tag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post3838599203705855076..comments2024-01-02T22:07:29.922-08:00Comments on आखर कलश: राकेश श्रीमाल की कविताएँ - कुछ फुसफुसाहटेंNarendra Vyashttp://www.blogger.com/profile/12832188315154250367noreply@blogger.comBlogger24125tag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-28196088542792405492010-12-06T02:40:06.604-08:002010-12-06T02:40:06.604-08:00ऊपर एक विद्धान महाश्य ने लिखा है कि आखर कलश की टिप...ऊपर एक विद्धान महाश्य ने लिखा है कि आखर कलश की टिप्पणियां थोड़ी ऐसी-वैसी हो रही है। उस पर रोक लगनी चाहिए।<br />साहित्य के इस उखानचंद को हंस, कथादेश, नया ज्ञानोदय, समकालीन जनमत सहित अन्य पत्र-पत्रिकाएं जरूर पढ़नी चाहिए। श्रीमानजी को यदि खुरदरी भाषा से इतना ही परहेज है तो उन्हें बाबा रामदेव का लिखित साहित्य भी पढ़ने को दिया जा सकता है।<br />अरे भाई स्टेपनी आपने जगदंबा प्रसाद दीक्षित का उपन्यास मुर्दाघर पढ़ा है या नहीं। इस्मत चुगताई की कहानी पढ़ी है या नहीं। सदाअत हसन मंटो की सीरिज भिजवाऊं क्या।<br />श्रीमानजी दुनिया की कोई भी भाषा खराब नहीं होती। खराब होती है नीयत।<br />साहित्य में वाद-विवाद और विमर्श चलते ही रहते हैं। इसे हमेशा स्वस्थ मन से लेना चाहिए। मैं इस बहस में हिस्सा लेते हुए पूरी तरह से स्वस्थ हूं और आप लोगों के स्वास्थ्य लाभ की निरन्तर कामना भी कर रहा हूं।<br />क्या हम लोग एक दूसरे को अपमानित कर रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि मैं ऐसा कर रहा हूं। यदि आपको ऐसा लगता है तो मुझे बता दीजिएगा मैं उसी समय टिप्पणी बंद कर दूंगा।<br />आप लोगों से मेरा कोई निजी बैर नहीं है। आपने मेरी भैंस भी नहीं खोली भाषा वैज्ञानिक।<br />मैं आपकी बात से सहमत हूं कि साहित्य में आलतू-फालतू टिप्पणियों के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। यदि साहित्य में व्यर्थ की टिप्पणी नहीं होनी चाहिए तो श्रीमानजी चमचई और गिरोहबंदी को बढ़ावा देने वाली टिप्पणियां भी तो बंद होनी चाहिए।<br />क्या फालतू और क्या सही इसका फैसला पाठकों पर छोड़ दो न बंधुवर। हां... उस पाठक पर जो बेहद स्वाभाविक ढंग से आपको पढ़ने आया है। उस पाठक पर नहीं जिसे आपने मेल करके या फिर फोन करके कहा है टिप्पणी कर देना भैय्या। सामने वाला तो नाक में दम किए हुए हैं।<br />लड़ो मगर प्यार से दोस्त।<br />इस लड़ाई में व्यास जी की भूमिका को मैं सराहनीय मानता हूं। उन्होंने मुझसे मेल के जरिए विवाद को समाप्त कर देने का आग्रह किया था।राजकुमार सोनीhttps://www.blogger.com/profile/07846559374575071494noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-8937151583635521212010-12-05T19:32:07.283-08:002010-12-05T19:32:07.283-08:00पूरी पृथ्वी को
तुम्हारा कान समझकर
संबोधित कर रहा...पूरी पृथ्वी को<br />तुम्हारा कान समझकर<br />संबोधित कर रहा हूं<br />हरी घास के एक तिनके से<br />बात कर रहा हूं<br />प्रयास किया, समझ आई। लगता है पहली बार पढ़ते समय कुछ जल्दबाजी हो गयी, सतह पर पढ़ कर रह गया, यह कविता तो गहरी चली गयी। खूबसूरत।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-45862507897100158052010-12-05T12:24:28.690-08:002010-12-05T12:24:28.690-08:00पूरी पृथ्वी को
तुम्हारा कान समझकर
संबोधित कर रहा...पूरी पृथ्वी को<br />तुम्हारा कान समझकर<br />संबोधित कर रहा हूं<br />हरी घास के एक तिनके से<br />बात कर रहा हूं<br />Bhavpoorn bhasha apni shabdavali mein sargoshiaan kati hai...jo har khamoshi ko maat de rahi hai. Sajeev bimb raks kar rahe hai...Narendra vyas ji is kalash mein har visha ka sahitya padkar man sarobaar hota hai..shubhkamnaon ke saathDevi Nangranihttps://www.blogger.com/profile/08993140785099856697noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-45965462476035119402010-12-05T09:12:05.377-08:002010-12-05T09:12:05.377-08:00मेरे राकेश जी !
