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गहन चिंतन और निर्णय पर अच्छा व्यंग्य किया और दर्द को गहरा किया .... यही है पिता के लिए कामनाएं !
ReplyDeleteनिश्चित तौर पर मानवीय संवेदनाएं समाप्त हो रही है ....
ReplyDeleteयही समीर जी की खासियत है कम शब्दो मे गहरी बात कह जाते हैं।
ReplyDeleteअच्छा व्यंग्य है !
ReplyDeleteमैं अपने पूरे होशहवास में कह रही हूँ कि मैं अपने बेटे के इस गिफ्ट को खुले दिल से स्वीकार करूँगी..विदेश में रह कर भी उसे अपनों की याद आई....गिफ्ट का सोचा... और दिया वही जिसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी....तन्हाँ रहूँ इससे अच्छा है कि सुविधासम्पन्न ओल्ड होम में रहूँ ...
ReplyDeleteसमीर जी आज की हकीकत है ..... एक भार महसूस होता है अब बेटो को .... लेकिन अहसान पैसो का [जैसे ऋण चुका कर रशीद मांग रहे हो]
ReplyDeleteKHOOB LIKHAA HAI AAPNE !
ReplyDeleteसमीर भाई, बहुत अच्छी बात पर मीनाक्षी जी की प्रतिक्रिया से संतोष भी मिला। हम सबको इसी तरह तैयार रहना चाहिए। बच्चे अच्छे हों तो िचंता क्यों करनी, बुरे हों तो भी चिंता क्यों करनी। समय से उन्हें संघर्ष करना है, पिताओं का युद्ध तो खत्म होने को है।
ReplyDeleteओह ... गहन और मार्मिक
ReplyDeleteओह ... गहन और मार्मिक
ReplyDeleteतथ्यात्मक !श्रेष्ठ और सत्य भी !
ReplyDeleteमार्मिक ...
ReplyDeleteAah! Bahut dard bharee,gahan baat hai!
ReplyDeleteबुढ़े बाप का वज़न दिन-ब-दिन जितना गिरता जाता है..बेटे को वो उतना भारी बोझ नज़र आता है.............. गहरी अभिव्यक्ति है मन की वेदना की. अब तो समय भी कम होने लगा है इतना भर सोचने को भी .....
ReplyDeleteअभी इसी साल, मदर्स डे पर जब मेरे पापा ने फोन उठाया था और मेरे फोन करने का मूल कारण जाने, तो उन्होंने कहा था, हँसते हुए, कि "और फादर्स डे कब होता है." और मैंने कहा था कि उसी दिन बतायेगे.
आज सुबह से फोन लगा रही हूँ यही बताने के लिए. मगर आज ही के दिन फोन नहीं लगना था. :-(
वैसे साल में एक दिन को मदर्स या फादर्स डे कहना मुनासिब नहीं है. फिर भी साल में एक दिन ही सही, उनकी अहमियत अपने जीवन में जो है वो जताने में अच्छा तो लगता ही है.
sir sabse pahle kahe du to gaherai bhari baat kahe di bade hi sahjata se ...aur is shandar post ko sarthak karta ye chitr to lajawab hai
ReplyDeletejai ho gurudev
अच्छी लघुकथा
ReplyDeleteBahut gahan sach hai ye aaj ke samaj ka...dardnaak par sach se otprot...
ReplyDeleteसमीर जी की रचनाओं में गहन अभिव्यक्ति होती है...... सटीक पंक्तियाँ ....प्रासंगिक लघुकथा
ReplyDeletepitr diwas ko fathers day kahey to behtar hogaa har shabd ko hindi me translate karna sahii nahin lagtaa
ReplyDeleteaur har maata pita ko bachcho kaa saath chahiyae jaese bachpan me bachcho ko unka
kehani achchi haen
गहरी सोच के साथ बहुत ही मार्मिक पोस्ट! सच्चाई को आपने बेहतरीन रूप से प्रस्तुत किया है! बड़ा ही दर्दभरा है!
ReplyDeleteआज का सच कम लफ़्ज़ों में बहुत गहरी और सच्ची बात लिख दी आपने
ReplyDeleteबहुत मार्मिक...मानवीय संवेदनाएं बिलकुल समाप्त हो चुकी हैं..
ReplyDeleteनिःशब्द हूँ ... इतनी लघु है पर कितनी गहरी है ...
