आषाढ शुक्ल से कार्तिक शुक्ल तक ठाकुर जी क्षीरसागर में शेषशैया पर शयन करते हैं। भक्त उनके शयन और प्रबोध के यथोचित कृत्य करते हैं। तुलसी का वृक्ष हिन्दू धर्म में पूजनीय है। यह धर्म और आस्था के साथ ही औषधि जगत में भी महत्व रखता है। हिन्दू धर्म के अनुसार प्रतिदिन प्रातः स्नान के बाद तुलसी में जल चढाना शुभ माना जाता है। ठाकुर जी की पूजा बिना तुलसी दल के पूरी ही नहीं होती।
भगवान् क्षणभर भी सोते नहीं हैं, उपासकों को शास्त्रीय विधान अवश्य करना चाहिये। यह कृत्य कार्तिक शुक्ल एकादशी को रात्रि के समय किया जाता है। इस व्रत के दिन स्नानादि से निवृत्त होकर आँगन में चौक पूरकर विष्णु भगवान् के चरणों को अंकित करते हैं। रात्रि में विधिवत पूजन किया जाता है। आँगन या ओखली में एक बडा-सा चित्र बनाते हैं। इसके पश्चात् फल, सिंघाडा, गन्ना तथा पकवान आदि समर्पित करते हैं। एक अखण्ड दीपक रात भर जलता है। रात को व्रत की कथा सुनी जाती है। इसके बाद ही मांगलिक कार्य आरम्भ होते हैं। इस दिन उपवास करने का विशेष महत्त्व है। उपवास न कर सके तो एक समय फलाहार करना चाहिये और नियमपूर्वक रहना चाहिये। रात्रि-जागरण का भी विशेष महत्त्व है।
हरि को जगाने के लिये कीर्तन, वाद्य, नृत्य और पुराणों का पाठ करते हैं। धूप, दीप, नैवेद्य, फल और अर्ध्य से पूजा करके घंटा, शंख, मृदंग वाद्यों की मांगलिक ध्वनि द्वारा भगवान् को जागने की प्रार्थना करें।
प्रार्थना:-
मंत्र-
यह एकादशी भगवान विष्णु की आराधना का अवसर है। ब्रह्ममुहूर्त में नगर में भगवान नाम कीर्तन गाजे-बाजे के साथ बालक, युवा, नर-नारि मिलकर नगर परिक्रमा करते हैं। आतिशबाजी के साथ देवोत्थान उत्सव मनाते हैं। गृहलक्ष्मी कलश के ऊपर दीप प्रज्वलित कर चलती हैं। पुराणों में इस तिथि में पूजन कार्य को फलदायी माना जाता है। इस दिन व्रत करने, भगवत भजन करने से अभीष्ट फल प्राप्त होता है । संध्या के समय गन्ने का मंडप बनाकर मध्य में चौकी पर भगवान विष्णु को प्रतिष्ठित करने एवं दीप प्रज्वलित करके अक्षत, पुष्प, नैवेद्य आदि के साथ पूजा श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।
भारतीय संस्कृति के अनुसार हमारे देश में सदा दिव्य शक्ति को जाग्रत किया जाता है। संपूर्ण विश्व में शांति, समृद्धि, मानवीय मूल्य, धर्म, सत्य, न्याय, सत्कर्म, अच्छाई व सच का दीपक जलता रहे ऐसा विश्वास किया जाता है। विश्व में हिंसा, अनाचार, अराजकता, अव्यवस्था व अशांति का बोलबाला है। ऐसे समय में ईश्वर आराधना का महत्व बढ जाता है।
देवोत्थान एकादशी को डिठवन भी कहा जाता है। चार माह के शयनोपरांत भगवान विष्णु क्षीरसागर में जागते हैं। हरि-जागरण के उपरांत ही शुभ-मांगलिक कार्य प्रारंभ होते हैं। क्योंकि शयनकाल में मांगलिक कार्य नहीं किए जाते। कार्तिक शुक्ल पक्ष की देवउठनी एकादशी और तुलसी विवाह के साथ ही परिणय-मंगल आदि के सभी मांगलिक कार्य पुनः प्रारंभ होते हैं। देवोत्थान एकादशी को दीपपर्व का समापन दिवस भी माना जाता है। इसीलिए इस दिन लक्ष्मी का पुण्य स्मरण करना चाहिए।
देवउठनी एकादशी के बाद गूँजेगी शहनाई
वर्ष २०१० में विवाह करने के इच्छुक जोडों की राह फिर साफ हो गई हैं। कुछ शुभ मुहूर्त छोडकर नवंबर व दिसंबर में विवाह होने से विवाह समारोहों की भरमार होगी। १८नवंबर २०१० से अनेक जोडे वैवाहिक बंधन में बंध सकेंगे। नवंबर से जनवरी तक वैवाहिक मौसम माना जाता है।
एक ही तारीखों पर काफी विवाह मुहूर्त होने से एक ही दिन में बैंड व घोडे वालों को काफी बारातों के ऑर्डर होंगे। उन्हें जल्दी एक बारात निपटाकर दूसरी पार्टी की बारात में जाना होगा। विवाह कार्यक्रम के लिए शादीहाल, गार्डन व धर्मशालाएँ महीनों पहले बुक होती हैं। फरवरी के मुहूर्त तक अभी से बुकिंग आरंभ कर दी गई है।