सादर प्रणाम
जन्मदिवस पर आपने जो तो...मेरे राकेश जी !<br />सादर प्रणाम<br />जन्मदिवस पर आपने जो तोहफे दिये हैं अमूल्य हैं<br />--------------------------------------<br />भई वाह ... घास का तिनका .... उसका कान / इसे कहते है प्यार <br /><br />प्रेम की गिलहरी .... सीमा कहाँ जाने ! वाह राकेश सर <br />पत्ता पत्ता हाल हमारा जाने है , हरापन देखने को कहे (एकदम नया ताज़ा) सर मुबारक <br /><br />तुम्हारी हथेलियों से ही ... तो प्यार की रेखाए निकली , <br />आनन्दित मन मेरा सर !<br /><br />स्वीकार ... प्रेम का संदेश दिल से दिमाग को जाता हुआ . खूबसूरत !<br /><br /><br />इश्क कहाँ छुपे <br />बहुत अच्छा सर <br />पूरी दुनिया से छिपाते हुए....<br /><br /><br />सारे घुंट / जो तुम्हें पसंद नहीं है .... क्यों होता है ऐसा प्रेम में <br />धीरे-धीरे ही कह पाहूंगा/ त्रासदी प्रेम की.... हमेशा से <br />शायद ये धृडता ही है जो हो तो प्रेम पनप सकता है ... “ता को राजी ...” अधभुत <br /><br />रात के सपने ही तो अपने होते हैं , सुन्दर अभिव्यक्ति <br />मिल लेना तुम उन पलों से / जिनसे मिल ना पायी आज तुम<br /><br />आपका<br />भरत तिवारी<br />नई दिल्ली ५/१२/२०१०Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-36460743198559814202010-12-05T08:55:28.742-08:002010-12-05T08:55:28.742-08:00राकेश जी कविताएं अपने आप में संपूर्ण हैं। उनमें कि...राकेश जी कविताएं अपने आप में संपूर्ण हैं। उनमें किसी भी तरह का उलझाव या अस्पष्टता नहीं है। बहुत कम शब्दों में उन्होंने गहरी बात कही है। <br />*<br />अनुस्वार और अनुनासिक का महत्व है। पर इधर यह अंतर अब खत्म होता जा रहा है। और जहां चंद्रबिन्दु लगता था वहां केवल बिन्दु भी अब प्रचलन में आ गया है। अत: इसे गलती मानना उचित नहीं है। <br />*<br />संपादक और समीक्षक दो अलग अलग प्राणी हैं। हां किसी में इन दोनों की आत्मा हो सकती है। संपादक का काम है सलाह देना और समीक्षक का काम है जो लिखा गया है उस पर बात करना। संपादक सलाह देकर किनारा कर लेता है और समीक्षक मुठभेड़ की तैयारी से आता है।इन दोनों के की काम ऐसे हैं कि हर कोई नहीं कर सकता। यह भी एक कौशल है और अगर आपमें वह कौशल न हो तो उसे हाथ्ा में नहीं लेना चाहिए। लेकिन दोनों को ही इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि वे अतिरेक में न बह जाएं।<br />*<br />बात सही है कि आखर कलश को अखाड़ा कलश न बनाएं। लेकिन वह केवल कलश भी न रह जाए।<br />*<br />मेरा नरेन्द्र जी से यह अनुरोध भी है कि वे आखर कलश पर लेखक से प्राप्त सामग्री का ही उपयोग करें। और लेखक से यह अनुरोध भी करें कि वे ऐसे सुझावों या आलोचनाओं पर अपना पक्ष भी रखें।राजेश उत्साहीhttps://www.blogger.com/profile/15973091178517874144noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-6531621643722950632010-12-05T08:28:29.040-08:002010-12-05T08:28:29.040-08:00गागर में सागर समेटे बेहद प्रभावी रचनाएं।गागर में सागर समेटे बेहद प्रभावी रचनाएं।samvetswar.blogspot.comhttps://www.blogger.com/profile/17994825473232698780noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-81880648928112602612010-12-05T08:25:07.963-08:002010-12-05T08:25:07.963-08:00पहले भेजी गई टिप्पणी से आगे ...
आदरणीय जौहर साहिब ...पहले भेजी गई टिप्पणी से आगे ...<br />आदरणीय जौहर साहिब ने कितने सुन्दर शब्दों में श्रीमाल जी की रचनाओं की प्रशंसा की है ...जरा इसकी बानगी तो देखिये. “आपकी क्षणिकाओं ने यक़ीनन मुझे काफी प्रभावित किया है! प्रकृति के साथ मौन संवाद से लेकर किसी ‘तुम’ के अथाह प्रेम की विस्तृत परिधि तक घूमती आपकी ये संदर्भित अभिव्यक्तियाँ आपको साधुवाद का सच्चा सु-पात्र बनाती हैं; शब्दों-भावों-विचारों की एक सधी हुई त्रयी इन काव्यात्मक लघूक्तियों को महत्त्वपूर्ण बना रही है।“ फिर अंत में इसे और प्रभावी एवं सुन्दर बनाने के लिए अपने विचार विस्तार से दिए हैं. क्या ऐसा करना बुरा है? यदि ‘नहीं’...तो फिर ऐसा ‘कु’रूपवान बवाल क्यों? और यदि ‘हाँ’...तो फिर बवालीजन तर्क-तथ्य-प्रमाण लेकर जौहर जी का खण्डन क्यों नहीं करते...उन्होंने तो खुला आमंत्रण भी दिया था...क्यों नहीं स्वीकार किया...किसी ने रोका था क्या?अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Royhttps://www.blogger.com/profile/01550476515930953270noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-32713431305509559962010-12-05T08:19:43.142-08:002010-12-05T08:19:43.142-08:00आत्मीय व्यास जी,
नमस्कार.
