विजेंद्र की कविताएँ



विजेन्द्र
 श्री विजेन्द्र निराला की काव्य परम्परा के प्रतिनिधि कवि हैं होने के साथ ही साथ एक प्रतिष्ठित चित्रकार भी हैं। विजेन्द्र जी चित्रकला को कविता का पूरक मानते हैं। यही कारण है कि उनके काव्य सृजन के भाव उनकी कृतियों में लय होते नजर आते हैं।
उनके काव्य-चित्र संग्रह 'आधी रात के रंग' में उनकी कविताओं के साथ उनके चित्रों का अनुपम तथा अद्वितीय संगम है। इसी संग्रह से आज आपके समक्ष प्रस्तुत है कुछ कविताएँ इसी आशा के साथ कि आप उनके तूलिका और कलम के समवेत भावों के अद्वितीय एवं मधुर मधुर प्रयोग का आस्वादन कर आनंदित होंगे...


१. कवि

मेरे लिए कविता रचने का
कोई खास क्षण नहीं।
मैं कोई गौरय्या नहीं
जो सूर्योदय और सूर्यास्त पर
घौंसले के लिए
चहचहाना शुरू कर दूँ।

समय ही ऐसा है
कि मैं जीवन की लय बदलूँ-
छंद और रूपक भी
एक मुक्त संवाद-
आत्मीय क्षणों में कविता ही है
जहाँ मैं-
तुम से कुछ छिपाऊं नहीं।
सुन्दर चीज़ों को अमरता प्राप्त हो
यही मेरी कामना है
जबकि मनुष्य उच्च लक्ष्य के लिए
प्रेरित रहें!
हर बार मुझे तो खोना ही खोना है
क्योंकि कविता को जीवित रखना
कोई आसान काम नहीं
सिवाय जीवन तप के।

जो कुछ कविता में छूटता है
मैंने चाहा कि उसे
रंग, बुनावट, रेखाओं और दृश्य बिंबों में
रच सकूँ।

धरती उर्वर है
हवा उसकी गंध को धारण कर
मेरे लिए वरदार!

गाओ, गाओ-ओ कवि ऐसा,
जिससे टूटे और निराश लोग
जीवन को जीने योग्य समझें।

हृदय से उमड़े हुए शब्द
आत्मा का उजास कहते हैं।
***

२. शिखर की ओर


जब भी मैंने देखा
शिखर की ओर
तुमने त्यौंरियाँ बदलीं
जब मैं चढ़ा
तुम ने चट्टानों के खण्ड
मेरी तरफ ढकेले।
कई बार मैं गिरा
और पीछे हटा
कई बार टूटा और रोया
कई बार फिर प्रयत्न किए
कि चट्टानी लहरों का
कर सकूँ सामना।
समय हर क्षण-
मेरी परीक्षा लेता रहा।
मेरे पंख कहाँ
जो आकाश में उडूँ
ऊबड-खाबड
पृथ्वी चल कर ही
चढूँगा पहाड़ और मँगरियाँ
ओ दैत्य-
हर बार तू मुझे
धकेलेगा नीचे
जीवन ही है सतत् चढना-
और मेरे जीवन में
कभी नहीं हो सकती
अंतिम चढ़ाई।
***

३. क्रौंच मिथुन
 


ओ, क्रौंच मिथुन
तुम कभी नहीं बिछुड़ते-
एक दूसरे से-
कभी दूर नही होते।
मैंने देखा अक्सर तुम्हें-
धान के भरे खेतों में
या दलदली
ज़मीन में
अपने आहार और आनंद के लिए
तुम्हें शान्त विचरते देखा है।
तुम्हारे जैसा प्रेम
यदि मनुष्यों के बीच
भी होता-
तो यह धरती
इतनी दुःखी और दुष्ट
न होती।
जब तुम उड़ते हो लयबद्ध
मंद-मंद
आकाशीय पंख फैलाए
तब मैंने तुम्हारी आवाज़ में
तूर्यनाद जैसी
मेघ गर्जन की ध्वनियाँ सुनी हैं।
प्रजनन क्षणों में
तुम आत्मविभोर होके
नृत्य करते हो
जैसे विराट प्रकृति का
अभिवादन कर रहे हो-
एक-दूसरे को मोहित करने के लिए।
तुम दिव्य किलोलें करते हो।
सरकण्डों और घास के
खेतों के बीच
तुम अपना नीड़
बुनते हो।
हिंस्र पशुओं से अपने शिशुओं की
रक्षा करते को
उनसे लड़ते हो...
ओ क्रौंच मिथुन
तुम वाल्मीकि की कविता में
अमर हो।
***


नोट- समस्त चित्र स्वयं विजेंद्र जी द्वारा उकेरे गए हैं.

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7 Responses to विजेंद्र की कविताएँ

  1. गाओ, गाओ-ओ कवि ऐसा,
    जिससे टूटे और निराश लोग
    जीवन को जीने योग्य समझें।
    सुन रहे हो न कवि... यही तुम्हारी सफलता होगी और कविता की भी! सटीक आह्वान!
    बेहद सुन्दर कवितायेँ हैं!
    प्रस्तुति के लिए आभार!

    ReplyDelete
  2. विजेन्द्र जी रचना पढ़कर मन आनन्दित हो गया...बहुत उत्तम रचनायें. बहुत आभार.

    ReplyDelete
  3. Vjendr jee ki kavitaon ke saath unke dwaara banae gaen chitr bhee bahut gehra prabhav chhodne men saksham hain,badhai.

    ReplyDelete
  4. kavita ke sath chitr kamal shabd me rang bharna shayad ise hi kahte hai.
    bahut bahut badhai
    rachana

    ReplyDelete
  5. गहरे भाव की गहरी कविताएं। चित्र भी उतने ही घनीभूत।

    ReplyDelete
  6. मेरे लिए कविता रचने का
    कोई खास क्षण नहीं।
    मैं कोई गौरय्या नहीं
    जो सूर्योदय और सूर्यास्त पर
    घौंसले के लिए
    चहचहाना शुरू कर दूँ।

    ___________________________

    विजेन्द्र हमारे समय के एक मह्त्वपूर्ण कवि हैं। घने भावों से भरी गहरी कविताएँ....

    ReplyDelete
  7. Prem Srdhye Vijender ji Aap ki teen kavita pedi kavi, shiker ki or , kronch mithun Teeno ki Abhiveykti bhut hi sunder h.Aap ki kavita ek sandesh deti h.mujhe Aap ki kavita se hamesha se hi prrena milti h.

    ReplyDelete

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