देवउठनी एकादशी सामाजिक चैतन्यता की प्रतीक मानी जाती है। तुलसी के पौधे ने घर के आँगन को तपोभूमि सा स्वरूप दिया है। आध्यात्मिक पर्यावरण को मनोरम बनाने में तुलसी की निर्णायक उपस्थिति रही है। कार्तिक मास तुलसी पूजन के लिए विशेष रूप से पवित्र माना गया है। नियमित रूप से स्नान के पश्चात् ताम्रपात्र से तुलसी को प्रातःकाल जल दिया जाता है। संध्याकाल में तुलसी के चरणों में घी का दीपक जलाते हैं। कार्तिक पूर्णिमा को इस मासिक दीपदान की पूर्णाहुति होती है।
कार्तिक मास की अमावस्या को तुलसी की जन्मतिथि मानी गई है, इसलिए संपूर्ण कार्तिक मास तुलसीमय होता है। कोई कार्तिक मास की एकादशी को तुलसी विवाह रचाते हैं। इस दिन तुलसी विवाह करना ज्यादा श्रेयस्कर माना जाता है। तुलसी विवाह की चिरायु परंपरा अनुपमदृश्य उपस्थित करती है। सामाजिक तौर पर देवउठनी ग्यारस या एकादशी से ही परिणय-मंगल व अन्य मांगलिक कार्य शुरू किए जाते हैं, इसलिए वैज्ञानिक विवेचन के अनुसार देवउठनी ग्यारस ही तुलसी विवाह की तर्कसंगत तिथि है।
तुलसी के संबंध में अनेक पौराणिक गाथाएँ विद्यमान हैं। विशिष्ट स्त्री जो अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी हो, उसे तुलसी कहा जाता है। तुलसी के अन्य नामों में वृन्दा और विष्णुप्रिया खास माने जाते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार जालंधर असुर की पत्नी का नाम वृन्दा था, जो बाद में लक्ष्मी के श्राप से तुलसी में परिवर्तित हो गई थी। मान्यता है कि राक्षसों के गुरु, शुक्र ने जालंधर दानव को संजीवनी विद्या में पारंगत किया था। जालंधर की पत्नी वृन्दा पतिव्रता नारी थी और पत्नी की इस पतिव्रता शक्ति के कारण वह अमरत्व के नशे में चूर होकर देवताओं को सताता था। नारद मुनि ने जालंधर के समक्ष पार्वती के सौंदर्य का वर्णन कर दिया, जिसे सुनकर दानव मुग्ध हो गया। फिर पार्वतीजी को पाने की इच्छा से जालंधर ने छद्म रूप से शिव का रूप धारण किया और कैलाश पर्वत जा पहुँचा। पार्वतीजी ने सहायता के लिए भगवान विष्णु का स्मरण किया। तब अपनी माया से भगवान विष्णु ने वृन्दा का सतीत्व भंग किया और जालंधर का वध किया।
वृन्दा के नाम पर ही श्रीकृष्ण की लीलाभूमि का नाम वृन्दावन पडा। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि आदिकाल में वृन्दावन में वृन्दा यानी तुलसी के वन थे।
तुलसी प्रत्येक आँगन में होती है और इसकी उपस्थिति से हर आँगन वृन्दावन हो उठता है। तुलसी के वृक्ष को अर्ध्य धूप, दीप, नैवेद्य आदि से प्रतिष्ठित किया जाता है। आयुर्वेदिक संहिताओं में उल्लेखित तुलसी की औषधि-क्षमताओं से धरती अभिभूत है। तुलसी पर्यावरण को स्वास्थ्यवर्धक बनाती है।
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आज देवउठनी एकादशी के दिन इसे पढना बहुत अच्छा लगा ..
ReplyDeleteआभार !
बहुत उपयोगी जानकारी दी है.
ReplyDeleteदेवोत्थान एकादशी की शुभकामना सहित! बिहार के मिथिला अंचल में इसे बहुत ही परम्परगत रूप से दिवाली की तरह मनाया जाता है.. तुलसी की छाव में शालिग्राम (विष्णु) को जगाया जाता है.. नए धान का चिवडा पहली बार भगवन विष्णु को अर्पण किया जाता है फिर उसका उपयोग घर में किया जाता है.. आलेख बढ़िया है..
ReplyDeletevery informative.......thanks...........
ReplyDeleteबहुत अच्छा
ReplyDeleteमेरे बधाई स्वीकारें
साभार
अवनीश सिंह चौहान
पूर्वाभास http://poorvabhas.blogspot.com/
बहुत सुन्दर जानकारी के साथ भावपूर्ण आलेख के लिए बधाई |
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