सर्वप्रथम तो मैं आपका आभ...आत्मीय व्यास जी,<br />नमस्कार.<br />सर्वप्रथम तो मैं आपका आभारी हूँ कि आपने अपनी उपर्युक्त टिप्पणी (जो भी थी) त्वरित ही भेज दी. क्योंकि मन में किसी प्रकार का मलाल अधिक समय तक रखना वैसे भी स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता. मेरा आपसे केवल यही निवेदन था कि बिना सिर-पैर की टिप्पणियों को हम गंदगी फैलाने से यथासंभव रोकें ताकि इस ब्लॉग पर स्वस्थ एवं रचनात्मक टिप्पणियों की बयार सुगमता से बहती रहे। आज हिंदी भाषा के प्रचार एवं प्रसार के लिए केवल आप लोग ही नहीं अपितु हम सब प्रयासरत हैं. यह बात अलग है कि सब अपने अपने ढंग से इस पावन हवन में अपनी आहुति देते हैं और दे रहे हैं. <br /> <br />श्री जितेन्द्र ‘जौहर’ जैसे पारखी जौहरी एवं सम्माननीय लेखक, कवि, समीक्षक एवं अध्यापक पर अभी हाल ही में की गई अविवेकपूर्ण टिप्पणियों से हम इतने व्यथित हुए कि इस ब्लॉग से मोह भंग होने लगा. आपके पास इस ब्लॉग का मोडरेटर भी है जिसके माध्यम से घटिया, व्यक्तिगत प्रहार करने वाली अनौचित्यपूर्ण एवं तर्कहीन टिप्पणियों को प्रकाशित होने से रोक भी सकते हैं. मेरा आपसे निवेदन सिर्फ़ इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए था. अगर आपको यह आक्षेप का-सा आभास दे रहा है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि मैंने अपने सन्देश में ऐसा कुछ भी नहीं कहा जो अमर्यादित हो...यदि आपको ऐसा लगा तो यह मेरे लिए भी दुःखद है...! जनाब जौहर साहेब जैसे प्रतिष्ठित समालोचकीय दृष्टि वाले अध्यापक ‘आखर कलश’ पर किसी प्रेम या उदारतावश आकर यदि हमें मुफ़्त में व्याकरण एवं भाषा सम्बन्धी ज्ञान बाँट रहे हों तो इसका यह अर्थ कदाचित नहीं है कि उनके पास कोई काम ही नहीं होगा...वे अपनी दिनचर्या में से महत्वपूर्ण पल निकालकर हम सभी को दे रहे हैं, यह उनकी सद्भावना ही है। वरना आज उनके जितनी बारीकी से किसी के रचना-लोक को खँगालने वाले कितने लोग हैं ? एक तरफ़ हम पाठकों और तटस्थ समीक्षकों के अभाव का रोना रोते हैं...और दूसरी ओर यदि कोई प्रतिभा सामने आती भी है, तो हम उस पर प्रहार करने लगते हैं। धन्य है जौहर भाई का कलेजा कि यहाँ के संदर्भ की पृष्ठभूमि के साथ उन्हें उनके ही ब्लॉग पर हास्यास्पद ढंग से ललकारा गया...फिर भी उस शख़्स ने ‘सच्चा साहित्यकार’ होने का परिचय देते हुए गरियाने वाली शख़्सियत की समुचित मेहमान-नवाज़ी की...स्वागत किया...सलाम करता हूँ उनकी मूल चिंतन-वृत्ति को! <br /> मुझे एक पुराना दोहा भी याद आ रहा है जिसमें घर घर जाकर इत्र बेचने वाले एक व्यक्ति को इन शब्दों में सलाह दी गई है कि तुम ऐसे लोगों को इत्र बेच रहे हो जिन्हें यह नहीं मालूम कि यह सूँघने की वस्तु है, न कि चखने की. “----हे गंधी! मति अंध तू, अतर दिखावत ताहि” क्योंकि लोग उसके इत्र को चाटकर कड़वा बताते और थूक देते थे. अपने ब्लॉग पर इतनी सटीक और सार्थक टिप्पणी पाने के लिए कोई भी ब्लॉगर शायद स्वयं को धन्य समझेगा परन्तु यहाँ तो माजरा ही कुछ और है. मुझे लगता है कि इतने अच्छे समीक्षक को हम अपनी कुत्सित मनोवृति का शिकार बनाने में लगे हैं जिसमें सभी मौन रहने वाले पक्ष भी बुराई का साथ देते हुए प्रतीत होते हैं. अभी हाल ही में वही सज्जन ‘आखर कलश’ छोड़ कर जौहर जी के ब्लॉग पर पहुँच गए और फिर शुरू कर दिया- वही उल्टियाँ करना और विष उगलना. मेरे विचार से बुराई को फैलने से बहुत पहले ही हतोत्साहित करना चाहिए था ताकि ऐसी कोई नौबत ही न आती. आपको किसी भी प्रकार से आहत करना मेरा प्रयोजन कभी नहीं था. मैंने आपके इस ब्लॉग से स्नेह के वशीभूत होकर अपनी टिप्पणी प्रेषित की थी. आशा है, आप मेरे विचारों से सहमत होंगे और इस दिशा में कोई सार्थक क़दम बढ़ाएँगे.अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Royhttps://www.blogger.com/profile/01550476515930953270noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-13402171996171296102010-12-05T07:11:00.695-08:002010-12-05T07:11:00.695-08:00नरेन्द्र व्यास जी ,आप का यह 'आखर कलश ' बहु...