निकालता हूं तलवार और खुद का गला काटता हूं- हेमंत शेष की कविताएँ

हेमंत शेष
गद्य और पद्य में समानरूप से अपनी खास पहचान रखने वाले, बिहारी पुरस्कार से सम्मानित, ख्यात कवि, कथाकार, संपादक, आलोचक और कला-समीक्षक हेमंत शेष समकालीन हिंदी साहित्य के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं. उनकी कविताएँ सिर्फ कविताएँ नहीं बल्कि एक चिलचिलाता यथार्थ है जिसकी चमक हर वर्ग के पाठक को चौंधिया सकने की क्षमता रखती है.
28 दिसम्बर, 1952 को जयपुर (राजस्थान, भारत) में जन्म हेमंत शेष ने एम.ए.(समाजशास्त्र) राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से 1976 में किया और तुरंत बाद ही वह प्रशासनिक सेवा में चयनित कर लिए गए. प्रतापगढ़, राजस्थान में कलेक्टर पद पर कार्य कर चुके हेमन्त शेष वर्तमान में राजस्थान राजस्व मंडल, अजमेर में प्रशासनिक पद पर कार्यरत हैं.
लीजिये प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएँ-

(1)

निकालता हूं तलवार और खुद का गला काटता हूं

खोजता हूं अपना धड़ आंखों के बगैर
किसी दूसरे के घर में शराब या प्यार

समुद्र के पानी में बजती हैं टेलीफोन की घंटियाँ
हो यही शायद किसी लेखक की मौत की खबर

नहीं, नहीं मैं नहीं हूं इस कहानी में
वह तो कोई और होगा
मैं तो कब का मर चुका आत्महत्या के बाद
तब निकाली किसने
काटने को मेरा गला दूसरी बार यह तलवार?

(2)

वह रात मेरे जीवन की आखिरी रात नहीं होगी जब मैं मरूंगा

जीते हुए लगातार मरता रहा हूं
हर पल रोज़ टुकड़ों में मर रहा हूँ
पैदा होते ही मरना सीख गया था
और यही अभ्यास आजीवन मेरे काम आएगा

अपनी हर मृत्यु में अंशतः जीवित रह जाता हूं
हर बार यह सोच कर कि समूचा जब तक मर नहीं जाता
पूरा-पूरा जीवित हूं और मरने तक रहूँगा

(3)

कई बार कितने छोटे सुखों से सुखी हो जाता हूं

कितने छोटे दुखों से दुखी
'अनुभव' क्या चीज है क्या चीज़ है 'अनुभूति'

मैं था
कह सकता हूं मैं हूं
मैं यह भी कह सकता हूं
मैं रहूंगा
नहीं बांध पाता ये कहने की हिम्मत
कि भविष्य में होना मुझ से बाहर की सत्ता है
तब क्यों हुआ खुश क्यों खिन्न
बस यही एक बात नहीं जान पाता हर भविष्य में

(4)

कोयला नहीं कहूँगा मैं

तब भी वह काठ ही तो होगा काला स्याह
सदियों से भूगर्भ में दबा हुआ
जानता हूं
नाम या सिर्फ शब्द
जो काठ की कालिमा और पीड़ा के लिए अंतिम नहीं हो सकता
तब जानूं कैसे
जो हो पर्याय भी और अनुभव भी : अन्तःपरिवर्तनीय

सोचता हूं यही
और चुप रहता हूं देख कर
तथाकथित कोयला इन दिनों

(5)

टपकती पेड़ से कांव-कांव छापती है

आकृति कौवे की
दिमाग के खाली कागज पर
मुझे किस तरह जानता होगा कौआ
नहीं जानता मैं
उस बिचारे का दोष नहीं, मेरी भाषा का है

जो उसे 'कौआ' जान कर सन्तुष्ट है
वहीं से शुरू होता है मेरा असंतोष
जहां लगता है - मुझे क्या पता सामान्य कौए की आकृति में
वह क्या है कठिनतम
सरलतम शब्द में भाषा कह देती है जिसे 'कौआ'!
***

