मूल नाम- वेद प्रकाश शर्मा
जन्म – 9 अप्रैल, 1956 ।
शिक्षा- एम. ए. (हिंदी), पी० एचडी. (नागार्जुन के साहित्य में राजनीतिक चेतना) ।
प्रकाशन- कविता कहानी उपन्यास व आलोचना पर निरंतर लेखन ।
कृतियाँ- मधुरिमा (काव्य नाटक), आख़िर वह क्या करे (उपन्यास), बीत गये वे पल, (संस्मरण), आधुनिक हिंदी साहित्य में नागार्जुन (आलोचना), भारत में जातीय साम्प्रदायिकता (उपन्यास),
अनुवाद- जापानी तथा पंजाबी भाषाओँ में रचनाओं का अनुवाद ।
सहभागिता- हिंदी जापानी कवि सम्मेलनो में ।
संबंद्धता- अध्यक्ष - भारतीय साहित्यकार संघ
संयोजक - सामाजिक न्याय मंच
शोध सहायक - अंतरराष्ट्रीय पुनर्जन्म एवं मृत्यु उपरांत जीवन शोध संस्थान भारत
सम्पादकीय सलाहकार - लोक पुकार साप्ताहिक पत्र
परामर्शदाता - समवेत सुमन ग्रन्थ माला
सलाहकार - हिमालय और हिंदुस्तान
सदस्य - सलाहकार समिति नेहरु युवा केंद्र, फरीदाबाद, हरयाणा
विशेष प्रतिनिधि - कल्पान्त मासिक पत्रिका
उपाध्यक्ष - हम कलम साहित्यिक संस्था
पूर्व प्रांतीय संगठन मंत्री -अखिल भारतीय साहित्य परिषद हरियाणा
मुझे सामने देख कर ही
शायद उभरीं थी
तुम्हारे चेहरे पर विषाद की रेखाएं
मुझे भी हुई थी ग्लानि उन से
परन्तु अगले ही क्षण
समुद्र में उठे ज्वार सी
शांत रेखाओं में परिवर्तित होते
देखा था मैंने उन को
शायद क्षमा कर दिया होगा तुम ने मुझे
अपनी सहृदयता और
नेह शीलता के कारण
यही था मेरे लिए
जीवन का
सर्वाधिक सुखद क्षण
क्योंकि अवश्य ही तुमने
जान ली होगी
मेरी विवशता और निर्दोषता
हमेशा अनुकूलताओं के ही लिए ही
आग्रह था मेरा
जैसा मुझे अच्छा लगे
उसे ही उचित समझना
कौन सा न्याय था मेरा
परन्तु फिर भी तुम
हिम खंड सी गलती रहीं
मेरी अनुकूलताओं के लिए
उस के प्रवाह को बनाये रखने के लिए
तुम कठोर चट्टान क्यों नही हुईं
मेरी इन व्यर्थ अनुकूलताओं को
रोकने के लिए
जो बर्बरता से अधिक
कुछ भी न थीं
शायद तुम्हें पता भी था कि
कहाँ है मुझ में इतना साहस
जो चट्टान से टकराता
या तो वापिस मुड जाता या
झील बन कर वहीं ठहर जाता
जो दोनों ही सम्भवत:
पसंद नही थे तुम्हे
परन्तु कोई तो रास्ता
निकलना चाहिए था
उस हिम खंड को गलाने के बजाय भी
ताकि बचा रहता तुम्हारा
रूपहला अस्तित्व और मेरी अनुकूलताएँ ||
मेरे अहं को ले कर
उठाये गये तुम्हारे प्रश्न
निश्चित ही सार्थक होंगे
परन्तु बचा ही कहाँ
मेरा अहं
जब तुमने
निरुतर कर दिया मुझे
अपनी स्नेह सिक्त दृष्टि से |
निश्चय ही तुम्हें चुभे होंगे
मेरे कर्कश ,कटु और कठोर शब्द
परन्तु रस सिक्त कर दिया था
तुमने मुझे
अपनी अमृत सी मधुर वाणी से |
निश्चित ही मेरी नासिका
संकुचित हुई होगी
परन्तु मलय सिक्त कर दिया था
तुमने अपनी शीतल सुबास से |
निश्चय ही मेरा रोम रोम
शूल सा रहा होगा तुम्हारे लिए
परन्तु रोमांचित कर दिया तुम ने मुझे
अपने सुकोमल स्पर्श से ||
तुम्हारा मौन
कितना कोलाहल भरा था
लगा था
कहीं बादलों की गर्जन के साथ
बिलजी न तडक उठे
तुम्हारे मौन का गर्जन
शायद समुद्र के रौरव से भी
अधिक भयंकर रहा होगा
और उस में निरंतर
उठी होंगी उत्ताल तरंगें ,
तुम्हारे मौन में उठते ही रहे होंगे
भयंकर भूकम्प
जिन से हिल गया होगा
पृथ्वी से भी बड़ा तुम्हारा हृदय
इसी लिए मैं कहता हूँ कि
तुम अपना मौन तोड़ दो
और बह जाने दो
अपने प्रेम की अजस्र धारा
भागीरथी सी पवित्र व शीतल
दुग्ध सी धवल
ज्योत्स्ना सी स्निग्ध व सुंदर