ReplyDeleteनिस्संदेह मार्मिक ....पर मीनाक्षी से सहमत हूँ ...... बच्चे जब ,जैसे और जितना याद कर लें संतुष्ट हो जाऊंगी ,क्योंकि अगर उनसे कुछ गलत होता है तो ये संस्कार भी उनको हमसे ही मिला है .... आभार !
ReplyDeleteइतने कम अल्फ़ाज़ में आपने एक बड़ी हक़ीक़त बयान कर दी है।
ReplyDeleteपाताल लोक में कैसे पहुंचेगी हिंदी ब्लॉगिंग ? - Dr. Anwer Jamal
दर्द को गहरा किया
ReplyDeletebahut hi marmik kahani aur kavita uf lajavaba
ReplyDeletesaader
rachana
aadhunik yug ki reet yad gift de kar yad jatana....aur gift bhi kaisa.....bahut sateek katha.
ReplyDeleteबहुत दर्दभरा ... कितना कटु
ReplyDeleteहम जो अपने पिता से पाते हैं...वो अपने बच्चों को देते है...शायद पिता को देने की आदत हो जाती है...ओल्ड होम से भी उनकी दुआएं ही निकलती होंगी...बेटे को आगे बढ़ता देख...उनका सर फक्र से उठ जाता है...और गिरती सेहत के प्रति वो और बेपरवाह हो जाते हैं...इट इज समथिंग वी ओ टू देम एंड कैननॉट पे बैक...बट कैन गिव इट टू अवर किड्स...
ReplyDeleteअब क्या कहें दादा, यह दर्द तो अपना भी है.
ReplyDeleteआज का सच यही है.कहानी कहाँ ये तो सबके सच लिखे हैं.आज ओल्ड एज होम में उसके पेरेंट्स हैं .कल हम होंगे परसों 'वो' खुद.
ReplyDeleteजॉब के लिए दूर जाना बच्चो की मजबूरी भी तो है न्? वो भी क्या करे?अकेले रहते रहते वे हमसे दूर हो जाते हैं कोई तीसरा उनकी दुनिया में आये ये वे बेटे,बहु और बच्चे खुद सहन नही कर पाते.ये समय का बदलाव है.इसे स्वीकार करना होगा.
अकेले मरने से बेहतर है ओल्ड एज होम जा कर रहा जाए हा हा हा
हमारे साथ हमारे अपने वे लोग हैं जो अकेले हो गए.जब तक जियेंगे एक दुसरे का ख्याल रखेंगे.मौत ही हमे एक दुसरे से अलग करेगी.
'ओल्ड होम से भी उनकी दुआएं ही निकलती होंगी...बेटे को आगे बढ़ता देख...उनका सर फक्र से उठ जाता है...और गिरती सेहत के प्रति वो और बेपरवाह हो जाते हैं.' नही. बच्चो को आगे बढता देख माता पीटा खुश जरूर होते हैं किन्तु ओल्ड एज होम में जीते हुए सोचते होंगे 'किनके लिए पूरा जीवन होम कर दिया?इनके लिए????जो इस उम्र में छोड़ गए'
दादा! कम शब्दों में सचमुच 'दिल को छू लेने' वाली बात कह गए आप.
मैं तो यही कहूंगा कि ऐसे साधन सम्पन्न बेटे हर बाप को मिलें। अकेले रहें तो कम से कम सब सुविधाएं तो मिलें। ये हर दम संतान से चिपके रहने की ही जिद क्यों।
ReplyDeletebhut acche
ReplyDeleteयह लघु कथा हमारे समय के एक अहम् सवाल की असरदार अभिव्यक्ति है। बधाई !
ReplyDeleteसमीर जी, जीवन का ये बहुत बड़ा सच है शायद, पिता हो या माँ दोनों को वृधाश्रम की सुविधा भी अगर पुत्र दे दे तो भी स्वीकार्य है, कमसे कम कोई एक छत जो पराया हीं सही मिलेगा तो. कुछ के हालात तो ऐसे भी होते जिनको न घर मिलता न कोई आसरा होता और न होता कोई अपना, पर जीवन है तो जीना हीं होता. बहुत मार्मिक रचना, बधाई स्वीकारें.
ReplyDeletePooja Goswami to me
ReplyDeleteआपने तो रुला ही दिया... आज के समय में बूढ़े माँ बाप नयी पीढ़ी के लिए बोझ से कम नहीं....
पता नहीं क्यों रिश्तो मे इतना परायापन बढ़ता ही जा रहा....
आप सबके स्नेह का बहुत आभार.
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