नरेन्द्र व्यास जी ,आप का यह 'आखर कलश ' बहुत ही जिम्मेदारी से काम कर रहा है और निरंतर अच्छा रचना कर्म सामने ला रहा है .राकेश श्रीमाल की छोटी छोटी कवितायें गहरे निहितार्थ लिए हैं .कवितायेँ पठनीय और उल्लेखनीय हैं .मेरी हार्दिक बधाई .श्री कपूर जी और जौहर जी ने जो भी कहा है साहित्यिक आलोचना के दायरे में है .स्वस्थ संवाद रचना धर्मिता के लिए आवश्यक है .आप अपने कार्य को आगे बढ़ाते रहिये ,हार्दिक धन्यवाद .सुरेश यादवhttps://www.blogger.com/profile/16080483473983405812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-15648876961862589712010-12-05T04:53:46.045-08:002010-12-05T04:53:46.045-08:00आदरजोग श्री अश्विनी कुमार जी ! प्रणाम! आपके उक्त आ...आदरजोग श्री अश्विनी कुमार जी ! प्रणाम! आपके उक्त आक्षेप से थोडा सा दर्द और बहुत दुःख हुआ. पहली बार ऐसा आक्षेप लगा. जबकि मैंने पूरी कोशिश की इस विषयांतर हो रही चर्चा को रोकने की, जिसे श्री जौहर जी और सोनी जो दोनों जानते हैं. लोकप्रियता पाकर मैं और मेरे साथी क्या अर्जित कर लेंगे ? किसी का अपमान करवा कर भला कौन मान हासिल कर सका है, जो मैं या आखर कलश हासिल कर लेंगे? चूँकि साहित्य मुझे लुभाता है, भाता है, सुख देता है और हिंदी की सेवार्थ मेरा कर्त्तव्य भी है इसीलिये सिर्फ और सिर्फ अच्छे, सुथरे, परिष्कृत साहित्य के लिए आखर कलश बनाया था और अब तक उसी कार्य को कर्त्तव्य समझकर व्यस्ततम होने पर भी निभाने का प्रयास किया है. जितना कमाता हूँ उसी में से कुछ खर्च करके. कहाँ तक सफल हुवा या असफल हुवा, ये सोचे बिना. क्योंकि मैं अथवा आखर कलश अथवा मेरे साथी commercial नहीं है. ज्यादा नहीं कहूँगा.. चूँकि मुझे थोड़ी हताशा हुई आपके उक्त व्यक्तत्व से इसलिए कुछ कह गया हूँ.. माफ़ कर दीजियेगा. अगर आपको ऐसा ही लगता है तो .. आपका सुझाव सर आँखों पर..! सादर नमन !Narendra Vyashttps://www.blogger.com/profile/12832188315154250367noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-82625888256546019962010-12-05T04:28:02.428-08:002010-12-05T04:28:02.428-08:00MAi Badhai dene yogy nhi!
Naman karti hu.MAi Badhai dene yogy nhi!<br />Naman karti hu.jayaketkihttps://www.blogger.com/profile/08442521064107239585noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-49727300500247578572010-12-05T04:25:57.397-08:002010-12-05T04:25:57.397-08:00Mai Badhai dene yogy nhi.
Naman karti hu.Mai Badhai dene yogy nhi.<br />Naman karti hu.jayaketkihttps://www.blogger.com/profile/08442521064107239585noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-44680297685150213062010-12-05T03:51:49.252-08:002010-12-05T03:51:49.252-08:00आखर कलश के आयोजकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि इस ...आखर कलश के आयोजकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि इस ब्लॉग को निम्नकोटि एवं स्तरहीन टिप्पणियों का अखाड़ा बनने से रोका जाए. जिन पाठकों को हिन्दी व्याकरण से कुछ लेना-देना नहीं है उन्हें रचनात्मक एवं उच्चकोटि की टिप्पणियों पर अपनी अविवेकपूर्ण दृष्टि डालने की कोई आवश्यकता नहीं है. आखर कलश को भले ही कुछ अधिक लोकप्रियता मिलने लगे, परन्तु यह एक स्वस्थ परंपरा कदाचित नहीं हो सकती. अतः इस प्रकार की अवांछित और निरर्थक गतिविधियों को विराम देना ही उचित रहेगा.अश्विनी कुमार रॉय Ashwani Kumar Royhttps://www.blogger.com/profile/01550476515930953270noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-67975149621412022862010-12-05T01:58:53.784-08:002010-12-05T01:58:53.784-08:00गागर में सागर भरता हुआ आज देख रही हूँ..
