समीर लाल ’समीर’ की दो कविताएँ


श्री समीर लाल का जन्म २९ जुलाई, १९६३ को रतलाम म.प्र. में हुआ. विश्व विद्यालय तक की शिक्षा जबलपुर म.प्र से प्राप्त कर आप ४ साल बम्बई में रहे और चार्टड एकाउन्टेन्ट बन कर पुनः जबलपुर में १९९९ तक प्रेक्टिस की. सन १९९९ में आप कनाडा आ गये और अब वहीं टोरंटो नामक शहर में निवास करते है. आप कनाडा की सबसे बड़ी बैक के लिए तकनिकी सलाहकार हैं एवं पेशे के अतिरिक्त साहित्य के पठन और लेखन की ओर रुझान है. सन २००५ से नियमित लिख रहे हैं. आप कविता, गज़ल, व्यंग्य, कहानी, लघु कथा आदि अनेकों विधाओं में दखल रखते हैं एवं कवि सम्मेलनों के मंच का एक जाना पहचाना नाम हैं. भारत के अलावा कनाडा में टोरंटो, मांट्रियल, ऑटवा और अमेरीका में बफेलो, वाशिंग्टन और आस्टीन शहरों में मंच से कई बार अपनी प्रस्तुति देख चुके हैं.
आपका ब्लॉग “उड़नतश्तरी” हिन्दी ब्लॉगजगत का विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय नाम है एवं आपके प्रशांसकों की संख्या का अनुमान मात्र उनके ब्लॉग पर आई टिप्पणियों को देखकर लगाया जा सकता है.
आपका लोकप्रिय काव्य संग्रह ‘बिखरे मोती’‘ वर्ष २००९ में शिवना प्रकाशन, सिहोर के द्वारा प्रकाशित किया गया. लघु उपन्यासिका ’सफर की सरगम’ एवं कथा संग्रह ‘द साईड मिरर’ (हिन्दी कथाओं का संग्रह) प्रकाशन में है और शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है.
सम्मान: आपको सन २००६ में तरकश सम्मान, सर्वश्रेष्ट उदीयमान ब्लॉगर, इन्डी ब्लॉगर सम्मान, विश्व का सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दी ब्लॉग, वाशिंगटन हिन्दी समिती द्वारा साहित्य गौरव सम्मान सन २००९ एवं अनेकों सम्मानों से नवाजा जा चुका है.
समीर लाल का ईमेल पता है: sameer.lal@gmail.com

मेरी माँ लुटेरी थी: समीर लाल ’समीर’

माँ!!
तेरा
सब कुछ तो दे दिया था तुझे
विदा करते वक्त
तेरा
शादी का जोड़ा
तेरे सब जेवर
कुंकुम, मेंहदी, सिन्दूर
ओढ़नी
नई
दुल्हन की तरह
साजो
सामान के साथ
बिदा
किया था...
और हाँ
तेरी छड़ी
तेरी ऐनक,
तेरे नकली दांत
पिता
जी ने
सब कुछ ही तो
रख दिये थे
अपने हाथों...
तेरी
चिता में |

लेकिन
फिर भी
जब से लौटा हूँ घर
बिठा कर तुझे
अग्नि रथ पर
तेरी छाप क्यों नजर आती है?

वह धागा
जिसे तूने मंत्र फूंक
कर दिया था जादुई
और बांध दिया था
घर
मौहल्ला,
बस्ती
सभी को एक सूत्र में
आज
अचानक लगने लगा है
जैसे टूट गया वह धागा
सब कुछ
वही तो है
घर
मौहल्ला
बस्ती
और वही लोग
पर घर की छत
मौहल्ले का जुड़ाव
और
बस्ती का सम्बन्ध
कुछ ही तो नहीं
सब कुछ लुट गया है न!!
हाँ माँ !
सब कुछ
और ये सब कुछ
तू ही तो ले गई है लूट कर
मुझे पता है
जानता हूं न बचपन से
तेरा लुटेरापन |

तू ही तो लूटा करती थी
मेरी पीड़ा
मेरे दुख
मेरे सर की धूप
और छोड़ जाती थी
अपनी लूट की निशानी
एक मुस्कान
एक रस भीगा स्पर्श
और स्नेह की फुहार
अब सब कुछ लुट गया है!!

