राकेश श्रीमाल की कविताएँ

राकेश श्रीमाल, इन्दौ्र में जन्म , दैनिक भास्कर से पत्रकारिता की शु‍रुआत। तीन वर्ष म.प्र. कला परिषद की मासिक पत्रिका ‘कलावार्ता’ का संपादन। दस वर्ष मुम्बई जनसत्ता के संपादकीय विभाग में। कला वैचारिकी ‘क’ के संस्थापक संपादक। ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के कार्यपरिषद सदस्य और प्रकाशन समिति में चार वर्ष रहे। पुस्तक वार्ता का सात वर्ष संपादन के बाद इन दिनों विश्वविद्यालय के संग्रहालय में। कला समीक्षक और भारतीय कला संस्कृति में गहन रूचि।

                                     यूं बेवजह ही
                                     नहीं हो जाती कविता
                                     जब समय ठहर जाता है
                                     धरती और आकाश के
                                     प्रणय-बिंदु के उसपार और
                                     आँखें तलाशने लगती है
                                     निहारिकाओं की रोशनी में
                                     एक मधुर सपना,
                                     जब सुनाई देता है
                                     मधुर स्वर में गाती कोयल का राग तब
                                     वहीं कहीं टिमटिमाते रंगों से
                                     अठखेलियाँ करती
                                     मिल ही जाती है- कल्पना,
                                     और वही कहीं
                                     मिल जाती है कविता को
                                     अपने होने की वजह.

इन्ही शब्दों के साथ आज आप सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है श्री राकेश श्रीमाल की चंद कविताएँ....

जब रहती है वह मेरे पास


(एक)

कोई डर नही लगता
न ही कोई होती है ऊहा-पोह
जीवन का पूरा गणित
हो जाता है विषम रहित

ठहर जाता है समय भी थोड़ी देर
अपना मनचाहा स्‍वप्‍न देखने के लिए
बादल खोजने लगते हैं अपना साथी
अपने साथ जमीन पर बरसने के लिए

पत्‍ता चुन लेता है एक और पत्‍ता
हवा के वशीभूत टहलते हुए
जलने लगती है दीपक की लौ भी
चुपचाप एक जगह स्थिर होकर

कहे गए शब्‍दों की पारदर्शी बूंदे
गिरने लगती हैं महासागर में
अपना ही प्रतिचक्र बनाते हुए

ऐसे में
नीरव क्षणों में
परस्‍पर देखने लगती है एक दूसरे की आंखे
कितना पहचान पाए
बाकी है कितना परिचय
एक दूसरे के लिए अभी भी

काल ही देख पाता है
उनके अपरिचय में दुबका प्रेम
**

(दो)

मन की समूची पृथ्‍वी पर
एकाएक आ जाता है बसंत
खिल जाते हैं पलाश

दूर कहीं
बांस की छत के नीचे
गोबर से लीपे गए पूरे घर में
ठंड से बचने के लिए
जल जाता है कोई अलाव

वहीं कहीं आंगन में बैठी मां
करती होगी याद बेटे को
उसकी पसंदीदा सब्‍जी बनाते हुए

गांव का कोई पुराना मित्र
एकाएक ही करने लगता होगा याद
बचपन के दिनों की

यही होता है हमेशा
जब भी आती है वह
हमेशा बसंत को लेकर
गड्ड-मड्ड हो जाता है बिताया हुआ जीवन

लगता है
टूट कर बिखर गई है
रेत घड़ी
सब कुछ झुठलाते हुए
**

(तीन)

तारीखें भी देखती होंगी
बीच रात में आकर
पूरे दिन की लुका-छिपी में
चुपके से सब कुछ

शायद उसे तो
समय भी पता हो पहले से
कब रहोगी तुम मेरे पास

वह सबसे सुखद समय रहता होगा
तारीख के पास भी

कोई भी हो सकता है वार
अब तो गिनती नहीं
महीनों की भी

इस बरसात में आई तारीख
याद करती होगी पिछली बरसात
नए सिरे से देखती होगी
पहले जैसा घटा सब कुछ

कितनी और गर्मिया आएंगी ऐसी ही
न मालूम कितनी यात्राओं के दरमय्यां
कोई नहीं
जो लिख पाए
इसका इतिहास

कैसे दर्ज होगा वह सब कुछ
जब रहती है वह मेरे पास
**

(चार)

