं
होरी के बहाने
सजना को रंग डारूं
सा रा रा रा ................

- वन्दना गुप्ता

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दीनदयाल शर्मा की होली के रंग
होली है
रंगों का त्यौहार जब आए,
टाबर टोली के मन भाए,
काला, पीला, लाल गुलाबी,
रंग आपस में खूब रचाए.

मित्र मण्डली भर पिचकारी
कपड़े रंग से तर कर जाए,
मिलजुल खेलें जीजा साली,
गाल मले गुलाल लगाए.

भाभी देवर हंस हंस खेले
सारे दुःख क्षण में उड़ जाए,
शक्लें सबकी एकसी लगती
कौनसा सा कौन पहचान पाए,
बुरा माने इस दिन कोई,
सारे ही रंग में रच जाए,
***
नेता बनाम कुर्सी

नेताजी अब ना रहे,
ना उनके वे बोल.
गाली अब पर्याय है
नेता बना है ढोल

बगुले सी पोशाक में 
दिखने में बेदाग़,
मौका देख निकालते
जगत पसंदी राग.

इनके मलें गुलाल , चाहे 
खूब लगाएं रंग,
इनको केवल अच्छा लगता 
कुर्सी का ही संग. 
- दीनदयाल शर्मा







Friday, February 26, 2010

होली की ठिठोली -






नीरज गोस्वामी की होली 

पिलायी भाँग होली में,वो प्याले याद आते हैं 
गटर, पी कर गिरे जिनमें, निराले याद आते हैं  
दुलत्ती मारते देखूं, गधों को जब ख़ुशी से मैं 
निकम्मे सब मेरे कमबख्त, साले याद आते हैं 
गले लगती हो जब खाकर, कभी आचार लहसुन का 
तुम्हारे शहर के गंदे, वो नाले याद आते हैं 
भगा लाया तिरे घर से, बनाने को तुझे बीवी 
पढ़े थे अक्ल पर मेरी, वो ताले याद आते हैं 
नमूने देखता हूँ जब अजायब घर में तो यारों 
जाने क्यूँ मुझे ससुराल वाले याद आते हैं 
कभी तो पैंट फाड़ी और कभी सड़कों पे दौड़ाया 
तिरी अम्मी ने जो कुत्ते, थे पाले याद आते हैं 
सफेदी देख जब गोरी कहे अंकल मुझे 'नीरज' 
जवानी के दिनों के बाल काले याद आते हैं 
- नीरज गोस्वामी
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कवि कुलवंत सिंह के रंगीले गीत

1.  होली के रंग 
रंग होली के कितने निराले, 
आओ सबको अपना बना लें, 
भर पिचकारी सब पर डालें, 
पी को अपने गले लगा लें ।
रक्तिम कपोल आभा से दमकें, 
कजरारे नैना शोखी से चमकें, 
अधर गुलाबी कंपित दहकें, 
पलकें गिरगिर उठ उठ चहकें ।
पीत अंगरिया भिगी झीनी, 
सुध बुध गोरी ने खो दीनी, 
धानी चुनर सांवरिया छीनी, 
मादकता अंग अंग भर दीनी ।
हरे रंग से धरा है निखरी, 
श्याम वर्ण ले छायी बदरी, 
छन कर आती धूप सुनहरी, 
रंग रंग की खुशियां बिखरीं ।
नीला नीला है आसमान, 
खुशियों से बहक रहा जहान, 
मस्ती से चहक रहा इंसान, 
होली भर दे सबमें जान ।

2.  किससे खेलूं होली रे !
 पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे !
रंग हैं चोखे पास
पास नही हमजोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे !
देवर ने लगाया गुलाल 
मै बन गई भोली रे !
पी हैं बसे परदेश, 
मै किससे खेलूं होली रे !
ननद ने मारी पिचकारी, 
भीगी मेरी चोली रे !
पी हैं बसे परदेश, 
मै किससे खेलूं होली रे !
जेठानी ने पिलाई भांग, 
कभी हंसी कभी रो दी रे ! 
पी हैं बसे परदेश, 
मै किससे खेलूं होली रे !
सास नही थी कुछ कम,
की उसने खूब ठिठोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे !
देवरानी ने की जो चुहल
अंगिया मेरी खोली रे !
पी हैं बसे परदेश,
मै किससे खेलूं होली रे ! 
बेसुध हो मै भंग में 
नन्दोई को पी बोली रे ! 
पी हैं बसे परदेश, 
मै किससे खेलूं होली रे !

3.  होली का त्यौहार
होली का त्यौहार । 
रंगों का उपहार ।

प्रकृति खिली है खूब ।
नरम नरम है दूब ।

भांत भांत के रूप।
भली लगे है धूप ।

गुझिया औ मिष्ठान ।
खूब बने पकवान ।

भूल गये सब बैर ।
अपने लगते गैर ।

पिचकारी की धार ।
पानी भर कर मार ।

रंगों की बौछार ।
मस्ती भरी फुहार ।

मीत बने हैं आज
खोल रहे हैं राज ।

नीला पीला लाल ।
चेहरों पे गुलाल ।

खूब छनी है भांग ।
बड़ों बड़ों का स्वांग ।

मस्ती से सब चूर ।
उछल कूद भरपूर ।

आज एक पहचान ।
रंगा रंग इनसान ।

4.  होली आई

हम बच्चों की मस्ती आई
होली आई होली आई ।
झूमें नाचें मौज करं सब
होली आई होली आई ।

रंग रंग में रंगे हैं सब
सबने एक पहचान पाई ।
भूल गए सब खुद को आज
होली आई होली आई ।

अबीर गुलाल उड़ा उड़ा कर
ढ़ोल बजाती टोली आई ।
अब अपने ही लगते आज
होली आई होली आई ।

दही बड़ा औ चाट पकोड़ी
खूब दबा कर हमने खाई ।
रसगुल्ले गुझिया मालपुए
होली आई होली आई ।

लाल हरा और नीला पीला
है रंगों की बहार आई ।
फागुन में रंगीनी छाई
होली आई होली आई ।
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- कवि कुलवंत सिंह