स्तम्भित हैं
पिताजी तो
यह भी नहीं बताते
आखिर
कहां लिखवाऊँ
रपट अपने लुटने की
घर के लुटने की
बस्ती और मौहल्ले के लुटने की
और सबसे अधिक
अपने समय के लुट जाने की...
***

आज फिर रोज की तरह
माँ याद आई!!
माँ
सिर्फ मेरी माँ नहीं थी
माँ
मेरे भाई की भी
माँ थी
और भाई की बिटिया की
बूढ़ी दादी..
और
मेरी बहन की
सिर्फ माँ नहीं
एक सहेली भी
एक हमराज...
और फिर उसकी बेटियों की
प्यारी नानी भी वो ही...
उनसे बच्चों सा खेलती नानी...
वो सिर्फ मेरी माँ नहीं
गन्सु काका की
माँ स्वरुप भाभी भी
और राधे ताऊ की
बेटी जैसी बहु भी...
दादा की
मूँह लगी बहू
दादी की आदेशों की पालनकर्ता
उनकी परिपाटी की मूक शिष्या..
उन्हें आगे ले जाने को तत्पर...
और नानी की
प्यारी बिटिया
वो थी
अपनी छोटी बहिन और भाईयों की दीदी
और अपनी दीदी की नटखट छुटकी..
नाना का अरमान
वो राधा की सहेली ही नहीं
माँ सिर्फ मेरी ही नहीं..
उसकी बेटी की भी
माँ थी...
माँ
कितना कुछ थी..
बस और बस,
माँ सिर्फ माँ थी..
हर रुप में..
हर स्वरुप में..
मगर फिर भी
सिर्फ मेरी ही नहीं...
माँ हर बार
सिर्फ माँ थी.
अब
माँ नहीं है
इस दुनिया में...
वो मेरे पिता की
पत्नी, बल्कि सिर्फ पत्नी ही नहीं
हर दुख सुख की सहभागी
उनकी जीवन गाड़ी का
दूसरा पहिया...
अब
पिता छड़ी का सहारा लेते हैं..
और फिर भी
लचक कर चलते हैं...
माँ!!
जाने क्या क्या थी
माँ थी
मेरा घर
वो गई
मैं बेघर हुआ!
***
-समीर लाल ’समीर’

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30 Responses to समीर लाल ’समीर’ की दो कविताएँ

  1. अदभुद कविता.. माँ के प्रति ऐसी कविता नहीं पढी

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  2. समीर जी हिंदी ब्लागिंग में तो सर्वोपरी स्थान रखते ही हैं. साहित्य की अन्य विधाओं में उनका दखल भी आश्चर्यचकित करता है. आज के समय में पेशेवर आदमी के लिये हिंदी साहित्य की इस तरह सेवा करना एक जुनुन ही कहा जायेगा. हिंदी ब्लागिंग का शायद ही कोई ब्लाग होगा जहां उडनतश्तरी की सबसे पहले उपस्थिति दर्ज ना हो.

    मेरी माँ लुटेरी थी उनकी बहुत ही चर्चित और लोकप्रिय रचना है. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  3. बेहद मार्मिक कविता है,जितनी तारीफ़ की जाए वह कम है ।

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  4. nichit hi bhai smir ne maa ke prti apni shrddha antrmn se vykt ki hai un ka maa ke prti apaar smman v aadr bhi is me jhlkta hai buht se bimb bhi sundr hain pr--
    lutri shbd mmta ko vykt kisi bhi trh nhi kr rha hai hr shbd ka apna ek privesh hota hai us ka sankritik phloo hota hai at:maa ke mmtv ko yh shbd nhi diya ja skta shbd ko uchit chyn hi to sahity srijn kee ksauti hai
    aasha hai bhai smir ise antha nhi lenge mujhe jo lga vh kah diya hai
    bhai smir mere utsah vrdhnke liye sda mere blog pr sneh dete rhe hain main aabhari hoon pr apni bat khne ko bhi mjboor hoon

