कॉलम की शुरूआत के लिए चयन हेतु हमने अक्टूबर,2010 में प्रकाशित रचनाओं को भी इसमें शामिल किया है। तो शुभारम्भ कर रहे हैं रंजना श्रीवास्तव जी की चार कविताओं पर श्री राजेश 'उत्साही' जी के समीक्षात्मक अवलोकन से। साथ ही अन्य सुधि पाठकों द्वारा व्यक्त किये गए बहुमूल्य सूक्ष्म अन्वेषणात्मक विचार भी साथ हैं। आशा है आपको ये पहल रुचेगी।
रंजना श्रीवास्तव की कविताएं पहली नजर में साधारण और शब्दों का संयोजन भर लगतीं हैं। पर उन्हें पढ़ने के लिए एक अलग दुनिया में दाखिल होना पड़ता है। उनकी कविताओं की संवेदना महसूस करने के लिए अपने अंदर की संवेदनशीलता को झझकोर जगाना पड़ता है। एक बार, दो बार,तीन बार यानी बार-बार पढ़ने पर कविता के अर्थ खुलने लगते हैं। आइए यहां आखरकलश पर प्रस्तुत उनकी चार कविताओं की बात करते हैं।
पहली कविता है- क्या कहना है कामरेड। कविता उस नारी के बारे में है जो हमारे आसपास ही रहती है। जिसे हम रोज देखते हैं जो कभी हमारी रसोई में होती है तो कभी दफ्तर में। कभी बाजार-हाट में होती है तो कभी मॉल में। जो शोषित है उपेक्षित है और कभी रण चंडी भी। जिसने अपने अंदर की आग को हमेशा जिलाए रखा है, लेकिन उसका उपयोग करने से बचती रही है। उसके लिए परिवार,समाज और दुनिया हमेशा प्राथमिकता रही है। लेकिन वह अब और नहीं सहना चाहती। वह सड़क पर उतरने को उद्धत है। यह कविता एक तरह की चेतावनी है, बल्कि कहना चाहिए कि ऐलान है। मुझे लगता है सवाल क्रांति का नारा देने वाले कामरेडों से भर से नहीं है बल्कि समाज के ठेकेदारों से भी है। आखिर कब तक औरत घरघुस्सू बनी रहेगी या कि तुम बनाकर रखोगे। कविता का सबसे मजबूत पक्ष यह है कि यह एक औरत ही कह रही है। इसलिए वह सीधे दिमाग से होती हुई दिल पर चोट करती है।
दूसरी कविता- यह खबर एक झुनझुना है। कविता के बहाने रंजना हमारे इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर एक कटाक्ष कर रही हैं। रेप केस केवल एक उदाहरण है। सच तो यह है कि आजकल हर खबर रेप केस के अंदाज में ही पेश की जाती है। हर खबर को झुनझुने की तरह ही इस्तेमाल करते हैं। जैसे रोते बच्चे को हम झुनझुना बजाकर थोड़ी देर के लिए बहला देते हैं, लेकिन उसके रोने के कारणों में नहीं जानते। बच्चा झ़ुनझुने के संगीत में थोड़ी देर के लिए खो जाता है। यह संयोग ही है कि रंजना की यह कविता पढ़ते हुए हालिया फिल्म ‘पीपली लाइव’ बरबस ही याद आ जाती है। सच कह रही हैं वे कि सब हर समस्या की फुनगी को हिलाते हैं और समझते हैं कि वे सिस्टम को हिला कर रख देंगे। विभिन्न घोटालों के संदर्भों में आजकल जो मीडिया का जो रवैया है वह कुछ ऐसा ही है।
