(१)
धुंध है
कोहरा है
ठिठुर-ठिठुर
बदन हुआ दोहरा है
झीलों में दुबके
बैठे हैं हंस
मौसम झेल रहा
मौसम का दंश
हर और ठिठुरन का पहरा है
परिजन घर में हैं
चोर इसी डर में हैं
राहगीर सभी
बटमारों की जद में हैं
टोपी पहन चौकीदार हुआ बहरा है
कोहरा
है झल्ला गया
सब तरफ़ बस
छा गया
जन जीवन हुआ,
पिटा सा मोहरा है
(२)
धुंध है
अंधेरा है
नभ से उतर कोहरे ने
धरा को घेरा है
दुबके पाँखी
गइया गुम-सुम
फूलों से भौंरे
तितली गुम
मौसम ने मौन राग छेड़ा है
ठिठुरे मजूर
अलाव ताप रहे
पशु पंछी भी
थर-थर काँप रहे
धुंध में राह ढूंढ रहा सवेरा है
रेल रुकी
उड़ पाते विमान नहीं
सहमी फ़सलें
खेत जोतें किसान नहीं
सूझे हाथ न तेरा मेरा है
सूरज की
किरने हुईं गाइब
चंदा घर जा
बैठा है साहिब
सब जगह कोहरे का डेरा है
--
धुंध में राह ढूंढ रहा सवेरा है
ReplyDeleteसब जगह कोहरे का डेरा है
कोहरे का चित्र खूब आपने उकेरा है,
शब्दों की सीमा में कोहरे को घेरा है।
सूरज की ताकत भी छिन्न-भिन्न लगती है
उसकी भी किरणों पर कोहरे का पहरा है।
परिजन घर में हैं
ReplyDeleteचोर इसी डर में हैं
राहगीर सभी
बटमारों की जद में हैं
ठिठुरे मजूर
अलाव ताप रहे
पशु पंछी भी
थर-थर काँप रहे
धुंध में राह ढूंढ रहा सवेरा है
aur
सूरज की
किरने हुईं गाइब
चंदा घर जा
बैठा है साहिब
सब जगह कोहरे का डेरा है
.... .... kohre mein sardi ka prabhav kuch jyada hi hota hai .
.bahut hi sundar jiwant chitran kiya hai aapne...badhai
कोहरे को लेकर अच्छी रचना। पर श्याम जी थोड़ा सा मोह छोड़ देते तो दोनों रचनाएं और बेहतर बनतीं।
ReplyDeleteइसीलिए इलाज की सारी दवाएं बे असर रहती हैं .इतना अवश्य है कि चिंतन के स्तर पर इसका विश्लेषण आशा जगाता है .धन्यवाद .
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