    ReplyDelete
  5. समीरजी,

    आपकी कविता एक ही बार में नहीं पढ़ पाया... आँखे नम हो गयी तो आंसूओं के बीच में से.... धुंधला सा चहेरा.... माँ !

    अरे भी ! माँ को आपने नए रूप में रखी है..... जैसी माँ लुटेरी थी, वैसे ही आप ! बेटे जो उनके हो... जो हमारा दिल ही लुट लिया ....!

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  6. नई दृष्टि मां को देखने की ।

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  7. ---------------------------------
    अविनाश वाचस्पति ने कहा-
    मार्मिक अभिव्‍यक्ति। इस लुटने में ही जुटना है। जुटे हुए हैं हम सब। उसी लूट की बदौलत। अच्‍छी है यह लत। बिना इसके होती है दुर्गत।
    सादर/सस्‍नेह

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  8. bahut nayaab! Atyant Bhavpoorn!"MAA tujhe salaam"!!!

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  9. मॉं, एक शब्‍द, जो अनंतकाल से हर जन्‍म लेने वाले को अंदर तक स्‍पंदित करता रहा है, उसे कविताओं में जीने के इस पुत्र-प्रयास को नमन।

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  10. मार्मिक अभिव्यक्ति.
    बधाई.

    [लेकिन शीर्षक चौंकाने वाला होने के कारण कविता की संवेदना को नुकसान पहुँचाता सा लग रहा है. क्षमा करेंगे.]

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  11. माँ के प्रति मार्मिक अभिव्‍यक्ति..... आँखे नम हो गयी

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  12. सर जी,
    सन्न हुये बैठे हैं बस्स।

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  13. mazaa aa gaya sameer ji ki rachnaayein padh ke.

    और फिर उसकी बेटियों की
    प्यारी नानी भी वो ही...

    wah wah wah

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  14. समीर भैया ने बहुत नवाचारी विधा से लिखी इन दोनों कविताओं में पहले वाली ने ज्यादा कमाल किया है.दिल को तो चुने का काम दोनों ने किया है.भाव को उपर रखती हुई प्रतीत होती इन कविताओं के ज़रिए समाज के कथित नारी चिंतको की तरफ कुछ तो इशारा किया है मगर यहीं और भी कहने की गुन्जाईस रह गई लगती है. मेरी कविता में मैंने औरत को कहने का प्रयास किया था.कि
    मांगती न बोलती
    जागती दिन-रात है
    रोकती न चिड़ती
    सादगी की जात है
    नोचती न पूछती
    पर सोचती हर बात है
    सिंचती वो रोपती
    जिन्दगी के बाग़ को
    जोड़ती वो मोड़ती
    टूटती हर बात को
    लिपती और ढ़ोरती
    कहती हर दीवार है
    अलिखे को बांचती वो
    लिखे का मूल सार है
    बांटती और जापती
    खुशी के हर राग को
    ढूँढती और ढांकती
    पीड़ के विलाप को
    नाचती वो कूदती
    अवसरों पर बोलती
    चुप्पियों को चुनती
    वो मांगती न बोलती
    मिले हुए को भोगती

    --
    सादर,

    माणिक;संस्कृतिकर्मी
    17,शिवलोक कालोनी,संगम मार्ग, चितौडगढ़ (राजस्थान)-312001
    Cell:-09460711896,http://apnimaati.com
    My Audio Work link http://soundcloud.com/manikji

    ReplyDelete
  15. और छोड़ जाती थी
    अपनी लूट की निशानी
    एक मुस्कान
    एक रस भीगा स्पर्श
    और स्नेह की फुहार
    अब सब कुछ लुट गया है!!