तीसरी कविता है- विज्ञापन की रुलाई। इस कविता को वास्तव में समझने के लिए कई कई बार पढ़ना होता है। यह कविता इतने अलग चरित्रों की बात करती है कि तय करना मुश्किल हो जाता है कि आप किसे पकड़ें और किसे छोड़ें। जैसे यह कविता हमारे शासकों के बारे में बात करती है। जो गाहे बगाहे विज्ञापनों की तरह ही हमारे सामने आते हैं, वे अगर अभावों का रोना भी रोते हैं तो हमें हंसी आती है। उनके चेहरे पर जबरन चिपकी हंसी मुखौटे सी नजर आती है। हम विज्ञापनों को उम्मीद की तरह देखते हैं और हकीकतों को विज्ञापन की तरह। यह हमारे समय की एक घिनौनी हकीकत है।
हम जब अमृत उगाएंगे- उनकी चौथी कविता है। यह कविता मुझे व्यक्तिगत तौर पर निराश करती है। यह रंजना के तेवर से मेल नहीं खाती। बावजूद इसके कि इसमें कही गई सब बातें हकीकत हैं रंजना नारेबाजी करती हुई नजर आती हैं। जो आशावादिता इस कविता में झलकती है वह आदर्शवाद के खोखले और रसातल में ले जाने वाले धरातल पर खड़ी दिखाई देती है।
बहरहाल यह कहना समीचीन होगा कि रंजना समकालीन समय की एक महत्वपूर्ण कवियत्री हैं और इस मायने में उनका होना और अधिक जरूरी हो जाता है कि वे जमीन से जुड़कर बात करती हैं। उनकी कविता में बिम्ब हैं, प्रतीक हैं लेकिन वे अमूर्त नहीं हैं। उन्हें पकड़ना आसान होता है। भाषा सरल और सहज है और पाठक के परिवेश से ही आती है। और अगर कहीं उनकी कविता एक बार समझ न आए तब भी वह दुबारा पढ़ने के लिए मजबूर करती है। इसलिए क्योंकि उनकी कविता में विचार परिलक्षित होता है, जिससे एक गंभीर पाठक हर हाल में संवाद करना चाहता है।
इसके साथ ही साथ अन्य सुधि पाठक क्या सोचते हैं, आपकी नज़र है-
शेखर सुमन जी ने कहा चारो तो नहीं लेकिन २ रचनायें पढ़ीं अच्छा लगा बाकी २ फिर कभी पढूंगा... तथा यह सिलसिला जी ने पहली प्रतिक्रिया पर बधाई प्रेषित की! शाहिद मिर्ज़ा 'शाहिद' साहब ने कुछ इस अंदाज़ में अपने आशार व्यक्त किये-
खबर के चेहरे पर
चिपका रहे हैं विज्ञापन
विज्ञापन
एक नकली दुनिया का
मानचित्र है
जो कभी नहीं बदल सकता
असल की तकदीर
असल की
तकदीर बदलने के लिए
जड से सोचा जाना होगा
फुनगी पकडकर
पेड को हिलाने से
कैसे काँपेगी भला पृथ्वी।।
कमाल की लेखनी है...
कितनी गहराई में उतरकर निकाले गए हैं ये साहित्यिक मोती.
अरुण सी रॉय ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कुछ इस तरह से कहा कि पूरब से जो कविता आती है उसमे आम आदमी का स्वर मुखर होके आता है.. रंजना जी उन्ही कविताओं का प्रतिनिधित्व कर रही हैं.. पहली कविता सबसे सशक्त है... और कामरेड को अभी कई और सवालों के जवाब देने हैं.. ना जाने कभी दे भी पायेंगे की नहीं.. जितेन्द्र 'जौहर' जी ने रंजना जी को संबोधित करते हुवे कहा कि ‘मुक्तछंद’ को ‘छंदमुक्त’ बनने से रोकने के लिए जिस फड़कती हुई काव्य-भाषा, जिस तेवर और जिस प्रवहमानता की दरकार होती है, वह सब सामान आपके पास है। मैं आप जैसी सु-सज्जित कवयित्री को सुंदर कविताओं पर बधाई देते हुए ख़ुशी का अनुभव कर रहा हूँ। सुभाष नीरव जी ने अपने विचार कुछ इस तरह व्यक्त किये- रंजना श्रीवास्तव की कविताएं महज कविताएं ही नहीं हैं, कविता