और अमृत सी अनुपम
सागर
वह तो कुछ भी गहरा नही था
तुम्हारे मन के आगे
आखिर अब था ही क्या उस में
काम धेनु ,उर्वशी ,रत्न और
अमृत आदि तो
पहले ही निकल लिए गये हैं उस में से
परन्तु तुम्हारा मन तो
अब भी अथाह भंडार है -
प्यार का ,ममता का, स्नेह का ,
सम्बल का ,प्रेरणा का
और न जाने कौन कौन से अमूल्य रत्नों का
बेशक
अपार करुणा ,व्यथा ,पीड़ा ,
वेदना और न जाने क्या क्या
अब भी समाहित होता जा रहा है
तुम्हारे मन में
परन्तु फिर भी उथली नही है
जिस की थाह सागर सी
सोचता हूँ
कितना गहरा है तुम्हारा मन
सागर से तो अनेक गुना गहरा
और सामर्थ्यवान भी
जिस में समाप्त नही होता है
उर्वशी का लावण्य ,
कामधेनु की समृद्धि ,
पीड़ा का ममत्व ,
लक्ष्मी का विलास
और तृप्तिं का अमृत
***
आपकी सभी कविताएं लाजवाब हैं लेकिन मेरी अनुकूलताएं और मौन बहुत अच्छी लगी। इतनी सार्थक रचनाएं पढ़वाने के लिए धन्यवाद। मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है। आप जरूर आएं और अपना आशीर्वाद दें...
ReplyDeletehttp://veenakesur.blogspot.com/
अगर कोई रचना विशेषकर गद्य कविता पंक्ति-दर-पंक्ति अंत तक पढ़ने को ले जाती है तो कहने को क्या रह जाता है। क्या यह मात्र संयोग है कि चारों कवितायें निरंतरता में परस्पर संबंध रखती आभासित होती हैं?
ReplyDeleteवेद व्यथित जी आप की कवितायेँ अर्थ की सार्थकता लिए हुए हैं .बधाई.
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद कुछ अच्छी कवितायेँ पढने को मिलीं ......!!
ReplyDeleteकवि की तीसरी आंख से देखे गए ज़िदगी के कुछ संवेदनशील पलों का अच्छा चित्रण किया है आपने अपनी कविताओं में ..बधाई ।
ReplyDeleteसाखी के पश्चात यहां वेद जी की कविताएं पढ़ने का मौका मिला है। सभी कविताओं की ध्वनि अपने प्रिय के लिए ही है। लेकिन यह ध्वनि अंतिम कविता यानी सागर में सागर की अतल गहराई से आती प्रतीत होती है। वेद जी को बधाई।
ReplyDeleteएक बार फिर नरेन्द्र जी से आग्रह है कि कविताओ के साथ लगाई गई पेटिंग के रचनाकार के नाम का उल्लेख करें तो बेहतर होगा। यह केवल जिज्ञासा की बात नहीं है,बल्कि रचनाकार के सम्मान की भी बात है।
बहुत अच्छी कविताएं।
ReplyDeletebahut saunder rachnai
ReplyDeleteashok jamnani
वेद को जहां तक मैं जान पाया हूं वे मूल रूप से गीतकार हैं. उनकी इन मुक्त कविताओं में भी उनका गीत व्यक्तित्व दिखायी पड़्ता है, शब्दों के स्तर पर भी, अर्थ की अंविति के सन्दर्भ में भी और हर पंक्ति के तट पर छलछलाती सांगीतिक सरसता के अनुभव में भी. अच्छी रचनायें. वेद जी को बधाई, नरेन्द्र को भी.
ReplyDeleteवेद जी की अच्छी रचनायें ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteअलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-2, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
Ved Ji ko thoda bahut padha hai. Aaj ki Kavitaayen utkrisht kavya ka bharpur ahsaas kara gayi.
ReplyDeleteBahut sundar!!
आपकी कविताएँ तो हृदय में घर कर जाती हैं । रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
ReplyDeleteVed Ji,
ReplyDeleteNamaste,
Bhaavpurn kavitayyein hain. Aise lagta hai meri apni vyatha, katha aur man ki tarangon ko aapne shabdon ke sunder jaal mein sajaya hai. Badhaayi.
