मीना पाण्डे की तीन कविताएँ

मीना पाण्डे हिंदी साहित्यिक क्षितिज में एक चमकता हुवा सितारा है. साहित्य के प्रति समर्पित आप 'सृजन से' त्रैमासिक पत्रिका का संपादन करने के साथ ही 'लोक रंग' पत्रिका के माध्यम से समकालीन साहित्य के साथ-साथ रचनात्मक कला के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट योगदान कर रही हैं, जो कि सराहनीय है और स्तुत्य है. आपके कविता संग्रह- 'संभावना' 'मुक्ति' और 'मेरी आवाज़ सुनो' भी प्रकाशित हो चुके हैं. आपकी रचनाएँ समय-समय पर विभिन्न स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होती रही हैं. आप 'मोहन उप्रेती लोक संस्कृति कला एवम विज्ञान शोध समिति' की फाउंडर सदस्या भी हैं. आज के अंक में रचनाधर्मी मीना पाण्डे की लेखनी से निकली की कुछ कविताएँ पेशेनज़र है..

ग्रामीण युवक

वो पगदण्डी पर
शहर को निहारता युवक
"या" डाकिये के थैले में पडा
एक पुराना खत।

उसका जीवन
खेतों पर हल चलाने जैसा है
वो बैल बनकर भी
नही उगा पाता
इन खेतों पर अपने हिस्से का भविष्य।

उसकी रातें लम्बे पहाडों पर
कोहरे सी छट जाती है
जब वो बूढी ख्वाहिश "औ"
नन्हे सपने
शराब समझकर पी जाता है।

वो शहर की चिमनियों से निकलता
पहाड के पलायन का दर्द
"या" महानगर की धमनियों से बहता
गावों की उम्मीदों का खून।

बचपन मे वो
पाठी जैसा दिखता था
बडा हुआ तो
हर महिने के खत मे तबदील हुआ
"औ" जब चल बसा था
वो अचानक टेलिग्राम हो गया।
***

बचपन के जमाने

पतंग की डोर-सी, सपनों की उडाने दे दो,
दो घडी के लिए, बचपन के जमाने दे दो।

जहां ये मतलबी है, दिल यहां नहीं लगता,
मुझपे एहसान कर, दोस्त पुराने दे दो।

गांव की हाट को बेमोल है रूपया-पैसा,
बूढे दादा की चवन्नी के जमाने दे दो।

थके-थके से हैं, दिन रात, मुझे ठहरने को,
मां के घुटनों के, वो गर्म सिरहाने दे दो।

निगाहें ढूढंती हैं, उन सर्द रातों में, मुझे
फ़िर ख्वाब में, परियों के ठिकाने दे दो।

ये तरसी हैं, बहुत, ला अब तो, मेरी
इस भूख को, दो-चार निवाले दे दो।
***

समाज....

मैं बहस हूं
इस सभा की
इसी जगह मेरे लिए
कई वाद तलाशे जायेंगे।
जब पुंजीवाद
मेरे बदुवे मे खसोटा गया होगा
समाजवाद केबल पर
प्रसारित हो रहा होगा
"औ" घर की खिडकी में
पसरे पडे खेतों पर
दूर तक उग आया होगा
मार्क्सवाद ही मार्क्सवाद।
***
Meena Pandey
Address- M-3 MIG Flat, C-61 Vaishav Apartment
Shalimar Garden-2, Sahibabad, Gaziabad
Uttar Pradesh, Pin-201005

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18 Responses to मीना पाण्डे की तीन कविताएँ

  1. इस भूख को, दो-चार निवाले दे दो।

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  2. मीना पाण्डेयजी की तीनों कवितायें बहुत ही अच्छी है...

    थके-थके से हैं, दिन रात, मुझे ठहरने को,
    मां के घुटनों के, वो गर्म सिरहाने दे दो।

    नई पीढी से जो आस और सपने हम देखते हैं, यह पढ़कर लगता है की सच हो रहा है...|

    ReplyDelete
  3. आपकी दूसरी रचना, न जाने क्‍यूँ आभास दे रही है कि ग़ज़ल की दिशा में बढ़ते बढ़ते एकाएक किसी और दिशा को पकड़ गयी, जैसे कुछ जल्‍दी रही हो रचना पूर्ण करने की। मैं तो इसी रचना को एक बार फिर एक परिपूर्ण ग़ज़ल के रूप में देखना चाहूँगा।

    ReplyDelete
  4. वो शहर की चिमनियों से निकलता
    पहाड के पलायन का दर्द
    "या" महानगर की धमनियों से बहता
    गावों की उम्मीदों का खून।
    yeh panktiyan aapke sochne ki disha bata rhai hai bahut sundar abhivyakti .badhai

    ReplyDelete
  5. पतंग की डोर-सी, सपनों की उडाने दे दो,
    दो घडी के लिए, बचपन के जमाने दे दो।

    जहां ये मतलबी है, दिल यहां नहीं लगता,
    मुझपे एहसान कर, दोस्त पुराने दे दो।

    गांव की हाट को बेमोल है रूपया-पैसा,
    बूढे दादा की चवन्नी के जमाने दे दो।

    थके-थके से हैं, दिन रात, मुझे ठहरने को,
    मां के घुटनों के, वो गर्म सिरहाने दे दो।

    निगाहें ढूढंती हैं, उन सर्द रातों में, मुझे
    फ़िर ख्वाब में, परियों के ठिकाने दे दो।

    ये तरसी हैं, बहुत, ला अब तो, मेरी
    इस भूख को, दो-चार निवाले दे दो।





    बहुत ही बेहतरीन, बहुत खूब!


    प्रेमरस.कॉम

    ReplyDelete
  6. इला प्रसाद ने कहा-
    मीना जी की कवितायें अच्छी हैं | ब्लॉग पर प्रतिक्रया देने की कोशिश में असफल रही , इसलिए इ मेल भेज रही हूँ |

    ReplyDelete
  7. वो शहर की चिमनियों से निकलता
    पहाड के पलायन का दर्द
    "या" महानगर की धमनियों से बहता
    गावों की उम्मीदों का खून

    Great , bahut sundar.

    Vipin Panwar "Nishan"

    ReplyDelete
  8. मीना पाण्डे जी से परिचय कराने के लिए धन्यवाद्. "ग्रामीण युवक" तथा "समाज...." प्रभावी लगीं.

    ReplyDelete
  9. "ग्रामीण युवक "ने प्रभावित किया गज़ल के रूप में बचपन के ज़माने भी अच्छी लगी ..

    गांव की हाट को बेमोल है रूपया-पैसा,
    बूढे दादा की चवन्नी के जमाने दे दो।

    ReplyDelete
  10. उसका जीवन
    खेतों पर हल चलाने जैसा है
    वो बैल बनकर भी
    नही उगा पाता
    इन खेतों पर अपने हिस्से का भविष्य।

    बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति है खेतीहर जीवन को बहुत ही निकटता से देखने का सात्विक प्रयास करती कविता

    ReplyDelete
  11. उसका जीवन
    खेतों पर हल चलाने जैसा है
    वो बैल बनकर भी
    नही उगा पाता
    इन खेतों पर अपने हिस्से का भविष्य।

    बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति है खेतीहर जीवन को बहुत ही निकटता से देखने का सात्विक प्रयास

    ReplyDelete
  12. Sujhawon ewam Hosala afjaai ke liye sabhi mahanubhaawon kaa tahe dil se sukriya...

    aapke sujhawon ko dhayaan me rakhate hue hee nayi rachanaaye taiyar karungi...

    Dhanyawaad

    ReplyDelete

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