    माँ के प्रति ऐसी संवेदना ने आँखें नम कर दीं ..बहुत भावप्रवण रचनाएँ ..

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  16. आअद्भुत सुन्दर रचना। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  17. samir jee ki ye dono rachnayen man ko chhu gayi..wastaw me maa shabd ka arth jaise bhi lagayen...koi aur dusra nata iske aas paas nahi aa sakta...anupam behad samvedanshil rachnaayen.

    ReplyDelete
  18. माँ थी
    मेरा घर
    वो गई
    मैं बेघर हुआ!

    ReplyDelete
  19. समीर जी की ये कविता जब भी पढती हूँ आँखें नम हो जाती हैं……………बेहद भावप्रवण्।

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  20. समीर भाई को जितन पढ्त हूँ उतना ही एक नया रूप सामने आता है .... बहुत संवेदनशील दिल के स्वामी ... जिंदादिल इन्सान को मेर नमन .

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  21. समीर जी की लेखनी का तो कहना ही क्या..बेहतरीन रचनाये हैं दोनों.

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  22. समीर जी एक बार फिर रुला दिया | मुझे मेरी माँ की याद आ गई |

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  23. आपका आभार....समीर जी से इस तरह मिलवाने का....वैसे तो किसी परिचय के मोहताज नहीं है वे, पर आपने उनके परिचय को जिस तरह समेटा है काबिले तारीफ़ है ..उनकी कविताएं..एक से एक ...सहेजने योग्य....माँ पर जितना कहा जाए कम है ....
    कुछ लाईने लिखी थी --

    सबकी माँ,
    हाँ भाई हाँ,
    माँ तो माँ,
    बोले न कभी - ना,
    दिल पुकारे गा-
    उई-माँ,उई-माँ,
    मन को गयी भा,
    उनको भी दो ला,
    जिनकी ना हो माँ,
    खुश हों वो भी पा,
    जीवन भर करे--हा,हा,हा।

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  24. माँ वह शख्स है जो हर वक्त याद आती है. जाने अनजाने में भी कष्ट में माँ को ही पुकारते हैं. माँ को अच्छी श्रद्धांजलि अर्पित की है. उसके व्याप्त होने के सारे सिरे आपने बयाँ किया हैं फिर वो गयी ही कहाँ है? हमेशा अपने बच्चों के पास रहती है.

    ReplyDelete
  25. मैं आपके ब्लॉग पर कई बार प्रयत्न करके भी टिप्पणी नहीं डाल पाई
    कविताए और लेख तो कई बार पढे |तब मुझे टिप्पणी पोस्ट करना नहीं आता था |अब मुझे ठीक से कम्पूटर ऑपरेट करना आ गया है |आज की कविता बहुत भावुक कर गई |बहुत बधाई इस पोस्ट के लिए |
    आशा

    ReplyDelete
  26. इसकी- उसकी, तेरी-मेरी, मां सबकी एक सी होती है!

    मां का दिल होता पाक साफ़, मां होती पक्का मोती है!!

    बहुत उम्दा रचना!

    ReplyDelete
  27. ओह..आंखें नम कर देने वाली रचना...
    समीर लाल जी का लेखन जादू भरा है.

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  28. माँ थी
    मेरा घर
    वो गई
    मैं बेघर हुआ!
    Bahut hi marmik, abhivyakti jo ahr dil ke kone mein tees bankar palrahi hai..Maan hoti hi aisi hai par manyata mahatvapoorn hai..

    Rishta vo hi nibhayega Devi
    Jisko rishta samajh mein aaya hai

    ReplyDelete
  29. समीर जी ,बहुत विलम्ब से देख पा रहा हूँ ,आप ने 'माँ ' के प्रति अपनी संवेदना अलग अंदाज़ में व्यक्त की है ,प्रसंशनीय है . 'बधाई .

    ReplyDelete

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