अबकि बार तू सीता बनके मत आना- एकता नाहर 'मासूम'

अबकि बार तू सीता बनके मत आना

स्त्री तेरे हज़ारों रूप,
तू हर रूप में पावन,सुन्दर और मधुर।

पर अबकि बार तू सीता या राधा बनके मत आना,
द्रोपदी और दामिनी बनके भी मत आना,
तू जौहर में जलती वीरांगना और,
प्रेम के गीत गाती मीरा बनके भी मत आना,
मेरी तरह चुप्प,बेबस और मूर्ख बनके भी मत आना।

अबकि बार तुम गुस्सैल,बिगडैल और मुहफट लड़की बनके आना,
वहीँ जो अपनी आज़ादी का राग आलापते,मुंबई के एक हॉस्टल में रहती है।
और कल जिसने एक लड़के को बुरी तरह पीटा,
क्योंकि लड़का उसकी छाती पर कोहनी मार के निकल गया।

अबकि बार तुम शालीनता और सभ्यता के झंडे फहराने मत आना,
और वो मोहल्ले की रागिनी भाभी बनकर भी नहीं,
जिसकी सहेली से मिलने की इच्छा भी पति की इज़ाज़त पर निर्भर है।
तुम, वो काँधे पे स्वतंत्र मानसिकता का बैग टाँगे, समुद्र लांघ के
स्वीडन से इंडिया घूमने आई,दूरदर्शी और आत्मनिर्भर लड़की बनके आना।

अब नहीं बनके आना तुम मर्यादा न लांघने का प्रतीक,
तुम गली की गुंडी बनके आना।
ताकि तुम्हारी आबरू को घायल करने वाले ये नपुंसक,
तुम्हारे अस्मित को नोचने वाले ये दरिन्दे,
तुम्हारे दम भर घूरने से ही अपने बिलों में छिप कर बैठ जाएँ।
और घर की कुण्डी लगाके कमरे के बिस्तर पर न फेंकी जाएँ,
तुम्हारी ख्वाहिशें,स्त्री होने का ठप्पा लगकर।

अबकि बार तुम समाज के प्रहरियों के आदर्श-मूल्यों में,
अपनी संवेदनाओ और इच्छाओ को खंडित करके,
सीधी,चुप्प,दुपट्टा सम्हाले,'मासूम' गुडिया बनके मत आना।
तुम निडर,अमूक और आफतों से लड़-झगड़ने वाली,
अपनी प्राथमिकताएं स्वयं तय करने वाली,
सीमा,बंधन और गुलामी में अंतर कर पाने वाली,
उपहास,आलोचना,और उलाहना को गर्दो-गुबार करने वाली,
आज़ाद,खूबसूरत और खुले विचारों वाली,
जीवन से भरपूर वो पागल लड़की बनके आना।
मुझे तुम वैसी ही अच्छी लगती हो।

नैतिकता और आदर्शवाद के पुराने उदाहरण पर्याप्त हैं
हम बेटिओं,बहनों और स्त्रिओं के जीवन मूल्य तय करने के लिए
अब मेरे कस्बे की लडकियां तुम्हारे स्वछंद,स्वतंत्र
और बिंदास होने का उदाहरण देखना चाहती हैं,
समाज की परम्पराओं की जंजीरों में जकड़ी ये लडकियां,
तुम्हारे उस बिंदास व्यक्तित्व में कहीं न कहीं,
खुद का भी तुम्हारी तरह होना इमेजिन करती हैं।

-एकता नाहर 'मासूम'



युवा लेखिका एकता नाहर तकनीकी क्षेत्र में अध्ययनरत होने के उपरांत भी हिंदी साहित्य की दोनों विधाओं गध्य और पद्य में अपने लिखने के साथ बेहद उम्दा sketches भी बनाती हैं ! बी.ई.फ़ाइनल ईअर की विद्यार्थी एकता नाहर की रचनाये समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकशित होती रहती हैं. दो अलक-अलग व्यक्तित्व की धनी एकता कवि सम्मेलनों में भी अपनी प्रस्तुति देती आई हैं. पेशेनज़र है उनकी इस कविता के माध्यम से उनका नजरिया-

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5 Responses to अबकि बार तू सीता बनके मत आना- एकता नाहर 'मासूम'

  1. युवा आगाज़ प्रभावशाली .... शुभकामनायें

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  2. नैतिकता और आदर्शवाद सच में एक ढकोसले की तरह प्रतीत होते है ,जब शालीन और सभ्यता के पथ पर चलते हुए भी स्त्री का सिर्फ दमन ही होता है ...कलम धार दार है ..अच्छी कविता है

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  3. Narendra ji....apka Presentation bahut hi sundar hai...aabhar

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  4. एकता जी आपकी कविता- अबकि बार तू सीता बनके मत आना- बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों से व विनम्रता से आपने स्‍त्री दर्द को तथ्‍य परक तरीके से उजागर किया है। आज की स्थिति जो हमारे देश मे उत्‍पन्‍न हो गई है इस पर आपके द्धारा व्‍यक्‍त भाव निश्चित रूप से परिवर्तन मे सहायक होंगे। मेरी तरफ से आपको ऐसे सुन्‍दर प्रयासो के लिये असीम शुभकामनाएं और बधाई।

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