अद्वितीय भ...गागर में सागर भरता हुआ आज देख रही हूँ..<br />अद्वितीय भाव बोध...बधाई आपको..राकेश जी....गीता पंडितhttps://www.blogger.com/profile/17911453195392486063noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-69437296506737663702010-12-05T01:30:15.541-08:002010-12-05T01:30:15.541-08:00व्यास जी
टिप्पणी के प्रकाशन के लिए धन्यवाद
उम्मीद ...व्यास जी<br />टिप्पणी के प्रकाशन के लिए धन्यवाद<br />उम्मीद करता हूं ज्ञानचंदों का जवाब आएगा तो मुझे भी अपनी बात कहने का मौका देंगे।<br />आपको यदि कष्ट हुआ होगा तो क्षमा चाहता हूं।राजकुमार सोनीhttps://www.blogger.com/profile/07846559374575071494noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-91334335038756821602010-12-05T00:51:44.262-08:002010-12-05T00:51:44.262-08:00राकेशजी,
मुझे नहीं लगता कि आपकी रचनाओं को लुद्दी क...राकेशजी,<br />मुझे नहीं लगता कि आपकी रचनाओं को लुद्दी के माफिक तैयार हो चुके आलोचकों की जरूरत है।<br />साहित्य के कथित नामवरों ने अच्छे-अच्छे लिखने पढ़ने वालों को किनारे लगाने का काम किया है। इन नामवरों से पूछा जाना चाहिए कि भाइयों आपने कितना लिखा है। कितनी पुस्तकें है आपकी। आपके कितने लिखे हुए पर आंदोलन हुआ। क्या आपका लिखा हुआ चुपचाप नाली में तो नहीं बह गया। खैर... मैं आपको कोई सुझाव या सलाह नहीं दे रहा हूं। सलाह या सुझाव देने का ठेका तो संपादकों ने ले रखा है। संपादकों के इस अधिकार का हनन करने पर वे नाराज हो जाते हैं।<br />आपकी सारी रचनाएं बेजोड़ है। जब मैं छत्तीसगढ़ जनसत्ता में था तब भी आपको पढ़ता रहा हूं।राजकुमार सोनीhttps://www.blogger.com/profile/07846559374575071494noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-45734695619684445282010-12-05T00:45:56.465-08:002010-12-05T00:45:56.465-08:00Remaining part of my previous comment...
राकेश जी...Remaining part of my previous comment...<br /><br />राकेश जी...! <br />आप ही नहीं, बल्कि हिन्दी के तमाम नामचीन लेखक (कभी-कभी अज्ञानवश मैं स्वयं भी) अनुस्वार-अनुनासिक का विभेदात्मक प्रयोग नहीं करते हैं...यह सर्वथा अनुचित है। आपने इसे आद्योपान्त नहीं निभाया... अनुनासिक की सरासर अनदेखी की है। आपने ‘हूँ/ढूँढ़/घूँट’ आदि में सिर्फ़ अनुस्वार का प्रयोग कर दिया है। यथा- ‘हूं/ढूंढ़/घुंट’ आदि। चूँकि आप एक संपादक भी हैं...गुरुतर दायित्व निभा रहे हैं, अतः भाषा के शुद्ध एवं व्याकरण-सम्मत स्वरूप को बचाए और बनाए रखना आपका बड़ा दायित्व है...हम सबका भी है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का संपादकीय चरित्र हिन्दी के हर संपादक को प्रेरणा देता है...बस ज़रूरत है... तो सिर्फ़ उसे ग्रहण करने की।<br /><br />हम सभी जानते हैं कि अनुनासिक और अनुस्वार में भेद न किया जाए तो अर्थान्तर उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणार्थ- ‘हँस’ और ‘हंस’ को ही देख लीजिए...है कि नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि आगे आने वाली पीढ़ियाँ हमसे यह पूछने लगें कि- "पापा जी... यह ‘अनुनासिक’ क्या होता है?" आइए...हम सब इसे विलुप्त होने से बचाने का प्रयास करें...तथास्तु!<br /><br />और...हाँ, ‘पृथ्वी’ वाली क्षणिका-१ पर श्री तिलकराज कपूर जी का तर्क विचारणीय है! <br />....................................<br /><br />अंत में, मैं चाहता हूँ कि ‘आखर कलश’ पर टिप्पणियों के माध्यम से केवल तर्कपूर्ण, तथ्यपूर्ण व प्रमाणसम्मत चर्चा ही हो...निरर्थक-निस्सार-निराधार बातों को ध्वनिमत से खारिज किया जाए...मदांधता और अग्रहणशीलता दर्शाने वाली बचकानी बातों के साथ ही भोंड़ी व व्यक्तिगत टिप्पणियाँ परिचर्चा-पथ को Divert कर देती हैं...! इससे बचना ही चाहिए।जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauharhttps://www.blogger.com/profile/06480314166015091329noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-55380630365291211802010-12-05T00:43:20.876-08:002010-12-05T00:43:20.876-08:00श्री राकेश श्रीमाल जी,
नमस्कारम्!