Surinder Ratti
Mumbai
डॉ वेद व्यथित जी की सारगर्भित रचनाएँ पढवाने के लिए धन्यवाद् - व्यथित जी को बधाई - पेंटिंग्स के बारे मैं भी जानना चाहूँगा
ReplyDeleteइन कविताओं के साथ लगी पेंटिंग्स के कलाकार का नाम 'जोस मैनुअल मरेलो' ( (Artists in the 21st Century) है जो एक स्पनिश मॉडर्न आर्ट पेंटर हैं. ! (सौजन्य-गूगल)
ReplyDeleteवेड जी की रचनाओं से हमारा परिचय कराने के लिए धन्यववाद.
ReplyDeleteVed vyas ji ko padna ek sukhad anubhav hai..bahut hi dil ko apni si lagne wali rachnaon ke liye shubhkamnayein
ReplyDeleteडा. वेद व्यथित इन दिनों काफी अच्छा लिख रहे हैं. समय की नब्ज को पकड़तीं इनकी व्यंग रचनाएँ मैंने काफी पढ़ी हैं. प्रस्तुत पाँचों कविताओं का शब्द-संचयन लाजवाब हैं. 'कहाँ है मुझमें इतना साहस जो चट्टान से टकराता.....या तो वापिस मुड जाता या झील बन कर वहीँ ठहर जाता......' साधुवाद....आशुतोष पाण्डेय
ReplyDeletebahut achchhi lekhni hai...
ReplyDeletemaine sb ke liye aabhar bhai nrendr ke madhym se bheja jai vh smbhvt:use bad me lgayenge
ReplyDeletepr mujhe bhai aashootosh ji se yh kahna hai kiye kvitauen aaj kl li nhi hai vigt lgbhg teen dshk se kilikh rha hoon aur ye yhan prkashit rchnaye km se km do dshk poorv kee hain
मैं समस्त आखर कलश के सुधि पाठकों और समस्त साहित्य प्रेमियों की तरफ से श्री वेद जी का आभार व्यक्त करता हूँ..कि उन्होंने अपनी स्तरीय रचना से हमारा गौरव बढाया.
ReplyDeleteश्री वेद व्यथित जी ने आप आप समस्त सहृदयी मित्रों के नाम सन्देश भेजा है..आपके समक्ष प्रस्तुत है...-:
आखर कलश पर प्रकाशित मेरी रचनाओं को जिन २ सहृदयी मित्रों ने अपना हार्दिक स्नेह व आशीर्वाद दिया है व जिन्होंने अपनी हृदय की गहराइयों से मोती निकल कर टिप्पणी के रूप में भेजे हैं या केवल पढ़ कर रचनाओं का आस्वादन किया है मैं उन सब के प्रति अनिर्वचनीय भावों की हार्दिक गहराइयों से आभार व्यक्त करता हूँ सब से बड़ी बात तो यह है कि भाई नरेंद्र जी ने मेरे जैसे अनाम व्यक्ति की रचनाओ को आखर कलश पर स्थान दिया तथा मेरे लिए और दूसरी बड़ी बात यह रही कि भाई राजेश उत्साही जी ने भी इन को सहज व स्नेह पूर्वक स्वीकारा आभारी हूँ इस बात की हांमी डॉ. सुभाष रॉय जी ने भी भरी है मेरी उन से बात चित हुई थी
सर्व सह्र्द्यी मित्र - वीणा जी ,भाई तिलकराज जी ,सुरेश यादव जी ,हरकीरत हीर जी महेंद्र वर्मा जी ,हास्य फुहार वाले बन्धु ,अशोक जमनानी जी ,डॉ. सुभाष रायजी ,शरद कोकस जी ,राजभाष हिंदी ब्लॉग के बन्धु ,सुलभ जी सहज साहित्य ब्लॉग के रामेश्वर कम्बोज जी ,सुरेश राठी जी राकेश कौशिक जी संध्या गुप्ता जी देवी नागरानी जी व अन्य जो भी मित्र आगे भी अपना स्नेह प्रदान करेंगे सब का बहुत २ हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ
डॉ. वेद व्यथित
डॉ साहब आपकी कवितायेँ बहुत ही अपनी सी लगाती है
ReplyDeleteadbhut,sukhdaye,marmsparshi--aur sabdo ki kami pad jati hai---ved ji ki kavitaye aakho se sedhe dil main utar jati hai,,bahut sukoondayi rachnaye
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी सारी कवितायेँ! इतनी सुन्दर कवितायेँ पढवाने के लिए आभार!
ReplyDeleteकाव्य में शब्द नहीं संवेदनाएं बोल रही हैं, भावुकता और यथार्थता के मध्य कहीं विचारों का अन्तद्व्द्व मुखरित होता सा नजर आता है, कविताएं गहरी थाह लिए है, पढने में कुछ क्षण लगे, समझने में दिन तभी अपनी प्रति्क्रिया देने का साहस हुआ, बधाई
ReplyDeleteबधाई. बड़े ढंग से प्रस्तुत करते हैं आप कवि और उनकी कविताओं को.
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