कितने पल घटने हैं अभी और
होना है
कितनी और बातें
चुप्‍पी का भी खाता होगा कहीं तो

कितनी हड़बड़ाहट
कितनी धैर्यता
कितना बेसुध हो जाना
घटना है अभी

कितनी मुस्‍कुराहटें
आंखों का कितना गुस्‍सा
कितना उदास होना है अभी

कितना उत्‍साह
कितनी बैचारगी
कितनी निराशा घिरना है अभी

और यह सब
होना है केवल उन्‍हीं पलों में
जब रहती है वह मेरे पास
**

(पांच)

ईश्‍वर भी अपने अदृश्‍य और अभेद्य किले से
आ जाता होगा बाहर
देखता होगा फिर
अपने चमत्‍कार से बड़ा सहज विस्‍मय

जब रहती है वह मेरे पास
ईश्‍वर भी रहता है इर्द-गिर्द
न मालूम किसकी पूजा करता हुआ
**

(छह)

पता नहीं कितनी सदियों से
गर्भ में रह रहें शब्‍द
खुद अपने को प्रस्‍फुटित होते देखते हैं
फिर बस जाते हैं स्‍मृतियों में
**

(सात)

होता है कभी यूं भी
सूझता ही नहीं वह सब उन क्षणों में
जो सोचा गया था उन्‍हीं क्षणों के लिए

शायद अच्‍छा लगता होगा
सोचे हुए को
विस्‍मृति में जाकर बस जाना
खोजा जा सके ताकि फिर उसे
**

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8 Responses to राकेश श्रीमाल की कविताएँ

  1. होता है कभी यूं भी
    सूझता ही नहीं वह सब उन क्षणों में
    जो सोचा गया था उन्‍हीं क्षणों के लिए

    बहुत सुंदर!

    ReplyDelete
  2. जिंदगी की गुनगुनी धुप सी आपकी ये कविताएँ देती हैं सुकून हर उस मन को जीना चाहता हैं जो तमाम उलझनों के बाद सुलझा हुआ
    खूबसूरत कविताएँ.....बधाई

    ReplyDelete
  3. ठहर जाता है समय भी थोड़ी देर
    अपना मनचाहा स्‍वप्‍न देखने के लिए
    बादल खोजने लगते हैं अपना साथी
    अपने साथ जमीन पर बरसने के लिए

    आपके ब्लॉग पे आया, दिल को छु देनेवाली शब्दों का इस्तेमाल कियें हैं आप |
    बहुत ही बढ़िया पोस्ट है
    बहुत बहुत धन्यवाद|

    यहाँ भी आयें|
    यदि हमारा प्रयास आपको पसंद आये तो फालोवर अवश्य बने .साथ ही अपने सुझावों से हमें अवगत भी कराएँ . हमारा पता है ... www.akashsingh307.blogspot.com

    ReplyDelete
  4. प्रेम की नई परिभाषाएं।

    ReplyDelete
  5. आपकी रचनाएँ अच्छी बन पडी हैं. श्रीमाल जी तथा आखर कलश दोनों को बधाई

    ReplyDelete
  6. दूर कहीं
    बांस की छत के नीचे
    गोबर से लीपे गए पूरे घर में
    ठंड से बचने के लिए
    जल जाता है कोई अलाव

    वहीं कहीं आंगन में बैठी मां
    करती होगी याद बेटे को
    उसकी पसंदीदा सब्‍जी बनाते हुए

    गांव का कोई पुराना मित्र
    एकाएक ही करने लगता होगा याद
    बचपन के दिनों की

    ईश्‍वर भी अपने अदृश्‍य और अभेद्य किले से
    आ जाता होगा बाहर
    देखता होगा फिर
    अपने चमत्‍कार से बड़ा सहज विस्‍मय

    जब रहती है वह मेरे पास
    ईश्‍वर भी रहता है इर्द-गिर्द
    न मालूम किसकी पूजा करता हुआ

    इन पंक्तियों में इतनी गहराई है की शब्द नहीं है मेरे पास, कैसे अपनी भावनाओं को व्यक्त करूँ ?
    श्री राकेश सर को बहुत शुभकामनायें

    ReplyDelete
  7. वाह राकेश जी,वाह !
    बहुत अच्छी कविताएं !
    बधाई हो !
    यह पंक्तियां तो बहुत अच्छी रहीं-
    "जब रहती है वह मेरे पास
    ईश्‍वर भी रहता है इर्द-गिर्द
    न मालूम किसकी पूजा करता हुआ"

    ReplyDelete

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