आपको प्रथम बार...श्री राकेश श्रीमाल जी,<br />नमस्कारम्! <br />आपको प्रथम बार इसी मंच पर पढ़ रहा हूँ...इसे मैं अपना ही दुर्भाग्य कहूँगा कि आपका चिंतनपूर्ण साहित्य मैं अभी तक नहीं पढ़ सका था...अब तलाशूँगा ही...यत्र-तत्र-सर्वत्र...जहाँ भी मिले...। <br /><br />आपकी क्षणिकाओं ने यक़ीनन मुझे काफी प्रभावित किया है! प्रकृति के साथ मौन संवाद से लेकर किसी ‘तुम’ के अथाह प्रेम की विस्तृत परिधि तक घूमती आपकी ये संदर्भित अभिव्यक्तियाँ आपको साधुवाद का सच्चा सु-पात्र बनाती हैं; शब्दों-भावों-विचारों की एक सधी हुई त्रयी इन काव्यात्मक लघूक्तियों को महत्त्वपूर्ण बना रही है। <br /><br />भाषा का सहज प्रवाह सुन्दर और आकर्षक है...क्षणिका-७ में प्रयुक्त ‘बेबाकी’ शब्द को छोड़कर मुझे ऐसा कहीं भी आभास नहीं हो रहा है कि कोई शब्द ज़बरन ठेलकर लाया या बैठाया गया हो। हो सकता है कि मैंने अपनी सीमित जानकारी के चलते ‘बेबाकी’ शब्द को ‘ज़बरन लाया या बैठाया गया’ मान लिया हो...जहाँ तक मुझे जानकारी है...उसके अनुसार ‘बेबाकी’ का प्रयोग यहाँ उचित नहीं लगा। ‘बेबाकी से बात करना/बोलना’ जैसे प्रयोग तो मैंने देखे-पढ़े-सुने हैं...लेकिन ‘बेबाकी से पिया करो’ जैसा प्रयोग मेरे लिए नया है। हालाँकि यह ज़रूरी नहीं कि यदि किसी प्रयोग को मैंने या किसी अन्य ने पहले कहीं नहीं पढ़ा या सुना है तो वह ग़लत है...भाषा में नित नवीन प्रयुक्तियाँ आती रहती हैं...और कविता तो नये-नये मुहावरे गढ़ती ही रहती है। इस सबके बावजूद भी मैं आपके साथ ही अन्य विद्वज्जनों की राय भी जानने का अभिलाषी हूँ...विनम्र आग्रह यह भी कि क्षणिका-७ में अनुस्यूत-अवगुम्फित प्रतीकादि सहित मूल भाव को अपनी विचारिभिव्यक्ति के माध्यम से एकबार अवश्य खोलें आकर, ‘आखर कलश’ पर... प्रतीक्षा करूँगा! <br /><br />भाषा-प्रवाह से इतर, यदि वर्तनी किंवा शुद्ध-लेखन के धरातल पर खड़े होकर देखा जाए, तो कहना होगा कि <br />६. ‘निशब्द’ की जगह.... ‘निःशब्द’<br />७. ‘घुंट’ के स्थान पर... ‘घूँट’<br />८. ‘पाहूंगा’ की जगह.... ‘पाऊँगा’<br />१०. ‘ना’ की जगह... ‘न’ (‘ना’ वाली ग़लती तो बहुत लोग कर बैठते हैं।)<br /><br />मैं जानता और मानता हूँ कि उक्त टंकण-दोष कवि के किसी अज्ञान के द्योतक नहीं, प्रत्युत् अनवधानता की अवांछित उपज हैं जिन्हें टंकणोपरान्त एक सरसरी निगाह डालकर काटा/फेंका जा सकता है।<br /><br />Contd...जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauharhttps://www.blogger.com/profile/06480314166015091329noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-16694878174200270912010-12-04T23:59:44.662-08:002010-12-04T23:59:44.662-08:00श्री जितेन्द्र ‘जौहर’ जी < http://jitendrajauh...श्री जितेन्द्र ‘जौहर’ जी < http://jitendrajauhar.blogspot.com/ > की यह विस्तृत विचारात्मक टिप्पणी पोस्ट न हो पाने के कारण ईमेल से प्राप्त हुई है...जिसे मैं सधन्यवाद पोस्ट कर रहा हूँ :<br /><br />श्री राकेश श्रीमाल जी,<br />नमस्कारम्! <br />आपको प्रथम बार इसी मंच पर पढ़ रहा हूँ...इसे मैं अपना ही दुर्भाग्य कहूँगा कि आपका चिंतनपूर्ण साहित्य मैं अभी तक नहीं पढ़ सका था...अब तलाशूँगा ही...यत्र-तत्र-सर्वत्र...जहाँ भी मिले...। <br /><br />आपकी क्षणिकाओं ने यक़ीनन मुझे काफी प्रभावित किया है! प्रकृति के साथ मौन संवाद से लेकर किसी ‘तुम’ के अथाह प्रेम की विस्तृत परिधि तक घूमती आपकी ये संदर्भित अभिव्यक्तियाँ आपको साधुवाद का सच्चा सु-पात्र बनाती हैं; शब्दों-भावों-विचारों की एक सधी हुई त्रयी इन काव्यात्मक लघूक्तियों को महत्त्वपूर्ण बना रही है। <br /><br />भाषा का सहज प्रवाह सुन्दर और आकर्षक है...क्षणिका-७ में प्रयुक्त ‘बेबाकी’ शब्द को छोड़कर मुझे ऐसा कहीं भी आभास नहीं हो रहा है कि कोई शब्द ज़बरन ठेलकर लाया या बैठाया गया हो। हो सकता है कि मैंने अपनी सीमित जानकारी के चलते ‘बेबाकी’ शब्द को ‘ज़बरन लाया या बैठाया गया’ मान लिया हो...जहाँ तक मुझे जानकारी है...उसके अनुसार ‘बेबाकी’ का प्रयोग यहाँ उचित नहीं लगा। ‘बेबाकी से बात करना/बोलना’ जैसे प्रयोग तो मैंने देखे-पढ़े-सुने हैं...