से आगे भी बहुत कुछ हैं। इन कविताओं में विचार तो है ही पर वह कवि की सम्बेदना में इतना घुला-मिला है कि वह खुरदरा नहीं लगता। रंजना जी का कविता में अपनी बात कहने का एक अलग ही मुहावरा है जो उन्हें समकालीन कविता में एक भिन्न और विशिष्ट पहचान देता है। ऐसी दमदार कविताओं के लिए रंजना जी को बधाई ! आपने उनकी सशक्त कविताएं प्रकाशित की है, आप भी बधाई के पात्र हैं। सुरेन्द्र रत्ती जी को रंजना जी की चारों कविताएँ पसंद आई परन्तु पहली कविता से विशेष प्रभावित हुवे. भारतेंदु मिश्र जी ने रंजना जी को बधाई प्रेषित करते हुवे कहा कि कविताएँ अनुभूति की सच्चाई बयान करती है साथ ही ये सुझाव भीदिया कि ऐसे ही लिखती रहें और जल्दबाजी के चक्कर मे न पडे।
नवीन सी. चतुर्वेदी जी को रंजना जी की कविताओं ने प्रभावित किया. वे लिखते हैं कि उनकी कामरेड वाली कविता सोचने पर विवश करती है तथा दूसरी कविता का यह उद्गार सहज ही सराहनीय है
"फुनगी पकडकर
पेड को हिलाने से
कैसे काँपेगी भला पृथ्वी।।"
तीसरी कविता की जेहन हिला देने वाली पंक्तियाँ:-
अभाव के चेहरे पर
हँसी का विज्ञापन है
उस सरहद के बारे में
जहाँ गोलियों की बारिश में
चलती हैं कक्षाएँ
जहाँ खतरा धूल
और पानी के जैसे
हवा में घुल-मिल गया है
और आप की चौथी कविता के ये अंश:-
जो गंगा में धुलकर
हो जाते हैं पाक
हम जब अमृत उगायेंगे
सौंपेगे उसकी कुछ बूँद
और बदल जायेगा
अमरीका का स्वभाव
इनके साथ ही संजय भास्कर, अनामिका की सदाएँ, राजभाषा हिंदी, प्रतुल वशिष्ठ, राजीव, और सभी सम्मानित पाठकों को रंजना जी की कविताओं ने बहुत प्रभावित किया और अपनी बहुमूल्य उपस्थिति से सृजनधर्मी और आखर कलश की गरिमा बधाई. आप सभी का आभार !
प्रयास प्रशंसनीय है, बधाई
ReplyDelete"आखर कलश" पर श्री नरेन्द्रजी ने अपनी इस ब्लॉग-पत्रिका को हमेशा नया रूप देने का भरसक प्रयास और प्रयोग किया है | उनकी सफलता के साथ "समीक्षा-अवलोकन" का स्तंभ शुरू करके पाठकों की जिज्ञासा बढ़ाई है | इससे अच्छी रचनाएं तो मिलेगी ही, साथ ही नए लिखने वालों को एक दिशा या मार्गदर्शन भी मिलेगा |
ReplyDeleteश्री राजेश उत्साही जी तो विद्वान है और उनके ज्ञान का लाभ हमेशा मिलता है | "आखर कलश", श्री नरेन्द्र जी और श्री राजेश जी को बधाई | रंजना जी को मैं भाग्यशाली मानता हूँ कि शुरुआत उनसे हुई है |
राजेश उत्साही जी आप और आखर कलश बहुत बड़े मायने में ये एक बहुत ज़रूरी काम निपटा रहे हिं. बहुत बेबाकी से लिखी गयी समीक्षा रचनाकार को सही दिशा देने का काम करेगी.ब्लॉग्गिंग में जिस चीज की कमी थी वो ये कि आये और गए कमेन्टबाजों के बजाय अपनी रचनाओं की सही मायने में खुलकर समीक्षा करने वालो को प्रेरित करने की ज़रूरत हैं.ऐसी समीक्षाएं ही समय रहते रचनाकारों को पार लगा सकती है .साहित्य का भी भला होता दिखेगा.इस स्तम्भ के सतत जीवित रहने की कामना करता हुआ बहुत शुभेच्छा रखता हूँ.
