ये पक्तियां हैं कविवर पन्त की मानस पुत्री और साहित्य के लिए समर्पित रश्मि प्रभा जी की माताजी श्रीमती सरस्वती प्रसाद जी की. आपका जन्म आरा (शाहाबाद) में हुआ . आपने १९६३ में हिंदी प्रतिष्ठा के साथ स्नातक की शिक्षा ली . पुस्तकें पढ़ने से गहरा लगाव , कलम हमजोली बनी , अपनी भावनाओं को कविता , कहानी और संस्मरण का रूप देना . यह कार्य इनका स्वान्तः सुखाय है . कभी किसी पत्रिका में छप जाना ही इनका गंतव्य नहीं था , फिर भी कुछेक रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपीं.
अपना परिचय आप स्वयं इस तरह देती हैं- "मैं वट-वृक्ष हूँ..तुम नव अंकुर..यही मान जीती हूँ..तेरे हित मैं स्वर्ण पात्र का हलाहल पीती हूँ... कुछ सपने बाकी हैं अपने..जिन्हें हैं पूरा होना..इसके बाद ही इस पंथी को गहरी नींद हैं सोना.. बचपन से मैं अपनी सोच को शब्दों का रूप देती आई..."
आपका रचना संग्रह "नदी पुकारे सागर" हाल में प्रकाशित हुआ है. इस सन्दर्भ में आप कहती हैं कि "मेरे मान्य पिता श्री. पन्त इसकी भूमिका नहीं लिख सके पर उनकी अप्रकाशित कविता जो उन्होंने मेरे प्रयाग आगमन पर लिखी थी, इस संकलन में हैं जो भूमिका की भूमिका से बढ़कर हैं..."
ये आखर कलश के लिए बड़े सौभाग्य की बात है कि आज अम्माजी की ये कविता प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त हो रहा है.
आखर कलश अपनी समस्त टीम और सुधि पाठकों की तरफ से अम्माजी की दीर्घायु और सदा आरोग्य के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता है.
तुमलोगों ने एक आईना बना रखा है
खुद को देखने का
मनचाही सूरत मनचाहे ख्याल
मनचाहा रंग-रूप....
कमाल का है वो आईना
जो चाहो वही बोलता है
आँखों की भाषा पढकर ही
प्रतिविम्ब प्रस्तुत करता है !
तुम कभी नहीं उस तिलस्मी आईने के पार जा सकोगे
नहीं जान पाओगे - दुनिया बहुत बड़ी है
कितने चेहरे मात्र बोलते ही नहीं
मनोभाव संजोकर रखते हैं !
खुद के आईने में देखते हुए-
एक एक दिन , महीने , साल बीत जायेंगे
मौसमी हवाएँ
दरवाज़े पर दस्तक देतीं गुजर जाएँगी
कितनी पारदर्शी सच्चाइयों से
तुम महरूम रह जाओगे
सोच भी नहीं पाओगे कभी
कि इस आईने के पार
कितना कुछ है जो सहज सरल विरल है !
इसका पछतावा
एक अकल्पनीय सी बात है - नहीं होगा
क्योंकि मनचाहे आईने में देखते हुए तुम
औरों की कौन कहे
अपनी आत्मा तक की पहचान भूल जाओगे !
***
सरस्वती प्रसाद
बेहतरीन्……सच मे आईना दिखा दिया।
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (14-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
सबसे पहले माता जी को मेरा प्रणाम!
ReplyDeleteऔर आखर कलश का आभार!
बहुत ही सुन्दर रचना है, सचमुच हर एक खुद को अपने बने आईने में ही देखना पसंद करता है!
क्योंकि मनचाहे आईने में देखते हुए तुम
ReplyDeleteऔरों की कौन कहे
अपनी आत्मा तक की पहचान भूल जाओगे !
***
गहन चिंतन से परिपूर्ण बहुत सार्थक प्रस्तुति..एक उत्कृष्ट रचना से परिचय कराने के लिए आभार .
bahut achhi rachna, amma ko badhai.
ReplyDeleteमैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जो मार्ग की शोभा बढ़ाता है, पथिकों को गर्मी से राहत देता है तथा सभी प्राणियों के लिये प्राणवायु का संचार करता है। वर्तमान में हमारे समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित है। हमारी अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं तथा अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। दैनंदिन हमारी संख्या घटती जा रही है। हम मानवता के अभिन्न मित्र हैं। मात्र मानव ही नहीं अपितु समस्त पर्यावरण प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः मुझसे सम्बद्ध है। चूंकि आप मानव हैं, इस धरा पर अवस्थित सबसे बुद्धिमान् प्राणी हैं, अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि हमारी रक्षा के लिये, हमारी प्रजातियों के संवर्द्धन, पुष्पन, पल्लवन एवं संरक्षण के लिये एक कदम बढ़ायें। वृक्षारोपण करें। प्रत्येक मांगलिक अवसर यथा जन्मदिन, विवाह, सन्तानप्राप्ति आदि पर एक वृक्ष अवश्य रोपें तथा उसकी देखभाल करें। एक-एक पग से मार्ग बनता है, एक-एक वृक्ष से वन, एक-एक बिन्दु से सागर, अतः आपका एक कदम हमारे संरक्षण के लिये अति महत्त्वपूर्ण है।
ReplyDeleteडॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर तुलसी एवं गुलाब का रोपण किया है। उनका यह महत्त्वपूर्ण योगदान उनके प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता एवं समर्पण को दर्शाता है। वे एक सक्रिय ब्लॉग लेखिका, एक डॉक्टर, के साथ- साथ प्रकृति-संरक्षण के पुनीत कार्य के प्रति भी समर्पित हैं।
ReplyDelete“वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर” एवं पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से दिव्या जी एवं समीर जीको स्वाभिमान, सुख, शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के पञ्चामृत से पूरित मधुर एवं प्रेममय वैवाहिक जीवन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।
खुद को देखने का एक आईना बना रखा है , वही बोलता है जो तुम सुनना चाहते हो ....
ReplyDeleteइस आईने के पार सहज सरल विरल है ....
दूसरों की नजर से देखने पर ही हकीकत पता चलती है की हम क्या है ...
बहुत सच्ची और गहरी बात .....!
नमन !
amma kee rachna ke liye ham kya kah sakte hain...bas padh kar kuchh seekhne ki koshish hogi..:)
ReplyDeletewaise kamal ka ye aiena..:)
दुनिया बहुत बड़ी है
ReplyDeleteकितने चेहरे मात्र बोलते ही नहीं
मनोभाव संजोकर रखते हैं !
खुद के आईने में देखते हुए-
बहुत ही खूबसूरत अहसास हैं इन शब्दों में इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आभार ।
यह आईना मानवीय जीवन के सच को प्रतिबिंबित करता है !
ReplyDelete]
आभार आखर कलश को जिसके माध्यम से सरस्वती जी के आईने में अपना प्रतिबिम्ब देखा !
प्रेम शर्मा
अम्मा जी को प्रणाम !
ReplyDeleteसहज सरल भाषा में लिखी हुई इतनी बेहतरीन रचना से रूबरू करवाने के लिए धन्यवाद !
सीधे सीदे शब्दों ने ही आईना दिखा दिया।
ReplyDeleteआइना दिखाती रचनाएं, आभार।
ReplyDelete---------
अंतरिक्ष में वैलेंटाइन डे।
अंधविश्वास:महिलाएं बदनाम क्यों हैं?
बहुत सच्ची और गहरी बात .....!
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति, बधाईयाँ !