
नाम- प्रेमचन्द सक्सेना 'प्राणाधार'
पिता- स्व. श्री महेश्वर दयाल सक्सेना
जन्म- ३० जनवरी, १९२६
शिक्षा- एम-ए- हिंदी एवम वैद्य विशारद।
निवास-२८८-अ, गाडीवान, भीमसेन मन्दिर के सामने, मैनपुरी-२०५००१, उत्तर प्रदेश
दूरभाषः- ०९३१९१४०२१८
ज्ञान और विज्ञान की ।
मानव के उत्थान की ।
जन-मानस की प्यारी भाषा,
हिन्दी हिन्दुस्तान की।
बृजभाषा में श्याम छिपे।
अवधी में श्री राम छिपे।
अपढ कबीरा की भाषा में,
निराकार, निष्काम छिपे।
गीता के उपदेश गा रहे-
गाथा जन-कल्याण की।
मीरा की वंदना यही।
तुलसी की अर्चना यही।
सूर, कबीर, नरोत्तम जैसे-
भक्तों की साधना यही।
इनका अन्तर्नाद विधा है,
विधि के नये विधान की।
यह कबीर की भाषा है।
यह रहीम की भाषा है।
सन्त जायसी के रहस्य की-
यही सत्य परिभाषा है।
मुरली के मधुरस में डूबी-
राधा है रसखान की।
जन-जन का अनुराग लिए।
बीते राग-विराग लिए।
महाशान्ति के सागर में यह-
महाक्राँन्ति की आग लिए।
देवांगरी लिपि में बांधे,
महिमा यह बलिदान की।
हर भाषा से ममता है।
आत्मसात की क्षमता है।
इसकी तुलना नहीं किसी से,
और न कोई समता है।
नवरस की जननी ने चिन्ता-
कभी न की विषपान की।
पावन यही देव वाणी।
मोहित है वीणा-पाणी।
शब्द, अर्थ, अनुभूति भाव-
अनुभाव लिए मुखरित प्राणी।
आदिकाल से मनु की हिन्दी-
भाषा है भगवान की।
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हर भाषा से ममता है।
ReplyDeleteआत्मसात की क्षमता है।
इसकी तुलना नहीं किसी से,
और न कोई समता है।
नवरस की जननी ने चिन्ता-
कभी न की विषपान की।
पावन यही देव वाणी।
मोहित है वीणा-पाणी।
शब्द, अर्थ, अनुभूति भाव-
अनुभाव लिए मुखरित प्राणी।
आदिकाल से मनु की हिन्दी-
भाषा है भगवान की।
इतनी अच्छी रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद
आदरणीय दादा प्राणाधार जी को अंतरजाल पर देखना सुखद लग रहा है। मुझे तीन वर्ष मैनपुरी में उनका स्नेह प्राप्त हुआ है। रचना तो उनकी उत्तम है ही।
ReplyDeleteहिन्दी दिवस पर तमाम ब्लागों में जितनी रचनाएं या चर्चा हिन्दी को लेकर आईं हैं उन सब पर यह अकेली कविता भारी है। हम सबको उनकी इस कविता से सीख लेनी चाहिए। बिना किसी और की आलोचना किए या बिना किसी और को नीचा दिखाए उन्होंने हिन्दी के बारे में अपनी स्थापना दी है। उनकी यह स्थापना सीधे हमारे हृदय में उतरती है।
ReplyDeleteआखरकलश का शुक्रिया।
श्रेष्ठ रचना - प्राणाधार जी को सादर प्रणाम
ReplyDelete"हिन्दी दिवस पर तमाम ब्लागों में जितनी रचनाएं या चर्चा हिन्दी को लेकर आईं हैं उन सब पर यह अकेली कविता भारी है"
उत्साही जी के इस कथन का रचना के सन्दर्भ मैं कोई औचित्य नहीं है. इसलिए आखर कलश को ऐसी टिप्पणियों को संशोधित करके प्रकाशित करना चाहिए
हर कवि की अपनी पहचान होती है, आदरणीय प्रेमचन्द जी कविता पहली बार पढ़ी मगर न जाने क्यूँ इस गीत कवि प्रदीप का गीतकाल याद आ गया।
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना है, नरेन्द्र जी, सुनील जी, इस रचना को आखर कलश पर प्रकाशित करने के लिए आपका आभार
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना ...
ReplyDeleteAise hee log Hindee ke pranadhar rahe hain. Pranadhaar jee ko padhakar aur dekhakar hindee ke liye samarpit puraanee peedhee ke saahitykaaron kee yaad aana sahaj hai. ve log keval lekhan men hee hindee naheen hain balki vesh-bhusha men, rahan-sahan men, vyavhaar men bhee hindee hain. aise hindeeseviyon ko naman.
ReplyDeleteनरेन्द्र जी, राकेश जी बात कुछ समझ में नहीं आई। अगर आपको आई हो तो कृपया उसके बारे में लिखें। या राकेश जी ही अपनी बात को फिर से स्पष्ट करें तो बेहतर रहेगा। चूंकि टिप्पणी मेरी थी,अत: समझने की जिज्ञासा है।
ReplyDeleteआदरणीय प्राणाधार जी की हिंदी को समर्पित कविता गरिमामय है और हिंदी के प्रति सच्चा प्रेम जगती है.बधाई.09818032913
ReplyDeleteयह सम्माननीय लोग हमारी अमूल्य धरोहर हैं ।
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