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13 Responses to निकालता हूं तलवार और खुद का गला काटता हूं- हेमंत शेष की कविताएँ

  1. Bahut kuch sochne par majbur karti hain aapki rachnayen bahut-2 badhai

    ReplyDelete
  2. हेमन्त शेष की कविताएँ प्रभावी लगीं।
    -- डॉ. भीखी प्रसाद 'वीरेन्द्र'

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  3. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  4. सभी रचनाएँ जीवन को एक अलग तरह से देखने के लिए प्रेरित करती है. क्या चीज़ है अनुभव और अनुभूति. जीवन के यथार्थ से रूबरू कराते भाव...

    अपनी हर मृत्यु में अंशतः जीवित रह जाता हूं
    हर बार यह सोच कर कि समूचा जब तक मर नहीं जाता
    पूरा-पूरा जीवित हूं और मरने तक रहूँगा

    उत्कृष्ट रचनाओं के लिए हेमंत जी को बधाई.

    ReplyDelete
  5. कटते हैं, काटते हैं, कौवे की चोंच सब कुछ कह देते है
    खूबसूरत |

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  6. हेमंत शेष की कवितायेँ कविताओं के समुद्र में भी अलग से बखूबी पहचानी जा सकती हैं अपनी विलक्षण अनुभूति और प्रस्तुति के अनूठेपन से.
    कवि को रचनाओं के लिए बधाई और आपको हमें इस मंच पर पढ़वाने के लिए धन्यवाद.
    कमलानाथ

    ReplyDelete
  7. हेमंत शेष की कवितायेँ कविताओं के समुद्र में भी अलग से बखूबी पहचानी जा सकती हैं अपनी विलक्षण अनुभूति और प्रस्तुति के अनूठेपन से. ये सभी रचनाएँ पाठक को चिंतन सूत्र में बांध देती हैं.
    कवि को रचनाओं के लिए बधाई और आपको हमें इस मंच पर पढ़वाने के लिए धन्यवाद.
    कमलानाथ

    ReplyDelete
  8. हेमंत शेष की कवितायेँ कविताओं के समुद्र में भी अलग से बखूबी पहचानी जा सकती हैं अपनी विलक्षण अनुभूति और प्रस्तुति के अनूठेपन से. ये सभी रचनाएँ पाठक को चिंतन सूत्र में बांध देती हैं.
    कवि को रचनाओं के लिए बधाई और आपको हमें इस मंच पर पढ़वाने के लिए धन्यवाद.
    कमलानाथ

    ReplyDelete
  9. बेहतरीन रचनाएँ .......

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  10. गंभीर रचनाएं ..
    जो विवश करती है पाठक को कविता के आगे और सोचने के लियें ..

    बधाई हेमंत जी को और आभार आपका ..

    ReplyDelete
  11. गंभीर रचनाएं ..
    जो विवश करती है पाठक को कविता के आगे और सोचने के लियें ..

    बधाई हेमंत जी को और आभार आपका ..

    ReplyDelete
  12. Charon rachnay ke saath kavita ke naye prtimaan gadhti hui

    ReplyDelete
  13. बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि कविता का पैकर इतना बिगड़ गया है !...
    खोजता हूं अपना धड़ आंखों के बगैर
    किसी दूसरे के घर में शराब या प्यार...ये सब क्या है ..? शायद ज़ेहन के अन्दर का कुछ इस रस्ते बाहर आ रहा है ....साहित्य ..की एक ख़ूबसूरत विधा है कविता और कुछ लोग इस विधा का सत्यानाश करने पे तुले है ....शुक्र है ग़ज़ल अभी इस तरह की परछाईं से बची हुई है ....

    पहली मर्तबा पढ़ा इन महोदय को ....मुझे तो यही लगा कि इनमे कुछ शेष नहीं है जिसे अदब कहते हैं ...बड़ी माज़रत के साथ ...

    ReplyDelete

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