वो पगदण्डी पर
शहर को निहारता युवक
"या" डाकिये के थैले में पडा
एक पुराना खत।
उसका जीवन
खेतों पर हल चलाने जैसा है
वो बैल बनकर भी
नही उगा पाता
इन खेतों पर अपने हिस्से का भविष्य।
उसकी रातें लम्बे पहाडों पर
कोहरे सी छट जाती है
जब वो बूढी ख्वाहिश "औ"
नन्हे सपने
शराब समझकर पी जाता है।
वो शहर की चिमनियों से निकलता
पहाड के पलायन का दर्द
"या" महानगर की धमनियों से बहता
गावों की उम्मीदों का खून।
बचपन मे वो
पाठी जैसा दिखता था
बडा हुआ तो
हर महिने के खत मे तबदील हुआ
"औ" जब चल बसा था
वो अचानक टेलिग्राम हो गया।
***
पतंग की डोर-सी, सपनों की उडाने दे दो,
दो घडी के लिए, बचपन के जमाने दे दो।
जहां ये मतलबी है, दिल यहां नहीं लगता,
मुझपे एहसान कर, दोस्त पुराने दे दो।
गांव की हाट को बेमोल है रूपया-पैसा,
बूढे दादा की चवन्नी के जमाने दे दो।
थके-थके से हैं, दिन रात, मुझे ठहरने को,
मां के घुटनों के, वो गर्म सिरहाने दे दो।
निगाहें ढूढंती हैं, उन सर्द रातों में, मुझे
फ़िर ख्वाब में, परियों के ठिकाने दे दो।
ये तरसी हैं, बहुत, ला अब तो, मेरी
इस भूख को, दो-चार निवाले दे दो।
***
मैं बहस हूं
इस सभा की
इसी जगह मेरे लिए
कई वाद तलाशे जायेंगे।
जब पुंजीवाद
मेरे बदुवे मे खसोटा गया होगा
समाजवाद केबल पर
प्रसारित हो रहा होगा
"औ" घर की खिडकी में
पसरे पडे खेतों पर
दूर तक उग आया होगा
मार्क्सवाद ही मार्क्सवाद।
***
Meena Pandey
Address- M-3 MIG Flat, C-61 Vaishav Apartment
Shalimar Garden-2, Sahibabad, Gaziabad
Uttar Pradesh, Pin-201005
bahut sunder .
ReplyDeleteइस भूख को, दो-चार निवाले दे दो।
ReplyDeleteमीना पाण्डेयजी की तीनों कवितायें बहुत ही अच्छी है...
ReplyDeleteथके-थके से हैं, दिन रात, मुझे ठहरने को,
मां के घुटनों के, वो गर्म सिरहाने दे दो।
नई पीढी से जो आस और सपने हम देखते हैं, यह पढ़कर लगता है की सच हो रहा है...|
आपकी दूसरी रचना, न जाने क्यूँ आभास दे रही है कि ग़ज़ल की दिशा में बढ़ते बढ़ते एकाएक किसी और दिशा को पकड़ गयी, जैसे कुछ जल्दी रही हो रचना पूर्ण करने की। मैं तो इसी रचना को एक बार फिर एक परिपूर्ण ग़ज़ल के रूप में देखना चाहूँगा।
ReplyDeletepahali kaita achhee lagee.
ReplyDeletepahalee kavitaa achhee ;lagee
ReplyDeleteवो शहर की चिमनियों से निकलता
ReplyDeleteपहाड के पलायन का दर्द
"या" महानगर की धमनियों से बहता
गावों की उम्मीदों का खून।
yeh panktiyan aapke sochne ki disha bata rhai hai bahut sundar abhivyakti .badhai
teenon hi rachnaen sundar hain ..
ReplyDeletesundar kavitayen..meena ji se prichay achha laga..
ReplyDeleteपतंग की डोर-सी, सपनों की उडाने दे दो,
ReplyDeleteदो घडी के लिए, बचपन के जमाने दे दो।
जहां ये मतलबी है, दिल यहां नहीं लगता,
मुझपे एहसान कर, दोस्त पुराने दे दो।
गांव की हाट को बेमोल है रूपया-पैसा,
बूढे दादा की चवन्नी के जमाने दे दो।
थके-थके से हैं, दिन रात, मुझे ठहरने को,
मां के घुटनों के, वो गर्म सिरहाने दे दो।
निगाहें ढूढंती हैं, उन सर्द रातों में, मुझे
फ़िर ख्वाब में, परियों के ठिकाने दे दो।
ये तरसी हैं, बहुत, ला अब तो, मेरी
इस भूख को, दो-चार निवाले दे दो।
बहुत ही बेहतरीन, बहुत खूब!
प्रेमरस.कॉम
इला प्रसाद ने कहा-
ReplyDeleteमीना जी की कवितायें अच्छी हैं | ब्लॉग पर प्रतिक्रया देने की कोशिश में असफल रही , इसलिए इ मेल भेज रही हूँ |
वो शहर की चिमनियों से निकलता
ReplyDeleteपहाड के पलायन का दर्द
"या" महानगर की धमनियों से बहता
गावों की उम्मीदों का खून
Great , bahut sundar.
Vipin Panwar "Nishan"
मीना पाण्डे जी से परिचय कराने के लिए धन्यवाद्. "ग्रामीण युवक" तथा "समाज...." प्रभावी लगीं.
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचनाऍं हैं। बधाई।
ReplyDelete---------
मिलिए तंत्र मंत्र वाले गुरूजी से।
भेदभाव करते हैं वे ही जिनकी पूजा कम है।
"ग्रामीण युवक "ने प्रभावित किया गज़ल के रूप में बचपन के ज़माने भी अच्छी लगी ..
ReplyDeleteगांव की हाट को बेमोल है रूपया-पैसा,
बूढे दादा की चवन्नी के जमाने दे दो।
उसका जीवन
ReplyDeleteखेतों पर हल चलाने जैसा है
वो बैल बनकर भी
नही उगा पाता
इन खेतों पर अपने हिस्से का भविष्य।
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति है खेतीहर जीवन को बहुत ही निकटता से देखने का सात्विक प्रयास करती कविता
उसका जीवन
ReplyDeleteखेतों पर हल चलाने जैसा है
वो बैल बनकर भी
नही उगा पाता
इन खेतों पर अपने हिस्से का भविष्य।
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति है खेतीहर जीवन को बहुत ही निकटता से देखने का सात्विक प्रयास
Sujhawon ewam Hosala afjaai ke liye sabhi mahanubhaawon kaa tahe dil se sukriya...
ReplyDeleteaapke sujhawon ko dhayaan me rakhate hue hee nayi rachanaaye taiyar karungi...
Dhanyawaad