कविताएँ रास्ता ढूंढती हैं
पगडंडियों पर चलते हुए
तब पीछा करती हैं दो आँखें
उसकी देह पर कुछ निशान टटोलने के लिए.
एक गंध की पहचान बनाते हुए जाना कि
गांधारी बनना कितना असंभव होता है
यह तभी संभव हो पाता है
जब सौ पुत्रों की बलि देने के लिए
अपने आँचल को अपने ही पैरों से
रौंद सकने की ताकत को
अपनी छाती में दबा सके,
आँखें तो लगातार पीछा करती रहतीं हैं
अंधी आस्थाओं के अंबार भी तो पीछा कर रहे हैं
उसकी काली पट्टी के पीछे
रास्ता ढूंढती कविताओं को
उनके क़दमों की आहट भी तो सुनाई नहीं देती
मात्र वृक्षों के बीच से उठती
सरसराहट के मध्य आगत की ध्वनियों की टंकार
सूखे पत्तों के साथ खो जाती हैं अहर्निश
किसी अभूझ पहेली की तरह
और गांधारी ठगी-सी हिमालय की चोटी को
पट्टी के पीछे से निहारने की कोशिश करती है .
कविताएँ फिर भी रास्ता ढूंढती रहती हैं
साकार करने के लिए
उन सपनों को-
जिसे गांधारी पट्टी के पीछे
रूंधे गले में दबाए चलती रहती है.
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बाबा तथा जंगल
परीकथाओं सा होता है जंगल
नारियल की तरह ठोस लेकिन अन्दर से मुलायम
तभी तो तपस्वी मौन व्रत लिए
उसके आगोश में निरंतर चिंतन मुद्रा में लीन रहते हैं
बाबा ऐसा कहा करते थे.
इधर पता नहीं वे, आकाश की किस गहराई को छूते रहते
और पैरों के नीचे दबे -
किस अज्ञात को देख कर मंद-मंद मुस्काते रहते थे
उन्ही पैरों के पास पडीं सूखी लकड़ियों को
अपने हाथों में लेकर सहलाते रहते थे.
मानो उनके करीब थकी हुई आत्माएं
उनकी आँखों में झांकती हुई कुछ
जंगली रहस्यों को सहलाती हुई निकल रही हैं.
फिर भी वे टटोलते रहते थे जीवन के रहस्य
उन्ही रहस्यों के बीच जहां उनके संघर्ष
समय के कंधे पर बैठ
निहारते थे कुछ अज्ञात.
उनके करीब पहाड़ फिर भी खामोश जंगल के मध्य
अनंत घूरता रहता था.
यह भी सच है कि जंगली कथाओं की परिकल्पनाओं से बेखबर
मंचित हो सकने वाले उनके जीवन के अध्याय
अपनी खामोशी तोड़ते रहते,
ताकि उनका बचपन-
उनके अन्दर उछल कूद करता
जंगल को उद्वेलित कर सके
ताकि वे अपने संघर्ष को नये रूप में परिवर्तित होते देख सकें --सिवाय अंत के .
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कविताएँ फिर भी रास्ता ढूंढती रहती हैं
ReplyDeleteसाकार करने के लिए
उन सपनों को-
जिसे गांधारी पट्टी के पीछे
रूंधे गले में दबाए चलती रहती है.
sahi kaha hai aapne kavitayen rasta dekh hi leti hain
bahut bahut badhai
saader
rachana
बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद!
ReplyDeleteइतनी गंभीर कवितायें लिखने के लिये कितना विचार मंथन लगता होगा इसी को समझने का प्रयास कर रहा हूँ। मंत्रमुग्ध।
ReplyDeleteवाह ! क्या लिखा है -
ReplyDeleteकविताएँ फिर भी रास्ता ढूंढती रहती हैं
साकार करने के लिए
उन सपनों को-
जिसे गांधारी पट्टी के पीछे
रूंधे गले में दबाए चलती रहती है |
आंद्रे जी आप की कविताएँ हमेशा सोचने पर मजबूर कर देती हैं |विवेक को झंझोड़ती हैं |
Bahut gambheer prastuti ke liye aapko dil se shubkamnayen..
ReplyDeletedonon rachnaayen adbhut hai. anubhav aur soch ki gahraai ka anutha vistaar hai rachnaaon mein...
ReplyDeleteमानो उनके करीब थकी हुई आत्माएं
उनकी आँखों में झांकती हुई कुछ
जंगली रहस्यों को सहलाती हुई निकल रही हैं.
फिर भी वे टटोलते रहते थे जीवन के रहस्य
उन्ही रहस्यों के बीच जहां उनके संघर्ष
समय के कंधे पर बैठ
निहारते थे कुछ अज्ञात.
badhai aur shubhkaamnaayen Ashok ji ko.
Badi hi fursat se likhi gayi...santusht si kavitaye...but sorry asal me kya kahti hai..samajh nahi aaya..
ReplyDeleteबेहतरीन रचना है...इन पर क्या टिपण्णी की जाए...अद्भुत...विलक्षण
ReplyDeleteनीरज
priya bhai narendra vyas jee aapke blog par apni rachnaen dekh kar bahut achchha laga tatha sabhi gunijano ka aabhar vaykat karta hoon ki unhone apni bahumulya tippni se in kavitaon ko saraha.
ReplyDeleteआदमी कविताओं को ढूँढता है या कवितायेँ आदमी को ? यह तो पता नहीं .. पर दोनों एक ही अहसास को ढूंढते हैं .. वही अहसास आदमी और कविता में एक अटूट रिश्ता जोड़ देता है ..! बहुत सुन्दर अहसास के मोती बिखरे हैं अशोक जी कविताओं में ... वाह !
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