ReplyDelete--
सादर,
माणिक;संस्कृतिकर्मी
17,शिवलोक कालोनी,संगम मार्ग, चितौडगढ़ (राजस्थान)-312001
Cell:-09460711896,http://apnimaati.com
My Audio Work link http://soundcloud.com/manikji
जब मैंने रंजना जी की कवितायें पढ़ी थी तभी प्रभावित हुआ था.. आखर कलश पर प्रकाशित श्रेष्ठतम रंच्नाओं में यह एक थीं.. समीक्षा का कालम इस कविता से शुरू हुई है तो उम्मीदें बढ़ गई हैं... साथ ही भाई राजेश उत्साही जी जब समीक्षा कर रहें हो तो कविता को पुनः पढने का मन करता है.. राजेश जी ने बहुत संतुलित रूप से कविता की समीक्षा की है... लेकिन समीक्षा में काफी गुंजाईश है... कविता के content, style, structure पर और भी चर्चा हो सकती थी... रंजना जी और उत्साही जी को शुभकामना सही.. कभी मेरी कविता भी राजेश भाई की निगाहों में आएगी, इस प्रतीक्षा में..
ReplyDeletekisi bhi kary ki safalta mulyankan ke bina adhuri rhti hai. Is praya s k liye dhanywad. Shubhkamnayen!
ReplyDeleteसराहनीय प्रयास.........
ReplyDeleteआपका ये प्रयास सराहनीय है और समीक्षा पढकर भी अच्छा लगा।
ReplyDelete@ पंकज जी क्षमा करें मैं कोई विद्वान नहीं हूं। एक साधारण पढ़ने-लिखने वाला इंसान हूं। समीक्षक हूं इसलिए एक और बात के लिए क्षमा चाहता हूं कि रंजना जी के नाम के साथ भाग्यशाली शब्द कुछ जमता नहीं है।
ReplyDelete@ माणिक जी, आपके द्वारा व्यक्त शुभेच्छा के लिए आभारी हूं। पर क्षमा करें हम काम निपटा नहीं रहे हैं,बल्कि उसे जरूरी समझकर कर रहे हैं। यहां भी मैं आदर के साथ यही कहना चाहता हूं कि हम शब्दों का उपयोग अगर सोच समझकर करें तो हमारी रचनाएं सार्थक बनेंगी।
@ अरूण जी। गुंजाइश हमेशा हर चीज में रहती है। मेरा मानना है कि कुछ बातें पाठकों के लिए भी छोडनी चाहिए। हर रचना या समीक्षा में आप नख-शिख वर्णन कर देंगे तो पाठक क्या करेगा। रचनाकार या समीक्षक का उद्देश्य होना चाहिए विषय या रचना की तरफ ध्यान आकर्षित करना।
@ वंदना जी,जया जी, समुन जी,
दिनेश जी आपने इस प्रयास की सराहना की हमारा उत्साह बढ़ा। शुक्रिया।
इस आयोजन के लिए सबसे अधिक बधाई के हकदार आखरकलश और नरेन्द्र जी हैं।
साहित्य, किसी भी रूप में हो, पाठक तक कितना पहुँचता है इसमें भाषा की सहजता और सरलता बहुत मायने रखती है। एक सामान्य पाठक साहित्यकार हो और रचना की तत्व मीमॉंसा के स्तर तक पहुँच सके ये जरूरी नहीं। ऐसे में, मेरा प्रस्ताव विचित्र तो लग सकता है लेकिन, उचित होगा कि रचना के साथ ही विधा विशेषज्ञ की समीक्षा भी प्रकाशित हो जाये जिससे मुझ जैसे सामान्य पाठक को रचना पढ़ने का ओर अधिक आनंद प्राप्त हो सके। इससे रचना पर टिप्पणियों का स्वरूप भी अधिक स्पष्ट होगा और सार्थक टिप्पणी प्राप्त हो सकेंगी।
ReplyDeleteयह कुछ ऐसा ही होगा जैसे एक छात्र को रचना का भाव पक्ष साथ साथ समझाना।