लेकिन ‘बेबाकी से पिया करो’ जैसा प्रयोग मेरे लिए नया है। हालाँकि यह ज़रूरी नहीं कि यदि किसी प्रयोग को मैंने या किसी अन्य ने पहले कहीं नहीं पढ़ा या सुना है तो वह ग़लत है...भाषा में नित नवीन प्रयुक्तियाँ आती रहती हैं...और कविता तो नये-नये मुहावरे गढ़ती ही रहती है। इस सबके बावजूद भी मैं आपके साथ ही अन्य विद्वज्जनों की राय भी जानने का अभिलाषी हूँ...विनम्र आग्रह यह भी कि क्षणिका-७ में अनुस्यूत-अवगुम्फित प्रतीकादि सहित मूल भाव को अपनी विचारिभिव्यक्ति के माध्यम से एकबार अवश्य खोलें आकर, ‘आखर कलश’ पर... प्रतीक्षा करूँगा! <br /><br />भाषा-प्रवाह से इतर, यदि वर्तनी किंवा शुद्ध-लेखन के धरातल पर खड़े होकर देखा जाए, तो कहना होगा कि <br />६. ‘निशब्द’ की जगह.... ‘निःशब्द’<br />७. ‘घुंट’ के स्थान पर... ‘घूँट’<br />८. ‘पाहूंगा’ की जगह.... ‘पाऊँगा’<br />१०. ‘ना’ की जगह... ‘न’ (‘ना’ वाली ग़लती तो बहुत लोग कर बैठते हैं।)<br /><br />मैं जानता और मानता हूँ कि उक्त टंकण-दोष कवि के किसी अज्ञान के द्योतक नहीं, प्रत्युत् अनवधानता की अवांछित उपज हैं जिन्हें टंकणोपरान्त एक सरसरी निगाह डालकर काटा/फेंका जा सकता है।<br /><br />राकेश जी...! <br />आप ही नहीं, बल्कि हिन्दी के तमाम नामचीन लेखक (कभी-कभी अज्ञानवश मैं स्वयं भी) अनुस्वार-अनुनासिक का विभेदात्मक प्रयोग नहीं करते हैं...यह सर्वथा अनुचित है। आपने इसे आद्योपान्त नहीं निभाया... अनुनासिक की सरासर अनदेखी की है। आपने ‘हूँ/ढूँढ़/घूँट’ आदि में सिर्फ़ अनुस्वार का प्रयोग कर दिया है। यथा- ‘हूं/ढूंढ़/घुंट’ आदि। चूँकि आप एक संपादक भी हैं...गुरुतर दायित्व निभा रहे हैं, अतः भाषा के शुद्ध एवं व्याकरण-सम्मत स्वरूप को बचाए और बनाए रखना आपका बड़ा दायित्व है...हम सबका भी है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का संपादकीय चरित्र हिन्दी के हर संपादक को प्रेरणा देता है...बस ज़रूरत है... तो सिर्फ़ उसे ग्रहण करने की।<br /><br />हम सभी जानते हैं कि अनुनासिक और अनुस्वार में भेद न किया जाए तो अर्थान्तर उत्पन्न हो जाता है। उदाहरणार्थ- ‘हँस’ और ‘हंस’ को ही देख लीजिए...है कि नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि आगे आने वाली पीढ़ियाँ हमसे यह पूछने लगें कि- "पापा जी... यह ‘अनुनासिक’ क्या होता है?" आइए...हम सब इसे विलुप्त होने से बचाने का प्रयास करें...तथास्तु!<br /><br />और...हाँ, ‘पृथ्वी’ वाली क्षणिका-१ पर श्री तिलकराज कपूर जी का तर्क विचारणीय है! <br />....................................<br /><br />अंत में, मैं चाहता हूँ कि ‘आखर कलश’ पर टिप्पणियों के माध्यम से केवल तर्कपूर्ण, तथ्यपूर्ण व प्रमाणसम्मत चर्चा ही हो...निरर्थक-निस्सार-निराधार बातों को ध्वनिमत से खारिज किया जाए...मदांधता और अग्रहणशीलता दर्शाने वाली बचकानी बातों के साथ ही भोंड़ी व व्यक्तिगत टिप्पणियाँ परिचर्चा-पथ को Divert कर देती हैं...! इससे बचना ही चाहिए।Narendra Vyashttps://www.blogger.com/profile/12832188315154250367noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-69063484346480906202010-12-04T21:09:22.138-08:002010-12-04T21:09:22.138-08:00सुनो
मैं तुमसे ही कुछ कह रहा हूं
पूरी दुनिया से छ...सुनो<br />मैं तुमसे ही कुछ कह रहा हूं<br /><br />पूरी दुनिया से छिपाते हुए<br /><br />तुम<br />निशब्द ही सुन लेना इसे<br />बता देना सबको<br />फिर अपने शब्दों से<br /><br />और गाने देना दुनिया को <br />कितनी छोटी कवितां परंतु कितनी विराट अनुभूतियां, संवेदनाएं..बिहारी सतसई के दोहों दिखन में छोटे लगे जैसे..दस की द्स, जस की तस उतर जाती है मन में.. जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ बधाई और आभार इतनी प्यारी न्यारी कविताओं के लिए राकेश जी!नवनीत पाण्डेhttps://www.blogger.com/profile/14332214678554614545noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-11585409957856218272010-12-04T09:39:00.007-08:002010-12-04T09:39:00.007-08:00पूरी पृथ्वी....बात कर रहा हूं समझने में कठिनाई हो...पूरी पृथ्वी....बात कर रहा हूं समझने में कठिनाई हो रही है, कहीं यह ऐसे तो नहीं<br /><br />पूरी पृथ्वी का<br />कान समझकर<br />संबोधित कर रहा हूं<br />हरी घास के एक तिनके से<br />बात कर रहा हूं।