घर की चौखट पार करने की घड़ी थी आ गयी
फैसले के बीच में बापू की पगड़ी आ गयी
प्यार उनका स्वार्थ मेरा दोनों ही थे सामने
बीच में दोनों के उनकी ख़ैरख़्वाही आ गयी
प्यार और कर्त्तव्य में बटवारा जब होने लगा
सामने तब अम्मा के चेहरे की झुर्री आ गयी
ओट में जिसके थी मैं बारिश से बचने के लिए
बनके मेरी मौत वो दीवार गीली आ गयी
बेज़मीरी के जो नक़्श- ए- पा थे मेरे सामने
कुछ विवशता उनपे चलने की मेरी भी आ गयी
झुक गया क्यों अक्ल और ईमान का पलड़ा वहाँ
सामने मुफ़लिस के जब भी भूख तगड़ी आ गयी
ज़िन्दगी की आपाधापी में झुलसते दिन रहे
ख़्वाबों को महकाने लेकिन रातरानी आ गयी
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ग़ज़लः २
मिलके बहतीं है यहाँ गंगो- जमन
हामिए -अम्नो-अमाँ मेरा वतन
वो चमन देता नहीं अपनी महक
एक भी गद्दार जिसमें हो सुमन
अब तो बंदूकें खिलौना बन गईं
हो गया वीरान बचपन का चमन
दहशतें रक्साँ है रोज़ो-शब यहाँ
कब सुकूँ पाएंगे मेरे हमवतन
जान देते जो तिरंगे के लिये
उन शहीदों का तिरंगा है कफ़न
देश की ख़ातिर जो हो जाएं शहीद
ऐसे जाँ-बाज़ों को 'देवी' का नमन
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ग़ज़लः ३
इस देश से ग़रीबी हट कर न हट सकेगी
मज़बूत उसकी जड़ है, हिल कर न वो हिलेगी
धनवान और भी कुछ धनवान हो रहा है
मुफ़लिस की ज़िंदगानी, ग़ुरबत में ही कटेगी
चारों तरफ़ से शोले नफ़रत के उठ रहे हैं
इस आग में यक़ीनन, इन्सानियत जलेगी
नारों का देश है ये, इक शोर- सा मचा है
फ़रियाद जो भी होगी, वो अनसुनी रहेगी
सावन का लेना देना 'देवी' नहीं हैं इससे
सहरा की प्यास हैं ये, बुझकर न बुझ सकेगी
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-देवी नागरानी
जन्म- 11 मई 1949 को कराची में
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ: ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)
प्रकाशन- प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।
"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।
तीनों ही गज़लें बहुत पसंद आई. देवी जी की गज़लों का यूँ भी कोई जबाब नहीं....
ReplyDeleteबेहद सुन्दर गजलें ..देवी नागरानी जी की
ReplyDeleteसरल शब्दों में गहरी बात। खूबसूरत ग़ज़लें।
ReplyDeleteमिलके बहतीं है यहाँ गंगो- जमन
हामिए -अम्नो-अमाँ मेरा वतन
काश यही जज़्बा जिन्दा रहे। आमीन।
देवी नांगरानी जी की गज़लों से आखर कलश की शोभा बढ़ गई है … बधाई !
ReplyDeletebahut badhiya prastuti
ReplyDeleteDEVI NAGRANI KEE GAZALEN MAN KO CHHOTEE HAIN .
ReplyDeleteACHCHHEE GAZALON KE LIYE UNKO BADHAAEE .
देवी जी की तीनों गज़लों का जवाब नहीं ...
ReplyDeleteजादू है उनकी कलम में ...
प्यार और कर्त्तव्य में बटवारा जब होने लगा
ReplyDeleteसामने तब अम्मा के चेहरे की झुर्री आ गयी
bahut khub
sari gazlen ek se badh ke ek hain
aap ko padhna sadev achchha lagta hai
saader
rachana
bahut hi achchi ghazals hain.aapka abhaar
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपके ब्लाग पर आकर। राजस्थान में कई वर्षों तक रहा हूँ।
ReplyDeleteतीनों ही गज़लें लाजवाब हैं....
ReplyDeleteदीदी नागरानी जी को सुनना और उनकी ग़ज़लें पढना एक ऐसा अनुभव है जिस से बार बार गुजरने को जी करता है...वात्सल्य की मूर्ती दीदी अपने आस पास के माहौल, गिरती सामाजिक व्यवस्थाएं और बदलते मूल्यों से कितनी चिंतित हैं ये उनकी ग़ज़लें पढ़ कर समझा जा सकता है...अपनी पीड़ा को उन्होंने सार्थक शब्द दिए हैं जो हमें सोचने पर मजबूर करते हैं...उनके अमेरिका चले जाने के बाद मुंबई की नाशिश्तों से रौनक ही चली गयी है...वो जहाँ रहें खूब खुश रहें बस ये ही दुआ करता हूँ.
ReplyDeleteनीरज
बेज़मीरी के जो नक़्श- ए- पा थे मेरे सामने
ReplyDeleteकुछ विवशता उनपे चलने की मेरी भी आ गयी
बहुत सुन्दर ग़ज़लें... एक-एक शेर लाजवाब..
Devi Nagrani ji Aap ki bhut hi payri or sunder rachnayo ko pedha.Aap ki Ek Ek GAZAL K Bhitter bhut hi Gheri baat chupi h. Aap n Is Naro k desh ka bhut hi khub chitren kiya h.Aap m kamal ki Urja h,jo kuch sochne ko majbur kreti h.
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