एक मुक्तक, एक गीत- योगेन्द्र मौदगिल

योगेन्द्र मौदगिल- संक्षिप्त परिचय 
 
हास्य-व्यंग्य कवि एवं गज़लकार। कविता की ६ मौलिक एवं १० संपादित पुस्तकें प्रकाशित। भारत भर में मंचीय काव्य यात्राएं।
अनेक सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों व क्लबों से सम्मानित यथा २००१ में गढ़गंगा शिखर सम्मान २००२ में कलमवीर सम्मान २००४ में करील सम्मान २००६ में युगीन सम्मान २००७ में उदयभानु हंस कविता सम्मान व २००७ में ही पानीपत रत्न से सम्मानित. सब टीवी, जीटीवी, ईटीवी, एमएचवन, चैनलवन, इरा चैनल, इटीसी, जैनटीवी, साधना, नैशनल चैनल आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से नियमित कवितापाठ।

हरियाणा की एकमात्र काव्यपत्रिका कलमदंश का ६ वर्षों से निरन्तर प्रकाशान व संपादन। दैनिक भास्कर में २००० में हरियाणा संस्करण में दैनिक काव्य स्तम्भ तरकश का लेखन। दैनिक जागरण में २००७ में हरियाणा संस्करण में दैनिक काव्य स्तम्भ मजे मजे म्हं का लेखन। पानीपत व करनाल एवं आसपास पचासों अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के सफल संयोजन में सहभागिता।

हैं साधुऒं के भेष में शैतान आजकल.
गायब हुए जहान से इन्सान आजकल
हर चेहरे प नक़ाब के ऊपर नक़ाब है,
मुश्किल बहुत हर शख्स की पहचान आजकल.

जो भेद खुल गया तो शर्मसार हो गया.
हर आदमी धंदे का तलबग़ार हो गया.
कोई राम बेचता है, कोई नाम बेचता,
संतों के लिये धर्म कारोबार हो गया.

इस रंगबाज दुनिया में रंगों की मौज है.
सब जानते हैं, आजकल नंगों की मौज है.
जीते हैं शराफत से कहाते हैं बेवकूफ,
लुच्चों की खूब मौज, लफंगों की मौज है.

लो सभ्यता का दिनबदिन उत्कर्ष देख लो.
अरे, सास-बहू-टीवी में संघर्ष देख लो.
ना पद्मिनी, ना पन्ना और न लक्ष्मीबाई,
हैं मल्लिका व राखियां आदर्श देख लो.

जीने का सिर्फ नाम सा करता हूं आजकल.
सच कहूं तो किश्तों में मरता हूं आजकल.
बूढ़ों की हत्या, बच्चों से होता बलात्कार,
अखब़ार को पढ़ने से भी डरता हूं आजकल.

बेखुदी में कैसा दम भरने लगा है मन.
संदेह अपने आप पर करने लगा है मन.
लम्पट गुरूघंटाल, छोटी छोटी बच्चियां,
अब पाठशालाऒं से भी डरने लगा है मन.
***

जलते सूरज के पर, मन के भीतर खोजो.
क्यों भीग रहा अंबर, मन के भीतर खोजो.
क्यों बदल गये तेवर, मन के भीतर खोजो.
क्यों हो गये हम पत्थर, मन के भीतर खोजो..
अनसुलझे प्रश्न कितने मथते हैं जीवन को..
क्यों देह तरसती है जीवन भर यौवन को..
क्यों रिश्तों के ऊपर दीवारें भारी हैं..
बूआ से बहनों से क्यों बिटिया प्यारी है..
क्यों रिश्ते हैं नश्तर, मन के भीतर खोजो.
इन प्रश्नों के उत्तर, मन के भीतर खोजो..
चूल्हे दर चूल्हें हैं, हर चारदिवारी में..
कैक्टस ही कैक्टस हैं, सपनों की क्यारी में..
क्यों तोहमत के बादल घिर घिर कर आते हैं..
क्यों धब्बे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं..
कब होंगें हम बेहतर, मन के भीतर खोजो.
इन प्रश्नों के उत्तर, मन के भीतर खोजो..
ये नकली सा जीवन, हम कब तक जीयेंगें..
तुम कहो गरल के घूंट, हम कब तक पीयेंगें..
कंक्रीट के जंगल में घर का एहसास नहीं..
इक हाथ को दूजे पर भी तो विश्वास नहीं..
क्यों मन भारी अक्सर, मन के भीतर खोजो.
इन प्रश्नों के उत्तर मन के भीतर खोजो..
पेड़ों पर, भ्रूणों पर, भई विपदा भारी है..
इनके-उनके-सबके, हाथों में आरी है..
जो बेटियां कम होंगी और पेड़ भी कम होंगें..
नयी नस्लों के हिस्से में ग़म ही ग़म होंगें..
ये पाप क्यों धरती पर, मन के भीतर खोजो.
इन प्रश्नों के उत्तर मन के भीतर खोजो..
***
-योगेन्द्र मौदगिल

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2 Responses to एक मुक्तक, एक गीत- योगेन्द्र मौदगिल

  1. bndhu kya sadhuon ke vesh me hi saitan hai padriyon ya mullon ke vesh me nhi ya kvi ke vesh me nhi hai smaj me is trh kee nkaratmk soch se bhla kis ka bhla ho rha hai pr hindoon ke prtikon ko gali dene ka faishn ho gya hai koi kvi nhi btata kee vh kya 2 krtoot krta hai

    ReplyDelete
  2. बहुत आनन्द आया मौदगिल जी को पढ़कर...वाह!!!

    ReplyDelete

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