<br /><br />इसी प्रकार<br />तुम कविता ....पढ़ने के लिए में तीसरी पंक्ति शायद ऐसी होनी चाहिये थी<br /><br />तुम कविता का<br />क बन जाना<br />स्याही को बना लेंगे वि <br />और ता को राजी कर लेंगे<br />किसी भी तरह हमें पढ़ने के लिए<br /><br />मेरी गद्य कविता की समझ कमज़ोर है इसलिये हो सकता है मुझसे कुछ चूक हो रही हो समझने में, ऐसी स्थिति में क्षमा चाहूँगा।तिलक राज कपूरhttps://www.blogger.com/profile/03900942218081084081noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-48064154486006814682010-12-04T09:21:47.745-08:002010-12-04T09:21:47.745-08:00एक
पूरी पृथ्वी को
तुम्हारा कान समझकर
संबोधित कर...एक<br /><br />पूरी पृथ्वी को<br />तुम्हारा कान समझकर<br />संबोधित कर रहा हूं<br />हरी घास के एक तिनके से<br />बात कर रहा हूं<br />हरी घास का तिनका भी आतुर है उन बातों के लिए ..<br /><br /><br />दो<br /><br />गिलहरी की चपलता से कहीं तेज<br />ढूंढ लेती हो तुम मुझे<br />फिर बुदबुदाने लगती हो<br />विस्मित कर देने वाला प्रेम<br />विस्मय ही प्रेम है .... जिसमें एक गिलहरी स्पर्श पाकर लकीर हो जाती है ..<br /><br />तीन<br /><br />ये पत्ते<br />तुम्हारा संदेश वाहक बन<br />मुझसे<br />मेरा हरापन देखने को कहते हैं<br /><br />हरापन उन संदेशों को लिखता है और पत्तों पर उभर आती हैं नसें जीवन की ...<br />चार<br /><br />तुम्हें पता नहीं<br />तुम्हारी हथेलियों से ही<br />ले लेता हूं थोडे से शब्द<br />फिर पढ़ता हूं उन्हे<br />किसी कविता की तरह<br /><br />और कभी कविता हथेली बन जाती है भाग्य की ....<br />पांच<br /><br />स्वीकार करता हूं मैं<br />मेरा होना<br />केवल तुम्हारे साथ<br /><br />और घूम लेते हैं वे ब्रह्मांड ...<br /><br />छह<br /><br />सुनो<br />मैं तुमसे ही कुछ कह रहा हूं<br /><br />पूरी दुनिया से छिपाते हुए<br /><br />तुम<br />निशब्द ही सुन लेना इसे<br />बता देना सबको<br />फिर अपने शब्दों से<br /><br />और गाने देना दुनिया को Happy birthday to you ....<br /><br />सात<br /><br />थोड़ी अदरक डाल लिया करो<br />सुबह की चाय में<br />दो काली मिर्च के साथ<br /><br />बेबाकी से पिया करों<br />वे सारे घुंट<br />जो तुम्हें पसंद नहीं है<br /><br />और रास आने लगेगी अदरकी चाय चरपरे घूटों में ....<br /><br />आठ<br /><br />सुनो<br />तुमसे कहना है बहुत कुछ<br />पर सुनो<br />धीरे-धीरे ही कह पाहूंगा<br />आने वाले मौसमों में<br /><br />मौसम भी आकर कुछ कहेगा तब उन क्षणों में ....<br /><br />नौ<br /><br />तुम कविता का<br />क बन जाना<br />वि को बना लेंगे स्याही<br />ता को राजी कर लेंगे<br />किसी भी तरह हमें पढ़ने के लिए<br /><br />और बिम्ब में उतर जायेंगे खोये शब्द<br />थरथराती झील की तरह ...<br /><br /><br />दस<br /><br />आज रात की नींद में<br />मिल लेना तुम उन पलों से<br />जिनसे मिल ना पायी आज तुम<br />अगर समय हो तुम्हारे पास<br /><br />समय को आँज लेना आँखों में ....अपर्णाhttps://www.blogger.com/profile/13934128996394669998noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-83406855193368419082010-12-04T09:18:47.291-08:002010-12-04T09:18:47.291-08:00अभी तक जो कवितायेँ आखर कलश पर छापी हैं उनमे उत्कृष...अभी तक जो कवितायेँ आखर कलश पर छापी हैं उनमे उत्कृष्ट है ये कवितायें.. पहली क्षणिका सबसे सुन्दर, सशक्त और सार्थक है.. पृत्वी से बात करने के लिए घास के तिनके से वार्तालाप... बहुत व्यापक विम्ब है.. नरेन् जी आपको विशेष बधाई... श्रीमाली जी को बेहतरीन रचना के लिए आभार..अरुण चन्द्र रॉयhttps://www.blogger.com/profile/01508172003645967041noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7334972987523809834.post-71021497697403321692010-12-04T09:09:22.495-08:002010-12-04T09:09:22.495-08:00एक नहीं पूरी दस सुदर रचनाएँ सुंदर अभिव्यक्ति बधाई ...एक नहीं पूरी दस सुदर रचनाएँ सुंदर अभिव्यक्ति बधाई तो कम हैSunil Kumarhttps://www.blogger.com/profile/10008214961660110536noreply@blogger.com